01 क्यों कई लोग प्रार्थना करते हैं फिर भी परमेश्वर की प्रतिक्रिया प्राप्त करने में असफल होते हैं?

प्रार्थना करना हमारे लिए एक तरीका है जिससे हम मसीही परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता बनाए रख सकते हैं। यह विशेष रूप से सुबह और रात के दौरान होता है। हालाँकि, क्या आप इससे हैरान हैं? यद्यपि हम हर दिन प्रार्थना करते हैं, हम ऐसा महसूस करते हैं कि परमेश्वर नहीं है; ऐसा लगता है जैसे हम प्रार्थना करते समय केवल अपने आप से बात कर रहे हैं, और हमारी आत्मा को शांति या खुशी महसूस नहीं होती है। परमेश्वर वफादार है, तो फिर वह हमारी प्रार्थनाओं का जवाब क्यों नहीं देता है? क्या ऐसा हो सकता है कि हमारी प्रार्थनाओं के साथ कुछ समस्याएं हों?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन

धार्मिक अनुष्ठान की प्रार्थनाओं से ज़्यादा परमेश्वर किसी भी दूसरी चीज़ से अधिक घृणा नहीं करता है। परमेश्वर से की गयी प्रार्थनाएँ तभी स्वीकार होती हैं जब वे सच्ची होती हैं। अगर तुम्हारे पास ईमानदारी से कहने को कुछ नहीं है, तो चुप रहो; उसे धोखा देने की कोशिश करते हुए, उससे कितना प्रेम करते हो और उसके प्रति कितने निष्ठावान बने रहना चाहते हो, यह बताते हुए हमेशा झूठे शब्द न बोलो और परमेश्वर के सामने आँख मूँद कर शपथ मत लो। अगर तुम अपनी इच्छाएं पूरी करने के काबिल नहीं हो, तुममें यह दृढ़ निश्चय और आध्यात्मिक कद नहीं है, तो किसी भी हालत में, परमेश्वर के सामने ऐसी प्रर्थना मत करो। यह उपहास होता है। उपहास का मतलब किसी का मखौल उड़ाना, उसके साथ तुच्छता से पेश आना होता है। जब लोग इस प्रकार के स्वभाव के साथ परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं, तो यह धोखे से कम कुछ नहीं होता। बदतर यह है कि अगर तुम अक्सर ऐसा करते हो, तो तुम बहुत घिनौने चरित्र वाले हो। यदि परमेश्वर को तुम्हें इन कर्मों के लिए दंड देना हो, तो इन्हें ईश-निंदा कहा जाएगा! लोगों में परमेश्वर के प्रति आदर नहीं है, वे उसका सम्मान करना नहीं जानते, या नहीं जानते कि उससे प्रेम कैसे करें, उसे कैसे संतुष्ट करें। यदि वे सत्य को स्पष्ट रूप से नहीं समझते, या उनका स्वभाव भ्रष्ट है, तो परमेश्वर इसे जाने देगा। लेकिन वे ऐसे चरित्र के साथ परमेश्वर के सामने चले आते हैं, और परमेश्वर से ऐसे पेश आते हैं जैसे कि अविश्वासी दूसरे लोगों के साथ पेश आते हैं। यही नहीं, वे सत्यनिष्ठा से परमेश्वर के सामने प्रार्थना में घुटने टेकते हैं, इन शब्दों का उपयोग करके उसकी खुशामद करने की कोशिश करते हैं, और सब कर लेने पर उन्हें आत्मनिंदा तो महसूस होती नहीं, बल्कि उन्हें अपने कर्मों की गंभीरता का भी एहसास नहीं होता। स्थिति ऐसी होने पर, क्या परमेश्वर उनके साथ होता है? क्या कोई इंसान जिसके पास परमेश्वर की मौजूदगी है ही नहीं, वह प्रबुद्ध और प्रकाशित हो सकता है? क्या वह सत्य से प्रबुद्ध हो सकता है? (नहीं, नहीं हो सकता।) फिर वे मुसीबत में हैं। क्या तुम लोगों ने कई बार ऐसी प्रार्थना की है? क्या तुम ऐसा अक्सर करते हो? जब लोग बहुत लंबा समय बाहर की दुनिया में बिताते हैं, तो उनसे समाज की गंदगी की बू आती है, उनकी नीच प्रकृति में बढ़ोत्तरी होती है, और उनमें शैतानी ज़हर और जीवनशैली भर जाती है; उनके मुँह से सिर्फ झूठ और छल-कपट के शब्द निकलते हैं, वे बिना सोचे बोलते हैं, या ऐसे शब्द बोलते हैं जिनमें हमेशा उनकी मंशाओं और लक्ष्यों के अलावा कुछ नहीं होता, उनमें विरले ही उचित मंसूबे होते हैं। ये गंभीर समस्याएँ हैं। जब लोग इन शैतानी फलसफों और जीवन शैलियों को ले कर परमेश्वर के सामने जाते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते?

— 'आप सत्‍य की खोज तभी कर सकते हैं जब आप स्‍वयं को जानें' से उद्धृत

मैंने एक ऐसी समस्या पाई है जो सभी लोगों के साथ होती है: जब उनके साथ कुछ होता है तो वे प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आते हैं लेकिन उनके लिए प्रार्थना एक बात है और वो मसला अलग बात। वे मानते हैं कि उनके साथ क्या चल रहा है, यह उन्हें प्रार्थना में नहीं बोलना चाहिए। तुम लोग कभी-कभार ही दिल खोलकर प्रार्थना करते हो और कुछ लोग तो यह भी नहीं जानते हैं कि प्रार्थना कैसे करें। वस्तुतः, प्रार्थना उस बारे में बोलना है जो तुम्हारे हृदय में है, मानो कि तुम सामान्य तौर पर बोल रहे हों। लेकिन, ऐसे लोग भी हैं जो प्रार्थना शुरू करते ही अपनी जगह भूल जाते हैं; वे इस पर ज़ोर देने लगते हैं कि परमेश्वर उन्हें कुछ प्रदान करे, बिना इसकी परवाह किए कि यह उसकी इच्छा के अनुरूप है या नहीं और नतीजतन, उनकी प्रार्थना, प्रार्थना के दौरान ही कमज़ोर पड़ जाती है। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने दिल में तुम जो कुछ भी माँग रहे हों, जिसकी भी तुम्हें ख्वाइश हो; या भले ही ऐसा कोई मुद्दा हो जिसे तुम संबोधित करना चाहते हों, लेकिन जिसे लेकर तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि नहीं है और तुम परमेश्वर से बुद्धि और सामर्थ्य माँग रहे हों या यह कि वह तुम्हें प्रबुद्ध करे—तुम्हारा अनुरोध कुछ भी हो, उसके विन्यास को लेकर तुम्हें समझदार होना चाहिए। यदि तुम समझदार नहीं हो, और घुटनों के बल बैठकर कहते हो, "परमेश्वर, मुझे सामर्थ्य दे; मैं अपनी प्रकृति देख सकूँ; मैं तुझसे काम के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे इस या उस चीज़ के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे निवेदन करता हूँ कि तू मुझे फलां-फलां बना दे...'' तुम्हारे उस "निवेदन करता हूँ" में ज़बरदस्ती वाला तत्त्व है; यह परमेश्वर पर दबाव डालने का प्रयास है, उसे वह करने को मजबूर करना है जो तुम चाहते हो—जिसकी शर्तें तुमने आश्चर्यजनक रूप से पहले ही एकतरफ़ा तय कर ली हैं। जैसा कि पवित्र आत्मा इसे देखता है, तो ऐसी प्रार्थना का क्या प्रभाव हो सकता है जबकि तुमने शर्तें पहले ही निर्धारित कर दी हैं और यह तय कर लिया है कि तुम्हें क्या करना है? प्रार्थना एक खोजपूर्ण, आज्ञाकारी दिल से की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम पर कोई विपत्ति आ गयी हो, और तुम समझ न पा रहे हो कि उसे कैसे संभालो, तो तुम कह सकते हो, "हे परमेश्वर! मैं नहीं जानता कि इस बारे में क्या करूँ। इस मामले में मैं तुझे सन्तुष्ट करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा जानना चाहता हूँ। यह तेरी इच्छानुसार ही हो। मैं तेरी इच्छानुसार कार्य करना चाहता हूँ, अपनी इच्छानुसार नहीं। तू जानता है कि मनुष्य की इच्छा तेरी इच्छा के विपरीत होती है; वह तेरा विरोध करती है और सत्य के अनुरूप नहीं होती। मैं चाहता हूँ कि तू मुझे प्रबुद्ध करे, इस मामले में मेरा मार्गदर्शन करे और मैं तुझे नाराज़ न कर दूँ..." यह लहज़ा प्रार्थना के लिए उपयुक्त है। यदि तुम मात्र यह कहते हो: "हे परमेश्वर, मैं तुझसे मदद और मार्गदर्शन माँगता हूँ, मुझे सही माहौल और सही लोगों का साथ दे और मुझे अपना कार्य अच्छी तरह से करने के योग्य बना...,'' तो तुम्हारी प्रार्थना खत्म हो जाने पर भी तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाये होंगे क्योंकि तुम परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने को कह रहे होंगे।

— 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत

तुम लोगों की प्रार्थनाओं में प्रायः तर्क का अभाव होता है; तुम लोग हमेशा निम्नलिखित स्वर के साथ प्रार्थना करते हो: "हे परमेश्वर! चूँकि तूने मुझे इस कर्तव्य को करने दिया है, अतः जो कुछ भी मैं करता हूँ, उसे तुझे उपयुक्त बनाना होगा ताकि तेरा कार्य बाधित न हो और परमेश्वर के परिवार के हित को हानि न उठानी पड़े। तुझे मुझे बचाना होगा...।" इस प्रकार की प्रार्थना अत्यधिक अतर्कसंगत है, क्या ऐसा नहीं है? जब तुम परमेश्वर की उपस्थिति में आते हो और इस तरह अनुचित ढंग से प्रार्थना करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम लोग में कार्य कर सकता है? यदि तुम सब मसीह की उपस्थति में आए और मुझसे बिना किसी कारण के बात की, तो क्या मैं सुनूँगा? तुम्हें बाहर फेंक दिया जाएगा! क्या पवित्रात्मा की उपस्थिति में होना और मसीह की उपस्थिति होना समान नहीं है? जब तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर की उपस्थिति में आते हो, तो तुम्हें इस बारे में अवश्य सोचना चाहिए कि तर्कसंगत तरह से किस प्रकार बोला जाए और इस बारे में विचार करना चाहिए है कि अपनी भीतरी स्थिति को धर्मनिष्ठता में बदलने में समर्थ होने के लिए क्या कहा जाए। स्वयं को दीन करो, और तब एक प्रार्थना करो और तुम्हें अभिषिक्त किया जाएगा। प्रायः लोग जब प्रार्थना करते हैं, तो वे घुटने के बल बैठेंगे और अपनी आँखों को बन्द करेंगे और वे कुछ नहीं कहेंगे; वे मात्र यह कहेंगे, “हे परमेश्वर, हे परमेश्वर!” वे मात्र ये दो शब्द कहते हैं, वे कुछ और कहे बिना कुछ समय तक यही कहते रहेंगे। ऐसा क्यों है? तुम्हारी स्थिति अच्छी नहीं है! क्या तुम लोगों के ऐसे समय रहे हैं? जहाँ तक तुम लोगों की वर्तमान स्थिति का संबंध है, तुम लोग जानते हो कि तुम लोग क्या करने में समर्थ हो और तुम लोग किस स्तर तक इसे कर सकते हो, और तुम लोग जानते हो तुम लोग कौन हो। हालाँकि, प्रायः तुम्हारी स्थिति असामान्य होती है। कभी-कभी, तुम्हारी स्थिति समायोजित की जाती है, परन्तु तुम नहीं जानते यह कैसे समायोजित की गई थी, और कई बार तुम लोग यह सोचते हुए बिना शब्दों के प्रार्थना करते हो कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग शिक्षित नहीं हो। क्या प्रार्थना करने के लिए तुम्हें शिक्षित होने की आवश्यकता है? प्रार्थना कोई निबन्ध लिखना नहीं है, यह एक सामान्य व्यक्ति के तर्क के अनुसार साधारण रूप से बात करना है। यीशु की प्रार्थना को देखो (यद्यपि उसकी प्रार्थनाओं का यहाँ उल्लेख नहीं है ताकि लोग उसकी जगह और स्थिति को धारण कर सकें): उसने गतसमनी की वाटिका में प्रार्थना की: "यदि हो सके तो...।" अर्थात्, "यदि ऐसा किया जा सके तो।" इसे चर्चा में कहा गया था; उसने नहीं कहा कि "मैं तुझसे निवेदन करता हूँ।" एक समर्पित हृदय के साथ और एक विनीत अवस्था में, उसने प्रार्थना की: "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो" (मत्ती 26:39)। उसने दूसरी बार भी इसी प्रकार प्रार्थना की और तीसरी बार उसने प्रार्थना की: "तेरी इच्छा पूरी हो।" परमपिता परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद, उसने कहा: "तेरी इच्छा पूरी हो।" वह रत्ती भर भी व्यक्तिगत चुनाव किए बिना पूरी तरह से समर्पण करने में समर्थ था। उसने कहा, "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए।" इसका क्या अर्थ हुआ? उसने इस तरह से प्रार्थना की थी क्योंकि उसने मरते दम तक क्रूस पर खून बहाने की उस अत्यधिक पीड़ा पर विचार किया था—और इसमें मृत्यु के मामले का मोटे तौर पर ज़िक्र था—और क्योंकि उसने अभी तक परमपिता परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से नहीं समझा था। यह देखते हुए कि पीड़ा के विचार के बावजूद भी वह इस तरह से प्रार्थना करने में समर्थ था, वह वास्तव में अत्यधिक विनम्र था। प्रार्थना करने का उसका तरीका सामान्य था; उसने अपनी प्रार्थना में कोई शर्त प्रस्तावित नहीं की, न ही उसने कहा था कि कप हटाया जाना है। बल्कि उसका उद्देश्य ऐसी परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को जानना था जिसे वह नहीं समझा था। पहली बार जब उसने प्रार्थना की तो उसे समझ नहीं आया, और उसने कहा: "यदि हो सके तो...परन्तु जैसा तू चाहता है।" उसने विनम्रता की अवस्था में परमेश्वर से प्रार्थना की। दूसरी बार, उसने उसी तरह से प्रार्थना की। कुल मिलाकर, उसने तीन बार प्रार्थना की (निस्सन्देह ये तीन प्रार्थनाएँ मात्र तीन दिनों में नहीं की गई), और अपनी अन्तिम प्रार्थना में, वह परमेश्वर की मंशाओं को पूरी तरह से समझ गया जिसके पश्चात्, उसने कुछ नहीं माँगा। पहली दो प्रार्थनाओं में, उसने विनम्रता की अवस्था में खोज की। हालाँकि, लोग बस इस प्रकार से प्रार्थना नहीं करते हैं। अपनी प्रार्थनाओं में, लोग कहते हैं, "हे परमेश्वर मैं तुझे यह या वह करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मैं तुझसे इस या उस में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मेरे लिए परिस्थितियाँ तैयार करने मैं तुझसे निवेदन करता हूँ...।" हो सकता है कि वो तुम्हारे लिए परिस्थितियों को तैयार ना करे और तुम्हें मुश्किलें झेलने दे। अगर लोग हमेशा यह कहते, "हे परमेश्वर, मैं निवेदन करता हूँ कि तू मेरे लिए तैयारी कर और मुझे शक्ति दे।" इस तरह से प्रार्थना करना बहुत अतार्किक है! प्रार्थना करते समय तुम्हें तर्कसंगत अवश्य होना चाहिए, और तुम्हें ऐसा अवश्य इस आधार पर करना चाहिए कि तुम समर्पण कर रहे हो। अपनी प्रार्थनाओं को सीमांकित मत करो। यहाँ तक कि तुम्हारे प्रार्थना करने से पहले भी, तुम इस प्रकार से सीमांकित कर रहे हो: मुझे परमेश्वर से अवश्य माँगना चाहिए और उससे अमुक-अमुक करवाना चाहिए। प्रार्थना करने का यह तरीका बहुत अतर्कसंगत है। प्रायः, पवित्रात्मा लोगों की प्रार्थनाओं को बिल्कुल नहीं सुनता है, इसलिए उनकी प्रार्थनाएँ नीरस हैं।

— 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत

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02 सच्ची प्रार्थनाएँ क्या हैं?

हम सभी जानते हैं कि हम परमेश्वर में अपनी आस्था रखने के लिए प्रार्थना से दूर नहीं जा सकते। हालांकि, बहुत से लोग स्पष्ट रूप से नहीं समझते हैं कि सच्ची प्रार्थनाएं क्या हैं, और इस प्रकार कई गलत व्यवहार हैं। कुछ लोगों के दिल में बिना शब्द के होते हैं जब वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और वे बस गतियों से गुजर रहे हैं और एक प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। कुछ केवल परमेश्वर के आशीर्वाद और कृपा के लिए प्रार्थना करते हैं। अन्य लोग प्रतिदिन अपनी प्रार्थना में एक ही शब्द कहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसी निबंध को सुनाना। इस तरह प्रार्थना करने के बाद, उनके पास कोई विशेष एहसास नहीं है, और न ही वे अपनी आत्माओं में चले गए हैं, बहुत कम परमेश्वर में उनका विश्वास बढ़ता है। इसलिए, इस तरह की प्रार्थना को सच्ची प्रार्थना नहीं कहा जा सकता है। तो फिर, वास्तव में सच्ची प्रार्थनाएँ क्या हैं?

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन

सच्ची प्रार्थना क्या है? प्रार्थना परमेश्वर को यह बताना है कि तुम्हारे हृदय में क्या है, परमेश्वर की इच्छा को समझकर उससे बात करना है, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके साथ संवाद करना है, स्वयं को विशेष रूप से परमेश्वर के निकट महसूस करना है, यह महसूस करना है कि वह तुम्हारे सामने है, और यह विश्वास करना है कि तुम्हें उससे कुछ कहना है। तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा हृदय प्रकाश से भर गया है और तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर कितना प्यारा है। तुम विशेष रूप से प्रेरित महसूस करते हो, और तुम्हारी बातें सुनकर तुम्हारे भाइयों और बहनों को संतुष्टि मिलती है। उन्हें लगेगा कि जो शब्द तुम बोल रहे हो, वे उनके मन की बात है, उन्हें लगेगा कि जो वे कहना चाहते हैं, उसी बात को तुम अपने शब्दों के माध्यम से कह रहे हो। यही सच्ची प्रार्थना है। एक बार जब तुम सच्चे मन से प्रार्थना करने लगोगे, तुम्हारा दिल शांत हो जाएगा और संतुष्टि का एहसास होगा। परमेश्वर से प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है, और तुम महसूस करोगे कि जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने से अधिक मूल्यवान या अर्थपूर्ण और कुछ नहीं है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी प्रार्थना प्रभावी रही है। क्या तुमने कभी इस तरह से प्रार्थना की है?

