असली प्रार्थना क्या है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
सच्ची प्रार्थना क्या है? प्रार्थना परमेश्वर को यह बताना है कि तुम्हारे हृदय में क्या है, परमेश्वर की इच्छा को समझकर उससे बात करना है, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके साथ संवाद करना है, स्वयं को विशेष रूप से परमेश्वर के निकट महसूस करना है, यह महसूस करना है कि वह तुम्हारे सामने है, और यह विश्वास करना है कि तुम्हें उससे कुछ कहना है। तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा हृदय प्रकाश से भर गया है और तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर कितना प्यारा है। तुम विशेष रूप से प्रेरित महसूस करते हो, और तुम्हारी बातें सुनकर तुम्हारे भाइयों और बहनों को संतुष्टि मिलती है। उन्हें लगेगा कि जो शब्द तुम बोल रहे हो, वे उनके मन की बात है, उन्हें लगेगा कि जो वे कहना चाहते हैं, उसी बात को तुम अपने शब्दों के माध्यम से कह रहे हो। यही सच्ची प्रार्थना है। एक बार जब तुम सच्चे मन से प्रार्थना करने लगोगे, तुम्हारा दिल शांत हो जाएगा और संतुष्टि का एहसास होगा। परमेश्वर से प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है, और तुम महसूस करोगे कि जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने से अधिक मूल्यवान या अर्थपूर्ण और कुछ नहीं है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी प्रार्थना प्रभावी रही है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत
प्रार्थना केवल यन्त्रवत् ढंग से करना, प्रक्रिया का पालन करना, या परमेश्वर के वचनों का पाठ करना नहीं है। दूसरे शब्दों में, प्रार्थना कुछ वचनों को रटना नहीं है और यह दूसरों की नकल करना नहीं है। प्रार्थना में व्यक्ति को उस स्थिति तक पहुँचना चाहिए, जहाँ अपना हृदय परमेश्वर को दिया जा सके, जहाँ वह अपना हृदय खोलकर रख सके, ताकि वह परमेश्वर द्वारा प्रेरित हो सके। यदि प्रार्थना को प्रभावी होना है, तो उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने पर आधारित होना चाहिए। केवल परमेश्वर के वचनों के भीतर से प्रार्थना करने से ही व्यक्ति अधिक प्रबुद्धता और रोशनी प्राप्त कर सकता है। सच्ची प्रार्थना की अभिव्यक्तियाँ हैं : एक ऐसा हृदय होना, जो उस सबके लिए तरसता है जो परमेश्वर चाहता है, और यही नहीं, जो वह माँगता है उसे पूरा करने की इच्छा रखता है; उससे घृणा करना जिससे परमेश्वर घृणा करता है, और फिर इस आधार पर इसकी कुछ समझ प्राप्त करना, और परमेश्वर द्वारा प्रतिपादित सत्यों के बारे में कुछ ज्ञान और स्पष्टता हासिल करना। प्रार्थना के बाद यदि संकल्प, विश्वास, ज्ञान और अभ्यास का मार्ग हो, केवल तभी उसे सच्ची प्रार्थना कहा जा सकता है, और केवल इस प्रकार की प्रार्थना ही प्रभावी हो सकती है। फिर भी प्रार्थना को परमेश्वर के वचनों के आनंद पर निर्मित किया जाना चाहिए, उसे परमेश्वर के साथ उसके वचनों में, संवाद करने की नींव पर स्थापित होना चाहिए, और हृदय को परमेश्वर की खोज करने और उसके समक्ष शांत होने में सक्षम होना चाहिए। इस तरह की प्रार्थना पहले ही परमेश्वर के साथ सच्चे संवाद के चरण में प्रवेश कर चुकी है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत
परमेश्वर की मनुष्य से न्यूनतम अपेक्षा यह है कि मनुष्य अपना हृदय उसके प्रति खोल सके। यदि मनुष्य अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को देता है और उसे अपने हृदय की सच्ची बात बताता है, तो परमेश्वर उसमें कार्य करने को तैयार होता है। परमेश्वर मनुष्य के कलुषित हृदय की नहीं, बल्कि शुद्ध और ईमानदार हृदय की चाह रखता है। यदि मनुष्य परमेश्वर से अपने हृदय को खोलकर बात नहीं करता है, तो परमेश्वर उसके हृदय को प्रेरित नहीं करेगा या उसमें कार्य नहीं करेगा। इसलिए, प्रार्थना का मर्म है, अपने हृदय से परमेश्वर से बात करना, अपने आपको उसके सामने पूरी तरह से खोलकर, उसे अपनी कमियों या विद्रोही स्वभाव के बारे में बताना; केवल तभी परमेश्वर को तुम्हारी प्रार्थनाओं में रुचि होगी, अन्यथा वह तुमसे मुँह मोड़ लेगा। प्रार्थना का न्यूनतम मानदंड यह है कि तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना हृदय शांत रखने में सक्षम होना चाहिए, और उसे परमेश्वर से अलग नहीं हटना चाहिए। यह हो सकता है कि इस चरण के दौरान तुम्हें एक नई या उच्च अंतर्दृष्टि प्राप्त न हो, लेकिन फिर तुम्हें यथास्थिति बनाए रखने के लिए प्रार्थना का उपयोग करना चाहिए—तुम्हें पीछे नहीं हटना चाहिए। कम से कम इसे तो तुम्हें प्राप्त करना ही चाहिए। यदि तुम यह भी नहीं कर सकते, तो इससे साबित होता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन सही रास्ते पर नहीं है। परिणामस्वरूप, तुम्हारे पास पहले जो दृष्टि थी, उसे बनाए रखने में तुम असमर्थ होगे, तुम परमेश्वर में विश्वास खो दोगे, और तुम्हारा संकल्प इसके बाद नष्ट हो जाएगा। तुमने आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश किया है या नहीं, इसका एक चिह्न यह देखना है कि क्या तुम्हारी प्रार्थना सही रास्ते पर है। सभी लोगों को इस वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए; उन सभी को प्रार्थना में स्वयं को लगातार सजगता से प्रशिक्षित करने का काम करना चाहिए, निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करने के बजाय, सचेत रूप से पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने का प्रयास करना चाहिए। तभी वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश करने वाले लोग होंगे।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत
और प्रार्थना की विषयवस्तु के बारे में क्या खयाल है? तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारे हृदय की सच्ची अवस्था और पवित्र आत्मा के कार्य के अनुरूप धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए; तुम परमेश्वर से उसकी इच्छा और मनुष्य से क्या अपेक्षा रखता है, इसके अनुसार उसके साथ संवाद करते हो। जब तुम प्रार्थना का अभ्यास शुरू करो, तो सबसे पहले अपना हृदय परमेश्वर को दे दो। परमेश्वर की इच्छा को समझने का प्रयास न करो—केवल अपने हृदय में ही परमेश्वर से बात करने की कोशिश करो। जब तुम परमेश्वर के समक्ष आते हो, तो इस तरह बोलो : "हे परमेश्वर, आज ही मुझे एहसास हुआ कि मैं तुम्हारी अवज्ञा करता था। मैं वास्तव में भ्रष्ट और नीच हूँ। मैं केवल अपना जीवन बर्बाद करता रहा हूँ। आज से मैं तुम्हारे लिए जीऊँगा। मैं एक अर्थपूर्ण जीवन जीऊँगा और तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। तुम्हारा आत्मा मुझे लगातार रोशन और प्रबुद्ध करता हुआ हमेशा मेरे अंदर काम करे। मुझे अपने सामने मज़बूत और ज़बर्दस्त गवाही देने दो। शैतान को हमारे भीतर प्रकाशित तुम्हारी महिमा, तुम्हारी गवाही और तुम्हारी विजय का प्रमाण देखने दो।" जब तुम इस तरह से प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारा हृदय पूरी तरह से मुक्त हो जाएगा। इस तरह से प्रार्थना करने के बाद तुम्हारा हृदय परमेश्वर के ज्यादा करीब हो जाएगा, और यदि तुम अकसर इस तरह से प्रार्थना कर सको, तो पवित्र आत्मा तुममें अनिवार्य रूप से काम करेगा। यदि तुम हमेशा इस तरह से परमेश्वर को पुकारोगे, और उसके सामने अपना संकल्प करोगे, तो एक दिन आएगा परमेश्वर के सामने जब तुम्हारा संकल्प स्वीकृत हो जाएगा, जब तुम्हारा हृदय और तुम्हारा पूरा अस्तित्व परमेश्वर द्वारा प्राप्त कर लिया जायेगा, और तुम अंततः उसके द्वारा पूर्ण कर दिए जाओगे। तुम लोगों के लिए प्रार्थना का अत्यधिक महत्व है। जब तुम प्रार्थना करते हो और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करते हो, तो तुम्हारा हृदय परमेश्वर द्वारा प्रेरित होगा, और तुम्हें तब परमेश्वर से प्रेम करने की ताकत मिलेगी। यदि तुम हृदय से प्रार्थना नहीं करते, यदि तुम पूरे खुले हृदय से परमेश्वर से संवाद नहीं करते, तो परमेश्वर के पास तुममें कार्य करने का कोई तरीका नहीं होगा। यदि प्रार्थना करने और अपने हृदय की बात कहने के बाद, परमेश्वर के आत्मा ने अपना काम शुरू नहीं किया है, और तुम्हें कोई प्रेरणा नहीं मिली है, तो यह दर्शाता है कि तुम्हारे हृदय में ईमानदारी की कमी है, तुम्हारे शब्द असत्य और अभी भी अशुद्ध हैं। यदि प्रार्थना करने के बाद तुम्हें संतुष्टि का एहसास हो, तो तुम्हारी प्रार्थनाएँ परमेश्वर को स्वीकार्य हैं और परमेश्वर का आत्मा तुममें काम कर रहा है। परमेश्वर के सामने सेवा करने वाले के तौर पर तुम प्रार्थना से रहित नहीं हो सकते। यदि तुम वास्तव में परमेश्वर के साथ संवाद को ऐसी चीज़ के रूप में देखते हो, जो सार्थक और मूल्यवान है, तो क्या तुम प्रार्थना को त्याग सकते हो? कोई भी परमेश्वर के साथ संवाद किए बिना नहीं रह सकता। प्रार्थना के बिना तुम देह में जीते हो, शैतान के बंधन में रहते हो; सच्ची प्रार्थना के बिना तुम अँधेरे के प्रभाव में रहते हो। मुझे आशा है कि तुम सब भाई-बहन हर दिन सच्ची प्रार्थना करने में सक्षम हो। यह नियमों का पालन करने के बारे में नहीं है, बल्कि एक निश्चित परिणाम प्राप्त करने के बारे में है। क्या तुम सुबह की प्रार्थनाएँ करने और परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने के लिए, अपनी थोड़ी-सी नींद का त्याग करने को तैयार हो? यदि तुम शुद्ध हृदय से प्रार्थना करते हो और इस तरह परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, तो तुम उसे अधिक स्वीकार्य होगे। यदि हर सुबह तुम ऐसा करते हो, यदि हर दिन तुम परमेश्वर को अपना हृदय देने का अभ्यास करते हो, उससे संवाद और उससे जुडने की कोशिश करते हो, तो निश्चित रूप से परमेश्वर के बारे में तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा को समझने में अधिक सक्षम हो पाओगे। तुम कहते हो : "हे परमेश्वर! मैं अपना कर्तव्य पूरा करने को तैयार हूँ। केवल तुम्हें ही मैं अपने पूरा अस्तित्व समर्पित करता हूँ, ताकि तुम हममें महिमामंडित हो सको, ताकि तुम हमारे इस समूह द्वारादी गई गवाही का आनंद ले सको। मैं तुमसे हममें कार्य करने की विनती करता हूँ, ताकि मैं तुमसे सच्चा प्यार करने और तुम्हें संतुष्ट करने और तुम्हारा अपने लक्ष्य के रूप में अनुसरण करने में सक्षम हो सकूँ।" जैसे ही तुम यह दायित्व उठाते हो, परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हें पूर्ण बनाएगा। तुम्हें केवल अपने फायदे के लिए ही प्रार्थना नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर की इच्छा का पालन करने और उससे प्यार करने के लिए भी तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए। यह सबसे सच्ची तरह की प्रार्थना है। क्या तुम कोई ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के लिए प्रार्थना करता है?
अतीत में, तुम्हें नहीं पता था कि प्रार्थना कैसे करनी चाहिए, और तुमने प्रार्थना के मामले की उपेक्षा की। अब तुम्हें प्रार्थना करने के लिए खुद को प्रशिक्षित करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। यदि तुम परमेश्वर से प्रेम करने के लिए अपने भीतर की ताकत का आह्वान करने में असमर्थ हो, तो तुम प्रार्थना कैसे करते हो? तुम कहते हो: "हे परमेश्वर, मेरा हृदय तुमसे सच्चा प्रेम करने में असमर्थ है। मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, लेकिन मेरे पास ताकत की कमी है। मैं क्या करूँ? तुम मेरी आध्यात्मिक आँखें खोल दो, तुम्हारा आत्मा मेरे हृदय को प्रेरित करे। इसे ऐसा बना दो कि जब मैं तुम्हारे सामने आऊँ, तो वह सबकुछ फेंक दूँ, जो नकारात्मक है, किसी भी व्यक्ति, विषय या चीज़ से विवश होना छोड़ दूँ, और अपना हृदय तुम्हारे सामने पूरी तरह से खोलकर रख दूँ, और ऐसा कर दो कि मैं अपना संपूर्ण अस्तित्व तुम्हारे सामने अर्पण कर सकूँ। तुम जैसे भी मेरी परीक्षा लो, मैं तैयार हूँ। अब मैं अपनी भविष्य की संभावनाओं पर कोई ध्यान नहीं देता, और न ही मैं मृत्यु के जुए से बँधा हूँ। ऐसे हृदय के साथ जो तुमसे प्रेम करता है, मैं जीवन के मार्ग की तलाश करना चाहता हूँ। हर बात, हर चीज़—सब तुम्हारे हाथों में है; मेरा भाग्य तुम्हारे हाथों में है और तुमने मेरा पूरा जीवन अपने हाथों में थामा हुआ है। अब मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, और चाहे तुम मुझे अपने से प्रेम करने दो या न करने दो, चाहे शैतान कितना भी हस्तक्षेप करे, मैं तुमसे प्रेम करने के लिए कृतसंकल्प हूँ।" जब तुम्हारे सामने इस तरह की समस्या आए, तो इस तरह से प्रार्थना करना। यदि तुम हर दिन इस तरह प्रार्थना करोगे, तो धीरे-धीरे परमेश्वर से प्रेम करने की तुम्हारी ताकत बढ़ती जाएगी।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत
ईमानदार व्यक्ति बनो; अपने हृदय में व्याप्त धोखे से छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। हर समय प्रार्थना के माध्यम से अपने आपको शुद्ध करो, प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाओ, और तुम्हारा स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा। सच्चा आध्यात्मिक जीवन प्रार्थना का जीवन है—यह एक ऐसा जीवन है, जिसे पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किया जाता है। पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने की प्रक्रिया मनुष्य के स्वभाव को बदलने की प्रक्रिया है। पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित न किया जाने वाला जीवन आध्यात्मिक जीवन नहीं, बल्कि केवल धार्मिक अनुष्ठान का जीवन है। केवल उन्हीं लोगों ने, जो पवित्र आत्मा द्वारा अकसर प्रेरित किए जाते हैं, और पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किए जाते हैं, आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश किया है। मनुष्य जब प्रार्थना करता है, तो उसका स्वभाव लगातार बदलता जाता है। परमेश्वर का आत्मा जितना अधिक उसे प्रेरित करता है, वह उतना ही अग्रसक्रिय और आज्ञाकारी बन जाता है। इसलिए, उसका हृदय भी धीरे-धीरे शुद्ध होगा, और उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा। ऐसा है सच्ची प्रार्थना का प्रभाव।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत
प्रार्थना मुख्य रूप से ईमानदारी से बोलना है। "हे परमेश्वर! तुम मनुष्य के भ्रष्टाचार को जानते हो। आज मैंने एक और अनुचित काम किया है। मेरे मन में एक मंशा थी—मैं एक धोखेबाज व्यक्ति हूँ। मैं तुम्हारी इच्छा या सत्य के अनुसार काम नहीं कर रहा था। मैंने अपनी मर्जी से काम किया और खुद को सही ठहराने की कोशिश की। अब मैं अपने भ्रष्टाचार को पहचान गया हूँ। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे और अधिक प्रबुद्ध करो और मुझे सत्य समझाओ, ताकि मैं इसे व्यवहार में लाऊँ और इन भ्रष्टाचारों का त्याग करूँ।" इस तरह बोलो; तथ्यात्मक मामलों का तथ्यात्मक लेखा-जोखा दो। अधिकांश लोग वास्तव में ज़्यादातर समय प्रार्थना नहीं करते हैं; अपने मन में अपर्याप्त ज्ञान और पश्चाताप की इच्छा लेकर वे केवल अतीत के बारे में सोचते हैं, फिर भी उन्होंने न तो सत्य पर चिंतन-मनन किया होता है और न ही उसकी थाह ली होती है। प्रार्थना करते समय परमेश्वर के वचनों पर चिंतन-मनन करना और सत्य की तलाश करना, केवल अनुस्मरण और ज्ञान से कहीं अधिक गहरा होता है। पवित्र आत्मा के कार्य से तुम्हारे भीतर हुआ मंथन और परमेश्वर के वचनों के माध्यम से पवित्र आत्मा के कार्य से तुम्हें मिली प्रबुद्धता और प्रकाश, तुम्हें सच्चे ज्ञान और सच्चे पश्चाताप की ओर ले जाते हैं; वे मानवीय विचारों और ज्ञान की तुलना में बहुत अधिक गहन होते हैं। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे तुम्हें अच्छी तरह से जानना चाहिए। यदि तुम केवल सतही, बेतरतीब सोच और जाँच में संलग्न रहते हो, यदि तुम्हारे पास अभ्यास करने का कोई उपयुक्त मार्ग नहीं है, और तुम सच्चाई की ओर बहुत कम प्रगति करते हो, तो तुम परिवर्तन के लिए अक्षम रहोगे। उदाहरण के लिए, ऐसे मौके होते हैं जब लोग खुद को परमेश्वर के लिए गंभीरता से खपाने और उसके प्रेम के बदले प्रेम देने का संकल्प लेते हैं—फिर भी, हो सकता है कि इस इच्छा के साथ भी तुम खुद को अधिक ऊर्जा के साथ खपा न सको, और तुम्हारा दिल पूरी तरह प्रयास करने के लिए प्रतिबद्ध न हो। बहरहाल, यदि, प्रार्थना करके और द्रवित होकर तुम एक निश्चय करते हो और कहते हो, "परमेश्वर, मैं कष्ट सहने को तैयार हूँ; मैं तुम्हारे परीक्षणों को स्वीकार करने और पूरी तरह से तुम्हारे प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ। चाहे मेरी पीड़ा कितनी भी बड़ी क्यों न हो, मैं तुम्हारे प्रेम का ऋण चुकाने के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारे महान प्रेम का आनंद लेता हूँ, और तुमने मुझे ऐसे ही बड़ा किया है—इसके लिए, मैं तहेदिल से तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, और तुम्हें सारी महिमा अर्पित करता हूँ," तो इस तरह की प्रार्थना करने के बाद, तुम्हारा पूरा शरीर सशक्त हो जाएगा, और तुम्हारे पास अभ्यास करने के लिए एक मार्ग होगा। प्रार्थना का प्रभाव ऐसा होता है। एक व्यक्ति के प्रार्थना करने के बाद, पवित्र आत्मा उस पर काम करने लगता है, उसे प्रबुद्ध, प्रकाशित और मार्गदर्शित करता है, और सत्य को व्यवहार में लाने के लिए आवश्यक आस्था और साहस प्रदान करता है। ऐसे लोग हैं जो इस तरह के किसी परिणाम को प्राप्त किए बिना प्रतिदिन परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हैं, फिर भी, उन्हें पढ़ने के बाद, जब वे उनके बारे में संगति करते हैं, तो उनके दिल उज्ज्वल हो जाते हैं, और उन्हें आगे बढ़ने का कोई मार्ग मिल जाता है। यदि, इसके अतिरिक्त, पवित्र आत्मा तुम्हें थोड़ा द्रवित करता है और तुम्हें थोड़ा मार्गदर्शन देता है, साथ ही थोड़ा दायित्व भी देता है, तो परिणाम वास्तव में बहुत भिन्न होंगे। जब तुम परमेश्वर के वचनों को अपने आप पढ़ते हो, तो तुम कुछ हद तक द्रवित हो सकते हो, और तुम रो सकते हो, (लेकिन) बस थोड़ी देर बाद ही यह भावना चली जाती है। बहरहाल, यदि तुम एक आँसू-भरी प्रार्थना, एक ईमानदार प्रार्थना, या एक सच्ची और नेक प्रार्थना प्रस्तुत करते हो, तो तुम्हें ऐसी ऊर्जा दी जाएगी जो कई दिनों तक बनी रह सकती है। प्रार्थना का प्रभाव ऐसा होता है। प्रार्थना का उद्देश्य यह होता है कि लोग परमेश्वर के सामने आएँ और उसे स्वीकार करें जो वह उन्हें देगा। यदि तुम अक्सर प्रार्थना करते हो, और परमेश्वर के साथ बात-चीत करने के लिए अक्सर उसके सामने आते हो, और उसके साथ एक सामान्य संबंध रखते हो, तो तुम हमेशा उसके द्वारा अंदर से द्रवित किए जाओगे, और हमेशा उसके प्रावधानों को प्राप्त करोगे—और जो हमेशा परमेश्वर के प्रावधानों को पाता है, उसमें बदलाव आ जाता है, और उसकी स्थितियों में निरंतर सुधार होता रहता है। विशेष रूप से, जब भाई-बहन मिलकर प्रार्थना करते हैं, तो उसके बाद एक विशेष रूप से महान ऊर्जा पैदा होती है, और उन्हें लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया है। हकीक़त में, हो सकता है कि उन्होंने संगति में मिलकर अपना अधिक समय न बिताया हो; यह तो प्रार्थना थी जिसने उन्हें जगाया, इस तरह से कि मानो वे अपने परिवार और इस दुनिया को त्यागने के लिए एक पल का भी और इंतज़ार नहीं कर सकते थे, वे कुछ भी नहीं चाहते थे, और केवल परमेश्वर का होना ही पर्याप्त था। कितनी महान आस्था है यह! पवित्र आत्मा के कार्य से मनुष्य को जो शक्ति मिलती है वह अनंत आनंद दे सकती है! खुद को तानकर और गर्दन अकड़ कर चलते हुए या अपनी दृढ़ता और इच्छाशक्ति पर निर्भर करते हुए, उस शक्ति पर भरोसा किए बिना, तुम कितनी दूर जा सकते हो? वो जगह ज़्यादा दूर न होगी जहाँ तुम गिर पड़ोगे और अपमानित होगे; चलते-चलते तुम्हारी ताक़त चूक जाएगी। लोगों को अंत तक परमेश्वर के साथ संपर्क बनाए रखना चाहिए! फिर भी मनुष्य, चलते-चलते, परमेश्वर से बहुत दूर भटक जाता है। परमेश्वर तो परमेश्वर है, मनुष्य मनुष्य है, और ये अपने-अपने मार्ग पर चलते हैं; परमेश्वर, परमेश्वर के वचनों को बोलता है, और मनुष्य, अपनी राह पकड़ता है, जो परमेश्वर की राह नहीं होती है। जब कोई व्यक्ति परमेश्वर में अपने विश्वास की शक्ति खो देता है, तो वह परमेश्वर के सामने प्रार्थना में चंद शब्दों को कहने और कुछ शक्ति उधार लेने आता है। कुछ ऊर्जा मिलने के बाद, वह एक बार फिर चल देता है। कुछ समय बाद, उसका ईंधन ख़त्म होने लगता है, और कुछ अधिक के लिए वह परमेश्वर के पास वापस आता है। इस तरह से काम करते हुए, कोई व्यक्ति लंबे समय तक इसे निभा नहीं सकता है; यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को छोड़ देता है, तो उसके पास आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं होता है।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'प्रार्थना का महत्व और अभ्यास' से उद्धृत
कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: "हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...," जब उनके मन में ये विचार आते हैं, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब ये विचार लोगों के मन में उठते हैं, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तू परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करता है मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तू अपने जीवन को बचाने के लिए पकड़ता है और यह उम्मीद करता है कि वह तेरी मदद करेगा। यद्यपि तूने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तेरा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तू परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देता है, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, वह तेरी कठिनाइयों को देखेगा, तो वह तुझे प्रबुद्ध करेगा, तेरा मार्गदर्शन करेगा, और तेरी सहायता करेगा।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'विश्वासियों को संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत समझने से ही शुरुआत करनी चाहिए' से उद्धृत
