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परमेश्वर का अनुसरण करना क्या है और मनुष्य का अनुसरण करना क्या है

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

परमेश्वर का अनुसरण करने में प्रमुख महत्व इस बात का है कि हर चीज़ आज परमेश्वर के वचनों के अनुसार होनी चाहिए: चाहे तुम जीवन प्रवेश का अनुसरण कर रहे हो या परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति, सब कुछ आज परमेश्वर के वचनों के आसपास ही केंद्रित होना चाहिए। यदि जो तुम संवाद और अनुसरण करते हो, वह आज परमेश्वर के वचनों के आसपास केंद्रित नहीं है, तो तुम परमेश्वर के वचनों के लिए एक अजनबी हो और पवित्र आत्मा के कार्य से पूरी तरह से परे हो। परमेश्वर ऐसे लोग चाहता है जो उसके पदचिह्नों का अनुसरण करें। भले ही जो तुमने पहले समझा था वह कितना ही अद्भुत और शुद्ध क्यों न हो, परमेश्वर उसे नहीं चाहता और यदि तुम ऐसी चीजों को दूर नहीं कर सकते, तो वो भविष्य में तुम्हारे प्रवेश के लिए एक भयंकर बाधा होंगी। वो सभी धन्य हैं, जो पवित्र आत्मा के वर्तमान प्रकाश का अनुसरण करने में सक्षम हैं। पिछले युगों के लोग भी परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलते थे, फिर भी वो आज तक इसका अनुसरण नहीं कर सके; यह आखिरी दिनों के लोगों के लिए आशीर्वाद है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण कर सकते हैं और जो परमेश्वर के पदचिह्नों पर चलने में सक्षम हैं, इस तरह कि चाहे परमेश्वर उन्हें जहाँभी ले जाए वो उसका अनुसरण करते हैं—ये वो लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त है। जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है और चाहे वो कितना भी काम करें या उनकी पीड़ा जितनी भी ज़्यादा हो या वो कितनी ही भागदौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज वो सभी जो परमेश्वर के वर्तमान वचनों का पालन करते हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह में हैं; जो लोग आज परमेश्वर के वचनों से अनभिज्ञ हैं, वो पवित्र आत्मा के प्रवाह से बाहर हैं और ऐसे लोगों की परमेश्वर द्वारा सराहना नहीं की जाती।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो' से उद्धृत

"जो लोग अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करेंगे, वे उद्धार प्राप्त करेंगे," इन वचनों में "अनुसरण" का अर्थ क्लेश के बीच डटे रहना है। आज बहुत-से लोग मानते हैं कि परमेश्वर का अनुसरण करना आसान है, किंतु जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला होगा, तब तुम "अनुसरण करने" का असली अर्थ जानोगे। सिर्फ इस बात से कि जीत लिए जाने के पश्चात् तुम आज भी परमेश्वर का अनुसरण करने में समर्थ हो, यह प्रमाणित नहीं होता कि तुम उन लोगों में से एक हो, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा। जो लोग परीक्षणों को सहने में असमर्थ हैं, जो क्लेशों के बीच विजयी होने में अक्षम हैं, वे अंततः डटे रहने में अक्षम होंगे, और इसलिए वे बिलकुल अंत तक अनुसरण करने में असमर्थ होंगे। जो लोग सच में परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, वे अपने कार्य की परीक्षा का सामना करने में समर्थ हैं, जबकि जो लोग सच में परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते, वे परमेश्वर के किसी भी परीक्षण का सामना करने में अक्षम हैं। देर-सवेर उन्हें निर्वासित कर दिया जाएगा, जबकि विजेता राज्य में बने रहेंगे। मनुष्य वास्तव में परमेश्वर को खोजता है या नहीं, इसका निर्धारण उसके कार्य की परीक्षा द्वारा किया जाता है, अर्थात्, परमेश्वर के परीक्षणों द्वारा, और इसका स्वयं मनुष्य द्वारा लिए गए निर्णय से कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर सनक के आधार पर किसी मनुष्य को अस्वीकार नहीं करता; वह जो कुछ भी करता है, वह मनुष्य को पूर्ण रूप से आश्वस्त कर सकता है। वह ऐसा कुछ नहीं करता, जो मनुष्य के लिए अदृश्य हो, या कोई ऐसा कार्य जो मनुष्य को आश्वस्त न कर सके। मनुष्य का विश्वास सही है या नहीं, यह तथ्यों द्वारा साबित होता है, और इसे मनुष्य द्वारा तय नहीं किया जा सकता।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास' से उद्धृत

क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर के अनुसरण में क्या शामिल होता है? दर्शनों के बिना, तुम किस मार्ग पर चलोगे? आज के कार्य में, यदि तुम्हारे पास दर्शन नहीं हैं तो तुम किसी भी हाल में पूरे नहीं किए जा सकोगे। तुम किस पर विश्वास करते हो? तुम उसमें आस्था क्यों रखते हो? तुम उसके पीछे क्यों चलते हो? क्या तुम्हें अपना विश्वास कोई खेल लगता है? क्या तुम अपने जीवन के साथ किसी खेल की तरह बर्ताव कर रहे हो? आज का परमेश्वर सबसे महान दर्शन है। उसके बारे में तुम्हें कितना पता है? तुमने उसे कितना देखा है? आज के परमेश्वर को देखने के बाद क्या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास की नींव मजबूत है? क्या तुम्हें लगता है कि जब तक तुम इस उलझन भरे रास्ते पर चलते रहोगे, तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा? क्या तुम्हें लगता है कि तुम कीचड़ से भरे पानी में मछली पकड़ सकते हो? क्या यह इतना सरल है? परमेश्वर ने आज जो वचन कहे हैं, उनसे संबंधित कितनी धारणाएं तुमने दरकिनार की हैं? क्या तुम्हारे पास आज के परमेश्वर का कोई दर्शन है? आज के परमेश्वर के बारे में तुम्हारी समझ क्या है? तुम हमेशा मानते हो कि उसके पीछे चलकर तुम उसे[क] प्राप्त कर सकते हो, उसे देखकर तुम उसे प्राप्त कर सकते हो, और कोई भी तुम्हें हटा नहीं सकेगा। ऐसा न मान लो कि परमेश्वर के पीछे चलना इतनी आसान बात है। मुख्य बात यह है कि तुम्हें उसे जानना चाहिए, तुम्हें उसका कार्य पता होना चाहिए, और तुम में उसके वास्ते कठिनाई का सामना करने की इच्छा होनी चाहिए, उसके लिए अपने जीवन का त्याग करने और उसके द्वारा पूर्ण किए जाने की इच्छा होनी चाहिए। तुम्हारे पास यह दर्शन होना चाहिए। अगर तुम्हारे ख़्याल हमेशा अनुग्रह पाने की ओर झुके रहते हैं, तो यह नहीं चलेगा। यह मानकर न चलो कि परमेश्वर यहाँ केवल लोगों के आनंद और केवल उन पर अनुग्रह बरसाने के लिए है। अगर तुम ऐसा सोचते हो तुम गलत होगे! अगर कोई उसका अनुसरण करने के लिए अपने जीवन को जोखिम में नहीं डाल सकता, संसार की प्रत्येक संपत्ति को त्याग नहीं कर सकता, तो वह अंत तक कदापि अनुसरण नहीं कर पाएगा! तुम्हारे दर्शन तुम्हारी नींव होने चाहिए। अगर किसी दिन तुम पर दुर्भाग्य आ पड़े, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? क्या तुम तब भी उसका अनुसरण कर पाओगे? तुम अंत तक अनुसरण कर पाओगे या नहीं, इस बात को हल्के में न कहो। बेहतर होगा कि तुम पहले अपनी आँखों को अच्छे से खोलो और देखो कि अभी समय क्या है। भले ही तुम लोग वर्तमान में मंदिर के खंभों की तरह हो, परंतु एक समय आएगा जब ऐसे खंभे कीड़ों द्वारा कुतर दिये जाएंगे जिससे मंदिर ढह जाएगा, क्योंकि फिलहाल तुम लोगों में अनेक दर्शनों की बहुत कमी है। तुम लोग केवल अपने छोटे-से संसार पर ध्यान देते हो, तुम लोगों को नहीं पता कि खोजने का सबसे विश्वसनीय, सबसे उपयुक्त तरीका क्या है। तुम लोग आज के कार्य के दर्शन पर ध्यान नहीं देते, न ही तुम लोग इन बातों को अपने दिल में रखते हो। क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि एक दिन परमेश्वर तुम लोगों को एक बहुत अपरिचित जगह में रखेगा? क्या तुम लोग सोच सकते हो जब मैं तुम लोगों से सब कुछ छीन लूँगा, तो तुम लोगों का क्या होगा? क्या उस दिन तुम लोगों की ऊर्जा वैसी ही होगी जैसी आज है? क्या तुम लोगों की आस्था फिर से प्रकट होगी? परमेश्वर के अनुसरण में, तुम लोगों का सबसे बड़ा दर्शन "परमेश्वर" होना चाहिए : यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'तुम लोगों को कार्य को समझना चाहिए—भ्रम में अनुसरण मत करो!' से उद्धृत

ज्यादातर लोगों के पास जब कोई समस्या नहीं होती है, जब उनके साथ सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर शक्तिशाली और धार्मिक है, और मनोहर है। जब परमेश्वर उनका परीक्षण करता है, उनके साथ निपटता है, उन्हें प्रताड़ित करता है, और अनुशासित करता है, जब वह उन्हें अपने स्वार्थों को अलग कर देने के लिए, देह-सुख का त्याग करने और सत्य का अभ्यास करने के लिए कहता है, जब परमेश्वर उन पर कार्य करता है, और उनके भाग्य और उनके जीवन को आयोजित और शासित करता है, वे विद्रोही बन जाते हैं, और अपने और परमेश्वर के बीच अलगाव पैदा करते हैं; वे अपने और परमेश्वर के बीच टकराव और एक खाई पैदा कर लेते हैं। ऐसे समय में, उनके दिलों में, परमेश्वर ज़रा भी मनोहर नहीं होता; वह बिलकुल भी शक्तिशाली नहीं होता, क्योंकि वह जो करता है, उससे उनकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है। परमेश्वर उन्हें दुखी करता है; वह उन्हें परेशान करता है; वह उनके लिए कष्ट और पीड़ा लाता है; वह उन्हें अशांत महसूस कराता है। इसलिए वे परमेश्वर के प्रति बिलकुल ही समर्पण नहीं करते, इसके बजाय, वे उसके प्रति विद्रोह करते हैं और उसे नकारते हैं। ऐसा करके क्या वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के मार्ग पर चल रहे हैं? क्या वे परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? नहीं। इसलिए, चाहे परमेश्वर के कार्य के बारे में तुम्हारी कितनी भी धारणाएँ और कल्पनाएँ हों, और चाहे तुमने पहले अपनी मर्जी के मुताबिक जैसे भी काम किया हो और परमेश्वर के खिलाफ़ जैसे भी बग़ावत की हो, अगर तुम वास्तव में सत्य की तलाश करते हो, और परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करते हो, और परमेश्वर के वचनों द्वारा काट-छाँट और निपटने को स्वीकार करते हो; अगर, हर चीज़ में जिसे परमेश्वर आयोजित करता है, तुम उसके तरीके का पालन करने में सक्षम होते हो, परमेश्वर के वचनों को मानते हो, उसकी इच्छा की तलाश करते हो, उसके वचनों और उसकी इच्छा के अनुसार अभ्यास करते हो, समर्पण की कोशिश करने में सक्षम होते हो, और अपनी समस्त इच्छाओं, अभिलाषाओं, विचारों, अभिप्रेरणाओं, और परमेश्वर के प्रति अपने विरोध को दूर कर सकते हो—केवल तभी तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो! तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम जो भी करते हो, वह सब अपनी मर्जी के मुताबिक़ करते हो। तुम्हारी हर क्रिया में, तुम्हारे अपने उद्देश्य, तुम्हारी अपनी योजनाएँ होती हैं; तुम इसे परमेश्वर पर नहीं छोड़ देते। तो क्या परमेश्वर अभी भी तुम्हारा परमेश्वर है? यदि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो, जब तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तब क्या ये खोखले शब्द नहीं होते हैं? क्या ऐसे शब्द लोगों को बेवकूफ़ बनाने की कोशिश नहीं हैं? तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन तुम्हारे सारे कार्य और व्यवहार, जीवन पर तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारे मूल्य, और तुम्हारे दृष्टिकोण और सिद्धांत जिनके साथ तुम मुद्दों के साथ पेश आते और उन्हें संभालते हो, वे सभी शैतान से आते हैं—तुम यह सब पूरी तरह से शैतान के सिद्धांतों और तर्क के अनुसार संभालते हो। तो, क्या तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो?

... परमेश्वर में विश्वास के वर्णन का सबसे सरल तरीका है इस भरोसे का होना कि एक परमेश्वर है, और इस आधार पर, उसका अनुसरण करना, उसका आज्ञा-पालन करना, उसके प्रभुत्व, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार करना, उसके वचनों को सुनना, उसके वचनों के अनुसार जीवन जीना, हर चीज़ को उसके वचनों के अनुसार करना, एक सच्चा सृजित प्राणी बनना, और उसका भय मानना और बुराई से दूर रहना; केवल यही परमेश्वर में सच्चा विश्वास होता है। परमेश्वर के अनुसरण का यही अर्थ होता है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, लेकिन, अपने हृदय में, तुम परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और तुम उसके प्रभुत्व, आयोजनों और व्यवस्थाओं को स्वीकार नहीं करते हो। यदि परमेश्वर जो करता है उसके बारे में तुम हमेशा अवधारणाएँ रखते हो, और तुम हमेशा वह जो करे उसे ग़लत समझते हो, और इसके बारे में शिकायत करते हो; यदि तुम हमेशा असंतुष्ट रहते हो, और वह जो भी करे उसे तुम हमेशा अपनी ही अवधारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मापते और उनसे पेश आते हो; अगर तुम्हारे पास हमेशा अपनी ही समझ होती है—तो यह परेशानी का कारण होगा। तुम परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर रहे हो, और तुम्हारे पास वास्तव में उसका अनुसरण करने का कोई मार्ग नहीं है। परमेश्वर में विश्वास करना ऐसा नहीं होता है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'धर्म में विश्‍वास से कभी उद्धार नहीं होगा' से उद्धृत

कुछ लोग सत्य में आनंदित नहीं होते, न्याय में तो बिल्कुल भी नहीं। बल्कि वे शक्ति और सम्पत्तियों में आनन्दित होते हैं; इस प्रकार के लोग शक्ति के खोजी कहे जाते हैं। वे केवल दुनिया के प्रभावशाली सम्प्रदायों तथा सेमिनरी से आने वाले पादरियों और शिक्षकों को खोजते हैं। हालंकि उन्होंने सत्य के मार्ग को स्वीकार कर लिया है, फिर भी वे आधा विश्वास करते हैं; और वे अपने दिलो-दिमाग को पूरी तरह से समर्पित करने में असमर्थ होते हैं, वे मुख से तो परमेश्वर के लिए खुद को खपाने की बात करते हैं, किन्तु उनकी नज़रें बड़े पादरियों और शिक्षकों पर केन्द्रित रहती हैं, और वे मसीह की ओर दूसरी नजर भी नहीं डालते। उनके हृदय प्रसिद्धि, वैभव और महिमा पर ही टिक गए हैं। वे इसे असंभव समझते हैं कि ऐसा मामूली व्यक्ति इतने लोगों पर विजय प्राप्त कर सकता है कि एक इतना साधारण व्यक्ति लोगों को पूर्ण बनाबना सकता है। वे इसे असंभव समझते हैं कि ये धूल और घूरे में पड़े नाचीज़ लोग परमेश्वर के द्वारा चुने गए हैं। वे मानते हैं कि यदि ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार की योजना के लक्ष्य रहे होते, तो स्वर्ग और पृथ्वी उलट-पुलट हो जाते और सभी लोग ठहाके लगाकर हँसते। उनका मानना है कि यदि परमेश्वर ने ऐसे नाचीज़ों को पूर्ण बनाने के लिए चुना होता, तो वे सभी बड़े लोग स्वयं परमेश्वर बन जाते। उनके दृष्टिकोण अविश्वास से दूषित हैं; अविश्वास करने से अधिक, वे बेहूदे जानवर हैं। क्योंकि वे केवल पद, प्रतिष्ठा और सत्ता को महत्व देते है और केवल बड़े समूहों और सम्प्रदायों को सम्मान देते हैं। उनमें उनके लिए बिल्कुल भी सम्मान नहीं है जिनकी अगुवाई मसीह करता है; वे तो बस ऐसे गद्दार हैं जिन्होंने मसीह से, सत्य से और जीवन से अपना मुँह मोड़ लिया है।

तुम मसीह की विनम्रता की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि विशेष हैसियत वाले उन झूठे चरवाहों की प्रशंसा करते हो। तुम मसीह की मनोहरता या बुद्धि से प्रेम नहीं करते हो, बल्कि उन व्यभिचारियों से प्रेम करते हो जो संसार की कीचड़ में लोट लगाते हैं। तुम मसीह की पीड़ा पर हँसते हो, जिसके पास अपना सिर टिकाने तक की जगह नहीं है, किन्तु उन मुरदों की तारीफ़ करते हो जो चढ़ावों को हड़प लेते हैं और अय्याशी में जीते हैं। तुम मसीह के साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं हो, परन्तु उन धृष्ट मसीह-विरोधियों की बाँहों में प्रसन्नता से जाते हो, हालाँकि वे तुम्हें सिर्फ देह, शब्द और नियंत्रण ही प्रदान करते हैं। अब भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा की ओर, उनकी हैसियत की ओर, उनके प्रभाव की ओर मुड़ता है। फिर भी तुम ऐसा रवैया बनाये रखते हो जहाँ तुम मसीह के कार्य को गले से उतारना कठिन पाते हो और उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होते। इसीलिए मैं कहता हूँ कि तुममें मसीह को स्वीकार करने का विश्वास नहीं है। तुमने आज तक उसका अनुसरण सिर्फ़ इसलिए किया, क्योंकि तुम्हारे पास कोई और चारा नहीं था। तुम्हारे हृदय में हमेशा बुलंद छवियों का स्थान रहा है; तुम न तो उनके हर वचन और कर्म को, और न ही उनके प्रभावशाली वचनों और हाथों को भूल सकते हो। तुम सबके हृदय में वे हमेशा सर्वोच्च और हमेशा नायक हैं। किन्तु आज के मसीह के लिए ऐसा नहीं है। तुम्हारे हृदय में वह हमेशा महत्वहीन और हमेशा आदर के अयोग्य है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण है, उसका बहुत ही कम प्रभाव है और वह उत्कृष्ट तो बिल्कुल नहीं है।

बहरहाल, मैं कहता हूँ कि जो लोग सत्य का सम्मान नहीं करते हैं वे सभी अविश्वासी और सत्य के प्रति गद्दार हैं। ऐसे लोगों को कभी भी मसीह का अनुमोदन प्राप्त नहीं होगा। क्या अब तुमने पहचान लिया है कि तुम्हारे भीतर कितना अधिक अविश्वास है, और मसीह के प्रति कितना विश्वासघात है? मैं तुमको इस तरह से शिक्षा देता हूँ : चूँकि तुमने सत्य का मार्ग चुना है, तो तुम्हें सम्पूर्ण हृदय से खुद को समर्पित कर देना चाहिए; दुविधाग्रस्त या अधूरे मन वाले न बनो। तुम्हें समझना चाहिए कि परमेश्वर इस संसार या किसी एक व्यक्ति का नहीं है, बल्कि उन सबका है जो उस पर सचमुच विश्वास करते हैं, उन सबका जो उसकी आराधना करते हैं, और उन सबका है जो उसके प्रति समर्पित और निष्ठावान है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'क्या तुम परमेश्वर के एक सच्चे विश्वासी हो?' से उद्धृत

कलीसिया के भीतर अगुआओं और कार्यकर्ताओं का स्तर जो भी हो, अगर तुम लोग हमेशा उनकी आराधना करते हो और परमेश्वर पर विश्वास करने और उद्धार प्राप्त करने के लिए उन पर हर चीज़ के लिए भरोसा करते हो, तो यह प्रेरणा अपने आप में ग़लत है। अगुआओं में उनका स्तर चाहे जो हो, वे हैं तो अभी भी आम इंसान ही। अगर तुम उन्हें अपने से बड़ा समझते हो, अगर तुम्हें लगता है कि वे तुमसे ऊंचे हैं, तुमसे ज़्यादा योग्य हैं, वे तुम्हारी अगुवाई करें, वे उस वर्ग में सर्वश्रेष्ठ हैं, तो फिर यह ग़लत है—यह तुम्हारा भ्रम है। और इस भ्रम का नतीजा क्या होता है? यह भ्रम और यह त्रुटिपूर्ण समझ तुम्हें अनजाने में अपने अगुआओं से ऐसी अपेक्षाएं करने की ओर ले जाएंगे जो वास्तविकता के अनुरूप नहीं हैं; साथ ही, तुम यह जाने बिना ही उनके तथाकथित रुझान और रौब, या उनकी योग्यताओं और प्रतिभाओं की ओर गहराई से आकर्षित होने लगोगे, इस हद तक कि तुम्हें पता भी न चलेगा और तुम उनकी आराधना कर रहे होगे, और वे तुम्हारे परमेश्वर बन चुके होंगे। जब वे तुम्हारे आदर्श और तुम्हारी आराधना के लक्ष्य बनना शुरू हो जाते हैं, तो यह पथ, उस क्षण से लेकर उस पल तक जब तुम उनके अनुयायियों में से एक बन जाते हो, तुम्हें अनजाने में परमेश्वर से दूर ले जाएगा। धीरे-धीरे परमेश्वर से दूर जाते हुए भी, तुम्हें ऐसा लगेगा कि तुम परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हो, तुम परमेश्वर के घर में हो, तुम परमेश्वर की उपस्थिति में हो। तुम्हें पता भी नहीं चलेगा और तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति लुभा चुका होगा जिसे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया है, या जो मसीह का शत्रु है। यह बहुत ख़तरनाक स्थिति है। अतः इस समस्या को हल करने के लिए, तुम्हें मसीह के शत्रुओं के अलग-अलग स्वभाव और उनके काम करने के तरीकों को ठीक ढंग से समझने और पहचानने में सक्षम होना चाहिए। साथ ही, तुम्हें उनके कार्यों की प्रकृति और उनकी प्रणालियों और चालों को भी समझ लेना चाहिए जिनका उपयोग करना वे पसंद करते हैं; तुम्हें अपने आप पर भी काम करने की शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर में विश्वास करते हुए मनुष्य की आराधना करना सही रास्ता नहीं है। कुछ लोग कह सकते हैं: "हाँ, मैं अगुआओं की आराधना करता हूँ लेकिन ऐसा करने के मेरे अपने कारण हैं—जिनकी मैं आराधना करता हूँ वे मेरी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हैं।" तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हुए भी मनुष्य की आराधना करने पर क्यों तुले हुए हो? ये सब कुछ हो जाने के बाद, तुम्हें कौन बचाएगा? कौन है जो सचमुच तुम से प्रेम करता है और तुम्हारी रक्षा करता है—क्या तुम सचमुच नहीं देख पाते? तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसके वचन को सुनते हो, और अगर कोई सही तरीके से बोलता है और कार्य करता है, और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चलता है, तो क्या सत्य का पालन करना तुम्हारे लिए काफ़ी नहीं है? तुम इतने नीच क्यों हो कि अनुसरण के लिए किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करने की ज़िद करते हो जिसकी तुम आराधना करो? तुम शैतान के गुलाम क्यों बनना चाहते हो? इसके बजाय, तुम सत्य के सेवक क्यों नहीं बनते? किसी व्यक्ति में समझदारी और गरिमा है या नहीं, यह देखना है तो यहाँ देखो। तुम्हें ख़ुद पर काम करना शुरू करना चाहिए, अपने आप को उन सत्यों से युक्त करो जो विभिन्न लोगों और घटनाओं में फ़र्क बताते हैं, उन तमाम मार्गों में भेद करना सीखो जिनमें प्रत्येक प्रकार की घटना और व्यक्ति अभिव्यक्त होते हैं, यह जानो कि सभी मामलों में कौन-से सार और स्वभाव सामने आ रहे हैं। तुम्हें यह भी समझना चाहिए कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो, तुम्हारे आसपास के लोग किस तरह के हैं और किस तरह के लोग तुम्हारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। उन्हें सही ढंग से देखने में तुम्हें सक्षम होना चाहिए। जब तुम सत्य से लैस हो जाओगे, तो इस तरह के अध्यात्मिक कद के साथ तुम मसीह के शत्रुओं की चालों में आसानी से नहीं फंसोगे और न ही तुम उनकी चालाकियों से डरोगे।

— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे नजर बचाकर कार्य करते हैं, व्यक्तिवादी और तानाशाही तरीके से व्यवहार करते हैं, लोगों के साथ कभी सहभागिता नहीं करते और लोगों को आज्ञा मानने के लिए मजबूर करते हैं' से उद्धृत

कलीसिया में चाहे कितने ही लोग अपना कर्तव्य क्यों न निभा रहे हों, वे दो हों या दर्जनों, जब वे पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित हो जाते हैं तो वे परमेश्वर के कार्य को अनुभव नहीं कर पाते, और उनका परमेश्वर के कार्य से कोई संबंध या इसमें कोई हिस्सेदारी नहीं रहती। वे एक धार्मिक समूह बन जाते हैं। क्या ये लोग बहुत बड़े खतरे में नहीं हैं? कोई समस्या आने पर वे कभी भी सत्य की खोज नहीं करते, और सत्य सिद्धांतों के आधार पर नहीं चलते, बल्कि वे मनुष्यों की व्यवस्थाओं और तिकड़मों में फंस जाते हैं। बहुत-से ऐसे भी हैं जो अपना कर्तव्य निभाते समय कभी भी प्रार्थना या सत्य सिद्धांतों की खोज नहीं करते; वे सिर्फ दूसरों से पूछकर उनके अनुसार चलते रहते हैं, उनकी देखादेखी सब कुछ करते रहते हैं। दूसरे लोग जिस तरफ भी इशारा करते हैं, वे उसी तरफ चल देते हैं। अपनी आस्था में, उन्हें लगता है कि सत्य की खोज एक अस्पष्ट-सी और झंझट भरी चीज है, जबकि दूसरों पर निर्भर रहना और उनके अनुसार चलते रहना आसान और कहीं ज्यादा व्यावहारिक है, और इसलिए, वे वही करते हैं जो सबसे सीधा-सरल और कष्टरहित होता है, हर काम में दूसरों से पूछते रहना और वैसा ही करते रहना। परिणामस्वरूप, वर्षों के विश्वास के बाद भी, जब भी वे किसी समस्या का सामना करते हैं तो वे कभी भी परमेश्वर के सम्मुख आकर प्रार्थना नहीं करते और उसकी इच्छा और सत्य को जानने की कोशिश नहीं करते, ताकि उन्हें सत्य की समझ आ सके, और वे परमेश्वर की इच्छानुसार कार्य और व्यवहार कर सकें—उन्हें कभी भी ऐसा कोई अनुभव नहीं हो पाता। क्या ऐसे लोग सचमुच परमेश्वर में आस्था का अभ्यास करते हैं? मैं सोचता हूँ : ऐसा क्यों होता है कि जैसे ही कुछ लोग किसी समूह के अंग बन जाते हैं तो उनके लिए—स्वरूप की दृष्टि से—झट से परमेश्वर की बजाय मनुष्य में आस्था रखने वाला बन जाना, और परमेश्वर की बजाय मनुष्य का अनुसरण करने वाला बन जाना इतना आसान हो जाता है? वे लोग इतनी जल्दी बदल क्यों जाते हैं? परमेश्वर में इतने वर्षों से विश्वास रखने के बाद भी वे ऐसा व्यवहार क्यों करने लगते हैं? वे भले ही इतने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, पर विचित्र बात यह है कि उनके दिल में परमेश्वर का कभी कोई स्थान रहा ही नहीं है। उनका परमेश्वर के साथ कभी कोई संपर्क नहीं रहा है। उनके कृत्य, उनके शब्द, उनका आचरण और मामलों से निपटने का उनका तरीका, और उनका कर्तव्य पालन और परमेश्वर के लिए उनकी सेवा भी—जो कुछ भी वे करते हैं, जैसा भी व्यवहार वे प्रकट करते हैं, जो कुछ भी वे अभिव्यक्त करते हैं, यहाँ तक कि उनकी हर सोच और उनका हर विचार भी—इनमें से किसी का भी परमेश्वर में आस्था से कोई संबंध नहीं होता। तो क्या ऐसा व्यक्ति सच्चे विश्वासियों में शामिल है? क्या किसी व्यक्ति की आस्था के वर्षों का कुल जोड़ यह बता सकता है कि परमेश्वर में उनके विश्वास का आध्यात्मिक कद कितना ऊँचा है? क्या यह इस बात का प्रमाण है कि परमेश्वर के साथ उनका संबंध सामान्य है? बिल्कुल नहीं।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'यदि तू हर समय परमेश्वर के सामने रह सकता है केवल तभी तू उद्धार के पथ पर चल सकता है' से उद्धृत