और प्रार्थना की विषयवस्तु के बारे में क्या खयाल है? तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे हृदय की सच्ची अवस्था और पवित्र आत्मा के कार्य के अनुरूप धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए; तुम परमेश्वर से उसकी इच्छा और मनुष्य से क्या अपेक्षा रखता है, इसके अनुसार उसके साथ संवाद करते हो। जब तुम प्रार्थना का अभ्यास शुरू करो, तो सबसे पहले अपना हृदय परमेश्वर को दे दो। परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास न करो—केवल अपने हृदय में ही परमेश्वर से बात करने की कोशिश करो। जब तुम परमेश्वर के समक्ष आते हो, तो इस तरह बोलो : "हे परमेश्वर, आज ही मुझे एहसास हुआ कि मैं तुम्हारी अवज्ञा करता था। मैं वास्तव में भ्रष्ट और नीच हूँ। मैं केवल अपना जीवन बर्बाद करता रहा हूँ। आज से मैं तुम्हारे लिए जीऊँगा। मैं एक अर्थपूर्ण जीवन जीऊँगा और तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। तुम्हारा आत्मा मुझे लगातार रोशन और प्रबुद्ध करता हुआ हमेशा मेरे अंदर काम करे। मुझे अपने सामने मज़बूत और ज़बर्दस्त गवाही देने दो। शैतान को हमारे भीतर प्रकाशित तुम्हारी महिमा, तुम्हारी गवाही और तुम्हारी विजय का प्रमाण देखने दो।" जब तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारा हृदय पूरी तरह से मुक्त हो जाएगा। इस तरह से प्रार्थना करने के बाद तुम्हारा हृदय परमेश्वर के ज्यादा करीब हो जाएगा, और यदि तुम अकसर इस तरह से प्रार्थना कर सको, तो पवित्र आत्मा तुममें अनिवार्य रूप से काम करेगा। यदि तुम हमेशा इस तरह से परमेश्वर को पुकारोगे, और उसके सामने अपना संकल्प करोगे, तो एक दिन आएगा परमेश्वर के सामने जब तुम्हारा संकल्प स्वीकृत हो जाएगा, जब तुम्हारा हृदय और तुम्हारा पूरा अस्तित्व परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिया जायेगा, और तुम अंततः उसके द्वारा पूर्ण कर दिए जाओगे। तुम लोगों के लिए प्रार्थना का अत्यधिक महत्व है। जब तुम प्रार्थना करते हो और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करते हो, तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर द्वारा प्रेरित होगा, और तुम्हें तब परमेश्वर से प्रेम करने की ताकत मिलेगी। यदि तुम हृदय से प्रार्थना नहीं करते, यदि तुम पूरे खुले हृदय से परमेश्वर से संवाद नहीं करते, तो परमेश्वर के पास तुममें कार्य करने का कोई तरीका नहीं होगा। यदि प्रार्थना करने और अपने हृदय की बात कहने के बाद, परमेश्वर के आत्मा ने अपना काम शुरू नहीं किया है, और तुम्हें कोई प्रेरणा नहीं मिली है, तो यह दर्शाता है कि तुम्हारे हृदय में ईमानदारी की कमी है, तुम्हारे शब्द असत्य और अभी भी अशुद्ध हैं। यदि प्रार्थना करने के बाद तुम्हें संतुष्टि का एहसास हो, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ परमेश्वर को स्वीकार्य हैं और परमेश्वर का आत्मा तुममें काम कर रहा है। परमेश्वर के सामने सेवा करने वाले के तौर पर तुम प्रार्थना से रहित नहीं हो सकते। यदि तुम वास्तव में परमेश्वर के साथ संवाद को ऐसी चीज़ के रूप में देखते हो, जो सार्थक और मूल्यवान है, तो क्या तुम प्रार्थना को त्याग सकते हो? कोई भी परमेश्वर के साथ संवाद किए बिना नहीं रह सकता। प्रार्थना के बिना तुम देह में जीते हो, शैतान के बंधन में रहते हो; सच्ची प्रार्थना के बिना तुम अँधेरे के प्रभाव में रहते हो। मुझे आशा है कि तुम सब भाई-बहन हर दिन सच्ची प्रार्थना करने में सक्षम हो। यह नियमों का पालन करने के बारे में नहीं है, बल्कि एक निश्चित परिणाम प्राप्त करने के बारे में है। क्या तुम सुबह की प्रार्थनाएँ करने और परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने के लिए, अपनी थोड़ी-सी नींद का त्याग करने को तैयार हो? यदि तुम शुद्ध हृदय से प्रार्थना करते हो और इस तरह परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, तो तुम उसे अधिक स्वीकार्य होगे। यदि हर सुबह तुम ऐसा करते हो, यदि हर दिन तुम परमेश्वर को अपना हृदय देने का अभ्यास करते हो, उससे संवाद और उससे जुडने की कोशिश करते हो, तो निश्चित रूप से परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा को समझने में अधिक सक्षम हो पाओगे। तुम कहते हो : "हे परमेश्वर! मैं अपना कर्तव्य पूरा करने को तैयार हूँ। केवल तुम्हें ही मैं अपने पूरा अस्तित्व समर्पित करता हूँ, ताकि तुम हममें महिमामंडित हो सको, ताकि तुम हमारे इस समूह द्वारादी गई गवाही का आनंद ले सको। मैं तुमसे हममें कार्य करने की विनती करता हूँ, ताकि मैं तुमसे सच्चा प्यार करने और तुम्हें संतुष्ट करने और तुम्हारा अपने लक्ष्य के रूप में अनुसरण करने में सक्षम हो सकूँ।" जैसे ही तुम यह दायित्व उठाते हो, परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पूर्ण बनाएगा। तुम्हें केवल अपने फायदे के लिए ही प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर की इच्छा का पालन करने और उससे प्यार करने के लिए भी तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए। यह सबसे सच्ची तरह की प्रार्थना है। क्या तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के लिए प्रार्थना करता है?

अतीत में, तुम्हें नहीं पता था कि प्रार्थना कैसे करनी चाहिए, और तुमने प्रार्थना के मामले की उपेक्षा की। अब तुम्हें प्रार्थना करने के लिए खुद को प्रशिक्षित करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। यदि तुम परमेश्वर से प्रेम करने के लिए अपने भीतर की ताकत का आह्वान करने में असमर्थ हो, तो तुम प्रार्थना कैसे करते हो? तुम कहते हो: "हे परमेश्वर, मेरा हृदय तुमसे सच्चा प्रेम करने में असमर्थ है। मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, लेकिन मेरे पास ताकत की कमी है। मैं क्या करूँ? तुम मेरी आध्यात्मिक आँखें खोल दो, तुम्हारा आत्मा मेरे हृदय को प्रेरित करे। इसे ऐसा बना दो कि जब मैं तुम्हारे सामने आऊँ, तो वह सबकुछ फेंक दूँ, जो नकारात्मक है, किसी भी व्यक्ति, विषय या चीज़ से विवश होना छोड़ दूँ, और अपना हृदय तुम्हारे सामने पूरी तरह से खोलकर रख दूँ, और ऐसा कर दो कि मैं अपना संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारे सामने अर्पण कर सकूँ। तुम जैसे भी मेरी परीक्षा लो, मैं तैयार हूँ। अब मैं अपनी भविष्य की संभावनाओं पर कोई ध्यान नहीं देता, और न ही मैं मृत्यु के जुए से बँधा हूँ। ऐसे हृदय के साथ जो तुमसे प्रेम करता है, मैं जीवन के मार्ग की तलाश करना चाहता हूँ। हर बात, हर चीज़—सब तुम्हारे हाथों में है; मेरा भाग्य तुम्हारे हाथों में है और तुमने मेरा पूरा जीवन अपने हाथों में थामा हुआ है। अब मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, और चाहे तुम मुझे अपने से प्रेम करने दो या न करने दो, चाहे शैतान कितना भी हस्तक्षेप करे, मैं तुमसे प्रेम करने के लिए कृतसंकल्प हूँ।" जब तुम्हारे सामने इस तरह की समस्या आए, तो इस तरह से प्रार्थना करना। यदि तुम हर दिन इस तरह प्रार्थना करोगे, तो धीरे-धीरे परमेश्वर से प्रेम करने की तुम्हारी ताकत बढ़ती जाएगी।

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

प्रार्थना केवल यन्त्रवत् ढंग से करना, प्रक्रिया का पालन करना, या परमेश्वर के वचनों का पाठ करना नहीं है। दूसरे शब्दों में, प्रार्थना कुछ वचनों को रटना नहीं है और यह दूसरों की नकल करना नहीं है। प्रार्थना में व्यक्ति को उस स्थिति तक पहुँचना चाहिए, जहाँ अपना हृदय परमेश्वर को दिया जा सके, जहाँ वह अपना हृदय खोलकर रख सके, ताकि वह परमेश्वर द्वारा प्रेरित हो सके। यदि प्रार्थना को प्रभावी होना है, तो उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने पर आधारित होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचनों के भीतर से प्रार्थना करने से ही व्यक्ति अधिक प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकता है। सच्ची प्रार्थना की अभिव्यक्तियाँ हैं : एक ऐसा हृदय होना, जो उस सबके लिए तरसता है जो परमेश्वर चाहता है, और यही नहीं, जो वह माँगता है उसे पूरा करने की इच्छा रखता है; उससे घृणा करना जिससे परमेश्वर घृणा करता है, और फिर इस आधार पर इसकी कुछ समझ प्राप्त करना, और परमेश्वर द्वारा प्रतिपादित सत्यों के बारे में कुछ ज्ञान और स्पष्टता हासिल करना। प्रार्थना के बाद यदि संकल्प, विश्वास, ज्ञान और अभ्यास का मार्ग हो, केवल तभी उसे सच्ची प्रार्थना कहा जा सकता है, और केवल इस प्रकार की प्रार्थना ही प्रभावी हो सकती है। फिर भी प्रार्थना को परमेश्वर के वचनों के आनंद पर निर्मित किया जाना चाहिए, उसे परमेश्वर के साथ उसके वचनों में, संवाद करने की नींव पर स्थापित होना चाहिए, और हृदय को परमेश्वर की खोज करने और उसके समक्ष शांत होने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह की प्रार्थना पहले ही परमेश्वर के साथ सच्चे संवाद के चरण में प्रवेश कर चुकी है।

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: "हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...," जब उनके मन में ये विचार आते हैं, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब ये विचार लोगों के मन में उठते हैं, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तू परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करता है मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तू अपने जीवन को बचाने के लिए पकड़ता है और यह उम्मीद करता है कि वह तेरी मदद करेगा। यद्यपि तूने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तेरा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तू परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देता है, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, वह तेरी कठिनाइयों को देखेगा, तो वह तुझे प्रबुद्ध करेगा, तेरा मार्गदर्शन करेगा, और तेरी सहायता करेगा।

— 'विश्वासियों को संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत समझने से ही शुरुआत करनी चाहिए' से उद्धृत

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03 कैसे हम परमेश्वर से प्रार्थना करें ताकि परमेश्वर द्वारा सुनी जाएं!

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन

सच्ची प्रार्थना में कोई कैसे प्रवेश करता है?

