ऑनलाइन बैठक

मेन्‍यू

परमेश्वर के अनुयायियों का जीवन और मृत्यु चक्र

इसके बाद, आओ, अब हम उन लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में बात करें जो परमेश्वर के अनुयायी हैं। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिए ध्यान दो: सबसे पहले, इस बारे में विचार करो कि परमेश्वर के अनुयायियों को कैसे श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। (परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता।) इसमें दरअसल दो हैं: परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। आओ, पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में बात करते हैं, जिसमें बहुत कम लोग हैं। "परमेश्वर के चुने हुए लोग" किसे संदर्भित करता है? परमेश्वर ने जब सारी चीज़ों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई, तो परमेश्वर ने उन लोगों के एक समूह को चुना जो उसका अनुसरण करते थे; बस इन्हें ही "परमेश्वर के चुने हुए लोग" के तौर पर संदर्भित किया जाता है। परमेश्वर द्वारा इन लोगों को चुनने का एक विशेष दायरा और महत्व था। वह दायरा इसलिए विशेष है क्योंकि वह कुछ चयनित लोगों तक ही सीमित था, जिन्हें तब आना ही होगा जब वह कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है। और महत्व क्या है? चूँकि वह परमेश्वर द्वारा चयनित समूह था, इसका अत्यधिक महत्व है। कहने का तात्पर्य है कि, परमेश्वर इन लोगों को बनाना चाहता है और इन्हें पूर्ण करना चाहता है, और प्रबंधन का उसका कार्य पूर्ण हो जाने के पश्चात् वह इन लोगों को प्राप्त कर लेगा। क्या यह महत्व अत्यधिक नहीं है? इस प्रकार, ये चुने हुए लोग परमेश्वर के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करने का इरादा रखता है। जहाँ तक सेवाकर्ताओं की बात है, अच्छा, आओ एक पल के लिए हम हम परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के विषय को छोडकर पहले उनके उद्गमों के बारे में बात करें। "सेवाकर्ता" का शाब्दिक अर्थ है वह जो सेवा करता है। वे जो सेवा करते हैं, वे अस्थायी हैं, वे लम्बे समय तक, या हमेशा के लिए ऐसा नहीं करते हैं, बल्कि उन्हें अस्थायी रुप से भाड़े पर लिया जाता है या नियुक्त किया जाता है। इनमें से अधिकांश का उद्गम यह है की इन्हें अविश्वासियों में से चुना गया था। जब यह आदेश दिया गया था कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवाकर्ता की भूमिका ग्रहण करेंगे, तब वे पृथ्वी पर आए। हो सकता है कि वे अपने पिछले जीवन में पशु रहे हों, किन्तु वे अविश्वासी भी रह चुके होंगे। सेवाकर्ताओं के ये उद्गम हैं।

आओ, अब आगे हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों की बात करें। जब वे मरते हैं, तो वे अविश्वासियों से और विभिन्न आस्थावान लोगों से बिल्कुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान है जहाँ उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूत होते हैं; यह एक ऐसा स्थान है जिसका प्रशासन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से करता है। यद्यपि, इस स्थान पर, परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर को अपनी आंखों से नहीं देख पाते हैं, यह आध्यात्मिक राज्य में किसी भी अन्य स्थान के असदृश होता है; यह एक अलग ही जगह है जहाँ इस हिस्से के लोग मरने के बाद जाते हैं। जब वे मरते हैं तो उन्हें भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी छानबीन के अधीन किया जाता है। और क्या छानबीन की जाती है? परमेश्वर के दूत इन लोगों के द्वारा अपने संपूर्ण जीवन में परमेश्वर की आस्था में लिए गए मार्ग की छानबीन करते हैं, उस दौरान क्या कभी उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया था या उसे कोसा था, और क्या उन्होंने कोई गंभीर पाप या दुष्टता की थी। यह छानबीन इस प्रश्न का निपटान करती है कि वह व्यक्ति विशेष