कभी-कभी, जब तुम परमेश्वर के वचनों का आनंद ले रहे होते हो, तुम्हारी आत्मा द्रवित हो जाती है और तुम्हें लगता है कि तुम परमेश्वर से प्रेम किए बिना नहीं रह सकते, कि तुम्हारे भीतर काफ़ी ताकत है और ऐसा कुछ नहीं जिसे तुम छोड़ नहीं सकते। यदि तुम ऐसा महसूस करते हो, तो परमेश्वर की आत्मा ने तुम्हें स्पर्श कर लिया है, और तुम्हारा दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख हो चुका है और तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे और कहोगे: "हे परमेश्वर! हम वास्तव में तुम्हारे द्वारा पूर्वनिर्धारित और चुने गए हैं। तुम्हारी महिमा में मुझे गौरव मिलता है, और तुम्हारे लोगों में से एक होना मुझे महिमामयलगता है। तुम्हारी इच्छा पर चलने के लिए मैं कुछ भी व्यय कर दूंगा और कुछ भी दे दूंगा और अपने सभी वर्ष और पूरे जीवन के प्रयासों को तुम्हें समर्पित कर दूंगा।" जब तुम इस तरह प्रार्थना करते हो, तो तुम्हारे दिल में परमेश्वर के प्रति अनंत प्रेम और सच्ची आज्ञाकारिता होगी। क्या तुम्हें कभी ऐसा अनुभव हुआ है? यदि लोगों को अक्सर परमेश्वर की आत्मा द्वारा छुआ जाता है, तो वो अपनी प्रार्थनाओं में खुद को परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से समर्पित करने के इच्छुकहोते हैं: "हे परमेश्वर! मैं तुम्हारी महिमा का दिन देखना चाहता हूँ, और तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ—तुम्हारे लिए जीने के मुकाबले कुछ भी ज्यादा योग्य या सार्थक नहीं है और मेरी शैतान और देह के लिए जीने की ज़रा भी इच्छा नहीं है। तुम आज मुझे तुम्हारे लिए जीने हेतु सक्षम बनाकर मुझे ऊपर उठाओबड़ा करो।" जब तुमने इस तरह प्रार्थना की है, तो तुम्हें महसूस होगा कि तुम परमेश्वर को अपना दिल दिए बिना नहीं रह सकते, कि तुम्हें परमेश्वर को पाना चाहिए और तुम जब तक जीवित हो, परमेश्वर को पाए बिना मर जाने से नफ़रत करोगे। ऐसी प्रार्थना करने के बाद, तुम्हारे भीतर एक अक्षय ताकत आएगी और तुम नहीं जान पाओगे कि यह कहां से आती है; तुम्हारे हृदय के अंदर असीम शक्ति होगी और तुम्हें आभास होगा कि परमेश्वर बहुत सुंदर है, और वह प्रेम करने के योग्य है। यह तब होगा जब तुम परमेश्वर द्वारा छू लिए जा चुके होंगे। जिन सभी लोगों को इस तरह का अनुभव हुआ है, वो सभी परमेश्वर द्वारा छू लिए गए हैं। जिन लोगों को परमेश्वर अक्सर स्पर्श करता है, उनके जीवन में परिवर्तन होते हैं, वो अपने संकल्प को बनाने में सक्षम होते हैं और परमेश्वर को पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए तैयार होते हैं, उनके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम अधिक मज़बूत होता है, उनके दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख होचुके होते हैं, उन्हें परिवार, दुनिया, उलझनों या अपने भविष्य की कोई परवाह नहीं होती और वो परमेश्वर के लिए जीवन भर के प्रयासों को समर्पित करने के लिए तैयार होते हैं। वे सभी जिन्हें परमेश्वर कीआत्मा ने छुआ है, वो ऐसे लोग होते हैं, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की आशा रखते हैं।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो' से उद्धृत
अब तुम्हें उस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाना चाहिए, जिस पर पतरस चला था। यदि तुम पतरस के मार्ग को स्पस्ट रूप देख सको, तो तुम उस कार्य के बारे में निश्चित होगे जो आज किया जा रहा है, इसलिए तुम शिकायत नहीं करोगे या निष्क्रिय नहीं होगे, या किसी भी चीज़ की लालसा नहीं करोगे। तुम्हें पतरस की उस समय की मनोदशा का अनुभव करना चाहिए : वह दुख से त्रस्त था; उसने फिर कोई भविष्य या आशीष नहीं माँगा। उसने सांसारिक लाभ, प्रसन्नता, प्रसिद्धि या धन-दौलत की कामना नहीं की; उसने केवल सर्वाधिक अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहा, जो कि परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और परमेश्वर को अपनी सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु समर्पित करने के लिए था। तब वह अपने हृदय में संतुष्ट होता। उसने प्रायः इन शब्दों में यीशु से प्रार्थना की : "प्रभु यीशु मसीह, मैंने एक बार तुझे प्रेम किया था, किंतु मैंने तुझे वास्तव में प्रेम नहीं किया था। यद्यपि मैंने कहा था कि मुझे तुझ पर