परमेश्वर के प्रासंगिक वचन
धार्मिक अनुष्ठान की प्रार्थनाओं से ज़्यादा परमेश्वर किसी भी दूसरी चीज़ से अधिक घृणा नहीं करता है। परमेश्वर से की गयी प्रार्थनाएँ तभी स्वीकार होती हैं जब वे सच्ची होती हैं। अगर तुम्हारे पास ईमानदारी से कहने को कुछ नहीं है, तो चुप रहो; उसे धोखा देने की कोशिश करते हुए, उससे कितना प्रेम करते हो और उसके प्रति कितने निष्ठावान बने रहना चाहते हो, यह बताते हुए हमेशा झूठे शब्द न बोलो और परमेश्वर के सामने आँख मूँद कर शपथ मत लो। अगर तुम अपनी इच्छाएं पूरी करने के काबिल नहीं हो, तुममें यह दृढ़ निश्चय और आध्यात्मिक कद नहीं है, तो किसी भी हालत में, परमेश्वर के सामने ऐसी प्रर्थना मत करो। यह उपहास होता है। उपहास का मतलब किसी का मखौल उड़ाना, उसके साथ तुच्छता से पेश आना होता है। जब लोग इस प्रकार के स्वभाव के साथ परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं, तो यह धोखे से कम कुछ नहीं होता। बदतर यह है कि अगर तुम अक्सर ऐसा करते हो, तो तुम बहुत घिनौने चरित्र वाले हो। यदि परमेश्वर को तुम्हें इन कर्मों के लिए दंड देना हो, तो इन्हें ईश-निंदा कहा जाएगा! लोगों में परमेश्वर के प्रति आदर नहीं है, वे उसका सम्मान करना नहीं जानते, या नहीं जानते कि उससे प्रेम कैसे करें, उसे कैसे संतुष्ट करें। यदि वे सत्य को स्पष्ट रूप से नहीं समझते, या उनका स्वभाव भ्रष्ट है, तो परमेश्वर इसे जाने देगा। लेकिन वे ऐसे चरित्र के साथ परमेश्वर के सामने चले आते हैं, और परमेश्वर से ऐसे पेश आते हैं जैसे कि अविश्वासी दूसरे लोगों के साथ पेश आते हैं। यही नहीं, वे सत्यनिष्ठा से परमेश्वर के सामने प्रार्थना में घुटने टेकते हैं, इन शब्दों का उपयोग करके उसकी खुशामद करने की कोशिश करते हैं, और सब कर लेने पर उन्हें आत्मनिंदा तो महसूस होती नहीं, बल्कि उन्हें अपने कर्मों की गंभीरता का भी एहसास नहीं होता। स्थिति ऐसी होने पर, क्या परमेश्वर उनके साथ होता है? क्या कोई इंसान जिसके पास परमेश्वर की मौजूदगी है ही नहीं, वह प्रबुद्ध और प्रकाशित हो सकता है? क्या वह सत्य से प्रबुद्ध हो सकता है? (नहीं, नहीं हो सकता।) फिर वे मुसीबत में हैं। क्या तुम लोगों ने कई बार ऐसी प्रार्थना की है? क्या तुम ऐसा अक्सर करते हो? जब लोग बहुत लंबा समय बाहर की दुनिया में बिताते हैं, तो उनसे समाज की गंदगी की बू आती है, उनकी नीच प्रकृति में बढ़ोत्तरी होती है, और उनमें शैतानी ज़हर और जीवनशैली भर जाती है; उनके मुँह से सिर्फ झूठ और छल-कपट के शब्द निकलते हैं, वे बिना सोचे बोलते हैं, या ऐसे शब्द बोलते हैं जिनमें हमेशा उनकी मंशाओं और लक्ष्यों के अलावा कुछ नहीं होता, उनमें विरले ही उचित मंसूबे होते हैं। ये गंभीर समस्याएँ हैं। जब लोग इन शैतानी फलसफों और जीवन शैलियों को ले कर परमेश्वर के सामने जाते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते?
