बाइबल आराधना के बारे में क्या कहती है? हमें परमेश्वर की आराधना कैसे करनी चाहिए?
प्रभु यीशु ने कहा है, "जिसमें सच्चे भक्त पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही आराधकों को ढूँढ़ता है। परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्चाई से आराधना करें" (यूहन्ना 4:23-24)। प्रभु की अपेक्षा है कि हम आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करें, केवल इसी तरीके से हम उनकी स्वीकृति पा सकते हैं। लेकिन वास्तव में आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करने में कौन सी बात अति आवश्यक है? कुछ भाई-बहन मानते हैं कि हर दिन बाइबल पढ़ना और दिल लगाकर प्रार्थना करना है, और कुछ लोगों का मानना है कि समय पर बैठकों में भाग लेना और हर हफ्ते कलीसिया जाना परमेश्वर की आराधना है, कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि मेहनत करना, काम करना, त्याग करना, और प्रभु के लिए स्वयं को खपाना परमेश्वर की आराधना करना है, इत्यादि। परमेश्वर की आराधना का अभ्यास करने के कई तरीके हैं, लेकिन क्या हम आत्मा और सच्चाई से उनकी आराधना कर रहे हैं? क्या परमेश्वर इस प्रकार के अभ्यास की प्रशंसा करते हैं? आइये, इस पर एक साथ संगति करें।
1. हम सत्य का अभ्यास कर रहे हैं या फिर रीति-रिवाज़ों से चिपके हैं?
जिस क्षण से हम प्रभु पर विश्वास करना शुरू करते हैं, तबसे भले ही हम प्रतिदिन प्रार्थना करें, बाइबल पढ़ें, भजन गायें, कलीसिया जायें, प्रभु की स्तुति करें, और हर हफ्ते उपदेश सुनें, लेकिन क्या आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करने में केवल ये बाहरी अभ्यास ही शामिल हैं? हम याद करें कि जब सामरी स्त्री ने प्रभु यीशु से पूछा कि उसे परमेश्वर की आराधना कहाँ करनी चाहिए, तो प्रभु यीशु ने उत्तर दिया: "वह समय आता है कि तुम न तो इस पहाड़ पर पिता की आराधना करोगे, न यरूशलेम में। ... जिसमें सच्चे भक्त पिता की आराधना आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही आराधकों को ढूँढ़ता है। परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्चाई से आराधना करें" (यूहन्ना 4: 21, 23-24)। प्रभु यीशु ने लोगों को स्पष्ट रूप से परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं के बारे में बताया: इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति परमेश्वर की आराधना कहाँ करता है, न ही एक व्यक्ति को किसी नियम या पद्धति का पालन करना चाहिए, बल्कि उसे आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। यह भी परमेश्वर की आराधना के अभ्यास का हमारा सिद्धांत है। लेकिन ज्यादातर समय हम केवल अपने बाहरी अभ्यासों पर ध्यान केंद्रित करते हैं; हम थोड़ी देर और प्रार्थना करने और थोड़ा अधिक कहने पर ध्यान देते हैं; हम बाइबल के अंशों को बार-बार पढ़ते हैं, उन्हें याद करने की कोशिश करते हैं; चाहे आँधी हो या बारिश, गर्मी हो या ठंडी, हम सभी मौसम में कलीसिया में भाग ज़रूर लेते हैं; हम सभी प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं या प्रभु की स्तुति करने के लिए विभिन्न प्रस्तुतियां पेश करते हैं, और हम हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ भाग लेते हैं; इत्यादि। बाहर से, हम बहुत प्रयास करते हुए और प्रभु की स्तुति करने के लिए एक बड़ी कीमत चुकाते हुए दिखाई देते हैं, और ऐसा लगता है कि हम बहुत पीड़ा झेलते हैं, लेकिन जब हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं तो हम कितनी बार वो बोलते हैं जो हमारे दिल में है? बाइबल पढ़ने, भजन गाने या कलीसिया में भाग लेने और धर्मोपदेश सुनने के दौरान हम कितनी बार परमेश्वर के करीब होने और प्रभु के वचनों पर विचार करने का प्रयास करते हैं? परमेश्वर की आराधना करते हुए हम कितनी बार प्रभु की इच्छा और प्रभु के वचनों की समझ की तलाश करते हैं? कुछ भाई-बहनों ने कई सालों तक इस तरह से अभ्यास किया है, फिर भी वे अभी भी सत्य को नहीं समझते हैं, उन्हें प्रभु का कोई ज्ञान नहीं है, और जब उनके साथ कोई बात हो जाती है, तब भी वे अक्सर पाप करते रहते हैं, पाप के बंधन और बाधाओं के बीच रहते हैं। इसमें हम एक गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं, जो यह है कि प्रार्थना करने, बाइबल पढ़ने, कलीसिया जाने और धर्मोपदेश सुनने में बिताये गये ज्यादातर समय में, हम केवल लापरवाही से बंधे-बंधाये कार्य कर रहे हैं। हम वास्तव में आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना नहीं कर रहे हैं, और न ही हम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। हम चाहे इन बाहरी अभ्यासों का कितनी ही अच्छी तरह से पालन क्यों न करें, परमेश्वर इसे स्वीकार नहीं करते हैं।
तो, हम प्रार्थना करते हुए या बाइबल पढ़ते हुए किस प्रकार आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं? आइये, हम परमेश्वर के वचनों का एक अंश साथ में पढें। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन परमेश्वर के सामने जिया जाने वाला जीवन है। प्रार्थना करते समय, एक व्यक्ति परमेश्वर के सामने अपना हृदय शांत कर सकता है, और प्रार्थना के माध्यम से वह पवित्र आत्मा के प्रबोधन की तलाश कर सकता है, परमेश्वर के वचनों को जान सकता है और परमेश्वर की इच्छा को समझ सकता है। परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने से लोग उसके मौजूदा कार्य के बारे में अधिक स्पष्ट और अधिक गहन समझ प्राप्त कर सकते हैं। वे अभ्यास का एक नया मार्ग भी प्राप्त कर सकते हैं, और वे पुराने मार्ग से चिपके नहीं रहेंगे; जिसका वे अभ्यास करते हैं, वह सब जीवन में विकास हासिल करने के लिए होगा। जहाँ तक प्रार्थना की बात है, वह कुछ अच्छे लगने वाले शब्द बोलना या यह बताने के लिए तुम परमेश्वर के कितने ऋणी हो, उसके सामने फूट-फूटकर रोना नहीं है; बल्कि इसके बजाय इसका उद्देश्य, आत्मा के उपयोग में अपने आपको प्रशिक्षित करना है, परमेश्वर के सामने अपने हृदय को शांत होने देना है, सभी मामलों में परमेश्वर के वचनों से मार्गदर्शन लेने के लिए स्वयं को प्रशिक्षित करना है, ताकि व्यक्ति का हृदय प्रतिदिन नई रोशनी की ओर आकर्षित हो सके, और वह निष्क्रिय या आलसी न हो और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के सही मार्ग पर कदम रखे" ('एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन के विषय में')।
परमेश्वर के वचन हमें अभ्यास का मार्ग दिखाते हैं। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हमें दिल से परमेश्वर से बात करने, ईमानदारी से बोलने, अपनी व्यावहारिक कठिनाइयों और वास्तविक स्थिति के बारे में परमेश्वर को बताने पर ध्यान देना चाहिए। जब हम बाइबल पढ़ते हैं, भजन गाते हैं, कलीसिया जाते हैं, या धर्मोपदेश सुनते हैं, तो हमारे दिलों को हमेशा सत्य की तलाश करने, पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और रोशनी की तलाश करने, परमेश्वर के वचनों पर विचार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि हम परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उनकी इच्छा को समझ सकें, परमेश्वर को जानें, और अभ्यास और प्रवेश का एक मार्ग पा सकें। आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करना केवल यही है। यदि हम इस तरह से अक्सर अभ्यास करें, तो हम जीवन में निरंतर वृद्धि का अनुभव करेंगे।
2. क्या हम परमेश्वर को प्रेम करने और संतुष्ट करने के लिए स्वयं को खपाते हैं?
कई भाई-बहन प्रभु में विश्वास करना शुरू करने के बाद, प्रभु के लिए त्याग करते हैं, स्वयं को खपाते हैं और बड़ी विपत्ति के बीच अपने कार्यों को अंजाम देते हैं। कुछ अक्सर दान करते हैं, कुछ खुद को सुसमाचार फैलाने में व्यस्त कर लेते हैं, कुछ लोग जहाँ भी जाते हैं वहाँ सुसमाचार का प्रचार करते हैं, और कुछ तो अपने विवाह को भी त्याग देते हैं और शेष पूरा जीवन प्रभु की सेवा करते हैं… कई भाई-बहनों का मानना है कि यह आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना है। लेकिन क्या हमने कभी यह सोचा है कि हम इस कीमत का भुगतान, क्या प्रभु को प्यार और संतुष्ट करने के लिए करते हैं? यदि हम इसके बारे में ध्यान से सोचें, तो भले ही हम प्रभु के लिए काम करते हैं और सुसमाचार का प्रचार करते हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी हम दूसरों का सम्मान, समर्थन पाने के लिए, और अपने पद एवं छवि को स्थापित करने के लिए बाइबल का प्रतिपादन करने के माध्यम से स्वयं का दिखावा करते हैं, खुद की गवाही देते हैं। हालाँकि कुछ भाई-बहन, त्याग करते हैं, खुद को खपाते हैं, मेहनत और काम करते हैं, लेकिन फिर भी उनमें बहुत सी अशुद्धियाँ होती हैं, वे पुरस्कार और मुकुट हासिल करने के लिए ये काम करते हैं, और इसलिए करते हैं ताकि वे स्वर्गीय राज्य के आशीष का आनंद ले सकें... हम देख सकते हैं कि हम कीमत चुकाते हैं और खुद को खपाते हैं लेकिन यह परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील होने और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के लिए सच्चे दिल से नहीं किया जाता, बल्कि हमारा काम करना, सुसमाचार का प्रचार करना, चीजों को त्याग देना और स्वयं को खपाना, हमारी अपनी स्वार्थी इच्छाओं की पूर्ति के लिए है। हम अपने स्वयं के भविष्य और पदों के लिए संघर्ष करते हैं। यह आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करना नहीं है। कीमत चुकाना और इस तरह से स्वयं को खपाना परमेश्वर के साथ सौदेबाजी है, और यह प्रभु की स्वीकृति नहीं पा सकता है। प्रभु यीशु ने कहा है, "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ" (मत्ती 7:22-23)। प्रभु ने अपने लिए उपदेश देने वाले और काम करने वाले लोगों की अधर्म करने वालों के रूप में निंदा की थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि वे आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना नहीं करते थे, न ही वे परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खुद को खपाया करते थे। इसके बजाय, वे पुरस्कार और आशीष के बदले में प्रभु के लिए काम करना चाहते थे। वे अपने स्वयं के अंतिम गंतव्यों के साथ-साथ प्रसिद्धि, दौलत और हैसियत के लिए संघर्ष और प्रयास करते थे। अंतत:, न केवल उन्होंने अपने द्वारा भुगतान की गई कीमत से प्रभु की स्वीकृति नहीं पाई, बल्कि इसके विपरीत, उन्हें प्रभु द्वारा निंदा भी मिली। उदाहरण के लिए, उस समय के फरीसियों को लें। पीढ़ियों तक, उन्होंने पवित्रशास्त्र को पढ़ा और हर मौसम में यहोवा परमेश्वर की आराधना करने के लिए मंदिर गये। उन्होंने यहोवा के सुसमाचार को फैलाने के लिए भूमि और समुद्र की यात्रा की, उन्होंने अपने परिवारों और व्यवसायों को त्याग कर स्वयं को खपाया और बहुत पीड़ा भोगी। लेकिन उन्होंने कुछ भी परमेश्वर को प्यार करने या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं किया, बल्कि अपने स्वयं के पदों और आजीविका के लिए किया। जब प्रभु यीशु अपने कार्य को करने के लिए आए, तो फरीसी अच्छी तरह से जानते थे कि प्रभु यीशु के कार्यों और वचनों में अधिकार और सामर्थ्य है, और यह सब परमेश्वर की ओर से आया है, फिर भी उन्होंने बिल्कुल इसकी खोज या जाँच नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार प्रभु को परिभाषित किया, यह मानते हुए कि एक व्यक्ति जिसे मसीहा नहीं कहा जाता था, संभवतः वह परमेश्वर नहीं हो सकता। विशेष रूप से, जब उन्होंने प्रभु यीशु का अनुसरण करने वाले आम लोगों की बढ़ती संख्या को देखा, तो वे डर गए कि अब कोई भी उनका अनुसरण नहीं करेगा, इससे उनके पद और आजीविका की हालत सही नहीं रह गयी थी। इसलिए, उन्होंने प्रभु यीशु पर हमला करने, उनकी आलोचना करने, निंदा करने, तिरस्कार करने का कोई मौका नहीं गंवाया, जब तक कि उन्होंने अंत में उनको सूली पर नहीं चढ़ा दिया। इससे, हम देख सकते हैं कि फरीसियों ने आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना नहीं की। वे बाहर से पवित्र दिखाई देते थे, लेकिन उनका सार कपटी और पाखण्डी था, और इसलिए प्रभु यीशु ने उन्हें यह कहते हुए फटकार लगाई, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय!" (मत्ती 23:13)।
प्रभु यीशु ने कहा है, "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख" (मत्ती 22:37)। परमेश्वर की अपेक्षा है कि हम उनके प्रति प्रेम रखें, और जब हम परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाएं और अपने आप को परमेश्वर के लिए काम करने में व्यस्त करें, तब यह परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने की नींव पर किया जाना चाहिए। हमें किसी भी संदूषण या व्यक्तिगत सौदेबाजी से मुक्त होकर, ईमानदारी से परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील होना चाहिए और उसकी इच्छा को पूरा करना चाहिए। हमें ये चीज़ें आशीष या मुकुट हासिल करने के लिए नहीं करनी चाहिए—केवल यही आत्मा और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करना है। उदाहरण के लिए, पतरस को लें। प्रभु यीशु के पुनर्जीवित होने के बाद, उन्होंने पतरस से तीन बार पूछा: "हे शमौन, यूहन्ना के पुत्र, क्या तू मुझ से प्रेम रखता है? … मेरी भेड़ों की रखवाली कर" (यूहन्ना 21:16)। प्रभु के प्रश्न से, पतरस ने उनकी अपेक्षाओं को और उन्होंने उसे जो कार्य सौंपा था, उसे समझ लिया: परमेश्वर को प्यार करने और संतुष्ट करने वाला व्यक्ति बनने का प्रयास करना, परमेश्वर की भेड़ों को खिलाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देना, और परमेश्वर के आदेश को पूरा करना। प्रभु ने जिस कार्य को पतरस को सौंपा था, उसे उसने अपने दिल पर लिख लिया, और अपने बाद के कार्यों में, उसने अपने दिल और आत्मा से परमेश्वर को कहीं अधिक प्यार और संतुष्ट करने का प्रयास किया। उसने हर दिशा में प्रभु के सुसमाचार को फैलाया, उसने प्रभु के वचनों और इच्छा की अधिक से अधिक लोगों के सामने गवाही दी। अपने काम में, उसने हर तरह से प्रभु को ऊँचा उठाया, उनकी गवाही दी, उसने जो सत्य समझा था उसे इस्तेमाल कर अपने भाई-बहनों का नेतृत्व किया, वह उन सभी को प्रभु के सामने लाया, और उन्हें प्रभु का हर चीज़ से ज़्यादा सम्मान करना सिखाया। इसके अलावा, जब पतरस को उत्पीड़न और विपत्ति का सामना करना पड़ा, तो वह मृत्यु पर्यन्त प्रभु के प्रति निष्ठा की शपथ लेने में सक्षम हुआ, इस प्रकार कि अंत में, उसने अपना सब कुछ, यहाँ तक कि अपना जीवन भी प्रभु के लिए बलिदान कर दिया। उसे सूली पर उल्टा लटका दिया गया, इस प्रकार उसने परमेश्वर के प्रति अपने चरम प्रेम और मृत्यु तक आज्ञापालन करने की इच्छा की गवाही दी। पतरस ने आत्मा में और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना की, उसने एक ऐसे हृदय के साथ खुद को खपाया जो परमेश्वर से प्रेम करता था और अंत में, वह एक ऐसा व्यक्ति बन गया जो प्रभु को प्रसन्न करता था, और जिसकी प्रभु प्रशंसा करते थे।
ऊपर की गयी संगति से, हम देख सकते हैं कि यदि हम आत्मा में और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना करना चाहते हैं, तो हमें परमेश्वर के करीब आने के लिए अपने दिलों का उपयोग करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों से उनकी इच्छा और अपेक्षाओं को समझने की खोज करनी चाहिए, अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना चाहिए, और रीति-रिवाज़ों से चिपके नहीं रहना चाहिए। साथ ही, हमें बदले में कुछ भी मांगे या कोई शर्त रखे बिना, ईमानदारी से परमेश्वर के लिए त्याग करना और खुद को खपाना चाहिए। हमें अपने पूरे दिल और आत्मा से प्रभु को प्यार और संतुष्ट करना चाहिए। इस तरह, हम आत्मा में और सच्चाई से परमेश्वर की आराधना कर सकते हैं। केवल इस तरह से अभ्यास करके ही हम सत्य को समझ सकते हैं और अपने जीवन में विकास प्राप्त कर सकते हैं, और उसके बाद ही हम स्वयं को खपाते हुए परमेश्वर की स्वीकृति पा सकेंगे।
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