धार्मिक दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर के कार्य को मनुष्य के कार्य से अलग नहीं कर सकते हैं। बहुत से लोग जिनकी आराधना करते हैं उनके किये कार्य को परमेश्वर के कार्य के रूप में आदर देते हैं और देहधारी परमेश्वर के कार्य को मनुष्य द्वारा किए गए कार्य के रूप में देखते हैं। वे नहीं जानते हैं कि इससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है, कि उसमें विश्वास करने के बावजूद वे परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं और परमेश्वर की निंदा कर रहे हैं, और कि इससे वे अपने आप को परमेश्वर का शत्रु बना रहे हैं। तो परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के कार्य में सचमुच क्या अंतर है? देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर जिन लोगों का उपयोग करते हैं, उनमें क्या वास्तविक अंतर है?
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