वह एक धर्मनिष्ठ ईसाई है जिसने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है और ईमानदारी से खुद को खपाया है, लेकिन दो साल पहले, उसे स्तन कैंसर हो गया। वह इसे स्वीकार नहीं कर पाती, उसे यकीन है कि उसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए कष्ट झेले हैं और कीमत चुकाई है, इसलिए परमेश्वर को उसकी देखभाल कर उसकी रक्षा करनी चाहिए। उसे बिल्कुल समझ नहीं आता कि उसे कैंसर कैसे हो सकता है। उसका दिल ग़लतफ़हमियों और दोषारोपण से भर जाता है और वह वेदना से टूट जाती है। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने से, अपनी आस्था में आशीष पाने के प्रयास को लेकर उसने जो ग़लत ख्याल पकडे रखे थे, उन्हें वह थोड़ा समझ पाती है, वह परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हो जाती है। कुछ समय तक इलाज के बाद उसकी हालत में सुधार होने लगता है, लेकिन वह तब हैरान हो जाती है जब उसके अंतिम कीमो इलाज के बाद उसे बताया जाता है कि उसे अब भी ऑपरेशन की ज़रूरत है। वह फिर एक बार अपने दुख में डूब जाती है। परमेश्वर के वचनों का न्याय, प्रकाशन, मार्गदर्शन और पोषण, इस बीमारी से उबरने में उसकी मदद कैसे करते हैं? नतीजे के तौर पर, वह क्या समझती और क्या हासिल कर पाती है?
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