चाहे कितने भी लोग परमेश्वर में विश्वास क्यों न करें, जैसे ही उनके विश्वासों को परमेश्वर द्वारा धर्म या समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है, तब परमेश्वर ने निर्धारित किया है कि उन्हें बचाया नहीं जा सकता। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? किसी गिरोह या लोगों की भीड़ में जो परमेश्वर के कार्य और मार्गदर्शन से रहित हैं और जो उसकी आराधना बिल्कुल भी नहीं करते हैं, वे किसकी आराधना करते हैं? वे किसका अनुसरण करते हैं? रूप और नाम में, वे एक इंसान का अनुसरण करते हैं, लेकिन वास्तव में वे किसका अनुसरण करते हैं? अपने हृदय में वे परमेश्वर को स्वीकार करते हैं, लेकिन वास्तव में, वे मानवीय हेरफेर, व्यवस्थाओं और नियंत्रण के अधीन हैं। वे शैतान, हैवान का अनुसरण करते हैं; वे उन ताक़तों का अनुसरण करते हैं जो परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं, जो परमेश्वर की दुश्मन हैं। क्या परमेश्वर इस तरह के लोगों के झुण्ड को बचाएगा? (नहीं।) क्यों? क्या वे पश्चाताप करने में सक्षम हैं? (नहीं।) वे मानव उद्यमों को चलाते हुए, अपने स्वयं के प्रबंधन का संचालन करते हुए विश्वास का झंडा लहराते हैं, और मनुष्यजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के विपरीत चलते हैं। उनका अंतिम परिणाम परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किया जाना है; परमेश्वर इन लोगों को संभवतः नहीं बचा सकता है, वे संभवतः पश्चाताप नहीं कर सकते है, वे पहले से ही शैतान के द्वारा पकड़ लिए गए हैं—वे पूरी तरह से शैतान के हाथों में हैं। तुमने कितने वर्ष परमेश्वर में विश्वास किया है, क्या तुम्हारी आस्था में इसका असर इस बात पर पड़ता है कि परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है या नहीं? क्या तुम्हारे रस्मों और विनियमों के पालन करने का कुछ महत्व है? क्या परमेश्वर लोगों के अभ्यास के तौर-तरीकों को देखता है? क्या वह देखता है कि वहाँ कितने लोग हैं? उसने मानवजाति के एक हिस्से को चुना है; वह कैसे मापता है कि उन्हें बचाया जा सकता है और बचाया जाना चाहिए? उसका यह निर्णय उन मार्गों पर आधारित होता है जिन पर ये लोग चलते हैं। अनुग्रह के युग में, हालांकि परमेश्वर द्वारा लोगों को बताए गए सत्य आज की तरह इतने अधिक नहीं थे और इतने विशिष्ट नहीं थे, वह फिर भी उस समय लोगों को पूर्ण बना सका और तब भी उनका उद्धार संभव था। और इसलिए इस युग के लोग, जिन्होंने बहुत से सत्य सुने हैं, और जो परमेश्वर की इच्छा को समझ पाये हैं, अगर वे परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में असमर्थ हैं और उद्धार के मार्ग पर चलने में असमर्थ हैं, तो उनका अंतिम परिणाम क्या होगा? उनका अंतिम परिणाम उन्हीं के समान होगा जो ईसाई और यहूदी धर्म को मानते हैं; कोई अंतर नहीं होगा। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है! चाहे तूने कितने भी धर्मोपदेश सुने हों, और तू कितने सत्यों को समझ चुका हो, यदि अंततः तू अभी भी लोगों का अनुसरण करता है और शैतान का अनुसरण करता है, और अंततः, तू अभी भी परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में अक्षम हैं और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ है, तो इस तरह के लोगों से परमेश्वर द्वारा नफ़रत की जाएगी और उन्हें अस्वीकार कर दिया जाएगा। हर पहलू से, ये लोग जो परमेश्वर द्वारा नफ़रत और अस्वीकृत किए जाते हैं वे पत्रों और सिद्धांतों के बारे में ज्यादा बात कर सकते हैं, और बहुत से सत्य समझते हैं और फिर भी वे परमेश्वर की आराधना करने में असमर्थ होते हैं; वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में असमर्थ हैं, और परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारी होने में असमर्थ हैं। परमेश्वर की नज़रों में, परमेश्वर उन्हें धर्म के रूप में, मनुष्य मात्र के एक समूह के रूप में, एक इंसानों का गिरोह और शैतान के लिए एक निवास स्थान के रूप में परिभाषित करता है। उन्हें सामूहिक रूप से शैतान का गिरोह कहा जाता है, और परमेश्वर उनसे पूरी तरह से घृणा करता है।

— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'यदि तू हर समय परमेश्वर के सामने रह सकता है केवल तभी तू उद्धार के पथ पर चल सकता है' से उद्धृत

उन लोगों के लिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करने का दावा करते हैं, अपनी आँखें खोलना और इस बात को ध्यान से देखना सर्वोत्तम रहेगा कि दरअसल वे किसमें विश्वास करते हैं: क्या यह वास्तव में परमेश्वर है जिस पर तू विश्वास करता है, या शैतान है? यदि तू जानता कि जिस पर तू विश्वास करता है वह परमेश्वर नहीं है, बल्कि तेरी स्वयं की प्रतिमाएँ हैं, तो फिर यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। यदि तुझे वास्तव में नहीं पता कि तू किसमें विश्वास करता है, तो, फिर से, यही सबसे अच्छा होता यदि तू विश्वासी होने का दावा नहीं करता। वैसा कहना कि तू विश्वासी था ईश-निंदा होगी! तुझसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं कर रहा कि तू परमेश्वर में विश्वास कर। मत कहो कि तुम लोग मुझमें विश्वास करते हो, मैं ऐसी बहुत सी बातें बहुत पहले खूब सुन चुका हूँ और उन्हें दुबारा सुनने की इच्छा नहीं है, क्योंकि तुम जिनमें विश्वास करते हो वे तुम लोगों के मन की प्रतिमाएँ और तुम लोगों के बीच के स्थानीय गुण्डे हैं। जो लोग सत्य को सुनकर अपनी गर्दन ना में हिलाते हैं, जो मौत की बातें सुनकर अत्यधिक मुस्कराते हैं, वे शैतान की संतान हैं; और नष्ट कर दी जाने वाली वस्तुएँ हैं। ऐसे कई लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें कोई विवेक नहीं है। और जब कुछ कपटपूर्ण घटित होता है, तो वे अप्रत्याशित रूप से शैतान के पक्ष में जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यद्यपि लोग कह सकते हैं कि उनमें विवेक नहीं है, वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहाँ सत्य नहीं होता है, वे संकटपूर्ण समय में कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं, वे कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश नहीं करते हैं। क्या उनमें सच में विवेक का अभाव है? वे अनपेक्षित ढंग से शैतान का पक्ष क्यों लेते हैं? वे कभी भी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते हैं जो निष्पक्ष हो या सत्य के समर्थन में तार्किक हो? क्या ऐसी स्थिति वाकई उनके क्षणिक भ्रम के परिणामस्वरूप पैदा हुई है? लोगों में विवेक की जितनी कमी होगी, वे सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पाएँगे। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग बुराई से प्रेम करते हैं? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि वे शैतान की निष्ठावान संतान हैं? ऐसा क्यों है कि वे हमेशा शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा बोलते हैं? उनका हर शब्द और कर्म, और उनके चेहरे के हाव-भाव, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे सत्य के किसी भी प्रकार के प्रेमी नहीं हैं; बल्कि, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि शैतान इन तुच्छ इब्लीसों को वाकई में प्रेम करता है जो शैतान की खातिर लड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। क्या ये सभी तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं? यदि तू वाकई ऐसा व्यक्ति है जो सत्य से प्रेम करता है, तो फिर तेरे मन में ऐसे लोगों के लिए सम्मान क्यों नहीं हो सकता है जो सत्य का अभ्यास करते हैं, तो फिर तू तुरंत उनके मात्र एक इशारे पर ऐसे लोगों का अनुसरण क्यों करता है जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं? यह किस प्रकार की समस्या है? मुझे परवाह नहीं कि तुझमें विवेक है या नहीं। मुझे परवाह नहीं कि तूने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है। मुझे परवाह नहीं कि तेरी शक्तियाँ कितनी बड़ी हैं और न ही मुझे इस बात की परवाह है कि तू एक स्थानीय गुण्डा है या कोई ध्वज-धारी अगुआ। यदि तेरी शक्तियाँ अधिक हैं, तो वह शैतान की ताक़त की मदद से है। यदि तेरी प्रतिष्ठा अधिक है, तो वह केवल इसलिए है क्योंकि तेरे आस-पास बहुत से ऐसे लोग हैं जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं; यदि तू निष्कासित नहीं किया गया है, तो इसलिए कि अभी निष्कासन-कार्य का समय नहीं है; बल्कि यह समय अलग किए जाने का है। तुझे निष्कासित करने की अभी कोई जल्दी नहीं है। मैं तो बस उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, जब हटा दिए जाने के बाद, मैं तुझे दंडित करूंगा। जो कोई भी सत्य का अभ्यास नहीं करता है, उसे हटा दिया जायेगा!

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी' से उद्धृत

फुटनोट:
क. मूल पाठ में "उसे" शब्द शामिल नहीं है।

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