आज हम पहले मानवजाति के सृजन के बाद से परमेश्वर के विचारों, मतों और उसकी प्रत्येक गतिविधि का सारांश प्रस्तुत करेंगे। हम इस पर एक नज़र डालेंगे कि उसने संसार की रचना करने से लेकर अनुग्रह के युग के आधिकारिक आरंभ तक कौन-सा कार्य किया है। तब हम यह पता लगा सकते हैं कि परमेश्वर के कौन-से विचार और मत मनुष्य के लिए अज्ञात हैं, और वहाँ से हम परमेश्वर की प्रबंधन योजना के क्रम को स्पष्ट कर सकते हैं, और उस संदर्भ को अच्छी तरह से समझ सकते हैं, जिसमें परमेश्वर ने अपने प्रबंधन के कार्य, उसके स्रोत और विकास की प्रक्रिया को बनाया था, और यह भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि वह अपने प्रबंधन-कार्य से कौन-से परिणाम चाहता है—अर्थात् उसके प्रबंधन-कार्य का मर्म और उद्देश्य। इन चीज़ों को समझने के लिए हमें एक सुदूर, स्थिर और शांत समय में जाने की आवश्यकता है, जब मनुष्य नहीं थे ...
जब परमेश्वर अपनी सेज से उठा, तो पहला विचार जो उसके मन में आया, वह यह था : एक जीवित व्यक्ति—एक वास्तविक, जीवित मनुष्य को बनाना—ऐसा मनुष्य, जो उसके साथ रहे और उसका निरंतर साथी बने; वह व्यक्ति उसे सुन सके, और परमेश्वर उस पर भरोसा कर सके और उसके साथ बात कर सके। तब, पहली बार, परमेश्वर ने मुट्ठी भर धूल उठाई और अपने मन में की गई कल्पना के अनुसार सबसे पहला जीवित व्यक्ति बनाने के लिए उसका उपयोग किया, और फिर उसने उस जीवित प्राणी को एक नाम दिया—आदम। इस जीवित और साँस लेते हुए प्राणी को बना चुकने के बाद परमेश्वर ने कैसा महसूस किया? पहली बार उसने एक प्रियजन, एक साथी होने का आनंद महसूस किया। पहली बार उसने पिता होने के उत्तरदायित्व और उसके साथ आने वाली चिंता को भी महसूस किया। यह जीवित और साँस लेता हुआ प्राणी परमेश्वर के लिए प्रसन्नता और आनंद लेकर आया; उसने पहली बार चैन का अनुभव किया। यह वह पहला कार्य था, जो परमेश्वर ने कभी किया था, जो परमेश्वर के विचारों या वचनों से संपन्न नहीं हुआ था, बल्कि जो उसने अपने हाथों से किया था। जब इस प्रकार का प्राणी—एक जीवित और साँस लेता हुआ व्यक्ति—परमेश्वर के सामने खड़ा हुआ, जो शरीर और आकार के साथ मांस और लहू से बना था, और जो परमेश्वर से बातचीत करने में सक्षम था, तो उसने ऐसा आनंद महसूस किया, जो उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। परमेश्वर ने वास्तव में अपना उत्तरदायित्व महसूस किया और इस जीवित प्राणी ने न केवल उसके हृदय को आकर्षित कर लिया, बल्कि उसकी हर एक छोटी-सी चेष्टा ने भी उसे द्रवित कर दिया और उसके हृदय को उत्साह से भर दिया। जब यह जीवित प्राणी परमेश्वर के सामने खड़ा हुआ, तो पहली बार उसे उस तरह के और लोगों को प्राप्त करने का विचार आया। यही घटनाओं की वह शृंखला थी, जो परमेश्वर को आए इस पहले विचार के साथ आरंभ हुई। परमेश्वर के लिए ये सभी घटनाएँ पहली बार घटित हो रही थीं, किंतु इन पहली घटनाओं में, भले ही उसने उस समय कैसा भी महसूस किया हो—आनंद, उत्तरदायित्व, चिंता—उसे साझा करने के लिए उसके पास कोई नहीं था। उस पल से आरंभ करके, परमेश्वर ने सच में ऐसा एकाकीपन और उदासी महसूस की, जो उसने पहले कभी महसूस नहीं की थी। उसे लगा कि मनुष्य उसके प्रेम और चिंता को, या मनुष्य के लिए उसके इरादों को स्वीकार नहीं कर सकता या समझ नहीं सकता, इसलिए उसे अभी भी अपने हृदय में दुःख और दर्द महसूस हुआ। यद्यपि उसने ये चीज़ें मनुष्य के लिए की थीं, किंतु मनुष्य इससे अवगत नहीं था और उसने इसे समझा नहीं था। प्रसन्नता के अलावा जो आनंद और संतुष्टि मनुष्य उसके लिए लाया था, वह शीघ्रता से अपने साथ उसके लिए उदासी और एकाकीपन की प्रथम भावना भी साथ लेकर आया। उस समय परमेश्वर के ये ही विचार और भावनाएँ थीं। जब परमेश्वर ये सब चीज़ें कर रहा था, तो अपने हृदय में वह आनंद से दुःख की ओर, और दुःख से पीड़ा की ओर चला गया, और ये सब भावनाएँ चिंता से घुल-मिल गईं। जो कुछ वह करना चाहता था, वह था इस व्यक्ति, इस मनुष्य को यह ज्ञात करवाना कि परमेश्वर के हृदय में क्या है, और शीघ्रता से अपनी इच्छाओं को समझवाना। तब वे लोग उसके अनुयायी बन सकते हैं और उसकी इच्छा के अनुरूप हो सकते हैं। वे अब केवल परमेश्वर को बोलते हुए नहीं सुनेंगे और मूक नहीं बने रहेंगे; वे अब इस बात से अनजान नहीं रहेंगे कि परमेश्वर के साथ उसके कार्य में कैसे जुड़ें; इन सबसे ऊपर, वे अब परमेश्वर की अपेक्षाओं से उदासीन लोग नहीं रहेंगे। परमेश्वर द्वारा की गई ये पहली चीज़ें बहुत अर्थपूर्ण हैं और उसकी प्रबंधन-योजना के लिए और आज मनुष्यों के लिए बड़ा मूल्य रखती हैं।
सभी चीज़ों और मनुष्यों का सृजन करने के बाद परमेश्वर ने आराम नहीं किया। वह अपने प्रबंधन को कार्यान्वित करने के लिए और उन लोगों को प्राप्त करने के लिए बेचैन और उत्सुक था, जिन्हें उसने मानवजाति के बीच बहुत प्रेम किया था।
आगे, परमेश्वर द्वारा मनुष्यों को रचने के कुछ ही समय बाद, हम बाइबल में देखते हैं कि पूरे संसार में एक बड़ा जल-प्रलय आया। जल-प्रलय के अभिलेख में नूह का उल्लेख है, और ऐसा कहा जा सकता है कि नूह वह पहला व्यक्ति था, जिसने परमेश्वर का एक कार्य पूरा करने हेतु उसके साथ काम करने के लिए उसका बुलावा प्राप्त किया था। निस्संदेह, यह भी पहली बार ही था, जब परमेश्वर ने अपनी आज्ञानुसार कुछ करने के लिए पृथ्वी पर किसी इंसान का आह्वान किया था। जब नूह ने जहाज़ बनाने का काम पूरा कर लिया, तो परमेश्वर ने पहली बार पृथ्वी पर जल-प्रलय किया। जब परमेश्वर ने पृथ्वी को जल-प्रलय से नष्ट कर दिया, तो मनुष्यों का सृजन करने के समय से अब तक पहली बार ऐसा हुआ कि उसने अपने आप को उनके प्रति घृणा के वशीभूत महसूस किया था; इसी ने परमेश्वर को इस मानवजाति को जल-प्रलय द्वारा नष्ट करने का दर्दनाक निर्णय लेने के लिए मजबूर किया था। जल-प्रलय द्वारा पृथ्वी को नष्ट कर देने के बाद, परमेश्वर ने मनुष्यों के साथ अपनी पहली वाचा बाँधी, यह दर्शाने वाली वाचा कि वह दुनिया को फिर कभी जल-प्रलय से नष्ट नहीं करेगा। उस वाचा का चिह्न इंद्रधनुष था। यह मानवजाति के साथ परमेश्वर की पहली वाचा थी, इसलिए इंद्रधनुष परमेश्वर द्वारा दी गई वाचा का पहला चिह्न था; इंद्रधनुष एक वास्तविक, भौतिक चीज़ है, जो मौजूद है। यह इंद्रधनुष की मौजूदगी ही है, जो परमेश्वर को पूर्ववर्ती मानवजाति के लिए, जिसे उसने खो दिया था, अकसर उदासी महसूस करवाता है, और उसके लिए एक निरंतर अनुस्मारक के रूप में काम करता है कि उनके साथ क्या हुआ था...। परमेश्वर अपनी गति धीमी नहीं करना चाहता था—वह अपने प्रबंधन में अगला कदम उठाने के लिए बेचैन और उत्सुक था। तत्पश्चात्, परमेश्वर ने संपूर्ण इस्राएल में अपने कार्य के लिए अपनी पहली पसंद के रूप में अब्राहम को चुना। यह भी पहली बार था कि परमेश्वर ने ऐसे किसी उम्मीदवार को चुना था। परमेश्वर ने इस व्यक्ति के माध्यम से मानवजाति को बचाने का अपना कार्य शुरू करने और इस व्यक्ति के वंशजों के बीच अपना कार्य जारी रखने का संकल्प लिया। हम बाइबल में देख सकते हैं कि परमेश्वर ने अब्राहम के साथ यही किया। तब परमेश्वर ने इस्राएल को अपनी प्रथम चुनी हुई भूमि बनाया, और अपने चुने हुए लोगों, इस्राएलियों, के माध्यम से व्यवस्था के युग का अपना कार्य आरंभ किया। एक बार फिर पहली बार, परमेश्वर ने इस्राएलियों को स्पष्ट नियम और व्यवस्थाएँ प्रदान कीं, जिनका पालन मानवजाति को करना चाहिए, और उसने उन्हें विस्तार से समझाया। यह पहली बार था कि परमेश्वर ने मनुष्यों को ऐसे विशिष्ट, मानकीकृत नियम प्रदान किए थे कि उन्हें किस प्रकार बलिदान करना चाहिए, उन्हें किस प्रकार जीना चाहिए, उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, उन्हें कौन-से त्योहार और दिन मनाने चाहिए, और अपने हर कार्य में उन्हें किन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। यह पहली बार था कि परमेश्वर ने मनुष्यों को इस बारे में इतने विस्तृत, मानकीकृत विनियम और सिद्धांत दिए थे कि उन्हें अपना जीवन किस प्रकार जीना चाहिए।
हर बार जब मैं कहता हूँ "पहली बार", तो यह कार्य के उस प्रकार को संदर्भित करता है, जो परमेश्वर ने पहले कभी नहीं किया था। यह उस कार्य को संदर्भित करता है, जो पहले अस्तित्व में नहीं था, और यद्यपि परमेश्वर ने मानवजाति और सब प्रकार के जीवों और जीवित प्राणियों का सृजन किया था, फिर भी उसने इस प्रकार का कार्य पहले कभी नहीं किया था। इस समस्त कार्य में परमेश्वर द्वारा मनुष्यों का प्रबंधन शामिल था; यह सब मनुष्यों और परमेश्वर द्वारा उनके उद्धार और प्रबंधन से संबंधित था। अब्राहम के बाद, परमेश्वर ने एक बार फिर एक अन्य प्रथम कार्य किया—उसने अय्यूब को ऐसे व्यक्ति के रूप में चुना, जो व्यवस्था के अधीन रहता था और निरंतर परमेश्वर का भय मानते हुए और बुराई से दूर रहते हुए और परमेश्वर की गवाही देते हुए शैतान के प्रलोभनों का सामना कर सकता था। यह भी पहली बार ही था कि परमेश्वर ने शैतान को किसी इंसान को प्रलोभित करने दिया था, और पहली बार उसने शैतान के साथ शर्त लगाई थी। अंतत:, पहली बार उसने किसी ऐसे व्यक्ति को प्राप्त किया, जो शैतान का सामना करते हुए परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम था, ऐसा व्यक्ति शैतान को पूर्णत: शर्मिंदा कर सकता था। जब से परमेश्वर ने मानवजाति को बनाया, तब से यह पहला व्यक्ति था, जिसे उसने प्राप्त किया था जो उसके लिए गवाही देने में सक्षम था। जब परमेश्वर ने इस व्यक्ति को प्राप्त कर लिया, तो अपने प्रबंधन को आगे बढ़ाने और अपने कार्य के अगले चरण के लिए स्थान और लोगों के चयन की तैयारी करते हुए वह अपने प्रबंधन को जारी रखने और अपने कार्य के अगले चरण को कार्यान्वित करने के लिए और भी अधिक उत्सुक हो गया।
इस सबके बारे में संगति करने के बाद, क्या तुम लोगों को परमेश्वर की इच्छा की सही समझ प्राप्त हुई है? परमेश्वर अपने मानवजाति के प्रबंधन और उद्धार की इस घटना को किसी भी अन्य चीज़ से ज़्यादा महत्वपूर्ण समझता है। वह इन चीज़ों को केवल अपने मस्तिष्क से नहीं करता, केवल अपने वचनों से नहीं करता, और निश्चित रूप से आकस्मिक रवैये के साथ नहीं करता—वह इन सभी चीज़ों को एक योजना के साथ, एक लक्ष्य के साथ, मानकों के साथ और अपनी इच्छा के साथ करता है। यह स्पष्ट है कि मानवजाति को बचाने का यह कार्य परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बड़ा महत्व रखता है। कार्य चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, बाधाएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, मनुष्य चाहे कितने भी कमज़ोर क्यों न हों, या मानवजाति की विद्रोहशीलता चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो, इनमें से कुछ भी परमेश्वर के लिए कठिन नहीं हैं। अपना श्रमसाध्य प्रयास करते हुए और जिस कार्य को वह स्वयं कार्यान्वित करना चाहता है, उसका प्रबंधन करते हुए परमेश्वर अपने आप को व्यस्त रखता है। वह सभी चीज़ों की व्यवस्था भी कर रहा है, और उन सभी लोगों पर, जिन पर वह कार्य करेगा, और उस कार्य पर, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है, अपनी संप्रभुता लागू कर रहा है—इसमें से कुछ भी पहले नहीं किया गया है। यह पहली बार है, जब परमेश्वर ने इन पद्धतियों का उपयोग किया है और मानवजाति को बचाने और उसका प्रबंधन करने की इस बड़ी परियोजना के लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है। कार्य करते हुए परमेश्वर थोड़ा-थोड़ा करके बिना किसी दुराव के मनुष्य के सामने अपने श्रमसाध्य प्रयास को, अपने स्वरूप को, अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को, और अपने स्वभाव के हर एक पहलू को व्यक्त और जारी कर रहा है। वह इन चीज़ों को उस तरह से जारी और व्यक्त करता है, जैसे उसने पहले कभी भी नहीं किया है। इसलिए, पूरे ब्रह्मांड में, उन लोगों को छोड़कर जिन्हें परमेश्वर बचाने और जिनका प्रबंधन करने का उद्देश्य रखता है, कोई प्राणी कभी परमेश्वर के इतना करीब नहीं रहा है, जिसका उसके साथ इतना अंतरंग संबंध हो। उसके हृदय में मानवजाति, जिसका वह प्रबंधन और बचाव करना चाहता है, सबसे महत्वपूर्ण है; वह इस मानवजाति को अन्य सभी से अधिक मूल्य देता है; भले ही उसने उनके लिए एक बड़ी कीमत चुकाई है, और भले ही उनके द्वारा उसे लगातार ठेस पहुँचाई जाती है और उसकी अवज्ञा की जाती है, फिर भी वह कभी उनका त्याग नहीं करता और बिना किसी शिकायत या पछतावे के अनथक रूप से अपना कार्य जारी रखता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह जानता है कि देर-सबेर लोग उसके बुलावे के प्रति जागरूक हो जाएँगे और उसके वचनों से प्रेरित हो जाएँगे, पहचान जाएँगे कि वही सृष्टि का प्रभु है, और उसकी ओर लौट आएँगे ...
आज यह सब सुनने के बाद तुम लोग यह महसूस कर सकते हो कि हर चीज़, जो परमेश्वर करता है, बिलकुल सामान्य होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के वचनों और उसके कार्य से मनुष्यों ने हमेशा उसके कुछ इरादे महसूस किए हैं, लेकिन उनकी भावनाओं या उनके ज्ञान, और परमेश्वर जो सोच रहा है, उनके बीच हमेशा एक निश्चित दूरी रही है। इसीलिए मैं सोचता हूँ कि सभी लोगों के साथ इस बारे में संवाद करना आवश्यक है कि परमेश्वर ने मानवजाति को क्यों बनाया, और उन लोगों को प्राप्त करने की उसकी इच्छा के पीछे की पृष्ठभूमि क्या थी, जिनकी उसने आशा की थी। इसे हर किसी के साथ साझा करना आवश्यक है, ताकि हर एक को अपने हृदय में स्पष्ट हो जाए। चूँकि परमेश्वर का हर एक विचार और मत, और उसके कार्य का हर एक चरण और हर अवधि उसके संपूर्ण प्रबंधन-कार्य से बँधे और निकटता से जुड़े हैं, इसलिए जब तुम परमेश्वर के कार्य के हर कदम में उसके विचारों, मतों और उसकी इच्छा को समझ लेते हो, तो यह इस बात को समझने के समान है कि उसकी प्रबंधन-योजना का कार्य किस प्रकार घटित हुआ। इसी बुनियाद पर परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ गहरी होती है। यद्यपि वह सब-कुछ, जो परमेश्वर ने पहली बार संसार को बनाते हुए किया, जिसका जिक्र मैंने पहले किया था, अब सत्य की खोज के लिए अप्रासंगिक, "जानकारी" मात्र प्रतीत होता है, किंतु तुम्हारे अनुभव के दौरान एक ऐसा दिन आएगा, जब तुम नहीं सोचोगे कि यह जानकारी के कुछ टुकड़ों के समान इतना साधारण है और न ही यह मात्र किसी किस्म का रहस्य है। जैसे-जैसे तुम्हारा जीवन प्रगति करेगा, या जब परमेश्वर तुम्हारे हृदय में थोड़ी जगह ले लेगा, या जब तुम और अच्छी तरह से और गहराई से उसकी इच्छा को समझ जाओगे, तब तुम उसके महत्व और उसकी आवश्यकता को सच में समझ पाओगे, जिसके बारे में मैं आज कह रहा हूँ। चाहे तुम लोग जिस भी हद तक इसे स्वीकार करो; तुम लोगों का इन चीज़ों को समझना और जानना फिर भी आवश्यक है। जब परमेश्वर कुछ करता है, जब वह अपना कार्य संपन्न करता है, चाहे वह उसे अपने विचारों से करे या अपने हाथों से, चाहे उसे उसने पहली बार किया हो या अंतिम बार, अंततः परमेश्वर की एक योजना है, और हर चीज़ जो वह करता है, उसमें उसके उद्देश्य और विचार होते हैं। ये उद्देश्य और विचार परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं और उसके स्वरूप को प्रकट करते हैं। ये दोनों चीज़ें—परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप—हर एक व्यक्ति को समझनी चाहिए। जब व्यक्ति उसके स्वभाव और स्वरूप को समझ जाता है, तो वह धीरे-धीरे यह समझ सकता है कि परमेश्वर जो करता है, वह क्यों करता है और वह जो कहता है, वह क्यों कहता है। इससे उनमें तब परमेश्वर का अनुसरण करने, सत्य की खोज करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन करने के लिए और अधिक विश्वास हो सकता है। अर्थात्, परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ और परमेश्वर में उसका विश्वास एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III