विश्वास है, किंतु मैंने तुझे कभी सच्चे हृदय से प्रेम नहीं किया। मैंने केवल तुझे देखा, तुझे सराहा, और तुझे याद किया, किंतु मैंने कभी तुझे प्रेम नहीं किया, न ही तुझ पर वास्तव में विश्वास किया।" अपना संकल्प करने के लिए उसने लगातार प्रार्थना की, और वह यीशु के वचनों से हमेशा प्रोत्साहित होता और उनसे प्रेरणा प्राप्त करता। बाद में, एक अवधि तक अनुभव करने के बाद, यीशु ने अपने लिए उसमें और अधिक तड़प पैदा करते हुए उसकी परीक्षा ली। उसने कहा : "प्रभु यीशु मसीह! मैं तुझे कितना याद करता हूँ, और तुझे देखने के लिए कितना लालायित रहता हूँ। मुझमें बहुत कमी है, और मैं तेरे प्रेम का बदला नहीं चुका सकता। मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे शीघ्र ले जा। तुझे मेरी कब आवश्यकता होगी? तू मुझे कब ले जाएगा? मैं कब एक बार फिर तेरा चेहरा देखूँगा? मैं भ्रष्ट होते रहने के लिए इस शरीर में अब और नहीं जीना चाहता, न ही अब और विद्रोह करना चाहता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं यथाशीघ्र तुझे समर्पित करने के लिए तैयार हूँ, और अब मैं तुझे और दुखी नहीं करना चाहता।" उसने इसी तरह से प्रार्थना की, किंतु उस समय वह नहीं जानता था कि यीशु उसमें क्या पूर्ण करेगा। उसकी परीक्षा की पीड़ा के दौरान, यीशु पुनः उसके सामने प्रकट हुआ और बोला : "पतरस, मैं तुझे पूर्ण बनाना चाहता हूँ, इस तरह कि तू फल का एक टुकड़ा बन जाए, जो मेरे द्वारा तेरी पूर्णता का ठोस रूप हो, और जिसका मैं आनंद लूँगा। क्या तू वास्तव में मेरे लिए गवाही दे सकता है? क्या तूने वह किया, जो मैं तुझे करने के लिए कहता हूँ? क्या तूने मेरे कहे वचनों को जिया है? तूने एक बार मुझे प्रेम किया, किंतु यद्यपि तूने मुझे प्रेम किया, पर क्या तूने मुझे जिया है? तूने मेरे लिए क्या किया है? तू महसूस करता है कि तू मेरे प्रेम के अयोग्य है, पर तूने मेरे लिए क्या किया है?" पतरस ने देखा कि उसने यीशु के लिए कुछ नहीं किया था, और परमेश्वर को अपना जीवन देने की पिछली शपथ स्मरण की। और इसलिए, उसने अब और शिकायत नहीं की, और तब से उसकी प्रार्थनाएँ और अधिक बेहतर हो गईं। उसने यह कहते हुए प्रार्थना की : "प्रभु यीशु मसीह! एक बार मैंने तुझे छोड़ा था, और एक बार तूने भी मुझे छोड़ा था। हमने अलग होकर, और साहचर्य में एक-साथ, समय बिताया है। फिर भी तू मुझे अन्य सभी की अपेक्षा सबसे ज्यादा प्रेम करता है। मैंने बार-बार तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है और तुझे बार-बार दुःखी किया है। ऐसी बातों को मैं कैसे भूल सकता हूँ? जो कार्य तूने मुझ पर किया है और जो कुछ तूने मुझे सौंपा है, मैं उसे हमेशा मन में रखता हूँ, और कभी नहीं भूलता। जो कार्य तूने मुझ पर किया है, उसके लिए मैंने वह सब किया है, जो मैं कर सकता हूँ। तू जानता है कि मैं क्या कर सकता हूँ, और तू यह भी जानता है कि मैं क्या भूमिका निभा सकता हूँ। मैं तेरे आयोजनों को समर्पित होना चाहता हूँ और मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब मैं तुझे समर्पित कर दूँगा। केवल तू ही जानता है कि मैं तेरे लिए क्या कर सकता हूँ। यद्यपि शैतान ने मुझे बहुत मूर्ख बनाया और मैंने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया, किंतु मुझे विश्वास है कि तू मुझे उन अपराधों के लिए स्मरण नहीं करता, और कि तू मेरे साथ उनके आधार पर व्यवहार नहीं करता। मैं अपना संपूर्ण जीवन तुझे समर्पित करना चाहता हूँ। मैं कुछ नहीं माँगता, और न ही मेरी अन्य आशाएँ या योजनाएँ हैं; मैं केवल तेरे इरादे के अनुसार कार्य करना चाहता हूँ और तेरी इच्छा पूरी करना चाहता हूँ। मैं तेरे कड़वे कटोरे में से पीऊँगा और मैं तेरे आदेश के लिए हूँ।"
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस ने यीशु को कैसे जाना' से उद्धृत
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