प्रार्थना करते समय तुम्हारे पास ऐसा हृदय होना चाहिए, जो परमेश्वर के सामने शांत रहे, और तुम्हारे पास एक ईमानदार हृदय होना चाहिए। तुम सही अर्थों में परमेश्वर के साथ संवाद और प्रार्थना कर रहे हो—तुम्हें प्रीतिकर वचनों से परमेश्वर को फुसलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। प्रार्थना उस पर केंद्रित होनी चाहिए, जिसे परमेश्वर अभी संपन्न करना चाहता हो। प्रार्थना करते समय परमेश्वर से तुम्हें अधिक प्रबुद्ध बनाने और रोशन करने के लिए कहो और अपनी वास्तविक अवस्थाओं और अपनी परेशानियाँ उसके सामने रखो, और साथ ही वह संकल्प भी, जो तुमने परमेश्वर के सामने लिया था। प्रार्थना का अर्थ प्रक्रिया का पालन करना नहीं है; उसका अर्थ है सच्चे हृदय से परमेश्वर को खोजना। मांगो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय की रक्षा करे, ताकि तुम्हारा हृदय अकसर उसके सामने शांत हो सके; कि जिस परिवेश में उसने तुम्हें रखा है, उसमें तुम खुद को जान पाओ, खुद से घृणा करो, और खुद को त्याग सको, और इस प्रकार तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता बना पाओ और वास्तव में ऐसे व्यक्ति बन पाओ, जो परमेश्वर से प्रेम करता है।

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

प्रार्थना के बारे में सबसे बुनियादी ज्ञान:

1. जो भी मन में आए, उसे बिना सोचे-समझे न कहो। तुम्हारे हृदय पर एक दायित्व होना चाहिए, यानी प्रार्थना करते समय तुम्हारे पास एक उद्देश्य होना चाहिए।

2. प्रार्थना में परमेश्वर के वचन शामिल होने चाहिए; उसे परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए।

3. प्रार्थना करते समय तुम्हें पुरानी या बीती बातों को उसमें नहीं मिलाना चाहिए। तुम्हारी प्रार्थनाएँ परमेश्वर के वर्तमान वचनों से संबंधित होनी चाहिए, और जब तुम प्रार्थना करो, तो परमेश्वर को अपने अंतरतम विचार बताओ।

4. समूह-प्रार्थना एक केंद्र के इर्दगिर्द घूमनी चाहिए, जो आवश्यक रूप से, पवित्र आत्मा का वर्तमान कार्य है।

5. सभी लोगों को मध्यस्थतापरक प्रार्थना सीखनी है। यह परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशीलता दिखाने का एक तरीका भी है।

व्यक्ति का प्रार्थना का जीवन, प्रार्थना के महत्व की समझ और प्रार्थना के मूलभूत ज्ञान पर आधारित है। दैनिक जीवन में, बार-बार अपनी कमियों के लिए प्रार्थना करो, जीवन में अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए प्रार्थना करो, और परमेश्वर के वचनों के अपने ज्ञान के आधार पर प्रार्थना करो। प्रत्येक व्यक्ति को प्रार्थना का अपना जीवन स्थापित करना चाहिए, उन्हें परमेश्वर के वचनों को जानने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, और उन्हें परमेश्वर के कार्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। परमेश्वर के सामने अपनी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ खोलकर रख दो और तुम जिस ढंग से प्रार्थना करते हो, उसकी चिंता किए बिना अपने वास्तविक स्वरूप में रहो, और सच्ची समझ और परमेश्वर के वचनों का वास्तविक अनुभव प्राप्त करना ही मुख्य बात है। आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को कई अलग-अलग तरीकों से प्रार्थना करने में सक्षम होना चाहिए। मौन प्रार्थना, परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करना, परमेश्वर के कार्य को जानना—ये सभी सामान्य आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक संगति के उद्देश्यपूर्ण कार्य के उदाहरण हैं, जो हमेशा परमेश्वर के सामने व्यक्ति की अवस्थाओं में सुधार करते हैं और व्यक्ति को जीवन में और अधिक प्रगति करने के लिए प्रेरित करते हैं। संक्षेप में, तुम जो कुछ भी करते हो, चाहे वह परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना हो, या चुपचाप प्रार्थना करना हो, या जोर-जोर से घोषणा करना हो, वह तुम्हें परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य और जो कुछ वह तुममें हासिल करना चाहता है, उसे स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम बनाने के लिए है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम जो कुछ भी करते हो, वह परमेश्वर द्वारा अपेक्षित मानकों तक पहुँचने और अपने जीवन को नई ऊँचाइयों तक ले जाने के लिए किया जाता है। परमेश्वर की मनुष्य से न्यूनतम अपेक्षा यह है कि मनुष्य अपना हृदय उसके प्रति खोल सके। यदि मनुष्य अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को देता है और उसे अपने हृदय की सच्ची बात बताता है, तो परमेश्वर उसमें कार्य करने को तैयार होता है। परमेश्वर मनुष्य के कलुषित हृदय की नहीं, बल्कि शुद्ध और ईमानदार हृदय की चाह रखता है। यदि मनुष्य परमेश्वर से अपने हृदय को खोलकर बात नहीं करता है, तो परमेश्वर उसके हृदय को प्रेरित नहीं करेगा या उसमें कार्य नहीं करेगा। इसलिए, प्रार्थना का मर्म है, अपने हृदय से परमेश्वर से बात करना, अपने आपको उसके सामने पूरी तरह से खोलकर, उसे अपनी कमियों या विद्रोही स्वभाव के बारे में बताना; केवल तभी परमेश्वर को तुम्हारी प्रार्थनाओं में रुचि होगी, अन्यथा वह तुमसे मुँह मोड़ लेगा। प्रार्थना का न्यूनतम मानदंड यह है कि तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना हृदय शांत रखने में सक्षम होना चाहिए, और उसे परमेश्वर से अलग नहीं हटना चाहिए। यह हो सकता है कि इस चरण के दौरान तुम्हें एक नई या उच्च अंतर्दृष्टि प्राप्त न हो, लेकिन फिर तुम्हें यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रार्थना का उपयोग करना चाहिए—तुम्हें पीछे नहीं हटना चाहिए। कम से कम इसे तो तुम्हें प्राप्त करना ही चाहिए। यदि तुम यह भी नहीं कर सकते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन सही रास्ते पर नहीं है। परिणामस्वरूप, तुम्हारे पास पहले जो दृष्टि थी, उसे बनाए रखने में तुम असमर्थ होगे, तुम परमेश्वर में विश्वास खो दोगे, और तुम्हारा संकल्प इसके बाद नष्ट हो जाएगा। तुमने आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश किया है या नहीं, इसका एक चिह्न यह देखना है कि क्या तुम्हारी प्रार्थना सही रास्ते पर है। सभी लोगों को इस वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए; उन सभी को प्रार्थना में स्वयं को लगातार सजगता से प्रशिक्षित करने का काम करना चाहिए, निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करने के बजाय, सचेत रूप से पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने का प्रयास करना चाहिए। तभी वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश करने वाले लोग होंगे।

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

और तुम पवित्र आत्मा द्वारा स्पर्श किए जाने की कोशिश कैसे करते हो? अत्यंत महत्वपूर्ण है परमेश्वर के वर्तमान वचनों में जीना और परमेश्वर की अपेक्षाओं की नींव पर प्रार्थना करना। इस तरह प्रार्थना कर चुकने के बाद, पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हें स्पर्श करना निश्चित है। यदि तुम आज परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों की नींव के आधार पर कोशिशनहीं करते, तो यह व्यर्थ है। तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए और कहना चाहिए: "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ और मैं तुम्हारा बहुत ऋणी हूँ; मैं बहुत ही अवज्ञाकारी हूँ और तुम्हें कभी भी संतुष्ट नहीं कर सकता। हे परमेश्वर, मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे बचा लो, मैं अंत तक तुम्हारी सेवा करना चाहता हूँ, मैं तुम्हारे लिए मर जाना चाहता हूँ। तुम मुझे न्याय और ताड़ना देते हो और मुझे कोई शिकायत नहीं है; मैं तुम्हारा विरोध करता हूँ और मैं मर जाने लायक हूँ ताकि मेरी मृत्यु में सभी लोग तुम्हारा धार्मिक स्वभाव देख सकें।" जब तुम इस तरह अपने दिल से प्रार्थना करते हो, तो परमेश्वर तुम्हारी सुनेगा और तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा; यदि तुम आज पवित्र आत्मा के वचनों के आधारपर प्रार्थना नहीं करते, तो पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हें छूने की कोई संभावना नहीं है। यदि तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और आज परमेश्वर जो करना चाहते हैं, उसके अनुसार प्रार्थना करते हो, तो तुम कहोगे "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारे आदेशों को स्वीकार करना चाहता हूँ और तुम्हारे आदेशों के प्रति निष्ठा रखना चाहता हूँ, और मैं अपना पूरा जीवन तुम्हारी महिमा को समर्पित करने के लिए तैयार हूँ ताकि मैं जो कुछ भी करता हूँ वह परमेश्वर के लोगों के मानकों तक पहुँच सके। काश मेरा दिल तुम्हारे स्पर्श को पा ले। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारी आत्मा सदैव मेरा प्रबोधन करे ताकि मैं जो कुछ भी करूँ वह शैतान को शर्मिंदा करे ताकि मैं अंततः तुम्हारे द्वारा प्राप्त किया जाऊँ।" यदि तुम इस तरह प्रार्थना करते हो, परमेश्वर की इच्छा के आसपास केंद्रित रहकर, तो पवित्र आत्मा अपरिहार्य रूप से तुम में कार्य करेगी। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि तुम्हारी प्रार्थनाओं में कितने शब्द हैं—कुंजी यह है कि तुम परमेश्वर की इच्छा समझते हो या नहीं। तुम सभी के पास निम्नलिखित अनुभव हो सकता है: कभी-कभी किसीसभा में प्रार्थना करते समय, पवित्र आत्मा के कार्य का गति-सिद्धांत अपने चरम बिंदु तक पहुँच जाता है, जिससे सभी की ताकत बढ़ती है। परमेश्वर के सामने पश्चाताप से अभिभूत होकर कुछ लोग फूट-फूटकर रोते हैं और प्रार्थना करते हुए आँसू बहाते हैं, तो कुछ लोग अपना संकल्प दिखाते हैं और प्रतिज्ञा करते हैं। पवित्र आत्मा के कार्य से प्राप्त होने वाला प्रभाव ऐसा है। आज यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि सभी लोग परमेश्वर के वचनों में पूरी तरह अपना मन लगाएँ। उन शब्दों पर ध्यान न दो, जो पहले बोले गए थे; यदि तुम अभी भी उसे थामे रहोगे जो पहले आया था, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे भीतर कार्य नहीं करेगी। क्या तुम देखते हो कि यह कितना महत्वपूर्ण है?

— 'परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो' से उद्धृत

मैंने एक ऐसी समस्या पाई है जो सभी लोगों के साथ होती है: जब उनके साथ कुछ होता है तो वे प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आते हैं लेकिन उनके लिए प्रार्थना एक बात है और वो मसला अलग बात। वे मानते हैं कि उनके साथ क्या चल रहा है, यह उन्हें प्रार्थना में नहीं बोलना चाहिए। तुम लोग कभी-कभार ही दिल खोलकर प्रार्थना करते हो और कुछ लोग तो यह भी नहीं जानते हैं कि प्रार्थना कैसे करें। वस्तुतः, प्रार्थना उस बारे में बोलना है जो तुम्हारे हृदय में है, मानो कि तुम सामान्य तौर पर बोल रहे हों। लेकिन, ऐसे लोग भी हैं जो प्रार्थना शुरू करते ही अपनी जगह भूल जाते हैं; वे इस पर ज़ोर देने लगते हैं कि परमेश्वर उन्हें कुछ प्रदान करे, बिना इसकी परवाह किए कि यह उसकी इच्छा के अनुरूप है या नहीं और नतीजतन, उनकी प्रार्थना, प्रार्थना के दौरान ही कमज़ोर पड़ जाती है। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने दिल में तुम जो कुछ भी माँग रहे हों, जिसकी भी तुम्हें ख्वाइश हो; या भले ही ऐसा कोई मुद्दा हो जिसे तुम संबोधित करना चाहते हों, लेकिन जिसे लेकर तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि नहीं है और तुम परमेश्वर से बुद्धि और सामर्थ्य माँग रहे हों या यह कि वह तुम्हें प्रबुद्ध करे—तुम्हारा अनुरोध कुछ भी हो, उसके विन्यास को लेकर तुम्हें समझदार होना चाहिए। यदि तुम समझदार नहीं हो, और घुटनों के बल बैठकर कहते हो, "परमेश्वर, मुझे सामर्थ्य दे; मैं अपनी प्रकृति देख सकूँ; मैं तुझसे काम के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे इस या उस चीज़ के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे निवेदन करता हूँ कि तू मुझे फलां-फलां बना दे...'' तुम्हारे उस "निवेदन करता हूँ" में ज़बरदस्ती वाला तत्त्व है; यह परमेश्वर पर दबाव डालने का प्रयास है, उसे वह करने को मजबूर करना है जो तुम चाहते हो—जिसकी शर्तें तुमने आश्चर्यजनक रूप से पहले ही एकतरफ़ा तय कर ली हैं। जैसा कि पवित्र आत्मा इसे देखता है, तो ऐसी प्रार्थना का क्या प्रभाव हो सकता है जबकि तुमने शर्तें पहले ही निर्धारित कर दी हैं और यह तय कर लिया है कि तुम्हें क्या करना है? प्रार्थना एक खोजपूर्ण, आज्ञाकारी दिल से की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम पर कोई विपत्ति आ गयी हो, और तुम समझ न पा रहे हो कि उसे कैसे संभालो, तो तुम कह सकते हो, "हे परमेश्वर! मैं नहीं जानता कि इस बारे में क्या करूँ। इस मामले में मैं तुझे सन्तुष्ट करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा जानना चाहता हूँ। यह तेरी इच्छानुसार ही हो। मैं तेरी इच्छानुसार कार्य करना चाहता हूँ, अपनी इच्छानुसार नहीं। तू जानता है कि मनुष्य की इच्छा तेरी इच्छा के विपरीत होती है; वह तेरा विरोध करती है और सत्य के अनुरूप नहीं होती। मैं चाहता हूँ कि तू मुझे प्रबुद्ध करे, इस मामले में मेरा मार्गदर्शन करे और मैं तुझे नाराज़ न कर दूँ..." यह लहज़ा प्रार्थना के लिए उपयुक्त है। यदि तुम मात्र यह कहते हो: "हे परमेश्वर, मैं तुझसे मदद और मार्गदर्शन माँगता हूँ, मुझे सही माहौल और सही लोगों का साथ दे और मुझे अपना कार्य अच्छी तरह से करने के योग्य बना...,'' तो तुम्हारी प्रार्थना खत्म हो जाने पर भी तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाये होंगे क्योंकि तुम परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने को कह रहे होंगे।

