परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 7
परमेश्वर जिस मानक से मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उस बारे में अनेक राय हैं
चूँकि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिणाम को लेकर चिंतित होता है, क्या तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर किस प्रकार उस परिणाम को निर्धारित करता है? परमेश्वर किस तरीके से किसी व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करता है? और किसी व्यक्ति के परिणाम को निर्धारित करने के लिए वह किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है? अगर किसी मनुष्य का परिणाम निर्धारित नहीं हुआ है, तो परमेश्वर इस परिणाम को प्रकट करने के लिए क्या करता है? क्या कोई जानता है? जैसा मैंने अभी कहा, कुछ लोगों ने इंसान के परिणाम का, उन श्रेणियों के बारे में जिसमें इस परिणाम को विभाजित किया जाता है, और उन विभिन्न लोगों का जो परिणाम होने वाला है, उस के बारे में पता लगाने के लिए परमेश्वर के वचन पर शोध करने में पहले ही काफी समय बिता दिया है। वे यह भी जानना चाहते हैं कि परमेश्वर के वचन किस प्रकार मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करते हैं, परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है, और किस तरह वह मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करता है। फिर भी, अंत में ये लोग कोई भी उत्तर नहीं खोज पाते। वास्तविक तथ्य में, परमेश्वर के कथनों में इस मामले पर ज़्यादा कुछ कहा नहीं गया है। ऐसा क्यों है? जब तक मनुष्य का परिणाम प्रकट नहीं किया जाता, परमेश्वर किसी को बताना नहीं चाहता है कि अंत में क्या होने जा रहा है, न ही वह किसी को समय से पहले उसकी नियति के बारे में सूचित करना चाहता है—क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को कोई लाभ नहीं होगा। अभी मैं तुम लोगों को केवल उस तरीके के बारे में बताना चाहता हूँ जिससे परमेश्वर मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है, उन सिद्धांतों के बारे में बताना चाहता हूँ जिन्हें वह मनुष्य का परिणाम निर्धारित करने और उस परिणाम को अभिव्यक्त करने के लिए अपने कार्य में उपयोग करता है, और उस मानक के बारे में बताना चाहता हूँ जिसे वह यह निर्धारित करने के लिए उपयोग में लाता है कि कोई व्यक्ति जीवित बच सकता है या नहीं। क्या इन्हीं सवालों को लेकर तुम लोग सर्वाधिक चिंतित नहीं हो? तो फिर, लोग कैसे विश्वास करते हैं परमेश्वर ही मनुष्य का परिणाम निर्धारित करता है? तुम लोगों ने इस मामले पर अभी-अभी कुछ कहा है : तुममें से किसी ने कहा था कि यह कर्तव्य को निष्ठापूर्वक करने और परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की खातिर है; कुछ ने कहा कि यह परमेश्वर का आज्ञापालन करना और परमेश्वर को संतुष्ट करना है; किसी ने कहा कि यह परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होना है; और किसी ने कहा था कि यह गुमनामी में जीना है...। जब तुम लोग इन सत्यों को अभ्यास में लाते हो, जब तुम सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास करते हो जो तुम्हें सही लगते हैं, तो जानते हो परमेश्वर क्या सोचता है? क्या तुम लोगों ने विचार किया है कि इसी प्रकार से चलते रहना परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट करता है या नहीं? क्या यह परमेश्वर के मानक को पूरा करता है? क्या यह परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करता है? मेरा मानना है कि अधिकांश लोग इस पर विचार नहीं करते। वे बस परमेश्वर के वचन के किसी एक भाग को या धर्मोपदेशों के किसी एक भाग को या उन कुछ आध्यात्मिक मनुष्यों के मानकों को यंत्रवत् लागू करते हैं जिनका वे आदर करते हैं, और फलां-फलां कार्य करने के लिए स्वयं को बाध्य करते हैं। वे मानते हैं कि यही सही तरीका है, अतः वे उसी के मुताबिक चलते हुए काम करते रहते हैं, चाहे अंत में कुछ भी क्यों न हो। कुछ लोग सोचते हैं : "मैंने बहुत वर्षों तक विश्वास किया है; मैंने हमेशा इसी तरह अभ्यास किया है; लगता है मैंने वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट किया है; और मुझे यह भी लगता है कि मैंने बहुत कुछ प्राप्त किया है। क्योंकि इस दौरान मैं अनेक सत्य समझने लगा हूँ, और ऐसी बहुत-सी बातों को समझने लगा हूँ जिन्हें मैं पहले नहीं समझता था—विशेष रूप से, मेरे बहुत से विचार और दृष्टिकोण बदल चुके हैं, मेरे जीवन के मूल्य काफी बदल चुके हैं, और अब मुझे इस संसार की अच्छी-खासी समझ हो गई है।" ऐसे लोग मानते हैं कि यह पैदावार है, और यह मनुष्य के लिए परमेश्वर के कार्य का अंतिम परिणाम है। तुम्हारी राय में, इन मानकों और तुम लोगों के सभी अभ्यासों को एक साथ लेकर, क्या तुम लोग परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर रहे हो? कुछ लोग पूर्ण निश्चय के साथ कहेंगे, "निस्संदेह! हम परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; ऊपर के लोगों ने जो उपदेश दिया था और जो बताया था, हम उसी के अनुसार अभ्यास कर रहे हैं; हम लोग हमेशा अपना कर्तव्य निभाते हैं, परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, हमने परमेश्वर को कभी नहीं छोड़ा है। इसलिए हम पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकते हैं कि हम परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। हम चाहे परमेश्वर के इरादों को कितना ही क्यों न समझते हों, उसके वचन को चाहे कितना ही क्यों न समझते हों, हम हमेशा परमेश्वर के अनुकूल होने के मार्ग की खोज करते रहे हैं। यदि हम सही तरीके से कार्य करते हैं, और सही तरीके से अभ्यास करते हैं, तो परिणाम निश्चित रूप से सही होगा।" इस दृष्टिकोण के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या यह सही है? शायद कुछ ऐसे लोग हों जो कहें, "मैंने इन चीज़ों के बारे में पहले कभी नहीं सोचा। मैं तो केवल इतना सोचता हूँ कि यदि मैं अपने कर्तव्य का पालन करता रहूँ और परमेश्वर के वचन की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता रहूँ, तो मैं जीवित रह सकता हूँ। मैंने कभी इस प्रश्न पर विचार नहीं किया कि मैं परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट कर सकता हूँ या नहीं, न ही मैंने कभी यह विचार किया है कि मैं उसके द्वारा अपेक्षित मानक को प्राप्त कर रहा हूँ या नहीं। चूँकि परमेश्वर ने मुझे कभी नहीं बताया, और न ही मुझे कोई स्पष्ट निर्देश प्रदान किए हैं, इसलिए मैं मानता हूँ कि यदि मैं बिना रुके कार्य करता रहूँ, तो परमेश्वर संतुष्ट रहेगा और मुझसे उसकी कोई अतिरिक्त अपेक्षा नहीं होनी चाहिए।" क्या ये विश्वास सही हैं? जहाँ तक मेरी बात है, अभ्यास करने का यह तरीका, सोचने का यह तरीका, और ये सारे दृष्टिकोण—वे सब अपने साथ कल्पनाओं और कुछ अंधेपन को लेकर आते हैं। जब मैं ऐसा कहता हूँ, शायद तुम थोड़ी निराशा महसूस करो और सोचो, "अंधापन? यदि यह अंधापन है, तो हमारे उद्धार की आशा, हमारे जीवित रहने की आशा बहुत कम और अनिश्चित है, है कि नहीं? क्या ऐसी बातें बोलकर तुम हमारा उत्साह नहीं मार रहे?" तुम लोग कुछ भी मानो, मैं जो कहता और करता हूँ उसका आशय तुम लोगों को यह महसूस करवाना नहीं है, मानो तुम लोगों के उत्साह को मारा जा रहा है। बल्कि, यह परमेश्वर के इरादों के बारे में तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है और परमेश्वर क्या सोच रहा है, वो क्या करना चाहता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पसंद करता है, किससे घृणा करता है, किसे तुच्छ समझता है, वो किस प्रकार के व्यक्ति को पाना चाहता है, और किस प्रकार के व्यक्ति को ठुकराता है, इस पर तुम लोगों की समझ को बेहतर करने के लिए है। यह तुम लोगों के मन को स्पष्टता देने, तुम्हें स्पष्ट रूप से यह जानने में सहायता करने के आशय से है कि तुम लोगों में से हर एक व्यक्ति के कार्य और विचार उस मानक से कितनी दूर भटक गए हैं जिसकी अपेक्षा परमेश्वर करता है। क्या इन विषयों पर विचार-विमर्श करना आवश्यक है? क्योंकि मैं जानता हूँ तुम लोगों ने लंबे समय तक विश्वास किया है, और बहुत उपदेश सुने हैं, लेकिन तुम लोगों में इन्हीं चीज़ों का अभाव है। हालाँकि, तुम लोगों ने अपनी पुस्तिका में हर सत्य लिख लिया है, तुम लोगों ने उसे भी कंठस्थ और अपने हृदय में दर्ज कर लिया है जिसे तुम लोग महत्वपूर्ण मानते हो, हालाँकि तुम लोग अभ्यास करते समय परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए इसका उपयोग करने, अपनी आवश्यकता में इसका उपयोग करने, या आने वाले मुश्किल समय को काटने की खातिर इसका उपयोग करने की योजना बनाते हो, या फिर केवल इन चीज़ों को जीवन में अपने साथ रहने देना चाहते हो, लेकिन जहाँ तक मेरी बात है, यदि तुम केवल अभ्यास कर रहे हो, फिर चाहे जैसे भी करो, केवल अभ्यास कर रहे हो, तो यह महत्वपूर्ण नहीं है। तब सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है? महत्वपूर्ण यह है कि जब तुम अभ्यास कर रहे होते हो, तब तुम्हें अंतर्मन में पूरे यकीन से पता होना चाहिए कि तुम्हारा हर एक कार्य, हर एक कर्म परमेश्वर की इच्छानुसार है या नहीं, तुम्हारा हर कार्यकलाप, तुम्हारी हर सोच और जो परिणाम एवं लक्ष्य तुम हासिल करना चाहते हो, वे वास्तव में परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करते हैं या नहीं, परमेश्वर की माँगों को पूरा करते हैं या नहीं, और परमेश्वर उन्हें स्वीकृति देता है या नहीं। ये सारी बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें