परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 5
एक सच्चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि स्रष्टा कौन है, मनुष्य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की ज़िम्मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, उसे स्रष्टा के इरादों, इच्छाओं और अपेक्षाओं को समझना, बूझना और जानना चाहिए, उनकी परवाह करनी चाहिए, और स्रष्टा के तरीके के अनुरूप कार्य करना चाहिए—परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।
परमेश्वर का भय मानना क्या है? और बुराई से दूर कैसे रहा जा सकता है?
"परमेश्वर का भय मानने" का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्वास होता है। वरन् यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, आज्ञाकारिता, समर्पण और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण होता है। परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची श्रद्धा, सच्चा विश्वास, सच्ची समझ, सच्ची परवाह या आज्ञाकारिता नहीं होगी, वरन् केवल डर और व्यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्ची आराधना और समर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्वास होगा; परमेश्वर के सच्चे ज्ञान के बिना मनुष्य परमेश्वर के तरीके के अनुसार कार्य नहीं कर पाएगा, या परमेश्वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्य और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्ट आचरण से भरा होगा।
जब मनुष्य को परमेश्वर में सच्चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्वर पर सच्चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्वर के वास्तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्तविक परवाह आती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्ची आज्ञाकारिता आ सकती है; परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता से ही मनुष्य में सच्चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्चे विश्वास और निर्भरता, सच्ची समझ और परवाह, सच्ची आज्ञाकारिता, सच्चे समर्पण और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्वर के स्वभाव और सार को जान सकता है, स्रष्टा की पहचान को जान सकता है; स्रष्टा को वास्तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्ची आराधना और समर्पण जाग्रत कर सकता है; स्रष्टा के प्रति सच्ची आराधना और समर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में बुरे मार्गों का त्याग कर पाएगा, अर्थात्, बुराई से दूर रह पाएगा।
इससे "परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की संपूर्ण प्रक्रिया बनती है, और यही परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मूल तत्व भी है। यही वह मार्ग है, जिसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए पार करना आवश्यक है।
"परमेश्वर का भय मानना और दुष्टता का त्याग करना" तथा परमेश्वर को जानना अभिन्न रूप से असंख्य सूत्रों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्वत: स्पष्ट है। यदि कोई बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का वास्तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का वास्तविक भय मानना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्वर का सच्चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर का ज्ञान हासिल करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्वर के वचनों के रूबरू आना चाहिए, परमेश्वर के रूबरू आना चाहिए, और परमेश्वर से निवेदन करना चाहिए कि वह लोगों, घटनाओं और वस्तुओं से युक्त सभी प्रकार के परिवेशों के रूप में परमेश्वर के वचनों को अनुभव करने के अवसर प्रदान करे; यदि कोई परमेश्वर और उसके वचनों के रूबरू आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्चा हृदय, सत्य को स्वीकार करने की तत्परता, कष्ट झेलने की इच्छा, और बुराई से दूर रहने का संकल्प और साहस, और एक सच्चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, तुम परमेश्वर के निरंतर करीब आते जाओगे, तुम्हारा हृदय निरंतर शुद्ध होता जाएगा, और तुम्हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्य, परमेश्वर के तुम्हारे ज्ञान के साथ-साथ, निरंतर अधिक अर्थपूर्ण और दीप्तिमान होते जाएँगे। फिर एक दिन तुम अनुभव करोगे कि स्रष्टा अब कोई पहेली नहीं रह गया है, स्रष्टा कभी तुमसे छिपा नहीं था, स्रष्टा ने कभी अपना चेहरा तुमसे छिपाया नहीं था, स्रष्टा तुमसे बिलकुल भी दूर नहीं है, स्रष्टा अब बिलकुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, वह वाकई और सच में तुम्हारे दाएँ-बाएँ खड़ा तुम्हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह सुदूर क्षितिज पर नहीं है, न ही उसने अपने आपको ऊपर कहीं बादलों में छिपाया हुआ है। वह एकदम तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे सर्वस्व पर आधिपत्य कर रहा है, वह वो सब है जो तुम्हारे पास है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्हारे पास है। ऐसा परमेश्वर तुम्हें स्वयं को अपने हृदय से प्रेम करने देता है, स्वयं से लिपटने देता है, स्वयं को पकड़ने देता है, अपनी स्तुति करने देता है, गँवा देने का भय पैदा करता है, अपना त्याग करने, अपनी अवज्ञा करने, अपने को टालने या दूर करने का अनिच्छुक बना देता है। तुम बस उसकी परवाह करना, उसका आज्ञापालन करना, जो भी वह देता है उस सबका प्रतिदान करना और उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होना चाहते हो। तुम अब उसके द्वारा मार्गदर्शन किए जाने, पोषण दिए जाने, निगरानी किए जाने, उसके द्वारा देखभाल किए जाने से इंकार नहीं करते और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करने से इंकार करते हो। तुम सिर्फ़ उसका अनुसरण करना चाहते हो, उसके साथ चलना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र जीवन स्वीकार करना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्वर स्वीकार करना चाहते हो।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना