देहधारण का रहस्य (4)
तुम लोगों को बाइबल और उसके बनने के पीछे की कहानी के बारे में जानना चाहिए। यह ज्ञान उन लोगों से संबंध नहीं रखता, जिन्होंने परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार नहीं किया है। वे इसे नहीं जानते। अगर तुम उनसे सार के इन मामलों के बारे में स्पष्ट रूप से बात करो, तो वे तुम्हारे सामने बाइबल के प्रति ज़्यादा आग्रही नहीं रहेंगे। वे लगातार भविष्यवाणियों में कही गई बातों की जाँच-पड़ताल करते रहते हैं : क्या यह वक्तव्य घटित हो गया है? क्या वह वक्तव्य घटित हो गया है? सुसमाचार की उनकी स्वीकृति बाइबल के अनुसार है, और वे बाइबल के अनुसार ही सुसमाचार का उपदेश देते हैं। परमेश्वर पर उनका विश्वास बाइबल के वचनों पर टिका है; बाइबल के बिना वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करेंगे। बाइबल की क्षुद्र जाँच करते रहना ही उनके जीने का तरीका है। जब वे दोबारा बाइबल की जाँच-पड़ताल करते हैं और तुमसे व्याख्या करने के लिए कहते हैं, तो तुम कहते हो, “पहले, चलो हम प्रत्येक वक्तव्य को सत्यापित न करें। इसके बजाय, आओ, यह देखें कि पवित्र आत्मा कैसे कार्य करता है। आओ, हम जिस मार्ग पर चलते हैं, उसकी सत्य के साथ तुलना करें, ताकि हम जान सकें कि यह मार्ग वास्तव में पवित्र आत्मा का कार्य है या नहीं, और यह जाँचने के लिए कि क्या इस तरह का मार्ग सही है, पवित्र आत्मा के कार्य का उपयोग करें। जहाँ तक इस वक्तव्य या उस वक्तव्य के भविष्यवाणी के मुताबिक घटित होने की बात है, हम मनुष्यों को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इसके बजाय हमारे लिए यह बेहतर है कि हम पवित्र आत्मा के कार्य और उस नवीनतम कार्य के बारे में बात करें, जिसे परमेश्वर अब कर रहा है।” बाइबल में की गई भविष्यवाणियाँ परमेश्वर के वे वचन हैं, जो नबियों द्वारा उस समय कहे गए थे, और परमेश्वर द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा प्रेरणा पाकर लिखे गए थे; केवल स्वयं परमेश्वर ही उन वचनों की व्याख्या कर सकता है, केवल पवित्र आत्मा ही उन वचनों का अर्थ ज्ञात करवा सकता है, और केवल स्वयं परमेश्वर ही सात मुहरों को तोड़ सकता है और पुस्तक को खोल सकता है। तुम कहते हो : “तुम परमेश्वर नहीं हो, और न ही मैं हूँ, इसलिए कौन हलकेपन से परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने का साहस करता है? क्या तुम उन वचनों की व्याख्या करने का साहस करते हो? यहाँ तक कि यदि भविष्यवक्ता यिर्मयाह, यूहन्ना और एलिय्याह भी आ जाते, तो वे भी हिम्मत न करते, क्योंकि वे मेमने नहीं हैं। केवल मेमना ही सात मुहरों को तोड़ सकता है और पुस्तक को खोल सकता है, और कोई भी अन्य उसके वचनों की व्याख्या नहीं कर सकता। मैं परमेश्वर के नाम का दुरुपयोग करने का साहस नहीं करता, परमेश्वर के वचनों की व्याख्या करने का साहस तो बिलकुल भी नहीं करता। मैं केवल ऐसा व्यक्ति हो सकता हूँ, जो परमेश्वर का आज्ञापालन करता है। क्या तुम परमेश्वर हो? परमेश्वर का कोई भी प्राणी पुस्तक को खोलने या उन वचनों की व्याख्या करने का साहस नहीं करता, इसलिए मैं भी उनकी व्याख्या करने का साहस नहीं करता। बेहतर है कि तुम भी उनकी व्याख्या करने का प्रयास न करो। किसी को भी उनकी व्याख्या करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। चलो हम पवित्र आत्मा के कार्य के बारे में बात करें; मनुष्य इतना ही कर सकता है। मुझे यहोवा और यीशु के कार्य का थोड़ा-बहुत ज्ञान है, किंतु चूँकि मुझे इस तरह के कार्य का कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, इसलिए मैं इसके बारे में केवल कुछ हद तक ही बात कर सकता हूँ। जहाँ तक उस समय यशायाह या यीशु द्वारा बोले गए वचनों के अर्थ की बात है, मैं उनकी कोई व्याख्या नहीं करूँगा। मैं बाइबल का अध्ययन नहीं करता; बल्कि मैं परमेश्वर के वर्तमान कार्य का अनुसरण करता हूँ। तुम वास्तव में बाइबल को छोटी पुस्तक के रूप में देखते हो, लेकिन क्या वह ऐसी चीज़ नहीं है, जिसे केवल मेमना ही खोल सकता है? मेमने के अलावा और कौन उसे खोल सकता है? तुम मेमने नहीं हो, और मैं तो स्वयं परमेश्वर होने का दावा करने का साहस बिलकुल नहीं करता, इसलिए चलो, हम बाइबल का विश्लेषण न करें या उसे क्षुद्र जाँच-पड़ताल का भागी न बनाएँ। पवित्र आत्मा द्वारा किए जाने वाले कार्य, अर्थात् स्वयं परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले वर्तमान कार्य की चर्चा करना ज्यादा बेहतर है। चलो देखें, वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनके द्वारा परमेश्वर कार्य करता है और उसके कार्य का सार क्या है, और उनके उपयोग द्वारा यह सत्यापन करें कि आज हम जिस मार्ग पर चलते हैं, क्या वह सही है, और इस तरह उसके बारे में निश्चित हो लें।” यदि तुम लोग सुसमाचार का उपदेश देना चाहते हो, विशेष रूप से धार्मिक दुनिया के लोगों को, तो तुम्हें बाइबल को समझना चाहिए और उसकी अंदरूनी कहानी में महारत हासिल करनी चाहिए; अन्यथा तुम सुसमाचार का उपदेश हरगिज नहीं दे पाओगे। जब तुम बड़ी तसवीर में महारत हासिल कर लोगे, और बाइबल के मृत वचनों की क्षुद्र जाँच करना बंद कर दोगे, और केवल परमेश्वर के कार्य और जीवन के सत्य के बारे में ही बात करोगे, तब तुम उन्हें प्राप्त करने में समर्थ होगे, जो सच्चे हृदय से तलाश करते हैं।
यहोवा का कार्य, उसके द्वारा स्थापित व्यवस्थाएँ, और वे सिद्धांत जिनके द्वारा उसने मनुष्य के जीवन की अगुआई की थी, उसके द्वारा व्यवस्था के युग में किए गए कार्य की विषयवस्तु, उसके द्वारा अपनी व्यवस्थाओं को लागू करने का महत्व, अनुग्रह के युग के लिए उसके कार्य का महत्व, और वह कार्य, जो परमेश्वर इस अंतिम चरण में करता है : ये वे चीज़ें हैं, जो तुम्हें समझनी चाहिए। पहला चरण है व्यवस्था के युग का कार्य, दूसरा चरण है अनुग्रह के युग का कार्य, और तीसरा चरण है अंत के दिनों का कार्य। तुम लोगों को परमेश्वर के कार्य के इन चरणों के बारे में स्पष्ट होना चाहिए। आरंभ से अंत तक कुल तीन चरण हैं। कार्य के प्रत्येक चरण का सार क्या है? छह हजार वर्षीय प्रबंधन-योजना के कार्य में कितने चरण कार्यान्वित किए जाते हैं? ये चरण कैसे कार्यान्वित किए जाते हैं, और प्रत्येक चरण को उसके विशेष तरीके से क्यों कार्यान्वित किया जाता है? ये सभी महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। प्रत्येक युग के कार्य का प्रातिनिधिक मूल्य है। यहोवा ने क्या कार्य किया? उसने उसे उस विशेष तरीके से क्यों किया? उसे यहोवा क्यों कहा गया? फिर, अनुग्रह के युग में यीशु ने क्या कार्य किया, और उसने उसे किस ढंग से किया? कार्य के प्रत्येक चरण और प्रत्येक युग द्वारा परमेश्वर के स्वभाव के कौन-से पहलू दर्शाए जाते हैं? व्यवस्था के युग में उसके स्वभाव के कौन-से पहलू व्यक्त हुए? और अनुग्रह के युग में कौन-से? और अंत के युग में कौन-से? ये वे अनिवार्य प्रश्न हैं, जिनके बारे में तुम लोगों को स्पष्ट होना चाहिए। परमेश्वर का संपूर्ण स्वभाव छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना के दौरान प्रकट किया गया है। वह सिर्फ अनुग्रह के युग में प्रकट नहीं किया गया है, न ही सिर्फ व्यवस्था के युग में, सिर्फ अंत के दिनों की इस अवधि में तो बिलकुल भी नहीं। अंत के दिनों में किया जा रहा कार्य न्याय, कोप और ताड़ना को दर्शाता है। अंत के दिनों में किया जा रहा कार्य व्यवस्था के युग के कार्य या अनुग्रह के युग के कार्य का स्थान नहीं ले सकता। किंतु तीनों चरण आपस में जुड़कर एक इकाई बनते हैं, और वे सभी एक ही परमेश्वर के कार्य हैं। स्वाभाविक रूप से, इस कार्य का क्रियान्वयन तीन अलग-अलग युगों में विभाजित है। अंत के दिनों में किया जा रहा कार्य हर चीज़ को समाप्ति की ओर ले जाता है; व्यवस्था के युग में किया गया कार्य आरंभ करने का कार्य था; और अनुग्रह के युग में किया गया कार्य छुटकारे का कार्य था। जहाँ तक इस संपूर्ण छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना के कार्य के दर्शनों की बात है, कोई भी व्यक्ति उनके बारे में अंर्तदृष्टि या समझ प्राप्त करने में समर्थ नहीं है, और ये दर्शन पहेली बने हुए हैं। अंत के दिनों में, राज्य के युग का सूत्रपात करने के लिए केवल वचन का कार्य किया जाता है, परंतु यह सभी युगों का प्रतिनिधि नहीं है। अंत के दिन अंत के दिनों से बढ़कर नहीं हैं और राज्य के युग से बढ़कर नहीं हैं, और वे अनुग्रह के युग या व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व नहीं करते। बात यह है कि अंत के दिनों के दौरान छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना का समस्त कार्य तुम लोगों पर प्रकट किया जा रहा है। यह रहस्य का अनावरण है। यह ऐसा रहस्य है, जिसे किसी भी मनुष्य द्वारा अनावृत नहीं किया जा सकता। चाहे मनुष्य को बाइबल की कितनी भी अधिक समझ क्यों न हो, वह वचनों से बढ़कर नहीं है, क्योंकि मनुष्य बाइबल के सार को नहीं समझता। बाइबल पढ़ने से मनुष्य कुछ सत्य समझ सकता है, कुछ वचनों की व्याख्या कर सकता है या कुछ प्रसिद्ध अंशों और अध्यायों को अपनी क्षुद्र जाँच का भागी बना सकता है, परंतु वह उन वचनों के भीतर निहित अर्थ निकालने में कभी समर्थ नहीं होगा, क्योंकि मनुष्य जो कुछ देखता है, वह सब मृत वचन हैं, यहोवा और यीशु के कार्य के दृश्य नहीं हैं, और मनुष्य के पास इस कार्य के रहस्य को सुलझाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए, छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना का रहस्य सबसे बड़ा रहस्य है, अत्यधिक छिपा हुआ, और मनुष्य के लिए सर्वथा अबूझ। कोई भी सीधे तौर पर परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ सकता, जब तक कि स्वयं परमेश्वर उसे मनुष्य को न समझाए और प्रकट न करे; अन्यथा ये चीज़ें मनुष्य के लिए हमेशा पहेली बनी रहेंगी, हमेशा मुहरबंद रहस्य बनी रहेंगी। धार्मिक जगत के लोगों की तो बात छोड़ो; यदि तुम लोगों को भी आज न बताया जाता, तो तुम लोग भी इसे न समझ पाते। छह हज़ार वर्षों का यह कार्य नबियों की सभी भविष्यवाणियों से अधिक रहस्यमय है। यह दुनिया के सृजन से लेकर अब तक का सबसे बड़ा रहस्य है, और समस्त युगों का कोई भी नबी कभी भी इसकी थाह पाने में सक्षम नहीं हुआ है, क्योंकि यह रहस्य केवल अंतिम युग में ही खोला जा रहा है और पहले कभी प्रकट नहीं किया गया है। यदि तुम लोग इस रहस्य को समझ सकते हो, और यदि तुम इसे इसकी समग्रता में प्राप्त करने में समर्थ हो, तो सभी धार्मिक व्यक्तियों को इस रहस्य से जीत लिया जाएगा। केवल यही सबसे बड़ा दर्शन है; यही है जिसे समझने के लिए मनुष्य सबसे अधिक लालायित रहता है, किंतु यह उसके लिए सबसे अधिक अस्पष्ट भी है। जब तुम लोग अनुग्रह के युग में थे, तो तुम नहीं जानते थे कि यीशु द्वारा किया गया कार्य क्या था या यहोवा ने क्या कार्य किया था। लोगों को समझ में नहीं आता था कि यहोवा ने क्यों व्यवस्थाएँ निर्धारित कीं, उसने क्यों लोगों को व्यवस्थाओं का पालन करने के लिए कहा अथवा मंदिर क्यों बनाने पड़े थे, और लोगों को यह तो बिलकुल भी समझ में नहीं आया कि क्यों इस्राएलियों को मिस्र से बीहड़ में और फिर कनान में ले जाया गया। ये मामले आज तक प्रकट नहीं किए गए थे।
अंत के दिनों का कार्य तीनों चरणों में से अंतिम चरण है। यह एक अन्य नए युग का कार्य है और संपूर्ण प्रबंधन-कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता। छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी एक चरण अकेला तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, बल्कि संपूर्ण कार्य के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। यह तथ्य कि उसने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया था, यह प्रमाणित नहीं करता कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अंतर्गत ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए उसके लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित कीं और उसे आज्ञाएँ दीं; जो कार्य उसने किया, वह केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है। उसके द्वारा किया गया यह कार्य यह प्रमाणित नहीं करता कि केवल वही परमेश्वर, परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहता है, या वह बस मंदिर में परमेश्वर है, या बस वेदी के सामने परमेश्वर है। ऐसा कहना झूठ होगा। व्यवस्था के अधीन किया गया कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही कार्य किया होता, तो मनुष्य ने यह कहते हुए परमेश्वर को निम्नलिखित परिभाषा में सीमित कर दिया होता, “परमेश्वर मंदिर में ही परमेश्वर है और परमेश्वर की सेवा करने के लिए हमें याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।” यदि अनुग्रह के युग का कार्य कभी न किया जाता और व्यवस्था का युग ही वर्तमान समय तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयालु और प्रेमपूर्ण भी है। यदि व्यवस्था के युग में कोई कार्य न किया जाता और केवल अनुग्रह के युग में ही कार्य किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और उसके पाप क्षमा कर सकता है। वह केवल इतना ही जान पाता कि परमेश्वर पवित्र और निर्दोष है, और वह मनुष्य के लिए अपना बलिदान करने और सलीब पर चढ़ने में सक्षम है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और उसे अन्य किसी चीज़ की कोई समझ न होती। अतः प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। जहाँ तक इस बात का संबंध है कि व्यवस्था के युग में किन पहलुओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है, अनुग्रह