वहाँ ठहरने की अनुमति पाएगा या उसे जाना ही होगा। "जाना" का क्या अर्थ है? और "ठहरना" का क्या अर्थ है? "जाना" का अर्थ है कि क्या, अपने व्यवहार के आधार पर, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे; "ठहरने" की अनुमति मिलने का अर्थ है कि वे उन लोगों के बीच रह सकते हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाएगा। जो ठहरते हैं, उनके लिए परमेश्वर के पास विशेष व्यवस्थाएँ है। अपने कार्य की प्रत्येक अवधि के दौरान, वह ऐसे लोगों को प्रेरितों के रूप में कार्य करने या कलीसियाओं को पुनर्जीवित करने, या उनकी देखभाल करने का कार्य करने के लिए भेजेगा। परन्तु जो लोग इस कार्य को करने में सक्षम हैं वे पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से पुनर्जन्म नहीं लेते हैं जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनर्जन्म लेते हैं; इसके बजाय, वे परमेश्वर के कार्य की आवश्यकताओं और चरणों के अनुसार पृथ्वी पर लौटाए जाते हैं और उन्हें बार-बार पुनर्जन्म नहीं दिया जाता है। तो क्या इस बारे में कोई नियम हैं कि उनका पुनर्जन्म कब होगा? क्या वे हर कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारम्बारता में आते हैं? वे ऐसे नहीं आते हैं। यह सब परमेश्वर के कार्य पर, उसके कार्य के चरणों पर और उसकी आवश्यकताओं पर आधारित है, और इसके कोई तय नियम नहीं हैं। एकमात्र नियम यही है कि जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने कार्य के अन्तिम चरण को करता है, तो ये सभी चुने हुए लोग आएँगे और यह आगमन उनका अंतिम पुनर्जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्य के अन्तिम चरण के दौरान प्राप्त किये जाने वाले परिणामों पर आधारित होता है—क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान, परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को पूरी तरह से पूर्ण करेगा। इसका क्या अर्थ है? यदि, इस अन्तिम चरण के दौरान, इन लोगों को पूरा बनाया और पूर्ण किया जाता है, तब उनका पहले की तरह पुनर्जन्म नहीं होगा; उनके मनुष्य बनने की प्रक्रिया और इसी प्रकार पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी पूर्णतया समाप्त हो जाएगी। यह उनसे संबंधित है जो ठहरेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते, वे कहाँ जाते हैं? जिन्हें ठहरने की अनुमति नहीं मिलती है, उनका अपना उपयुक्त गंतव्य होता है। सबसे पहले, उनके दुष्ट कार्यों के, उन्होंने जो त्रुटियाँ की हैं, और जो पाप उन्होंने किए हैं, उनके परिणामस्वरूप वे भी दण्डित किए जाएँगे। दण्डित किये जाने के पश्चात, जैसा परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल होगा, परमेश्वर उन्हें अविश्वासियों के बीच या विभिन्न आस्था वाले लोगों के बीच भेजने की व्यवस्था करेगा। दूसरे शब्दों में, उनके लिए दो सम्भावित परिणाम हो सकते हैं: एक है दण्डित होना और पुनर्जन्म के बाद शायद एक विशेष धर्म के लोगों के बीच रहना, और दूसरा है अविश्वासी बन जाना। यदि वे अविश्वासी बनते हैं, तो वे सारे अवसर गँवा देंगे; जबकि यदि वे आस्था वाला व्यक्ति बनते हैं—उदाहरण के लिए, यदि वे ईसाई बनते हैं—तो उनके पास अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणियों में लौटने का अवसर होगा; इसके बहुत जटिल संबंध हैं। संक्षेप में, यदि परमेश्वर का चुना हुआ कोई व्यक्ति कोई ऐसा काम करता है जो परमेश्वर के प्रति अपमानजनक हो, तो उसे अन्य किसी भी व्यक्ति के समान ही दण्ड दिया जाएगा। उदाहरण के लिये, पौलुस को लें, जिसके बारे में हमने पहले बात की थी। पौलुस एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण जिसे दण्ड दिया जा रहा है। क्या तुम लोगों को अंदाज़ा हो रहा है कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का दायरा निर्धारित है? (अधिकांशत: निर्धारित है।) इसमें से अधिकतर निर्धारित है, परन्तु उसका एक छोटा हिस्सा निर्धारित नहीं है। ऐसा क्यों है? यहाँ मैंने सबसे स्पष्ट कारण को संदर्भित किया है: दुष्टता करना। जब लोग दुष्टता करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, तो वह उन्हें विभिन्न जातियों और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है। इससे वे निराश हो जाते हैं और उनके लिए वापस लौटना कठिन हो जाता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु चक्र से संबंधित है।

यह अगला विषय सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबन्धित है। हमने अभी-अभी सेवाकर्ताओं के उद्गम के बारे में बात की है; यानि यह तथ्य कि अपने पिछले जन्मों में अविश्वासी और पशु रहने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ। कार्य का अंतिम चरण आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से ऐसे लोगों के एक समूह को चुना है और यह समूह बहुत खास है। इन लोगों को चुनने का परमेश्वर का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। "सेवा" सुनने में कोई बहुत मनोहर शब्द नहीं है, न ही यह ऐसा कुछ है जिसे कोई चाहेगा, किन्तु हमें यह देखना चाहिए कि यह किसकी ओर लक्षित है। परमेश्वर के सेवाकर्ताओं के अस्तित्व का एक विशेष महत्व है। कोई अन्य उनकी भूमिका नहीं निभा सकता है, क्योंकि उन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया था। और इन सेवाकर्ताओं की भूमिका क्या है? यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा करना है। मुख्य रूप से, उनकी भूमिका परमेश्वर के कार्य में अपनी सेवा प्रदान करना, उसमें सहयोग करना, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की पूर्णता में समायोजन करना है। इस बात की परवाह किए बिना कि वे मेहनत कर रहे हैं, कार्य के किसी पहलू पर काम कर रहे हैं, या कुछ कार्य कर रहे हैं, परमेश्वर की इन सेवाकर्ताओं से क्या अपेक्षा है? क्या वह इनसे बहुत अधिक की माँग कर रहा है? (नहीं, वह बस उनसे निष्ठावान रहने को कहता है।) है। सेवाकर्ताओं को भी निष्ठावान होना ही चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम्हारा उद्गम कहाँ से है, या परमेश्वर ने तुम्हें क्यों चुना, तुम्हें परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर के तुम्हारे लिए आदेशों के प्रति, और साथ ही उस कार्य के प्रति जिसके लिए तुम उत्तरदायी हो और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान अवश्य ही होना चाहिए। जो सेवाकर्ता निष्ठावान और परमेश्वर को संतुष्ट करने में समर्थ हैं, उनके लिए परिणाम क्या होगा? वे शेष रह पाएँगे। क्या ऐसा सेवाकर्ता होना जो शेष रह जाता है, एक आशीष है? शेष रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या महत्व है? हैसियत में, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के असदृश दिखाई देते हैं, वे भिन्न दिखाई देते हैं। लेकिन, वास्तव में, क्या इस जीवन में वे जिसका आनंद लेते हैं, क्या यह वही नहीं है जिसका आनंद परमेश्वर के चुने हुए लोग लेते हैं? कम से कम, इस जीवन में तो यह वैसा ही है। तुम लोग इससे इनकार नहीं करते, है ना? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा भरण-पोषण, परमेश्वर के आशीष—कौन इन चीज़ों का आनन्द नहीं उठाता है? हर कोई ऐसी बहुतायत का आनन्द उठाता है। एक सेवाकर्ता की पहचान है, वह जोकि सेवा करता है, किन्तु परमेश्वर के लिए, वह उन चीज़ों में से एक ही है जिनकी उसने रचना की है; यह मात्र इतना ही है कि उनकी भूमिका सेवाकर्ता की है। उन दोनों के ही परमेश्वर के प्राणी होने के नाते, क्या एक सेवाकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति के बीच कोई अन्तर है? वस्तुतः, अंतर नहीं है। नाममात्र के लिए कहें तो, एक अंतर है; सार का और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के लिहाज से एक अंतर है—किन्तु परमेश्वर