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परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 50

527 19/07/2020

अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी मानवता का प्रकटीकरण (अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी खराई, सीधाई, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहने समझना)

जब अय्यूब ने यह सुना कि उसकी सम्पत्ति को चुरा लिया गया, उसके बेटे एवं बेटियां ने अपने जीवन को खो दिया, और उसके सेवकों को मार दिया गया, तो उसने निम्नलिखित रूप से प्रतिक्रिया की: "तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर, भूमि पर गिरा और दण्डवत् की" (अय्यूब 1:20)। ये शब्द हमें एक तथ्य बताते हैं: यह समाचार सुनने के बाद, अय्यूब दर्द से नहीं कराहा, वह रोया नहीं, या उन सेवकों पर दोष नहीं लगाया जिन्होंने उसे समाचार दिया था, और उसने क्यों एवं किस लिए की जांच एवं पड़ताल करने के लिए और यह पता लगाने के लिए कि वास्तव में क्या हुआ था हादसे के स्थल का मुआयना बिलकुल भी नहीं किया। उसने अपनी सम्पत्ति के खो जाने पर किसी पीड़ा या खेद का प्रदर्शन नहीं किया, न ही वह अपने बच्चों, एवं अपने प्रियजनों के खो जाने के कारण फूट फूटकर रोया। इसके विपरीत, उसने अपना बागा फाड़ा, और अपना सिर मुंडाया, और भूमि पर गिर गया, और आराधना की। अय्यूब के कार्य किसी भी समान्य मनुष्य के कार्यों से भिन्न थे। वे बहुत से लोगों को भ्रमित करते हैं, और अय्यूब की "निर्ममता" के कारण अपने मन में उसे झिड़कने को मजबूर करते हैं। अपनी सम्पत्ति को अचानक खो देने पर, साधारण लोग अत्यंत दुखी, या निराश दिखाई देते—या, कुछ लोगों के मामले में, शायद वे भारी तनाव में भी आ जाते। यह इसलिए है क्योंकि लोगों के हृदय में उनकी सम्पत्ति जीवनभर के प्रयास को दर्शाती है, यह ऐसा है जिस पर उनका अस्तित्व निर्भर होता है, यह वह आशा है जो उन्हें जीवित रखती है; उनकी सम्पत्ति के नुकसान का अर्थ है कि उनके प्रयास निरर्थक हैं, यह कि उन्हें कोई आशा नहीं है, और यहाँ तक कि उनके पास कोई भविष्य नहीं है। अपनी सम्पत्ति और नज़दीकी रिश्तों के प्रति जो उनका उनके साथ होता है यह किसी भी समान्य व्यक्ति की मनोवृत्ति होती है, और साथ ही यह लोगों की नज़रों में सम्पत्ति का महत्व भी है। उसी रूप में, अधिकांश लोग अय्यूब की सम्पत्ति के नुकसान के प्रति उसकी शांत मनोवृत्ति से भ्रमित महसूस करते हैं। आज, अय्यूब के हृदय के भीतर क्या कुछ चल रहा था उसका वर्णन कारने के द्वारा हम इन सभी लोगों के भ्रम को दूर करने जा रहे हैं।

