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8 बाइबल छंद बुद्धिमत्ता के बारे में

क्या आप जानते हैं कि जीवन में जटिल लोगों, मामलों और चीजों से बुद्धिमानी से कैसे निपटें? क्या आप एक बुद्धिमान व्यक्ति बनना चाहते हैं जिसे परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया गया हों? मार्ग खोजने के लिए बुद्धि के बारे में निम्नलिखित बाइबल छंद पढ़ें।

“यहोवा का भय मानना बुद्धि का आरम्भ है, और परमपवित्र परमेश्‍वर को जानना ही समझ है” (नीतिवचन 9:10)

“मूर्ख को अपनी ही चाल सीधी जान पड़ती है, परन्तु जो सम्मति मानता, वह बुद्धिमान है” (नीतिवचन 12:15)

“ऐसे लोग हैं जिनका बिना सोच विचार का बोलना तलवार के समान चुभता है, परन्तु बुद्धिमान के बोलने से लोग चंगे होते हैं” (नीतिवचन 12:18)

“बुद्धिमान ज्ञान का ठीक बखान करते हैं, परन्तु मूर्खों के मुँह से मूर्खता उबल आती है” (नीतिवचन 15:2)

“विवेकी मनुष्य की बुद्धि अपनी चाल को समझना है, परन्तु मूर्खों की मूर्खता छल करना है” (नीतिवचन 14:8)

“इसलिए तू भले मनुष्यों के मार्ग में चल, और धर्मियों के पथ को पकड़े रह” (नीतिवचन 2:20)

“मैं बुद्धिमानी से खरे मार्ग में चलूँगा” (भजन संहिता 101:2)

“जब अभिमान होता, तब अपमान भी होता है, परन्तु नम्र लोगों में बुद्धि होती है” (नीतिवचन 11:2)

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

पवित्र शास्त्र के इस भाग में एक मुख्य पंक्ति है: "जिस जिस जीवित प्राणी का जो जो नाम आदम ने रखा वही उसका नाम हो गया।" अतः किसने सभी जीवित प्राणियों को उनके नाम दिए थे? वह आदम था, परमेश्वर नहीं। यह पंक्ति मानवजाति को एक तथ्य बताती है : परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी, जब उसने उसकी सृष्टि की थी। कहने का तात्पर्य है, मनुष्य की बुद्धि परमेश्वर से आई थी। यह एक निश्चितता है। लेकिन क्यों? परमेश्वर ने आदम को बनाया, उसके बाद क्या आदम विद्यालय गया था? क्या वह जानता था कि कैसे पढ़ते हैं? परमेश्वर ने विभिन्न जीवित प्राणियों को बनाया, उसके बाद क्या आदम ने इन सभी प्राणियों को पहचाना था? क्या परमेश्वर ने उसे बताया कि उनके नाम क्या थे? निश्चित ही, परमेश्वर ने उसे यह भी नहीं सिखाया था कि इन प्राणियों के नाम कैसे रखने हैं। यही सत्य है! तो आदम ने कैसे जाना कि इन जीवित प्राणियों को उनके नाम कैसे देने थे और उन्हें किस प्रकार के नाम देने थे? यह उस प्रश्न से संबंधित है कि परमेश्वर ने आदम में क्या जोड़ा जब उसने उसकी सृष्टि की थी। तथ्य साबित करते हैं कि जब परमेश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की, तो उसने अपनी बुद्धि को उसमें जोड़ दिया था।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I' से उद्धृत

परमेश्वर को निहारना और सभी चीजों में परमेश्वर पर निर्भर रहना सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। यह ऐसी चीज है, जिसे ज्यादातर लोग नहीं समझ पाए हैं। इसके बजाय वे किस चीज पर भरोसा करते हैं? "मैं बहुत अध्ययन करता हूँ, परमेश्वर के बहुत सारे वचन सुनता और पढ़ता हूँ, अनेक सभाओं में जाता हूँ, अनेक कौशल और गाने सीखता हूँ। फिर मैं और भी अधिक प्रार्थना करता हूँ, भाई-बहनों के साथ और भी अधिक संगति करता हूँ, अपने कर्तव्यों का और भी अधिक निर्वहन करता हूँ, और भी अधिक कष्ट उठाता हूँ, और भी अधिक कीमत चुकाता हूँ, और भी अधिक चीजों को त्याग करता हूँ, और शायद यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है।" लेकिन तुमने यह सब करने के अंतिम उद्देश्य की अनदेखी कर दी है। चाहे कोई कितना भी सत्य समझता हो या उसने कितने ही कर्तव्यों को पूरा किया हो, उन कर्तव्यों को पूरा करते समय उसने कितने ही अनुभव किये हों, उसका आध्यात्मिक कद कितना ही बड़ा या छोटा हो या वो किसी भी परिवेश में हो, लेकिन अपने हर काम में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखे और उस पर भरोसा किए बिना उसका काम नहीं चल सकता। यही सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि है। मैं इसे सर्वोच्च प्रकार की बुद्धि क्यों कहता हूँ? किसी ने बहुत-से सत्य समझ भी लिए हों तो क्या परमेश्वर पर भरोसा किये बिना काम चल सकता है? कुछ लोगों ने, कुछ अधिक समय तक परमेश्वर में आस्था रखकर, कुछ सत्य समझ लिए हैं और वे कुछ परीक्षणों से भी गुज़रे हैं। उन्हें थोड़ा व्यावहारिक अनुभव हो सकता है, लेकिन वे नहीं जानते कि परमेश्वर पर भरोसा कैसे करना है और वे यह भी नहीं जानते कि परमेश्वर के प्रति श्रद्धा रखकर उस पर कैसे भरोसा करना है। क्या ऐसे लोगों में बुद्धि होती है? ऐसे लोग सबसे ज़्यादा मूर्ख होते हैं, और खुद को चतुर समझते हैं; वे परमेश्वर का भय नहीं मानते और बुराई से दूर नहीं रहते। कुछ लोग कहते हैं, "मैं कई सत्य समझता हूँ और मेरे अंदर सत्य-वास्तविकता है। सैद्धांतिक तरीके से काम करना अच्छा होता है। मैं परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हूँ और मैं जानता हूँ कि परमेश्वर के करीब कैसे जाना है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है कि मैं सत्य पर भरोसा करता हूँ?" सैद्धांतिक रूप से देखा जाए, तो "सत्य पर भरोसा करना" ठीक है। लेकिन कई मौके और स्थितियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनमें लोगों को यही पता नहीं चलता कि सत्य क्या है, या सत्य सिद्धांत क्या हैं। व्यावहारिक अनुभव वाले लोग यह जानते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आए, तो शायद तुम्हें यह पता न हो कि इस मुद्दे से जुड़े हुए सत्य का अभ्यास कैसे करना चाहिए या इसे कैसे लागू करना चाहिए। तुम्हें ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए? चाहे तुम्हें कितना भी व्यावहारिक अनुभव हो, तुम्हारे अंदर सभी स्थितियों में सत्य नहीं हो सकता। चाहे तुमने कितने ही वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया हो, चाहे तुमने कितनी ही चीज़ों का अनुभव किया हो, चाहे तुम कितनी ही काट-छाँट, निपटारे और अनुशासन से गुज़रे हो, क्या तुम सत्य के स्रोत हो? कुछ लोगों का कहना है, "मुझे वचन देह में प्रकट होता है पुस्तक के सभी जाने-माने कथन और अंश याद हैं। मुझे परमेश्वर पर भरोसा करने या परमेश्वर की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है। जब समय आएगा, मैं परमेश्वर के इन वचनों पर ही भरोसा करके आराम से काम चला लूँगा।" जिन वचनों को तुमने याद किया है, वे गतिहीन हैं, लेकिन जिन परिवेशों और अवस्थाओं का तुम सामना करते हो, वे गतिशील हैं। वचनों की शाब्दिक समझ रखने और कई आध्यात्मिक सिद्धांतों के बारे में बात कर लेने का अर्थ सत्य की समझ होना नहीं है, इसका यह अर्थ तो बिल्कुल नहीं है कि तुम्हें हर स्थिति में परमेश्वर की इच्छा की पूरी समझ है। इस तरह, यहाँ सीखने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण सबक है : वो यह है कि लोगों को सभी बातों में परमेश्वर की ओर देखने की ज़रूरत है और ऐसा करके, लोग परमेश्वर पर भरोसा कर सकते हैं। परमेश्वर पर भरोसा रखने से ही लोगों को अनुसरण का मार्ग मिलेगा। अन्यथा, तुम सही तरीके से और सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप कोई काम कर तो सकते हो, लेकिन यदि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते हो, तो तुम जो भी करोगे वह सिर्फ मनुष्य का काम होगा, और यह ज़रूरी नहीं कि वह परमेश्वर को संतुष्ट करे। चूँकि लोगों को सत्य की इतनी उथली समझ होती है, इसलिए संभव है कि वे विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने पर एक ही सत्य का उपयोग करके नियमों का पालन करें और शब्दों और सिद्धांतों से हठपूर्वक चिपके रहें। यह मुमकिन है कि वे कई मामलों को आम तौर पर सत्य सिद्धांतों के अनुरूप पूरा कर लें, लेकिन उसमें परमेश्वर के मार्गदर्शन को या पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं देखा जा सकता है। यहाँ पर एक गंभीर समस्या है, वो यह है कि लोग अपने अनुभव और उन्होंने जो नियम समझे हैं उन पर, और कुछ मानवीय कल्पनाओं पर निर्भर रहकर बहुत से काम करते हैं। वे मुश्किल से ही सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, जो कि परमेश्वर की ओर देखने, उससे प्रार्थना करने, फिर परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन पर भरोसा करके, परमेश्वर की इच्छा को साफ़-साफ़ समझने से प्राप्त होता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि सबसे बड़ी बुद्धिमानी परमेश्वर की ओर देखना और सभी बातों में परमेश्वर पर भरोसा करना है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'विश्वासियों को संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत समझने से ही शुरुआत करनी चाहिए' से उद्धृत

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