लोगों के इस समूह से कोई भेदभाव नहीं करता है। तो क्यों इन लोगों को सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित किया जाता है? तुम लोगों को इस बात की कुछ समझ तो होनी ही चाहिए! सेवाकर्ता अविश्वासियों में से आते हैं। जैसे ही हम यह उल्लेख करते हैं कि वे अविश्वासियों में से आते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका अतीत बुरा है: वे सब नास्तिक हैं और अतीत में भी ऐसे ही थे; वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे, और उसके, सत्य के, और सभी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुतापूर्ण थे। वे परमेश्वर या उसके अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं? यह कहना उचित होगा कि, काफी हद तक, वे सक्षम नहीं हैं। ठीक जैसे कि पशु मनुष्य के शब्दों को समझने में सक्षम नहीं हैं, वैसे ही सेवाकर्ता भी यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है या वह ऐसी माँगें क्यों करता है। वे नहीं समझते; ये बातें उनकी समझ से बाहर हैं, और वे अप्रबुद्ध रहते हैं। इस कारण से, वे लोग उस जीवन को धारण नहीं करते हैं जिसके बारे में हमने बात की थी। बिना जीवन के, क्या लोग सत्य को समझ सकते हैं? क्या वे सत्य से सुसज्जित हैं? क्या उनके पास परमेश्वर के वचनों का अनुभव और ज्ञान है? (नहीं।) सेवाकर्ताओं के उद्गम ऐसे ही हैं। किन्तु, चूँकि परमेश्वर इन लोगों को सेवाकर्ता बनाता है, इसलिए उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी मानक हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता है, न ही वह उनके प्रति बेपरवाह है। यद्यपि वे उसके वचनों को नहीं समझते हैं, और उनके पास जीवन नहीं है, फिर भी परमेश्वर उनके प्रति दयावान है, और तब भी उनसे उसकी अपेक्षाओं के मानक हैं। तुम लोगों ने अभी-अभी इन मानकों के बारे में बोला: परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना और वह करना जो वह कहता है। अपनी सेवा में तुम्हें अवश्य वहीं सेवा करनी चाहिए जहाँ आवश्यकता है, और बिल्कुल अंत तक सेवा करनी चाहिए। यदि तुम एक निष्ठावान सेवाकर्ता बन सकते हो, बिल्कुल अंत तक सेवा करने में सक्षम हो, और परमेश्वर द्वारा तुम्हें दिए सौंपे आदेश को पूर्ण कर सकते हो, तो तुम एक मूल्यों वाला जीवन जियोगे। यदि तुम इसे कर सकते हो, तो तुम शेष रह पाओगे। यदि तुम थोड़ा अधिक प्रयास करते हो, यदि तुम थोड़ा अधिक परिश्रम से प्रयास करते हो, परमेश्वर को जानने के अपने प्रयासों को दोगुना कर पाते हो, परमेश्वर को जानने को लेकर थोड़ा भी बोल पाते हो, उसकी गवाही दे सकते हो, और इसके अतिरिक्त, यदि तुम परमेश्वर की इच्छा में से कुछ समझ सकते हो, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सकते हो, और परमेश्वर के इरादों के प्रति कुछ-कुछ सचेत हो सकते हो, तब एक सेवाकर्ता के तौर पर तुम अपने भाग्य में बदलाव महसूस करोगे। और भाग्य में यह परिवर्तन क्या होगा? अब तुम शेष नहीं रह पाओगे। तुम्हारे आचरण और तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षाओं और खोज के आधार पर, परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से एक बनाएगा। यह तुम्हारे भाग्य में परिवर्तन होगा। सेवाकर्ताओं के लिए इसमें सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन सकते हैं। यदि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन जाते हैं तो इसका अर्थ है कि उनका अब अविश्वासियों के समान पशु के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हाँ, है, और यह भी एक अच्छा समाचार है: इसका अर्थ है कि सेवाकर्ताओं को ढाला जा सकता है। ऐसी बात नहीं है कि सेवा करने वाले के लिए, जब परमेश्वर उसे सेवा के लिए पूर्वनिर्धारित करता है, तो वह हमेशा ऐसा ही करेगा; ऐसा होना आवश्यक नहीं है। परमेश्वर उसे उसके व्यक्तिगत आचरण के आधार पर सबसे उपयुक्त तरीके से संभालेगा और उसे उत्तर देगा।

