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परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 66 परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 66
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परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 66

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"पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, 'मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,' तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है" (मत्ती 12:6-8)। यहाँ "मंदिर" किसे संदर्भित करता है? आसान शब्दों में कहें तो, यह एक भव्य, ऊँची इमारत को संदर्भित करता है, और व्यवस्था के युग में मंदिर याजकों के लिए परमेश्वर की आराधना करने का स्थान था। जब प्रभु यीशु ने कहा, "कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है," तो "वह" किसे संदर्भित करता है? स्पष्ट रूप से "वह" देह में मौजूद प्रभु यीशु है, क्योंकि केवल वही मंदिर से बड़ा था। इन वचनों ने लोगों को क्या बताया? उन्होंने लोगों को मंदिर से बाहर आने के लिए कहा—परमेश्वर पहले ही मंदिर को छोड़ चुका है और अब उसमें कार्य नहीं कर रहा, इसलिए लोगों को मंदिर के बाहर परमेश्वर के पदचिह्न ढूँढ़ने चाहिए और उसके नए कार्य में उसके कदमों का अनुसरण करना चाहिए। जब प्रभु यीशु ने यह कहा, तो उसके वचनों के पीछे एक आधार था और वह यह कि व्यवस्था के अधीन लोग मंदिर को स्वयं परमेश्वर से भी बड़ा समझने लगे थे। अर्थात्, लोग परमेश्वर की आराधना करने के बजाय मंदिर की आराधना करते थे, इसलिए प्रभु यीशु ने उन्हें चेतावनी दी कि वे मूर्तियों की आराधना न करें, बल्कि उनके बजाय परमेश्वर की आराधना करें, क्योंकि वह सर्वोच्च है। इसलिए उसने कहा : "मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं।" यह स्पष्ट है कि प्रभु यीशु की नज़रों में, व्यवस्था के अधीन अधिकतर लोग अब यहोवा की आराधना नहीं करते थे, बल्कि बेमन से केवल बलिदान करते थे, और प्रभु यीशु ने तय किया कि यह मूर्ति-पूजा है। इन मूर्ति-पूजकों ने मंदिर को परमेश्वर से बड़ी और ऊँची चीज़ समझ लिया था। उनके हृदय में केवल मंदिर था, परमेश्वर नहीं, और यदि उन्हें मंदिर छोड़ना पड़ता, तो उनका निवास-स्थान भी छूट जाता। मंदिर के अतिरिक्त उनके पास आराधना के लिए कोई जगह नहीं थी, और वे अपने बलिदान नहीं कर सकते थे। उनका तथाकथित "निवास-स्थान" वह था, जहाँ वे यहोवा परमेश्वर की आराधना करने का झूठा दिखावा करते थे, ताकि वे मंदिर में रह सकें और अपने खुद के क्रियाकलाप कर सकें। उनका तथाकथित "बलिदान" मंदिर में सेवा करने की आड़ में अपने खुद के व्यक्तिगत शर्मनाक व्यवहार कार्यान्वित करना भर था। यही कारण था कि उस समय लोग मंदिर को परमेश्वर से भी बड़ा समझते थे। प्रभु यीशु ने ये वचन लोगों को चेतावनी देने के लिए बोले थे, क्योंकि वे मंदिर का उपयोग एक आड़ के रूप में, और बलिदानों का उपयोग लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के एक आवरण के रूप में करते थे। यदि तुम इन वचनों को वर्तमान में लागू करो, तो ये अभी भी उतने ही वैध और प्रासंगिक हैं। यद्यपि आज लोगों ने व्यवस्था के युग के लोगों की तुलना में परमेश्वर के एक भिन्न कार्य का अनुभव किया है, किंतु उनकी प्रकृति और सार एक-समान हैं। आज के कार्य के संदर्भ में, लोग अभी भी उसी प्रकार की चीज़ें करेंगे, जो इन वचनों में दर्शाई गई हैं, "मंदिर परमेश्वर से बड़ा है।" उदाहरण के लिए, लोग अपना कर्तव्य निभाने को अपने कार्य के रूप में देखते हैं; वे परमेश्वर के लिए गवाही देने और बड़े लाल अजगर से युद्ध करने को प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के लिए मानवाधिकारों की रक्षा हेतु किए जाने वाले राजनीतिक आंदोलनों के रूप में देखते हैं; वे अपने कर्तव्य को अपने कौशलों का उपयोग आजीविका में करने की ओर मोड़ देते हैं, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने को और कुछ नहीं, बल्कि धार्मिक सिद्धांत के एक अंश के पालन के रूप में लेते हैं; इत्यादि। क्या ये व्यवहार बिलकुल "मंदिर परमेश्वर से बड़ा है" के समान नहीं हैं? सिवाय इसके कि दो हज़ार वर्ष पहले लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय भौतिक मंदिरों में कर रहे थे, जबकि आज लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय अमूर्त मंदिरों में करते हैं। जो लोग नियमों को महत्व देते हैं, वे नियमों को परमेश्वर से बड़ा समझते हैं; जो लोग हैसियत से प्रेम करते हैं, वे हैसियत को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं; जो लोग अपनी आजीविका से प्रेम करते हैं, वे आजीविका को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं, इत्यादि—उनकी सभी अभिव्यक्तियाँ मुझे यह कहने के लिए बाध्य करती हैं : "लोग अपने वचनों से परमेश्वर को सबसे बड़ा कहकर उसकी स्तुति करते हैं, किंतु उनकी नज़रों में हर चीज़ परमेश्वर से बड़ी है।" ऐसा इसलिए है, क्योंकि जैसे ही लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने के अपने मार्ग के साथ-साथ अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने या अपना व्यवसाय या अपनी आजीविका चलाने का अवसर मिलता है, वे परमेश्वर से दूरी बना लेते हैं और अपने आप को अपनी प्यारी आजीविका में झोंक देते हैं। जो कुछ परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है, उसे और उसकी इच्छा को बहुत पहले ही त्याग दिया गया है। इन लोगों की स्थिति और दो हज़ार वर्ष पहले मंदिर में अपना व्यवसाय करने वाले लोगों की स्थिति में क्या अंतर है?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

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