के युग में किन पहलुओं का, और इस वर्तमान युग में किन पहलुओं का : केवल तीनों युगों को पूर्ण एक में मिलाने पर ही वे परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता को प्रकट कर सकते हैं। केवल इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही मनुष्य इसे पूरी तरह से समझ सकता है। तीनों चरणों में से एक भी चरण छोड़ा नहीं जा सकता। कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेने के बाद ही तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी संपूर्णता में देखोगे। यह तथ्य कि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपना कार्य किया, यह प्रमाणित नहीं करता कि वह केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर है, और इस तथ्य का कि उसने छुटकारे का कार्य किया, यह अर्थ नहीं है कि परमेश्वर सदैव मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह के युग के समाप्ति पर आ जाने पर तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सबंध रखता है, और केवल सलीब ही परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसा करना परमेश्वर को परिभाषित करना होगा। वर्तमान चरण में परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परंतु इससे तुम यह नहीं कह सकते कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और वह बस ताड़ना और न्याय लाया है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट करता है, जिन्हें मनुष्य द्वारा समझा नहीं गया था, ताकि मानवजाति की मंज़िल और अंत प्रकट किया जा सके और मानवजाति के बीच उद्धार का समस्त कार्य समाप्त हो सके। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य द्वारा समझे न गए सभी रहस्यों को प्रकट किया जाना आवश्यक है, ताकि मनुष्य उन्हें उनकी गहराई तक जान सकें और उनके हृदयों में उनकी एक पूरी तरह से स्पष्ट समझ उत्पन्न हो सके। केवल तभी मानवजाति को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। केवल छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन-योजना पूर्ण होने के बाद ही मनुष्य परमेश्वर का स्वभाव उसकी संपूर्णता में समझ पाएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन-योजना समाप्ति पर आ गई होगी। अब जबकि तुम लोगों ने अंतिम युग में परमेश्वर के कार्य का अनुभव कर लिया है, तो परमेश्वर का स्वभाव क्या है? क्या तुम यह कहने का साहस कर सकते हो कि परमेश्वर वह परमेश्वर है, जो केवल वचन बोलता है, और कुछ नहीं करता? तुम ऐसा निष्कर्ष प्रस्तुत करने का साहस नहीं करोगे। कुछ लोग कहेंगे कि परमेश्वर वह परमेश्वर है, जो रहस्य खोलता है, कि परमेश्वर मेमना है और वह है जो सात मुहरों को तोड़ता है। किंतु कोई भी यह निष्कर्ष प्रस्तुत करने का साहस नहीं करता। अन्य लोग कह सकते हैं कि परमेश्वर देहधारी है, किंतु यह भी सही नहीं होगा। कुछ अन्य लोग कह सकते हैं कि देहधारी परमेश्वर केवल वचन बोलता है और चिह्न और चमत्कार नहीं दिखाता, लेकिन इस तरह से कहने का साहस तो तुम बिलकुल नहीं करोगे, क्योंकि यीशु देह बना था और उसने चिह्न और चमत्कार दिखाए थे, इसलिए तुम परमेश्वर को इतने हलके ढंग से परिभाषित करने का साहस नहीं करोगे। छह हजार वर्षीय प्रबंधन-योजना के दौरान किया गया समस्त कार्य अब समाप्ति पर आ गया है। यह समस्त कार्य मनुष्यों पर प्रकट किए जाने और मनुष्यों के बीच संपन्न किए जाने के बाद ही मानवजाति परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव और स्वरूप को जानेगी। जब इस चरण का कार्य पूरी तरह से संपन्न कर लिया जाएगा, तो मनुष्य द्वारा नहीं समझे गए सभी रहस्यों को प्रकट कर दिया गया होगा, पहले नहीं समझे गए सभी सत्यों को स्पष्ट कर दिया गया होगा, और मानवजाति को उसके भविष्य के मार्ग और मंज़िल के बारे में बता दिया गया होगा। यह संपूर्ण कार्य वर्तमान चरण में किया जाना है। यद्यपि आज मनुष्य जिस मार्ग पर चलता है, वह भी सलीब का मार्ग और दुःख का मार्ग है, फिर भी आज का मनुष्य जो अभ्यास करता है, और जो वह खाता, पीता और आनंद लेता है, वह उससे बहुत भिन्न है, जो मनुष्य व्यवस्था के अधीन और अनुग्रह के युग में करता था। आज मनुष्य से जो माँग की जाती है, वह अतीत की माँग से भिन्न है और व्यवस्था के युग में मनुष्य से की गई माँग से तो वह और भी अधिक भिन्न है। व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य से क्या माँग की गई थी, जब परमेश्वर इस्राएल में अपना कार्य कर रहा था? वह इससे बढ़कर कुछ नहीं थी कि मनुष्य को सब्त और यहोवा की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए। किसी को भी सब्त के दिन काम नहीं करना था या यहोवा की व्यवस्थाओं का उल्लंघन नहीं करना था। परंतु अब ऐसा नहीं है। सब्त के दिन मनुष्य हमेशा की तरह काम करते हैं, इकट्ठे होते हैं और प्रार्थना करते हैं, और उन पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाए जाते। अनुग्रह के युग में लोगों को बपतिस्मा लेना पड़ता था, और फिर उन्हें उपवास करने, रोटी तोड़ने, दाखमधु पीने, अपने सिर ढकने और दूसरों के पाँव धोने के लिए कहा जाता था। अब ये नियम समाप्त कर दिए गए हैं, किंतु मनुष्य से और भी बड़ी माँगें की जाती हैं, क्योंकि परमेश्वर का कार्य लगातार अधिक गहरा होता जाता है और मनुष्य का प्रवेश पहले से कहीं अधिक ऊँचा हो गया है। अतीत में यीशु मनुष्य के ऊपर हाथ रखता था और प्रार्थना करता था, परंतु अब जबकि सब कुछ कहा जा चुका है, तो मनुष्य के ऊपर हाथ रखने का क्या उपयोग है? वचन अकेले ही परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। जब अतीत में वह अपना हाथ मनुष्य के ऊपर रखता था, तो यह मनुष्य को आशीष देने और चंगा करने के लिए होता था। उस समय पवित्र आत्मा इसी तरह से कार्य करता था, परंतु अब ऐसा नहीं है। अब पवित्र आत्मा कार्य करने और परिणाम हासिल करने के लिए वचनों का उपयोग करता है। उसके वचन तुम लोगों पर स्पष्ट कर दिए गए हैं, और तुम लोगों को उन्हें ठीक वैसे ही अभ्यास में लाना चाहिए, जैसे तुम्हें बताया गया है। उसके वचन उसकी इच्छा हैं; वे वह कार्य है, जिसे वह करना चाहता है। उसके वचनों के माध्यम से तुम उसकी इच्छा को और उस चीज को समझ सकते हो, जिसे प्राप्त करने के लिए वह तुमसे कहता है, और तुम अपने ऊपर हाथ रखे जाने की आवश्यकता के बिना ही सीधे उसके वचनों को अभ्यास में ला सकते हो। कुछ लोग कह सकते हैं, “मुझ पर अपना हाथ रख! मुझ पर अपना हाथ रख, ताकि मैं तेरे आशीष प्राप्त कर सकूँ और तेरा हिस्सा बन सकूँ।” ये सभी पहले के अप्रचलित अभ्यास हैं, जो अब पुराने पड़ गए हैं, क्योंकि युग बदल चुका है। पवित्र आत्मा युग के अनुसार कार्य करता है, न कि इच्छानुसार या तय नियमों के अनुसार। युग बदल चुका है और नया युग अनिवार्य रूप से अपने साथ नया काम लेकर आता है। यह कार्य के प्रत्येक चरण के बारे में सच है, इसलिए उसका कार्य कभी दोहराया नहीं जाता। अनुग्रह के युग में यीशु ने इस तरह का बहुत-सा कार्य किया, जैसे कि बीमारियों को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, मनुष्य के लिए प्रार्थना करने हेतु उस पर हाथ रखना, और उसे आशीष देना। किंतु आज दोबारा ऐसा करना निरर्थक होगा। पवित्र आत्मा ने उस समय उस तरह से कार्य किया, क्योंकि वह अनुग्रह का युग था, और मनुष्य के आनंद लेने के लिए पर्याप्त अनुग्रह था। उससे किसी तरह का कोई भुगतान नहीं माँगा गया, और जब तक उसे विश्वास था, वह अनुग्रह प्राप्त कर सकता था। सबके साथ बहुत दयालुता का व्यवहार किया जाता था। अब युग बदल चुका है और परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ चुका है; मनुष्य की विद्रोहशीलता को और उसके भीतर की अशुद्धता को ताड़ना और न्याय के माध्यम से दूर किया जाएगा। चूँकि वह छुटकारे का चरण था, इसलिए मनुष्य के आनंद के लिए उस पर पर्याप्त अनुग्रह प्रदर्शित करते हुए परमेश्वर का उस तरह से कार्य करना उचित था, ताकि मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया जा सके, और अनुग्रह के माध्यम से उसके पाप क्षमा किए जा सकें। यह वर्तमान चरण ताड़ना, न्याय, वचनों के प्रहार, और साथ ही अनुशासन तथा वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मनुष्य के भीतर की अधार्मिकता उजागर करने के लिए है, ताकि बाद में मानवजाति को बचाया जा सके। यह कार्य छुटकारे के कार्य से कहीं अधिक गहरा है। अनुग्रह के युग में मनुष्य के आनंद के लिए अनुग्रह पर्याप्त था; अब चूँकि वह पहले ही इस अनुग्रह का अनुभव कर चुका है, इसलिए उसे अब और उसका आनंद नहीं उठाना है। इस कार्य का समय अब चला गया है और यह अब और नहीं किया जाना है। अब मनुष्य को वचन के न्याय के माध्यम से बचाया जाना है। मनुष्य का न्याय, उसकी ताड़ना और उसका शुद्धिकरण होने के पश्चात् इनके परिणामस्वरूप उसका स्वभाव बदल जाता है। क्या यह सब मेरे द्वारा बोले गए वचनों के कारण नहीं है? कार्य का प्रत्येक चरण समूची मानवजाति की प्रगति और युग के अनुसार किया जाता है। समस्त कार्य महत्वपूर्ण है, और यह सब अंतिम उद्धार के लिए किया जाता है, ताकि मानवजाति को भविष्य में एक अच्छी मंज़िल मिल सके, और अंत में मनुष्यों को प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा सके।
अंत के दिनों का कार्य वचन बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर लोगों में अब जो परिवर्तन हुए हैं, वे उन परिवर्तनों से बहुत अधिक बड़े हैं, जो चिह्न और चमत्कार स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों में हुए थे। क्योंकि अनुग्रह के युग में हाथ रखकर और प्रार्थना करके दुष्टात्माओं को मनुष्य से निकाला जाता था, परंतु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा कर दिया जाता था और उसके पाप क्षमा कर दिए जाते थे, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध था कि मनुष्य को उसके भीतर के शैतानी स्वभावों से कैसे मुक्त किया जाए, तो यह कार्य अभी किया जाना बाकी था। मनुष्य को उसके विश्वास के कारण केवल बचाया गया था और उसके पाप क्षमा किए गए थे, किंतु उसका पापी स्वभाव उसमें से नहीं निकाला गया था और वह अभी भी उसके अंदर बना हुआ था। मनुष्य के पाप देहधारी परमेश्वर के माध्यम से क्षमा किए गए थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं रह गया था। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु मनुष्य इस समस्या को हल करने में पूरी तरह असमर्थ रहा है कि वह आगे कैसे पाप न करे और कैसे उसका भ्रष्ट पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया और रूपांतरित किया जा सकता है। मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके। इसके लिए मनुष्य को जीवन में उन्नति के मार्ग को समझना होगा, जीवन के मार्ग को समझना होगा, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझना होगा। साथ ही, इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता होगी, ताकि उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल सके और वह प्रकाश की चमक में जी सके, ताकि वह जो कुछ भी करे, वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वह अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और इसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुत अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार को आशीष, बीमारी से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसकी ईश्वर के अनुरूप दिखावट थी; यदि कोई इनके आधार पर जी सकता था, तो उसे एक स्वीकार्य विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ था कि उन्हें बचा लिया गया है। परंतु अपने जीवन-काल में इन लोगों ने जीवन के मार्ग को बिलकुल नहीं समझा था। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि अपना स्वभाव बदलने के किसी मार्ग को अपनाए बिना बस एक निरंतर चक्र में पाप किए और उन्हें स्वीकार कर लिया : अनुग्रह के युग में मनुष्य की स्थिति ऐसी थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं! इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है।
परमेश्वर द्वारा मनुष्य को सीधे पवित्रात्मा की पद्धति और पवित्रात्मा की पहचान का उपयोग करके नहीं बचाया जाता, क्योंकि उसके पवित्रात्मा को मनुष्य द्वारा न तो छुआ जा सकता है, न ही देखा जा सकता है, और न ही मनुष्य उसके निकट जा सकता है। यदि उसने पवित्रात्मा के दृष्टिकोण के उपयोग द्वारा सीधे तौर पर मनुष्य को बचाने का प्रयास किया होता, तो मनुष्य उसके उद्धार को प्राप्त करने में असमर्थ होता। यदि परमेश्वर एक सृजित मनुष्य का बाहरी रूप धारण न करता, तो मनुष्य के लिए इस उद्धार को प्राप्त करने का कोई उपाय न होता। क्योंकि मनुष्य के पास उस तक पहुँचने का कोई तरीका नहीं है, बहुत हद तक वैसे ही जैसे कोई मनुष्य यहोवा के बादल के पास नहीं जा सकता था। केवल एक सृजित मनुष्य बनकर, अर्थात् अपने वचन को उस देह में, जो वह बनने वाला है, रखकर ही वह व्यक्तिगत रूप से वचन को उन सभी लोगों में ढाल सकता है, जो उसका अनुसरण करते हैं। केवल तभी मनुष्य व्यक्तिगत रूप से उसके वचन को देख और सुन सकता है, और इससे भी बढ़कर, उसके वचन को ग्रहण कर सकता है, और इसके माध्यम से पूरी तरह से बचाया जा सकता है। यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो कोई भी देह और रक्त से युक्त मनुष्य ऐसे बड़े उद्धार को प्राप्त न कर पाता, न ही एक भी मनुष्य बचाया गया होता। यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों के बीच सीधे तौर पर काम करता, तो पूरी मानवजाति खत्म हो जाती या फिर परमेश्वर के संपर्क में आने का कोई उपाय न होने के कारण शैतान द्वारा पूरी तरह से बंदी बनाकर ले जाई गई होती। प्रथम देहधारण मनुष्य को पाप से छुटकारा देने के लिए था, उसे यीशु की देह के माध्यम से छुटकारा देने के लिए था, अर्थात् यीशु ने मनुष्य को सलीब से बचाया, किंतु भ्रष्ट शैतानी स्वभाव फिर भी मनुष्य के भीतर रह गया। दूसरा देहधारण अब पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए नहीं है, अपितु उन लोगों को पूरी तरह से बचाने के लिए है, जिन्हें पाप से छुटकारा दिया गया था। इसे इसलिए किया जा रहा है, ताकि जिन्हें क्षमा किया गया था, उन्हें उनके पापों से मुक्त किया जा सके और पूरी तरह से शुद्ध बनाया जा सके, और वे एक परिवर्तित स्वभाव प्राप्त करके शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो जाएँ और परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौट आएँ। केवल इसी तरीके से मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र किया जा सकता है। व्यवस्था के युग का अंत होने के बाद और अनुग्रह के युग के आरंभ से परमेश्वर ने उद्धार का कार्य शुरू किया, जो अंत के दिनों तक जारी है, जब वह मनुष्य की विद्रोहशीलता के लिए उसके न्याय और ताड़ना का कार्य करते हुए मानवजाति को पूरी तरह से शुद्ध कर देगा। केवल तभी परमेश्वर उद्धार के अपने कार्य का समापन करेगा और विश्राम में प्रवेश करेगा। इसलिए, कार्य के तीन चरणों में परमेश्वर स्वयं मनुष्य के बीच अपना कार्य करने के लिए केवल दो बार देह बना। वह इसलिए, क्योंकि कार्य के तीन चरणों में से केवल एक चरण ही मनुष्यों के जीवन में उनकी अगुआई करने के लिए है, जबकि अन्य दो चरणों में उद्धार का कार्य शामिल है। केवल देह बनकर ही परमेश्वर मनुष्य के साथ रह सकता है, संसार के दुःख का अनुभव कर सकता है, और एक सामान्य देह में रह सकता है। केवल इसी तरह से वह मनुष्यों को उस व्यावहारिक मार्ग की आपूर्ति कर सकता है, जिसकी उन्हें एक सृजित प्राणी होने के नाते आवश्यकता है। परमेश्वर के देहधारण के माध्यम से ही मनुष्य परमेश्वर से पूर्ण उद्धार प्राप्त करता है, न कि अपनी प्रार्थनाओं के उत्तर में सीधे स्वर्ग से। मनुष्य के शरीर और रक्त का होने के कारण, उसके पास परमेश्वर के आत्मा को देखने का कोई उपाय नहीं है, और उस तक पहुँचने का उपाय तो बिलकुल भी नहीं है। मनुष्य केवल परमेश्वर के देहधारी स्वरूप के संपर्क में ही आ सकता है, और केवल इस माध्यम से ही सभी मार्गों और सभी सत्यों को समझने में सक्षम हो सकता है, और पूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकता है। दूसरा देहधारण मनुष्य का पापों से पीछा छुड़ाने और उसे पूरी तरह से पवित्र करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, दूसरे देहधारण के साथ देह में परमेश्वर का संपूर्ण कार्य समाप्त कर दिया जाएगा और परमेश्वर के देहधारण का महत्व पूरा कर दिया जाएगा। उसके बाद देह में परमेश्वर का काम पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा। दूसरे देहधारण के बाद वह अपने कार्य के लिए तीसरी बार देह नहीं बनेगा, क्योंकि उसका संपूर्ण प्रबंधन समाप्त हो गया होगा। अंत के दिनों के उसके देहधारण ने अपने चुने हुए लोगों को पूरी तरह से प्राप्त कर लिया होगा, और अंत के दिनों में मनुष्यों को प्रकार के अनुसार विभाजित कर दिया गया होगा। वह तब उद्धार का कार्य नहीं करेगा और न ही कोई कार्य को करने के लिए देह में लौटेगा। अंत के दिनों के कार्य में वचन चिह्न और चमत्कार दिखाने से कहीं अधिक शक्तिमान है, और वचन का अधिकार चिह्नों और चमत्कारों के अधिकार से कहीं बढ़कर है। वचन मनुष्य के हृदय में गहरे दबे सभी भ्रष्ट स्वभावों को उजागर कर देता है। तुम्हारे पास उन्हें अपने आप पहचानने का कोई उपाय नहीं है। जब उन्हें वचन के माध्यम से तुम्हारे सामने प्रकट किया जाता है, तब तुम्हें स्वाभाविक रूप से उनका पता चल जाएगा; तुम उनसे इनकार करने में समर्थ नहीं होगे, और तुम पूरी तरह से आश्वस्त हो जाओगे। क्या यह वचन का अधिकार नहीं है? यह आज वचन के कार्य द्वारा प्राप्त किया जाने वाला परिणाम है। इसलिए, बीमारी की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने से मनुष्य को उसके पापों से पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता, न ही चिह्नों और चमत्कारों के प्रदर्शन से उसे पूरी तरह से पूर्ण बनाया जा सकता है। चंगाई करने और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार मनुष्य को केवल अनुग्रह प्रदान करता है, किंतु मनुष्य का देह फिर भी शैतान से संबंधित होता है और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव फिर भी मनुष्य के भीतर बना रहता है। दूसरे शब्दों में, जिसे शुद्ध नहीं किया गया है, वह अभी भी पाप और गंदगी से संबंधित है। केवल वचन के माध्यम से स्वच्छ कर दिए जाने के बाद ही मनुष्य को परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह पवित्र बन सकता है। जब मनुष्य के भीतर से दुष्टात्माओं को निकाला गया और उसे छुटकारा दिलाया गया, तो इसका अर्थ केवल इतना था कि उसे शैतान के हाथ से छीनकर परमेश्वर को लौटा दिया गया है। किंतु उसे परमेश्वर द्वारा स्वच्छ या परिवर्तित किए बिना वह भ्रष्ट बना रहता है। मनुष्य के भीतर अब भी गंदगी, विरोध और विद्रोशीलता बनी हुई है; मनुष्य केवल छुटकारे के माध्यम से ही परमेश्वर के पास लौटा है, किंतु उसे परमेश्वर का जरा-सा भी ज्ञान नहीं है और वह अभी भी परमेश्वर का विरोध करने और उसके साथ विश्वासघात करने में सक्षम है। मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है। आज किया जाने वाला समस्त कार्य इसलिए है, ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से, और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से भी, मनुष्य अपनी भ्रष्टता दूर कर सकता है और शुद्ध बनाया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाय यह कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्धिकरण का कार्य है। वास्तव में यह चरण विजय का और साथ ही उद्धार के कार्य का दूसरा चरण है। वचन द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से मनुष्य परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाने की स्थिति में पहुँचता है, और शुद्ध करने, न्याय करने और प्रकट करने के लिए वचन के उपयोग के माध्यम से मनुष्य के हृदय के भीतर की सभी अशुद्धताओं, धारणाओं, प्रयोजनों और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को पूरी तरह से प्रकट किया जाता है। क्योंकि मनुष्य को छुटकारा दिए जाने और उसके पाप क्षमा किए जाने को केवल इतना ही माना जा सकता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता और उसके साथ अपराधों के अनुसार व्यवहार नहीं करता। किंतु जब मनुष्य को, जो कि देह में रहता है, पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह निरंतर अपना भ्रष्ट शैतानी स्वभाव प्रकट करते हुए केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है, जो मनुष्य जीता है—पाप करने और क्षमा किए जाने का एक अंतहीन चक्र। अधिकतर मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं, ताकि शाम को उन्हें स्वीकार कर सकें। इस प्रकार, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए हमेशा के लिए प्रभावी हो, फिर भी वह मनुष्य को पाप से बचाने में सक्षम नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। उदाहरण के लिए, जब लोगों को पता चला कि वे मोआब के वंशज हैं, तो उन्होंने शिकायत के बोल बोलने शुरू कर दिए, जीवन का अनुसरण करना छोड़ दिया, और पूरी तरह से नकारात्मक हो गए। क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता कि मानवजाति अभी भी परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन पूरी तरह से समर्पित होने में असमर्थ है? क्या यह ठीक उनका भ्रष्ट शैतानी स्वभाव नहीं है? जब तुम्हें ताड़ना का भागी नहीं बनाया गया था, तो तुम्हारे हाथ अन्य सबके हाथों से ऊँचे उठे हुए थे, यहाँ तक कि यीशु के हाथों से भी ऊँचे। और तुम ऊँची आवाज़ में पुकार रहे थे : “परमेश्वर के प्रिय पुत्र बनो! परमेश्वर के अंतरंग बनो! हम मर जाएँगे, पर शैतान के आगे नहीं झुकेंगे! बूढ़े शैतान के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़े लाल अजगर के विरुद्ध विद्रोह करो! बड़ा लाल अजगर दीन-हीन होकर सत्ता से गिर जाए! परमेश्वर हमें पूरा करे!” तुम्हारी पुकार अन्य सबसे ऊँची थीं। किंतु फिर ताड़ना का समय आया और एक बार फिर मनुष्यों का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हुआ। फिर उनकी पुकार बंद हो गई और उनका संकल्प टूट गया। यही मनुष्य की भ्रष्टता है; यह पाप से ज्यादा गहरी दौड़ रही है, इसे शैतान द्वारा स्थापित किया गया है और यह मनुष्य के भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए है। मनुष्य के लिए अपने पापों से अवगत होना आसान नहीं है; उसके पास अपनी गहरी जमी हुई प्रकृति को पहचानने का कोई उपाय नहीं है, और उसे यह परिणाम प्राप्त करने के लिए वचन के न्याय पर भरोसा करना चाहिए। केवल इसी प्रकार से मनुष्य इस बिंदु से आगे धीरे-धीरे बदल सकता है। मनुष्य अतीत में इस प्रकार इसलिए चिल्लाता था, क्योंकि मनुष्य को अपने अंतर्निहित भ्रष्ट स्वभाव की कोई समझ नहीं थी। मनुष्य के भीतर ये अशुद्धियाँ मौजूद हैं। न्याय और ताड़ना की इतनी लंबी अवधि के दौरान मनुष्य तनाव के माहौल में रहता था। क्या यह सब वचन के माध्यम से प्राप्त नहीं किया गया था? क्या सेवा करने वालों के परीक्षण से पहले तुम भी बहुत ऊँची आवाज़ में नहीं चीख़े थे? “राज्य में प्रवेश करो! वे सभी जो इस नाम को स्वीकार करते हैं, राज्य में प्रवेश करेंगे! सभी परमेश्वर का हिस्सा बनेंगे!” जब सेवा करने वालों का परीक्षण आया, तो तुमने चिल्लाना बंद कर दिया। बिलकुल शुरुआत में सभी चीख़े थे, “हे परमेश्वर! तुम मुझे जहाँ कहीँ भी रखो, मैं तुम्हारे द्वारा मार्गदर्शन किए जाने के लिए समर्पित होऊँगा।” पमेश्वर के ये वचन पढ़कर, कि “मेरा पौलुस कौन बनेगा?” लोगों ने कहा, “मैं तैयार हूँ!” फिर उन्होंने इन वचनों को देखा, “और अय्यूब की आस्था का क्या?” और कहा, “मैं अय्यूब की आस्था अपने ऊपर लेने के लिए तैयार हूँ। परमेश्वर, कृपया मेरी परीक्षा लो!” जब सेवा करने वालों का परीक्षण आया, तो वे तुरंत ढह गए और फिर मुश्किल से ही खड़े हो सके। उसके बाद थोड़ी-थोड़ी करके, मनुष्य के हृदय की अशुद्धियाँ धीरे-धीरे घट गईं। क्या यह वचन के माध्यम से हासिल नहीं किया गया था? इसलिए, वर्तमान में तुम लोगों ने जो कुछ अनुभव किया है, वे वचन के माध्यम से हासिल किए गए परिणाम हैं, जो यीशु द्वारा चिह्न और चमत्कार दिखाकर हासिल किए गए परिणामों से भी बड़े हैं। तुम परमेश्वर की जो महिमा और स्वयं परमेश्वर का जो अधिकार देखते हो, वे मात्र सलीब पर चढ़ने, बीमारी को चंगा करने और दुष्टात्माओं को बाहर निकालने के माध्यम से नहीं देखे जाते, बल्कि उसके वचन के न्याय के माध्यम से अधिक देखे जाते हैं। यह तुम्हें दर्शाता है कि परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य में केवल चिह्न दिखाना, बीमारियों को चंगा करना और दुष्टात्माओं को बाहर निकालना ही शामिल नहीं है, बल्कि परमेश्वर के वचन का न्याय परमेश्वर के अधिकार को दर्शाने और उसकी सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करने में अधिक सक्षम है।
जो कुछ मनुष्य ने अब प्राप्त किया है—अपनी वर्तमान कद-काठी, ज्ञान, प्रेम, वफादारी, आज्ञाकारिता और अंतर्दृष्टि—ये ऐसे परिणाम हैं, जिन्हें वचन के न्याय के माध्यम से प्राप्त किया गया है। तुम जो वफादारी रखने में और आज तक खड़े रहने में समर्थ हो, यह वचन के माध्यम से प्राप्त किया गया है। अब मनुष्य देखता है कि देहधारी परमेश्वर का कार्य वास्तव में असाधारण है, और इसमें बहुत-कुछ ऐसा है, जिसे मनुष्य द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, और वे रहस्य और चमत्कार हैं। इसलिए बहुतों ने समर्पण कर दिया है। कुछ लोगों ने अपने जन्म के समय से ही किसी भी मनुष्य के प्रति समर्पण नहीं किया है, फिर भी जब वे आज परमेश्वर के वचनों को देखते हैं, तो वे अनजाने ही पूरी तरह से समर्पण कर देते हैं, और वे जाँच करने या कुछ और कहने का उपक्रम नहीं करते; मनुष्य वचन के अधीन गिर गया है और वचन के न्याय के अधीन दंडवत् पड़ा है। यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों से सीधे बात करता, तो समस्त मानवजाति उस वाणी के प्रति समर्पित हो जाती, प्रकाशन के वचनों के बिना नीचे गिर जाती, बिलकुल वैसे ही जैसे पौलुस दमिश्क की राह पर ज्योति के मध्य भूमि पर गिर गया था। यदि परमेश्वर इसी तरीके से काम करता रहता, तो मनुष्य वचन के न्याय के माध्यम से अपनी भ्रष्टता को जानने और इसके परिणामस्वरूप उद्धार प्राप्त करने में कभी समर्थ न होता। केवल देह बनकर ही परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को हर मनुष्य के कानों तक पहुँचा सकता है, ताकि वे सभी, जिनके पास कान हैं, उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा उसके न्याय के कार्य को प्राप्त कर सकें। मनुष्य को समर्पण हेतु डराने के लिए पवित्रात्मा के प्रकटन के बजाय यह केवल उसके वचन के द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम है। केवल इस व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से उसके भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से उजागर किया जा सकता है, ताकि मनुष्य उसे पहचान सके और बदलवा सके। ये सब चीज़ें देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य हैं, जिसमें वह एक व्यावहारिक तरीके से बोलकर और न्याय करके वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणाम प्राप्त करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है। इसे देहधारी परमेश्वर के अधिकार को ज्ञात करवाने के लिए, वचन के कार्य द्वारा प्राप्त किए गए परिणाम ज्ञात करवाने के लिए, और यह ज्ञात करवाने के लिए किया जाता है कि आत्मा देह में आ चुका है और वह वचन के द्वारा मनुष्य का न्याय करने के माध्यम से अपना अधिकार प्रदर्शित करता है। यद्यपि उसका देह एक साधारण और सामान्य मनुष्य का बाहरी रूप है, किंतु उसके वचन से प्राप्त परिणाम मनुष्य को दिखाते हैं कि वह अधिकार से परिपूर्ण है, कि वह स्वयं परमेश्वर है और उसके वचन स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं। इसके माध्यम से सभी मनुष्यों को दिखाया जाता है कि वह स्वयं परमेश्वर है, कि वह देह बना स्वयं परमेश्वर है, कि किसी के भी द्वारा उसे नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए, और कि कोई भी उसके वचन के द्वारा किए गए न्याय के परे नहीं हो सकता और अंधकार की कोई भी शक्ति उसके अधिकार पर हावी नहीं हो सकती। मनुष्य उसके देह बना वचन होने के कारण, उसके अधिकार के कारण और वचन द्वारा उसके न्याय के कारण उसके प्रति पूर्णतः समर्पण करता है। उसके द्वारा धारित देह के द्वारा लाया गया कार्य ही उसका अधिकार है। उसके देह धारण करने का कारण यह है कि देह के पास भी अधिकार हो सकता है, और वह एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्यों के बीच इस प्रकार कार्य करने में सक्षम है, जो मनुष्यों के लिए दृष्टिगोचर और मूर्त है। यह कार्य परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे तौर पर किए जाने वाले कार्य से कहीं अधिक वास्तविक है, जिसमें समस्त अधिकार है, और इसके परिणाम भी स्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर द्वारा धारित देह एक व्यावहारिक तरीके से बोल और कार्य कर सकता है। उसके देह का बाहरी रूप कोई अधिकार नहीं रखता, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है, जबकि उसका सार अधिकार वहन करता है, किंतु उसका अधिकार किसी के लिए भी दृष्टिगोचर नहीं है। जब वह बोलता और कार्य करता है, तो मनुष्य उसके अधिकार के अस्तित्व का पता लगाने में असमर्थ होता है; इससे उसे एक व्यावहारिक प्रकृति का कार्य करने में आसानी होती है। यह समस्त व्यावहारिक कार्य परिणाम प्राप्त कर सकता है। भले ही कोई मनुष्य यह एहसास न करता हो कि परमेश्वर अधिकार रखता है, या यह न देखता हो कि परमेश्वर को नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए, या परमेश्वर का कोप न देखता हो, फिर भी वह अपने छिपे हुए अधिकार, अपने छिपे हुए कोप और उन वचनों के माध्यम से, जिन्हें वह खुलकर बोलता है, अपने वचनों के अभीष्ट परिणाम प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में, उसकी आवाज़ के लहजे, उसकी वाणी की कठोरता और उसके वचनों की समस्त बुद्धि के माध्यम से मनुष्य पूरी तरह से आश्वस्त हो जाता है। इस तरह से, मनुष्य उस देहधारी परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पण कर देता है, जिसके पास प्रकट रूप में कोई अधिकार नहीं है, जिससे मनुष्य को बचाने का परमेश्वर का लक्ष्य पूरा होता है। यह उसके देहधारण के महत्व का का एक और पहलू है : अधिक यथार्थपरक ढंग से बोलना और अपने वचनों की वास्तविकता को मनुष्य पर प्रभाव डालने देना, ताकि मनुष्य परमेश्वर के वचन का सामर्थ्य देख सके। अतः यदि यह कार्य देहधारण के माध्यम से न किया जाता, तो यह मामूली परिणाम भी प्राप्त न करता और पापी लोगों को पूरी तरह से बचाने में सक्षम न होता। यदि परमेश्वर देह न बना होता, तो वह पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। चूँकि मनुष्य देह वाला प्राणी है, इसलिए वह और परमेश्वर दो अलग-अलग दुनिया के हैं और अलग-अलग प्रकृति के हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच संबंध स्थापित किए जाने का कोई उपाय ही नहीं है, और इसका तो जिक्र ही क्या करना कि मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता। ऐसा होने के कारण, अपना मूल काम करने के लिए परमेश्वर के आत्मा को एक सृजित प्राणी बनना आवश्यक है। परमेश्वर दोनों काम कर सकता है, वह सबसे ऊँचे स्थान पर भी चढ़ सकता है और मनुष्यों के बीच कार्य करने और उनके बीच रहने के लिए अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, किंतु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता और पवित्रात्मा नहीं बन सकता, और वह निम्नतम स्थान में तो बिलकुल भी नहीं उतर सकता। इसीलिए अपना कार्य करने हेतु परमेश्वर का देह बनना आवश्यक है। इसी प्रकार, प्रथम देहधारण के दौरान, केवल देहधारी परमेश्वर का देह ही सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मनुष्य को छुटकारा दे सकता था, जबकि परमेश्वर के आत्मा के पास मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ने का कोई उपाय नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के लिए एक पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए सीधे देह बन सकता था, किंतु मनुष्य परमेश्वर द्वारा अपने लिए तैयार की गई पापबलि लेने के लिए सीधे स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था। ऐसा होने के कारण, मनुष्य द्वारा इस उद्धार को लेने के लिए स्वर्ग में आरोहण करने के बजाय, यही संभव था कि परमेश्वर से कुछ बार स्वर्ग और पृथ्वी के बीच आने-जाने का आग्रह किया जाए, क्योंकि मनुष्य पतित हो चुका था, और इससे भी बढ़कर, वह स्वर्ग में आरोहण नहीं कर सकता था, और पापबलि तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए, यीशु के लिए मनुष्यों के बीच आना और व्यक्तिगत रूप से उस कार्य को करना आवश्यक था, जिसे मनुष्य द्वारा पूरा किया ही नहीं जा सकता था। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तब यह परम आवश्यकता के कारण होता है। यदि किसी भी चरण को परमेश्वर के आत्मा द्वारा सीधे संपन्न किया जा सकता, तो वह देहधारी होने का अनादर सहन न करता।
कार्य के इस अंतिम चरण में परिणाम वचन के माध्यम से प्राप्त किए जाते है। वचन के माध्यम से मनुष्य अनेक रहस्यों और पिछली पीढ़ियों के दौरान किए गए परमेश्वर के कार्य को समझ जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य को पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य पिछली पीढ़ियों के द्वारा कभी न सुलझाए गए रहस्यों को, और साथ ही अतीत के समयों के नबियों और प्रेरितों के कार्य को, और उनके कार्य करने के सिद्धांतों को समझ जाता है; वचन के माध्यम से मनुष्य स्वयं परमेश्वर के स्वभाव को और साथ ही मनुष्य की विद्रोहशीलता और विरोध को भी समझ जाता है, और वह अपने सार को जान जाता है। कार्य के इन चरणों और बोले गए सभी वचनों के माध्यम से मनुष्य पवित्रात्मा के कार्य को, देहधारी परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले कार्य को, और इससे भी बढ़कर, उसके संपूर्ण स्वभाव को जान जाता है। छह हज़ार वर्षों से अधिक की परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का तुम्हारा ज्ञान भी वचन के माध्यम से ही प्राप्त किया गया था। क्या तुम्हारी पुरानी धारणाओं का ज्ञान और उन्हें अलग रखने में तुम्हारी सफलता भी वचन के माध्यम से प्राप्त नहीं की गई? पिछले चरण में यीशु ने चिह्न और चमत्कार दिखाए थे, किंतु इस चरण में कोई चिह्न और चमत्कार नहीं है। क्या तुम्हारी यह समझ भी, कि परमेश्वर चिह्न और चमत्कार क्यों नहीं दिखाता, वचन के माध्यम से ही प्राप्त नहीं की गई? इसलिए, इस चरण में बोले गए वचन पिछली पीढ़ियों के प्रेरितों और नबियों द्वारा किए गए कार्यों से बढ़कर हैं। यहाँ तक कि नबियों द्वारा की गई भविष्यवाणियाँ भी ऐसे परिणाम प्राप्त नहीं कर सकती थीं। नबियों ने केवल भविष्यवाणियाँ की थीं, उन्होंने यह कहा था कि भविष्य में क्या होगा, किंतु उस कार्य के बारे में नहीं कहा था, जिसे परमेश्वर उस समय करना चाहता था। न ही उन्होंने मनुष्यों के जीवन में उनका मार्गदर्शन करने के लिए या उन्हें सत्य प्रदान करने के लिए या उन पर रहस्य प्रकट करने के लिए बोला था, और उन्हें जीवन प्रदान करने के लिए तो बिलकुल भी नहीं बोला था। इस चरण में बोले गए वचनों में भविष्यवाणी और सत्य है, किंतु वे मुख्य रूप से मनुष्य को जीवन प्रदान करने का काम करते हैं। वर्तमान समय में वचन नबियों की भविष्यवाणियों से भिन्न हैं। कार्य का यह चरण मनुष्य के जीवन के लिए है, मनुष्य के जीवन-स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए है, न कि भविष्यवाणियाँ करने के लिए। प्रथम चरण यहोवा का कार्य था : उसका कार्य पृथ्वी पर मनुष्य के लिए परमेश्वर की आराधना करने हेतु एक मार्ग तैयार करना था। यह पृथ्वी पर कार्य के लिए एक मूल स्थान खोजने हेतु आरंभ करने का कार्य था। उस समय यहोवा ने इस्राएलियों को सब्त का पालन करना, अपने माता-पिता का आदर करना और एक-दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रहना सिखाया। इसका कारण यह था कि उस समय के लोग नहीं समझते थे कि मनुष्य किस चीज से बना है, न ही वे यह समझते थे कि पृथ्वी पर किस प्रकार रहना है। कार्य के प्रथम चरण में उसके लिए मनुष्य के जीवन में उनकी अगुआई करना आवश्यक था। यहोवा ने जो कुछ उनसे कहा, वह सब मनुष्यों को पहले ज्ञात नहीं करवाया गया था या उनके पास नहीं था। उस समय परमेश्वर ने भविष्यवाणियाँ करने के लिए अनेक नबियों को खड़ा किया, और उन सबने यहोवा की अगुआई में ऐसा किया। यह परमेश्वर के कार्य का मात्र एक भाग था। प्रथम चरण में परमेश्वर देह नहीं बना, इसलिए उसने नबियों के माध्यम से सभी जन-जातियों और राष्ट्रों को निर्देश दिए। जब यीशु ने अपने समय में कार्य किया, तब वह उतना नहीं बोला, जितना कि वर्तमान समय में। अंत के दिनों में वचन के कार्य का यह चरण पिछले युगों और पीढ़ियों में कभी कार्यान्वित नहीं किया गया। यद्यपि यशायाह, दानिय्येल और यूहन्ना ने कई भविष्यवाणियाँ कीं, किंतु उनकी भविष्यवाणियाँ अब बोले जाने वाले वचनों से बिलकुल अलग हैं। उन्होंने जो कहा, वे केवल भविष्यवाणियाँ थीं, किंतु अब बोले जा रहे वचन ऐसे नहीं हैं। यदि मैं आज जो कुछ कह रहा हूँ, उसे भविष्यवाणियों में बदल दूँ, तो क्या तुम लोग समझ पाने में सक्षम होगे? मान लो, जो कुछ मैं कहता हूँ, वह उन मामलों के बारे में हो, जो मेरे जाने के बाद होंगे, तो तुम समझ कैसे प्राप्त कर सकोगे? वचन का कार्य यीशु के समय में या व्यवस्था के युग में कभी नहीं किया गया था। शायद कुछ लोग कहेंगे, “क्या यहोवा ने भी अपने कार्य के समय में वचन नहीं बोले थे? क्या यीशु ने भी उस समय, जब वह कार्य कर रहा था, बीमारियों की चंगाई करने, दुष्टात्माओं को निकालने और चिह्न एवं चमत्कार दिखाने के अतिरिक्त वचन नहीं बोले थे?” बोली गई बातों में अंतर होता है। यहोवा द्वारा बोले गए वचनों का सार क्या था? वह केवल पृथ्वी पर मनुष्यों के जीवन में अगुआई कर रहा था, जिसने जीवन के आध्यात्मिक मामलों को नहीं छुआ था। ऐसा क्यों कहा जाता है कि जब यहोवा बोला, तो वह सभी स्थानों के लोगों को निर्देश देने के लिए था? “निर्देश” शब्द का अर्थ है स्पष्ट रूप से बताना और सीधे आदेश देना। उसने मनुष्य को जीवन की आपूर्ति नहीं की, बल्कि उसने बस मनुष्य का हाथ पकड़ा और बिना ज़्यादा दृष्टांतों का तरीका अपनाए उसे अपना आदर करना सिखाया। इस्राएल में यहोवा ने जो कार्य किया, वह मनुष्य से निपटना या उसे अनुशासित करना या उसे न्याय और ताड़ना प्रदान करना नहीं था, बल्कि उसकी अगुआई करना था। यहोवा ने मूसा को आदेश दिया कि वह उसके लोगों से कहे कि वे जंगल में मन्ना इकट्ठा करें। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उन्हें केवल इतना मन्ना इकट्ठा करना था, जो उनके उस दिन के खाने के लिए पर्याप्त हो। मन्ना को अगले दिन तक नहीं रखा जा सकता था, क्योंकि तब उसमें फफूँद लग जाती। उसने लोगों को भाषण नहीं दिया या उनकी प्रकृति उजागर नहीं की, न ही उसने उनके मत और विचार उजागर किए। उसने लोगों को बदला नहीं, बल्कि उनके जीवन में उनकी अगुआई की। उस समय के लोग बच्चों के समान थे, जो कुछ नहीं समझते थे और केवल कुछ मूलभूत यांत्रिक गतिविधियाँ करने में ही सक्षम थे, और इसलिए यहोवा ने केवल जनसाधारण का मार्गदर्शन करने के लिए व्यवस्थाएँ लागू की थीं।
सुसमाचार फैलाने के लिए, ताकि सच्चे हृदय से खोजने वाले सभी लोग आज किए गए कार्य का ज्ञान प्राप्त कर सकें और पूरी तरह से आश्वस्त हो सकें, तुम्हें प्रत्येक चरण में किए गए कार्य की अंदरूनी कहानी, उसके सार और महत्व की स्पष्ट समझ प्राप्त करनी चाहिए। इसे ऐसा बनाओ कि तुम्हारी संगति सुनकर अन्य लोग यहोवा के कार्य, यीशु के कार्य और, इससे भी बढ़कर, परमेश्वर के आज के समस्त कार्य को, और साथ ही कार्य के तीनों चरणों के बीच के संबंध और अंतर को समझ जाएँ। इसे ऐसा बनाओ कि इसे सुनने के बाद अन्य लोग देख लें कि तीनों चरण एक-दूसरे को बाधित नहीं करते, बल्कि वे सब एक ही पवित्रात्मा के कार्य हैं। यद्यपि वे अलग-अलग युग में कार्य करते हैं, उनके द्वारा किए गए कार्य की विषयवस्तु अलग है, और उनके द्वारा कहे गए वचन अलग हैं, किंतु जिन सिद्धांतों से वे कार्य करते हैं, वे एक-समान हैं। ये वे सबसे बड़े दर्शन हैं, जिन्हें परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को समझना चाहिए।