परन्तु, ऐसे सेवाकर्ता भी हैं जो बिल्कुल अन्त तक सेवा नहीं कर पाते हैं; ऐसे भी हैं जो अपनी सेवा के दौरान, आधे रास्ते ही हार मान जाते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, साथ ही ऐसे लोग भी हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे भी हैं जो परमेश्वर के कार्य को बड़ा नुकसान करते हैं और बड़ी क्षति पहुँचाते हैं, और ऐसे सेवा करने वाले भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं, इत्यादि। ये असाध्य परिणाम क्या संकेतित करते हैं? ऐसे किसी भी दुष्टता पूर्ण कार्यों का अर्थ उनकी सेवाओं की समाप्ति होगा। क्योंकि तुम्हारे सेवा काल के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत ख़राब रहा है, और क्योंकि तुमने अपनी हदें पार की हैं, जब परमेश्वर देखता है कि तुम्हारी सेवा अपेक्षित स्तर तक नहीं है, वह तुम्हें सेवा करने की तुम्हारी पात्रता से वंचित कर देगा। वह तुम्हें और सेवा करने की अनुमति नहीं देगा; वह तुम्हें अपनी आँखों के सामने से, और परमेश्वर के घर से हटा देगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम सेवा नहीं करना चाहते हो? क्या तुम हमेशा दुष्टता करना नहीं चाहते हो? क्या तुम लगातार विश्वासघाती नहीं रहे हो? तब ठीक है, एक सरल उपाय है: तुम्हें सेवा करने की तुम्हारी पात्रता से वंचित कर दिया जाएगा। परमेश्वर की दृष्टि में, किसी सेवाकर्ता को उसकी सेवा करने की पात्रता से वंचित करने का अर्थ है कि उस सेवाकर्ता के अन्त की घोषणा की जा चुकी है, और ऐसे लोग परमेश्वर की अब और सेवा करने पात्र नहीं होंगे। परमेश्वर को इस व्यक्ति की सेवा की अब और आवश्यकता नहीं है, और चाहे वह कितनी ही अच्छी बातें क्यों न करें, वे बातें व्यर्थ होंगी। जब हालात इस स्थिति तक पहुँच जाएँगे, तो यह परिस्थिति असाध्य बन गई होगी; इस तरह के सेवाकर्ताओं के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होगा। और परमेश्वर इस प्रकार के सेवाकर्ताओं के साथ किस प्रकार से निपटता है? क्या वह केवल उन्हें सेवा करने से रोक देता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल बने रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है, और उनके सुधरने की प्रतीक्षा करता है? वह ऐसा नहीं करता है। सचमुच, परमेश्वर सेवाकर्ताओं के प्रति इतना प्रेममय नहीं है। यदि परमेश्वर की सेवा के प्रति किसी व्यक्ति की इस प्रकार की प्रवृत्ति है, तो इस प्रवृत्ति के कारण, परमेश्वर उसे सेवा करने की उसकी पात्रता से वंचित कर देगा, और उसे एक बार फिर से अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवा करने वाले को अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसका क्या भाग्य होता है? वह अविश्वासियों के समान ही होता है: उन्हें एक पशु के रूप में पुनर्जन्म दिया जाएगा और आध्यात्मिक दुनिया में अविश्वासियों वाला दण्ड दिया जाएगा। इसके अलावा, इस व्यक्ति के दण्ड में परमेश्वर किसी तरह की व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि परमेश्वर के कार्य से अब ऐसे व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। यह न केवल परमेश्वर में उनकी आस्था के जीवन का अन्त है, बल्कि उनके स्वयं के भाग्य का भी अन्त है, साथ ही यह उनके भाग्य की उद्घोषणा है। इस प्रकार, यदि सेवाकर्ता ख़राब ढंग से सेवा करते हैं, तो उन्हें स्वयं परिणाम भुगतने पड़ेंगे। यदि कोई सेवाकर्ता बिल्कुल अन्त तक सेवा करने में असमर्थ है, या उसे बीच में ही सेवा करने की उसकी पात्रता से वंचित कर दिया जाता है, तो उसे अविश्वासियों के बीच फेंक दिया जाएगा—और यदि ऐसा होता है तो उसके साथ मवेशियों के समान ही, उसी प्रकार से निपटा जाएगा जैसे कि अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ निपटा जाता है। जब इसे मैं इस प्रकार से कहता हूँ, तो तुम्हारी समझ में आता है, है न?

परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु चक्र को कैसे सँभालता है, यह ऊपर उल्लिखित है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी इस विषय पर बोला है? क्या मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के विषय पर कभी बोला है? दरअसल मैंने बोला है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के प्रति धार्मिक है। हर तरह से, वह धार्मिक है। क्या मैंने सही कहा? क्या तुम इसमें कहीं दोष ढूँढ सकते हो? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो कहेंगे: "क्यों परमेश्वर चुने हुओं के प्रति इतना सहिष्णु है? और क्यों वह सेवाकर्ताओं के प्रति केवल थोड़ा सा ही सहिष्णु है?" क्या कोई सेवाकर्ताओं के लिये खड़े होने की इच्छा रखता है? "क्या परमेश्वर सेवाकर्ताओं को और समय दे सकता है, तथा उनके प्रति और अधिक धैर्यवान और सहिष्णु हो सकता है?" क्या ऐसा प्रश्न पूछना सही है? (नहीं, ये सही नहीं हैं।) और सही क्यों नहीं है? (क्योंकि हमें सेवाकर्ता बनाकर वास्तव में हम पर उपकार दर्शाया गया है।) सेवाकर्ताओं को केवल सेवा की अनुमति देकर ही उन पर उपकार दर्शाया गया है! "सेवाकर्ता" की पदवी के और उस कार्य के बिना जो वे करते हैं, ये सेवा करने वाले कहाँ होते? ये अविश्वासियों के बीच होते, मवेशियों के साथ जीते और मरते हुए। आज वे, परमेश्वर के सामने और परमेश्वर के घर में आने की अनुमति पाकर, कितने अनुग्रह का आनंद लेते हैं! यह एक ज़बरदस्त अनुग्रह है! यदि परमेश्वर ने तुम्हें सेवा करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी उसके सामने आने का अवसर न मिलता। और क्या कहें, यहाँ तक कि यदि तुम कोई ऐसे हो जो बौद्ध धर्म को मानता है और जिसने परिपक्वता को पा लिया है, तो ज़्यादा से ज़्यादा तुम आध्यात्मिक दुनिया में छोटा-मोटा प्रशासनिक कार्य करने वाले हो; तुम कभी भी परमेश्वर से नहीं मिलोगे, उसकी आवाज़ नहीं सुनोगे, उसके वचनों को नहीं सुनोगे, या उसके प्रेम और आशीषों को महसूस नहीं करोगे, और न ही तुम संभवतः कभी उसके आमने-सामने ही हो सकोगे। बौद्धों के सामने केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते हैं, और वे केवल अनुपालन और आज्ञापालन करते हैं, जबकि सेवाकर्ता कार्य के इस चरण में बहुत अधिक प्राप्त करते हैं! सर्वप्रथम, वे परमेश्वर के आमने-सामने आने, उसकी आवाज़ को सुनने, उसके वचनों को सुनने, और उन अनुग्रहों और आशीषों का अनुभव करने में समर्थ होते हैं जो वह लोगों को देता है। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिये गए वचनों और सत्यों का आनंद उठा पाते हैं। सेवाकर्ताओं को वास्तव में बहुत ज्यादा प्राप्त होता है! इस प्रकार यदि एक सेवाकर्ता के रूप में, तुम सही प्रयत्न नहीं भी कर सकते हो, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें रखेगा? वह तुम्हें नहीं रख सकता है। वह तुमसे ज्यादा माँग नहीं करता है, बल्कि तुम वह कुछ भी सही ढंग से नहीं करते हो जो वह तुमसे चाहता है; तुम अपने कर्तव्य के मुताबिक नहीं चले हो। इसलिए, निस्संदेह, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता है। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नख़रे नहीं उठाता है, किन्तु वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करता है। इन्हीं सिद्धांतों के अनुसार परमेश्वर कार्य करता है। सभी लोगों और प्राणियों के प्रति परमेश्वर इसी तरह से कार्य करता है।

जब आध्यात्मिक दुनिया की बात आती है, तो यदि इसके विभिन्न जीव कुछ ग़लत करते हैं, या अपने कार्य को ठीक ढंग से नहीं करते हैं, तो परमेश्वर के पास उनसे निपटने के लिए उसी के अनुरूप स्वर्गिक अध्‍यादेश और निर्णय हैं; यह परम सिद्धांत है। इसलिए, परमेश्वर के कई-हजारों-वर्षों के प्रबंधन कार्य के दौरान, कुछ कर्तव्यपालकों जिन्होंने ग़लत कार्य किया था, उन्हें पूर्णतया विनष्ट कर दिया गया है, जबकि कुछ आज भी हिरासत में हैं और दंडित किए जा रहे हैं। आध्यात्मिक दुनिया में हर प्राणी को इसका सामना अवश्य करना पड़ता है। यदि वे कुछ ग़लत करते हैं या कोई दुष्टता करते हैं, तो वे दंडित किए जाते हैं—और यह वैसा ही है जैसा कि परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के साथ करता है। इस प्रकार, चाहे आध्यात्मिक दुनिया हो या भौतिक संसार, परमेश्वर जिन सिद्धांतों पर काम करता है, वे बदलते नहीं हैं। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम परमेश्वर के कार्यकलापों को देख सकते हो या नहीं, उसके सिद्धांत नहीं बदलते हैं। हमेशा से ही, सभी चीजों के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और सभी चीज़ों को सँभालने के उसके सिद्धांत एक ही रहे हैं। यह अपरिवर्तनशील है। परमेश्वर अविश्वासियों में से उन लोगों के प्रति दयालु रहेगा जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में से उन लोगों के लिये अवसर बचाकर रखेगा जो सद्व्यवहार करते हैं और दुष्टता नहीं करते हैं, उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रबंधन की गई सभी चीज़ों में एक भूमिका निभाने देगा, और वह करने देगा जो उन्हें करना चाहिए। इसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उन लोगों के बीच जो उसके चुने हुए हैं, परमेश्वर इन सिद्धांतों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करता है। जो कोई भी ईमानदारी से उसका अनुसरण कर पाता है, वह उसके प्रति दयालु है, और उस हर एक को प्रेम करता है जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है। केवल इतना ही है कि इन विभिन्न प्रकार के लोगों—अविश्वासियों, विभिन्न आस्थाओं वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—के लिए वह जो उन्हें प्रदान करता है, वह भिन्न होता है। उदाहरण के लिए अविश्वासियों को ही लो: यद्यपि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, और परमेश्वर उन्हें जंगली जानवरों के रूप में देखता है, फिर भी सब बातों के बीच उनमें से हर एक के पास खाने के लिए भोजन होता है, उनका अपना एक स्थान होता है, और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो दुष्टता करते हैं वे दण्ड पाते हैं और जो भला करते हैं वे आशीष पाते हैं और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? आस्थावान लोगों के लिए, यदि वे पुनर्जन्म-दर-पुनर्जन्म अपने धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन कर पाते हैं, तो इन सभी पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः उनके लिए अपनी उद्घोषणा करेगा। इसी प्रकार, आज तुम लोगों के लिए, चाहे तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो या कोई सेवाकर्ता हो, परमेश्वर समान रूप से तुम्हें राह पर लाएगा और अपने द्वारा नियत किए गए विनियमों और प्रशासनिक आदेशों के अनुसार तुम लोगों का अंत निर्धारित करेगा। इस तरह के लोगों के बीच, विविध प्रकार की आस्था के लोगों के बीच – यानि जो विविध धर्मों से संबंधित हैं—क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी कहाँ हैं? क्या परमेश्वर ने उनकी आस्था में हस्तक्षेप किया है? उसने नहीं किया है, है न? और ईसाइयों का क्या? उसने उनमें में भी हस्तक्षेप नहीं किया है। वह उन्हें उनकी स्वयं की पद्धतियों का पालन करने देता है। वह उनसे बात नहीं करता है, या उन्हें कोई प्रबुद्धता नहीं देता है, और, इसके अलावा, वह उन पर कुछ भी प्रकट नहीं करता है। यदि तुम्हें लगता है कि यह सही है, तो इसी तरह से विश्वास करो। कैथोलिक मरियम पर विश्वास करते हैं, और इस पर कि यह मरियम के माध्यम से था कि समाचार यीशु तक पहुँचाया गया था; उनकी आस्था ऐसा ही रूप है। क्या कभी परमेश्वर ने उनके विश्वास को सुधारा है? परमेश्वर उन्हें स्वतंत्र छोड़ देता है; वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता है, और उन्हें जीवित रहने के लिए एक निश्चित स्थान देता है। क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही नहीं है? उसने उनके लिए भी सीमाएं तय कर दी हैं, और, उनकी संबंधित आस्थाओं में हस्तक्षेप किए बिना, उन्हें स्वयं का जीवित रहने का स्थान लेने देता है। सब कुछ सुव्यवस्थित है। और इस सब में तुम लोग क्या देखते हो? यही कि परमेश्वर अधिकार धारण करता है, किन्तु वह अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं करता है। परमेश्वर सभी चीजों को अचूक क्रम में व्यवस्थित करता है और रीतिबद्ध तरीके से ऐसा करता है, और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता निहित है।

आज हमने एक नये और खास विषय पर बात की है, जिसका संबंध आध्यात्मिक दुनिया से है, जो कि आध्यात्मिक दुनिया के परमेश्वर के प्रबंधन के एक पहलू और उस साम्राज्य पर उसके प्रभुत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इन बातों को समझने से पहले हो सकता है कि तुमने कहा हो: "इससे संबंधित हर चीज़ एक रहस्य है, और इसका हमारे जीवन में प्रवेश से कुछ लेना देना नहीं है; ये चीज़ें उन बातों से अलग हैं कि लोग कैसे जीते हैं, और हमें उन्हें समझने की आवश्यकता नहीं है और न ही हम उनके बारे में सुनना चाहते हैं। परमेश्वर को जानने से उनका बिल्कुल भी कोई संबंध नहीं है"। अब, क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐेसी सोच के साथ कोई समस्या है? क्या यह सही है? (नहीं।) ऐसी सोच सही नहीं है, और इसमें गंभीर समस्याएँ है। इसका कारण यह है कि यदि तुम यह समझने की इच्छा रखते हो कि कैसे परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, तो तुम मात्र और केवल यह नहीं समझ सकते कि तुम क्या देख सकते हो और तुम्हारी सोच कहाँ तक जा सकती है; तुम्हें उस दूसरी दुनिया को भी थोड़ा अवश्य ही समझना होगा जो तुम्हारे लिए अदृश्य हो सकती है, किन्तु इस जगत से जटिलता से जुड़ी हुई है जिसे तुम देख सकते हो। यह परमेश्वर की संप्रभुता से संबंधित है, और इसका संबंध "परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है" विषय से है। यह उसके बारे में जानकारी है। इस जानकारी के बिना, इस बारे में लोगों के ज्ञान में दोष और कमियाँ होंगी कि कैसे परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है। इस प्रकार, आज हमने जिस बारे में बात की है, उसे हमारे पिछले विषयों और साथ ही "परमेश्वर सभी चीज़ों के जीवन का स्रोत है" की विषय-वस्तु का समापन किया जाना कहा जा सकता है। इसे समझ लेने के बाद, क्या तुम लोग इस विषय-वस्तु के माध्यम से परमेश्वर को जानने में समर्थ हो? इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आज, मैंने सेवाकर्ताओं से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण सूचना तुम लोगों को दी है। मैं जानता हूँ कि तुम लोग इस तरह के विषयों को सुनना वास्तव में पसंद करते हो और तुम लोग वास्तव में इन बातों की परवाह करते हो। तो इसलिए मैंने आज जो चर्चा की है, क्या तुम लोग उससे संतुष्ट हो? (हाँ, हम हैं।) तुम लोगों पर शायद अन्य कुछ बातों का ज़बरदस्त प्रभाव न हुआ हो, परन्तु सेवाकर्ताओं के बारे में मैंने जो कुछ कहा है, उसका विशेष रूप से ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है, क्योंकि यह विषय तुममें से हरेक की आत्मा को स्पर्श करता है।

परमेश्वर का वचन” खंड अंत के दिनों में सभी मनुष्यों के लिए परमेश्वर के वचन को साझा करता है, जिससे ईसाईयों को परमेश्वर के बारे में अधिक जानने में मदद मिलती है।

उत्तर यहाँ दें