अब तुम लोगों को यह ज़रूर तय करना चाहिए कि क्या प्रार्थना में तुम्हारे द्वारा प्रयोग किए जा रहे शब्द विवेकसम्मत हैं। अगर तुम्हारी प्रार्थनाएँ विवेकसम्मत नहीं हैं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि ऐसा तुम्हारी मूर्खता के कारण है या प्रार्थना के वाक्य विन्यास के कारण, पवित्र आत्मा तुम पर कार्य नहीं करेगा। इसलिए, जब तुम प्रार्थना करते हो, तो तुम्हें उपयुक्त लहज़े में विवेकसम्मत तरीके से बोलना चाहिए। तुम यह कहो : "हे परमेश्वर! तू मेरी कमज़ोरी और मेरे विद्रोहीपन को जानता है। मैं बस इतना ही माँगता हूँ कि तू मुझे सामर्थ्य प्रदान करे और अपनी परिस्थितियों को सहन कर पाने में मेरी मदद करे, लेकिन केवल अपनी इच्छा के अनुसार। मैं बस इतना ही माँगता हूँ। मैं नहीं जानता कि तेरी इच्छा क्या है, परन्तु मैं तेरी इच्छा जस-की-तस पूर्ण होने की अभिलाषा करता हूँ। चाहे मुझसे सेवा करवाई जाए या विषमता के रूप में मेरा प्रयोग किया जाए, मैं ऐसा स्वेच्छा से करूँगा। मैं तुझसे सामर्थ्य और बुद्धि माँगता हूँ ताकि इस मामले में तुझे संतुष्ट कर सकूँ। मैं बस तेरी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का इच्छूक हूँ..." इस तरह से प्रार्थना करने के पश्चात् तुम्हारे दिल को सुकून मिलेगा। यदि तुम लगातार सिर्फ़ माँगने में ही लगे रहते हो, तो भले ही तुम कितना भी बोलो, ये सब सिर्फ़ खोखले शब्द ही रह जाएँगे; परमेश्वर तुम्हारी दलील पर कार्य नहीं करेगा क्योंकि तुम पहले ही तय कर चुके होंगे कि तुम्हें क्या चाहिए। जब तुम प्रार्थना करने के लिए घुटनों के बल बैठते हो, तो यह कहो: "हे परमेश्वर! तू मनुष्य की कमज़ोरियों और उसकी स्थितियों को जानता है। मैं यह माँगता हूँ कि इस मसले पर तू मुझे प्रबुद्ध करे। मुझे तेरी इच्छा जानने दे। मैं मात्र तेरी समस्त व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने की अभिलाषा करता हूँ; मेरा हृदय तेरी आज्ञा मानने का इच्छुक है...'' इस प्रकार प्रार्थना करो और पवित्र आत्मा तुम्हें द्रवित कर देगा। यदि तुम्हारा प्रार्थना करने का तरीका सही नहीं है, तो तुम्हारी प्रार्थना घिसी-पिटी होगी और पवित्र आत्मा तुम्हें द्रवित नहीं करेगा। अपने ही बारे में बोलते हुए बकबक मत करते रहो—ऐसा करना और कुछ नहीं बल्कि असावधानी और लापरवाही है। यदि तुम असावधान और लापरवाह रहते हो तो क्या पवित्र आत्मा कार्य करेगा? जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के सामने आता है तो उसे पवित्र दृष्टिकोण के साथ सही और उचित होना चाहिए, व्यवस्था युग के याजकों की तरह जो सभी बलि देते हुए घुटनों के बल बैठते थे। प्रार्थना करना कोई साधारण बात नहीं है। किसी व्यक्ति के लिए यह कैसे व्यावहार्य हो सकता है कि वह परमेश्वर के सामने अपने तीखे दाँत दिखाते और अपने पंजों का प्रदर्शन करते हुए आए, या अपनी रज़ाई में दुबककर लेटे-लेटे ही प्रार्थना करे और यह माने कि परमेश्वर उसे सुन सकता है? यह धर्मनिष्ठा नहीं है! इस बातचीत में मेरा उद्देश्य यह माँग करना नहीं है कि लोग किसी विशेष नियम का अनुसरण करें; कम से कम, उनके हृदय तो परमेश्वर उन्मुख होने चाहिए और उसके सामने पवित्र दृष्टिकोण के साथ आना चाहिए।

— 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत

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