— 'आप सत्य की खोज तभी कर सकते हैं जब आप स्वयं को जानें' से उद्धृत
मैंने एक ऐसी समस्या पाई है जो सभी लोगों के साथ होती है: जब उनके साथ कुछ होता है तो वे प्रार्थना करने परमेश्वर के सामने आते हैं लेकिन उनके लिए प्रार्थना एक बात है और वो मसला अलग बात। वे मानते हैं कि उनके साथ क्या चल रहा है, यह उन्हें प्रार्थना में नहीं बोलना चाहिए। तुम लोग कभी-कभार ही दिल खोलकर प्रार्थना करते हो और कुछ लोग तो यह भी नहीं जानते हैं कि प्रार्थना कैसे करें। वस्तुतः, प्रार्थना उस बारे में बोलना है जो तुम्हारे हृदय में है, मानो कि तुम सामान्य तौर पर बोल रहे हों। लेकिन, ऐसे लोग भी हैं जो प्रार्थना शुरू करते ही अपनी जगह भूल जाते हैं; वे इस पर ज़ोर देने लगते हैं कि परमेश्वर उन्हें कुछ प्रदान करे, बिना इसकी परवाह किए कि यह उसकी इच्छा के अनुरूप है या नहीं और नतीजतन, उनकी प्रार्थना, प्रार्थना के दौरान ही कमज़ोर पड़ जाती है। जब तुम प्रार्थना करते हो, तो अपने दिल में तुम जो कुछ भी माँग रहे हों, जिसकी भी तुम्हें ख्वाइश हो; या भले ही ऐसा कोई मुद्दा हो जिसे तुम संबोधित करना चाहते हों, लेकिन जिसे लेकर तुम्हारे पास अंतर्दृष्टि नहीं है और तुम परमेश्वर से बुद्धि और सामर्थ्य माँग रहे हों या यह कि वह तुम्हें प्रबुद्ध करे—तुम्हारा अनुरोध कुछ भी हो, उसके विन्यास को लेकर तुम्हें समझदार होना चाहिए। यदि तुम समझदार नहीं हो, और घुटनों के बल बैठकर कहते हो, "परमेश्वर, मुझे सामर्थ्य दे; मैं अपनी प्रकृति देख सकूँ; मैं तुझसे काम के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे इस या उस चीज़ के लिए निवेदन करता हूँ; मैं तुझसे निवेदन करता हूँ कि तू मुझे फलां-फलां बना दे...'' तुम्हारे उस "निवेदन करता हूँ" में ज़बरदस्ती वाला तत्त्व है; यह परमेश्वर पर दबाव डालने का प्रयास है, उसे वह करने को मजबूर करना है जो तुम चाहते हो—जिसकी शर्तें तुमने आश्चर्यजनक रूप से पहले ही एकतरफ़ा तय कर ली हैं। जैसा कि पवित्र आत्मा इसे देखता है, तो ऐसी प्रार्थना का क्या प्रभाव हो सकता है जबकि तुमने शर्तें पहले ही निर्धारित कर दी हैं और यह तय कर लिया है कि तुम्हें क्या करना है? प्रार्थना एक खोजपूर्ण, आज्ञाकारी दिल से की जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, जब तुम पर कोई विपत्ति आ गयी हो, और तुम समझ न पा रहे हो कि उसे कैसे संभालो, तो तुम कह सकते हो, "हे परमेश्वर! मैं नहीं जानता कि इस बारे में क्या करूँ। इस मामले में मैं तुझे सन्तुष्ट करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा जानना चाहता हूँ। यह तेरी इच्छानुसार ही हो। मैं तेरी इच्छानुसार कार्य करना चाहता हूँ, अपनी इच्छानुसार नहीं। तू जानता है कि मनुष्य की इच्छा तेरी इच्छा के विपरीत होती है; वह तेरा विरोध करती है और सत्य के अनुरूप नहीं होती। मैं चाहता हूँ कि तू मुझे प्रबुद्ध करे, इस मामले में मेरा मार्गदर्शन करे और मैं तुझे नाराज़ न कर दूँ..." यह लहज़ा प्रार्थना के लिए उपयुक्त है। यदि तुम मात्र यह कहते हो: "हे परमेश्वर, मैं तुझसे मदद और मार्गदर्शन माँगता हूँ, मुझे सही माहौल और सही लोगों का साथ दे और मुझे अपना कार्य अच्छी तरह से करने के योग्य बना...,'' तो तुम्हारी प्रार्थना खत्म हो जाने पर भी तुम परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ पाये होंगे क्योंकि तुम परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने को कह रहे होंगे।
— 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत
तुम लोगों की प्रार्थनाओं में प्रायः तर्क का अभाव होता है; तुम लोग हमेशा निम्नलिखित स्वर के साथ प्रार्थना करते हो: "हे परमेश्वर! चूँकि तूने मुझे इस कर्तव्य को करने दिया है, अतः जो कुछ भी मैं करता हूँ, उसे तुझे उपयुक्त बनाना होगा ताकि तेरा कार्य बाधित न हो और परमेश्वर के परिवार के हित को हानि न उठानी पड़े। तुझे मुझे बचाना होगा...।" इस प्रकार की प्रार्थना अत्यधिक अतर्कसंगत है, क्या ऐसा नहीं है? जब तुम परमेश्वर की उपस्थिति में आते हो और इस तरह अनुचित ढंग से प्रार्थना करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम लोग में कार्य कर सकता है? यदि तुम सब मसीह की उपस्थति में आए और मुझसे बिना किसी कारण के बात की, तो क्या मैं सुनूँगा? तुम्हें बाहर फेंक दिया जाएगा! क्या पवित्रात्मा की उपस्थिति में होना और मसीह की उपस्थिति होना समान नहीं है? जब तुम प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर की उपस्थिति में आते हो, तो तुम्हें इस बारे में अवश्य सोचना चाहिए कि तर्कसंगत तरह से किस प्रकार बोला जाए और इस बारे में विचार करना चाहिए है कि अपनी भीतरी स्थिति को धर्मनिष्ठता में बदलने में समर्थ होने के लिए क्या कहा जाए। स्वयं को दीन करो, और तब एक प्रार्थना करो और तुम्हें अभिषिक्त किया जाएगा। प्रायः लोग जब प्रार्थना करते हैं, तो वे घुटने के बल बैठेंगे और अपनी आँखों को बन्द करेंगे और वे कुछ नहीं कहेंगे; वे मात्र यह कहेंगे, “हे परमेश्वर, हे परमेश्वर!” वे मात्र ये दो शब्द कहते हैं, वे कुछ और कहे बिना कुछ समय तक यही कहते रहेंगे। ऐसा क्यों है? तुम्हारी स्थिति अच्छी नहीं है! क्या तुम लोगों के ऐसे समय रहे हैं? जहाँ तक तुम लोगों की वर्तमान स्थिति का संबंध है, तुम लोग जानते हो कि तुम लोग क्या करने में समर्थ हो और तुम लोग किस स्तर तक इसे कर सकते हो, और तुम लोग जानते हो तुम लोग कौन हो। हालाँकि, प्रायः तुम्हारी स्थिति असामान्य होती है। कभी-कभी, तुम्हारी स्थिति समायोजित की जाती है, परन्तु तुम नहीं जानते यह कैसे समायोजित की गई थी, और कई बार तुम लोग यह सोचते हुए बिना शब्दों के प्रार्थना करते हो कि ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम लोग शिक्षित नहीं हो। क्या प्रार्थना करने के लिए तुम्हें शिक्षित होने की आवश्यकता है? प्रार्थना कोई निबन्ध लिखना नहीं है, यह एक सामान्य व्यक्ति के तर्क के अनुसार साधारण रूप से बात करना है। यीशु की प्रार्थना को देखो (यद्यपि उसकी प्रार्थनाओं का यहाँ उल्लेख नहीं है ताकि लोग उसकी जगह और स्थिति को धारण कर सकें): उसने गतसमनी की वाटिका में प्रार्थना की: "यदि हो सके तो...।" अर्थात्, "यदि ऐसा किया जा सके तो।" इसे चर्चा में कहा गया था; उसने नहीं कहा कि "मैं तुझसे निवेदन करता हूँ।" एक समर्पित हृदय के साथ और एक विनीत अवस्था में, उसने प्रार्थना की: "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो" (मत्ती 26:39)। उसने दूसरी बार भी इसी प्रकार प्रार्थना की और तीसरी बार उसने प्रार्थना की: "तेरी इच्छा पूरी हो।" परमपिता परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद, उसने कहा: "तेरी इच्छा पूरी हो।" वह रत्ती भर भी व्यक्तिगत चुनाव किए बिना पूरी तरह से समर्पण करने में समर्थ था। उसने कहा, "यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए।" इसका क्या अर्थ हुआ? उसने इस तरह से प्रार्थना की थी क्योंकि उसने मरते दम तक क्रूस पर खून बहाने की उस अत्यधिक पीड़ा पर विचार किया था—और इसमें मृत्यु के मामले का मोटे तौर पर ज़िक्र था—और क्योंकि उसने अभी तक परमपिता परमेश्वर के इरादों को पूरी तरह से नहीं समझा था। यह देखते हुए कि पीड़ा के विचार के बावजूद भी वह इस तरह से प्रार्थना करने में समर्थ था, वह वास्तव में अत्यधिक विनम्र था। प्रार्थना करने का उसका तरीका सामान्य था; उसने अपनी प्रार्थना में कोई शर्त प्रस्तावित नहीं की, न ही उसने कहा था कि कप हटाया जाना है। बल्कि उसका उद्देश्य ऐसी परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को जानना था जिसे वह नहीं समझा था। पहली बार जब उसने प्रार्थना की तो उसे समझ नहीं आया, और उसने कहा: "यदि हो सके तो...परन्तु जैसा तू चाहता है।" उसने विनम्रता की अवस्था में परमेश्वर से प्रार्थना की। दूसरी बार, उसने उसी तरह से प्रार्थना की। कुल मिलाकर, उसने तीन बार प्रार्थना की (निस्सन्देह ये तीन प्रार्थनाएँ मात्र तीन दिनों में नहीं की गई), और अपनी अन्तिम प्रार्थना में, वह परमेश्वर की मंशाओं को पूरी तरह से समझ गया जिसके पश्चात्, उसने कुछ नहीं माँगा। पहली दो प्रार्थनाओं में, उसने विनम्रता की अवस्था में खोज की। हालाँकि, लोग बस इस प्रकार से प्रार्थना नहीं करते हैं। अपनी प्रार्थनाओं में, लोग कहते हैं, "हे परमेश्वर मैं तुझे यह या वह करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मैं तुझसे इस या उस में मेरा मार्गदर्शन करने के लिए निवेदन करता हूँ, और मेरे लिए परिस्थितियाँ तैयार करने मैं तुझसे निवेदन करता हूँ...।" हो सकता है कि वो तुम्हारे लिए परिस्थितियों को तैयार ना करे और तुम्हें मुश्किलें झेलने दे। अगर लोग हमेशा यह कहते, "हे परमेश्वर, मैं निवेदन करता हूँ कि तू मेरे लिए तैयारी कर और मुझे शक्ति दे।" इस तरह से प्रार्थना करना बहुत अतार्किक है! प्रार्थना करते समय तुम्हें तर्कसंगत अवश्य होना चाहिए, और तुम्हें ऐसा अवश्य इस आधार पर करना चाहिए कि तुम समर्पण कर रहे हो। अपनी प्रार्थनाओं को सीमांकित मत करो। यहाँ तक कि तुम्हारे प्रार्थना करने से पहले भी, तुम इस प्रकार से सीमांकित कर रहे हो: मुझे परमेश्वर से अवश्य माँगना चाहिए और उससे अमुक-अमुक करवाना चाहिए। प्रार्थना करने का यह तरीका बहुत अतर्कसंगत है। प्रायः, पवित्रात्मा लोगों की प्रार्थनाओं को बिल्कुल नहीं सुनता है, इसलिए उनकी प्रार्थनाएँ नीरस हैं।
— 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत