परमेश्वर के दैनिक वचन : कार्य के तीन चरण | अंश 5
मानवजाति के प्रबंधन करने के कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है, जिसका अर्थ यह है कि मानवजाति को बचाने के कार्य को तीन चरणों में बाँटा जाता है। इन चरणों में संसार की रचना का कार्य समाविष्ट नहीं है, बल्कि ये व्यवस्था के युग, अनुग्रह के युग और राज्य के युग के कार्य के तीन चरण हैं। संसार की रचना करने का कार्य, सम्पूर्ण मानवजाति को उत्पन्न करने का कार्य था। यह मानवजाति को बचाने का कार्य नहीं था, और मानवजाति को बचाने के कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है, क्योंकि जब संसार की रचना हुई थी तब मानवजाति शैतान के द्वारा भ्रष्ट नहीं की गई थी, और इसलिए मानवजाति के उद्धार का कार्य करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। मानवजाति को बचाने का कार्य केवल मानवजाति के भ्रष्ट होने पर ही आरंभ हुआ, और इसलिए मानवजाति का प्रबंधन करने का कार्य भी मानवजाति के भ्रष्ट हो जाने पर ही आरम्भ हुआ। दूसरे शब्दों में, मनुष्य के प्रबंधन का परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने के कार्य के परिणामस्वरूप आरंभ हुआ, और संसार की रचना के कार्य से उत्पन्न नहीं हुआ। मानवजाति के प्रबंधन का कोई भी कार्य मानवजाति के भ्रष्ट स्वभाव के बिना नहीं हो सकता था, और इसलिए मानवजाति के प्रबंधन के कार्य में चार चरणों या चार युगों के बजाए तीन भागों का समावेश है। परमेश्वर के मानवजाति को प्रबंधित करने के कार्य को उद्धृत करने का केवल यही सही तरीका है। जब अंतिम युग समाप्त होने के समीप होगा, तब तक मानवजाति को प्रबंधित करने का कार्य पूर्ण समाप्ति तक पहुँच गया होगा। प्रबंधन के कार्य के समापन का अर्थ है कि समस्त मानवजाति को बचाने का कार्य पूरी तरह से समाप्त हो गया है, और यह कि मानवजाति अपनी यात्रा के अंत में पहुँच चुकी है। समस्त मानवजाति को बचाने के कार्य के बिना, मानवजाति के प्रबंधन के कार्य का अस्तित्व नहीं होगा, न ही उसमें कार्य के तीन चरण होंगे। यह निश्चित रूप से मानवजाति की चरित्रहीनता की वजह से था, और क्योंकि मानवजाति को उद्धार की इतनी अधिक आवश्यकता थी, कि यहोवा ने संसार का सृजन समाप्त किया और व्यवस्था के युग का कार्य आरम्भ कर दिया। केवल तभी मानवजाति के प्रबंधन का कार्य आरम्भ हुआ, जिसका अर्थ है कि केवल तभी मानवजाति को बचाने का कार्य आरम्भ हुआ। "मानवजाति का प्रबंधन करने" का अर्थ पृथ्वी पर नव-सृजित मानवजाति (कहने का अर्थ है, कि ऐसी मानवजाति जिसे अभी भ्रष्ट होना है) के जीवन का मार्गदर्शन करना नहीं है। बल्कि, यह उस मानवजाति का उद्धार है जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, जिसका अर्थ है, कि यह इस भ्रष्ट मानवजाति को बदलना है। यही मानवजाति का प्रबंधन करने का अर्थ है। मानवजाति को बचाने के कार्य में संसार की रचना करने का कार्य सम्मिलित नहीं है, और इसलिए मानवजाति का प्रबंधन करने का कार्य संसार की रचना करने के कार्य को समाविष्ट नहीं करता है, और केवल कार्य के तीन चरणों को ही समाविष्ट करता है जो संसार की रचना से अलग हैं। मानवजाति का प्रबंधन करने के कार्य को समझने के लिए कार्य के तीन चरणों के इतिहास के बारे में अवगत होना आवश्यक है—यही है वह बचाए जाने के लिए जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य अवगत होना चाहिए। परमेश्वर के प्राणियों के रूप में, तुम लोगों को जानना चाहिए कि मनुष्य परमेश्वर के द्वारा रचा गया था, और मानवजाति की भ्रष्टता के स्रोत को पहचानना चाहिए, और, इसके अलावा, मनुष्य के उद्धार की प्रक्रिया को जानना चाहिए। यदि तुम लोग केवल यही जानते हो कि परमेश्वर का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए सिद्धांतों के अनुसार कैसे कार्य किया जाए, परन्तु इस बात का कोई भान नहीं है कि परमेश्वर मानवजाति को किस प्रकार से बचाता है, या मानवजाति की भ्रष्टता का स्रोत क्या है, तो परमेश्वर की रचना के रूप में यही तुम लोगों में कमी है। परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के वृहद विस्तार से अनभिज्ञ बने रहते हुए, तुम्हें उन सत्यों को समझ कर केवल संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए जिन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है—यदि ऐसा मामला है, तो तुम बहुत ही हठधर्मी हो। कार्य के तीन चरण परमेश्वर के मनुष्यों के प्रबंधन की आंतरिक कथा हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के सुसमाचार का आगमन, समस्त मानवजाति के बीच सबसे बड़ा रहस्य हैं, और सुसमाचार के प्रसार का आधार भी हैं। यदि तुम अपने जीवन से सम्बन्धित सामान्य सत्यों को समझने पर ही केवल ध्यानकेन्द्रित करते हो, और इसके बारे में कुछ नहीं जानते हो, जो कि सबसे बड़ा रहस्य और दर्शन है, तो क्या तुम्हारा जीवन किसी दोषपूर्ण उत्पाद के सदृश नहीं है, जो सिर्फ देखने के अलावा किसी काम का नहीं है?
यदि मनुष्य केवल अभ्यास पर ही ध्यानकेन्द्रित करता है, और परमेश्वर के कार्य और मनुष्यों के ज्ञान को गौण देखता है, तो क्या यह "मोहरों की लूट, कोयले पर छाप" के समान नहीं है? वह जिसे तुम्हें अवश्य जानना चाहिए, तुम्हें अवश्य जानना चाहिए, और वह जिसे तुम्हें अभ्यास में अवश्य लाना चाहिए, तुम्हें अभ्यास में अवश्य लाना चाहिए। केवल तभी तुम्हेंई एक होगे जो जानता है कि सत्य की तलाश कैसे करनी है। जब सुसमाचार फैलाने का तुम्हारा दिन आता है, यदि तुम सिर्फ़ यह कह पाते हो कि परमेश्वर एक महान और धर्मी परमेश्वर है, कि वह एक सर्वोच्च परमेश्वर है, ऐसा परमेश्वर है जिससे किसी महान व्यक्ति की तुलना नहीं की जा सकती है, और जिससे उच्च कोई और दूसरा नहीं है..., यदि तुम केवल ये अप्रासंगिक और सतही बातें कह सकते हो, और तुम उन वचनों को कहने में सर्वथा असमर्थ हो जिनका महत्व अत्यधिक है, और जिनमें सार है, यदि तुम्हें परमेश्वर को जानने के बारे में, या परमेश्वर के कार्य के बारे में कहने के लिए कुछ भी नहीं है, और, इसके अलावा, सत्य की व्याख्या नहीं कर सकते हो, या वह प्रदान नहीं कर सकते हो जिसकी मनुष्य में कमी है, तो तुम्हारे जैसा कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने में अक्षम है। परमेश्वर की गवाही देना और राज्य के सुसमाचार को फैलाना कोई साधारण बात नहीं है। तुम्हें सबसे पहले सत्य से और उन दर्शनों से जिन्हें समझा जाना है सज्जित अवश्य होना चाहिए। जब तुम परमेश्वर के दर्शनों और कार्य के विभिन्न पहलुओं के सत्य बारे में स्पष्ट हो जाओगे, तुम अपने हृदय में परमेश्वर के कार्य को जान जाओगे, और इसकी परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या करता है—चाहे यह धर्मी न्याय हो या मनुष्य का—शुद्धिकरण—तुम अपनी बुनियाद के रूप में सबसे महत्वपूर्ण दर्शन से सम्पन्न हो जाओगे, और अभ्यास में लाने के लिए सही सत्य से सम्पन्न हो जाओगे, तब तुम बिल्कुल अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करने के योग्य बन जाओगे। तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या कार्य करता है, उस के कार्य का उद्देश्य नहीं बदलता है, उसके कार्य का केन्द्र नहीं बदलता है और मनुष्य के प्रति उसकी इच्छा नहीं बदलती है। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि उसके वचन कितने कठोर हैं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि परिस्थिति कितनी विपरीत है, उसके कार्य के सिद्धान्त नहीं बदलेंगे, और मनुष्यों को बचाने का उसका आशय नहीं बदलेगा। बशर्ते कि यह मनुष्य के अन्त का प्रकाशन या मनुष्य का गंतव्य नहीं है, और अंतिम चरण का कार्य, या परमेश्वर के प्रबंधन की सम्पूर्ण योजना को समाप्त करने का कार्य नहीं है, और बशर्ते कि यह उस समय के दौरान है जब वह मनुष्य पर कार्य करता है, तब उसके कार्य का केन्द्र नहीं बदलेगा: यह हमेशा मानवजाति का उद्धार होगा। यह परमेश्वर में तुम लोगों के विश्वास का आधार होना चाहिए। कार्य के तीन चरणों का उद्देश्य समस्त मानवजाति का उद्धार है—जिसका अर्थ है शैतान के अधिकार क्षेत्र से मनुष्य का पूर्ण उद्धार। यद्यपि कार्य के इन तीन चरणों में से प्रत्येक का एक भिन्न उद्देश्य और महत्व है, किन्तु प्रत्येक मानवजाति को बचाने के कार्य का हिस्सा है, और उद्धार का एक भिन्न कार्य है जो मानवजाति की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है। एक बार जब तुम कार्य के तीन चरणों के उद्देश्य के बारे में अवगत हो जाओगे हो, तब तुम्हें कार्य के प्रत्येक चरण के महत्व के बारे में सराहना करने के बारे में पता चल जाएगा, और तुम जान जाओगे कि परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने के लिए किस तरह से कार्यकलाप करें। यदि तुम इस स्थिति तक पहुँच सकते हो, तो यही सबसे बड़ा दर्शन, तुम्हारा आधार बन जाएगा। तुम्हें न केवल अभ्यास करने के आसान तरीकों को, या गहरे सत्यों को खोजना चाहिए, बल्कि दर्शन को अभ्यास के साथ जोड़ देना चाहिए, ताकि वहाँ सत्य जिसे अभ्यास में डाला जा सकता है, और ज्ञान जो कि दर्शनों पर आधारित है, दोनो हों। केवल तभी तुम कोई ऐसे व्यक्ति बनोगे जो सत्य की पूरी तरह से तलाश कर रहा है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है