सामान्य एहसास यह बताता है कि, परमेश्वर के द्वारा इतनी सारी सम्पत्ति दिए जाने के बाद, इन सम्पत्तियों को खोने के कारण अय्यूब को परमेश्वर के सामने शर्मिन्दगी महसूस करना चाहिए, क्योंकि वह उसकी देखरेख या उनका ख्याल नहीं रख पाया था, वह परमेश्वर के द्वारा दी हुई सम्पत्तियों को संभालकर नहीं रख पाया था। इस प्रकार, जब उसने यह सुना कि उसकी सम्पत्ति चुरा ली गई, उसकी सबसे पहली प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए थी कि वह हादसे के स्थल में जाए और जो कुछ खो गया था उन सामानों की सूची बनाए, और उसके बाद परमेश्वर के सामने अंगीकार करे ताकि वह एक बार फिर से परमेश्वर की आशीषों को प्राप्त कर सके। तौभी अय्यूब ने ऐसा नहीं किया—और ऐसा न करने के लिए उसके पास उसके स्वयं के कुछ कारण थे। अय्यूब अपने हृदय में गहराई से विश्वास करता था कि जो कुछ भी उसके पास था वह उसे परमेश्वर के द्वारा प्रदान किया गया था, और उसके स्वयं के परिश्रम से यह वापस नहीं आता। इस प्रकार, उसने इन आशीषों को एक ऐसी चीज़ के रूप में नहीं देखा था कि उससे लाभ उठाया जाए, परन्तु अपने जीवन के सिद्धान्तों के रूप में वह उस मार्ग पर किसी भी कीमत पर मज़बूती से बना रहा जिस पर उसे बने रहना चाहिए था। उसने परमेश्वर की आशीषों को हृदय में संजोकर रखा, और उनके लिए धन्यवाद दिया, परन्तु वह और अधिक आशीषों के लिए लालायित नहीं हुआ, न ही उसने और अधिक आशीषों की खोज की। अपनी सम्पत्ति के प्रति उसकी मनोवृत्ति यही थी। न तो उसने आशीषें प्राप्त करने के लिए कुछ किया, न ही वह परमेश्वर की आशीषों की कमी या नुकसान के द्वारा दुखित हुआ; न ही वह परमेश्वर की आशीषों के कारण अनियन्त्रित एवं उन्मत रूप से प्रसन्न हुआ, न ही उसने उन आशीषों के कारण जिनका वह लगातार आनन्द उठता था परमेश्वर के मार्गों की उपेक्षा की या परमेश्वर के अनुग्रह को भुलाया। अपनी सम्पत्ति के प्रति अय्यूब की मनोवृत्ति लोगों पर उसकी सच्ची मानवता को प्रकट करती है: पहली बात, अय्यूब एक लोभी मनुष्य नहीं था, और वह अपने भौतिक जीवन में और अधिक वस्तुओं की चाहत करनेवाला मनुष्य नहीं था। दूसरी बात, अय्यूब ने इस बात की कभी चिंता नहीं की या इससे कभी नहीं डरा कि परमेश्वर वह सब ले लेगा जो उसके पास था, जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता के विषय में उसकी मनोवृत्ति थी; अर्थात्, उसके पास कोई मांग या शिकायतें नहीं थीं कि कब या क्या परमेश्वर उससे सब कुछ ले लेगा, और उसने कोई कारण भी नहीं पूछा था कि क्यों ले लेगा, परन्तु उसने केवल परमेश्वर के प्रबंधों को मानने की कोशिश की थी। तीसरी बात, उसने कभी भी यह नहीं माना था कि उसकी सम्पत्तियां उसके प्रयासों से आई थीं, परन्तु यह कि उन्हें परमेश्वर के द्वारा उसे प्रदान किया गया था। यह परमेश्वर पर अय्यूब का विश्वास था, और यह उसकी आस्था का संकेत था। क्या अय्यूब की मानवता और उसके प्रतिदिन के सच्चे अनुसरण को उसके सारांश के तीन बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया था? अय्यूब की मानवता एवं अनुसरण (उद्यम) उसके शान्त आचरण के अभिन्न भाग थे जब उसने अपनी सम्पत्ति के खो जाने का सामना किया था। यह बिलकुल ऐसा ही था क्योंकि उसके प्रतिदिन के अनुसरण के कारण अय्यूब के पास परमेश्वर की परीक्षाओं के दौरान ऐसा डीलडौल एवं दृढ़ विश्वास था कि उसने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," इन शब्दों को रातों-रात हासिल नहीं किया गया था, न ही वे बस यों ही अय्यूब के दिमाग में उछलने लगे थे। ये ऐसी चीज़ें थीं जिन्हें उसने कई सालों तक जीवन का अनुभव करने के दौरान देखा एवं अर्जित किया था। उन सभों की तुलना में जो केवल परमेश्वर की आशीषों को ही खोजते हैं, और जो इस बात से डरते हैं कि परमेश्वर उन्हें उनसे ले लेगा, वे इस बात से नफरत करते हैं और इसके विषय में शिकायत करते हैं, क्या अय्यूब की आज्ञाकारिता बिलकुल भी वास्तविक नहीं है? उन सभों की तुलना में जो यह विश्वास करते हैं कि परमेश्वर है, परन्तु जिन्होंने कभी यह विश्वास नहीं किया है कि परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है, क्या अय्यूब बड़ी ईमानदारी एवं सच्चाई धारण नहीं करता है?

अय्यूब की वैचारिक शक्ति

अय्यूब के वास्तविक अनुभव और उसकी सीधी एवं सच्ची मानवता का अर्थ था कि उसने बहुत ही न्यायसंगत निर्णय एवं चुनाव किया था जब उसने अपनी सम्पत्तियों और अपने बच्चों को खो दिया था। ऐसे न्यायसंगत चुनाव उसके प्रतिदिन के अनुसरण (उद्यमों) और परमेश्वर के कार्यां से अविभाज्य थे जिन्हें उसने अपने दिन प्रति दिन के जीवन के दौरान जाना था। अय्यूब की ईमानदारी ने उसे यह विश्वास करने के काबिल बनाया कि यहोवा का हाथ सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है; उसके विश्वास ने उसे इस सत्य को जानने की अनुमति दी कि यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता सभी चीज़ों के ऊपर है; उसके ज्ञान ने उसे यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता एवं इंतज़ामों को मानने के लिए तैयार किया और उसे योग्य बनाया; उसकी आज्ञाकारिता ने यहोवा परमेश्वर के प्रति उसके भय में उसे और भी अधिक सच्चा होने के योग्य बनाया; उसके भय ने बुराई से दूर रहने में उसे और भी अधिक योग्य बनाया; आखिरकार, अय्यूब सिद्ध बन गया क्योंकि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था; और उसकी सिद्धता ने उसे अधिक बुद्धिमान बना दिया, और उसे बहुत अधिक वैचारिक शक्ति प्रदान की।

हमें "न्यायसंगत" शब्द को किस प्रकार समझना चाहिए? यह एक शाब्दिक अनुवाद है जिसका अर्थ है अच्छी भावना होना, अपनी सोच में तार्किक एवं संवेदनशील होना, अच्छे बोल होना, अच्छे कार्य करना, और न्यायप्रिय होना, और अच्छे एवं नियमित नैतिक मानकों को धारण करना। फिर भी अय्यूब की वैचारिक शक्ति को इतनी आसानी से समझाया नहीं जा सकता है। जब ऐसा कहा जाता है कि अय्यूब अत्याधिक वैचारिक शक्ति धारण करता था, तो यह उसकी मानवता और परमेश्वर के सामने उसके आचरण के सम्बन्ध में होता है। क्योंकि अय्यूब ईमानदार था, वह परमेश्वर की संप्रभुता पर विश्वास करने और उसको मानने के योग्य था, जिसने उसे ऐसा ज्ञान दिया जिसे दूसरों के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता था, और इस ज्ञान ने उसे काबिल बनाया कि वह उन आपदाओं को और भी अधिक सटीकता से परखे, उनका न्याय करे और उन्हें परिभाषित करे जो उस पर आई थीं, जिसने उसे योग्य किया था कि वह और भी अधिक सटीकता एवं जल्दी से चुनाव करे कि उसे क्या करना है और किस बात को दृढ़ता से थामे रहना है। कहने का तात्पर्य है कि उसके शब्द, व्यवहार, एवं उसके कार्यों के पीछे के सिद्धान्त, और वह नियम जिसके द्वारा उसने कार्य किया था, वे नियमित, स्पष्ट एवं विशिष्ट थे, और वे अंधे, आवेगपूर्ण या भावनात्मक नहीं थे। वह जानता था कि जो भी आपदा उस पर आई थी उससे कैसे निपटा जाए, वह जानता था कि जटिल घटनाओं के बीच सम्बन्धों को कैसे सम्भाला एवं सन्तुलित किया जाए, वह जानता था कि उन मार्गों को कैसे दृढ़ता से थामा जाए जिन्हें थमा जाना चाहिए, और, इसके अतिरिक्त, वह जानता था कि यहोवा परमेश्वर के देने एवं ले लेने के विषय में कैसा व्यवहार किया जाए। यही अय्यूब की सबसे बड़ी वैचारिक शक्ति थी। यह बिलकुल ऐसा ही था क्योंकि अय्यूब ऐसी वैचारिक शक्ति से सुसज्जित था कि उसने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," जब उसने अपनी सम्पत्तियों और अपने बेटे एवं बेटियों को खो दिया था।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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