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परमेश्वर की 10 आज्ञा के बारे में बाइबल के पद

परमेश्वर द्वारा जारी की गयी हर एक आज्ञा गहन है। इन आज्ञाओं से हम देखते हैं की परमेश्वर धर्मी और पवित्र हैं, सभी बुरी चीज़ों से घृणा करते हैं। इनसे हम जान सकते हैं कि परमेश्वर किन चीज़ों से प्रेम करते हैं, किनसे घृणा करते हैं और हमें किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना चाहिए और बुराई से दूर रहना चाहिए, साथ ही संसार में अपने जीवन हमें किन मानकों का पालन करना चाहिये। परमेश्वर की हमसे अपेक्षा और उनकी इच्छा को समझने और उनका अभ्यास करने के लिए दस आज्ञाओं से संबंधित इन बाइबल पदों को पढ़ें और इस प्रकार परमेश्वर की आशीषों में जीयें।

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"मूसा तो वहाँ यहोवा के संग चालीस दिन और रात रहा; और तब तक न तो उसने रोटी खाई और न पानी पिया। और उसने उन तख्तियों पर वाचा के वचन अर्थात् दस आज्ञाएँ लिख दीं" (निर्गमन 34:28)

"और जो दस वचन यहोवा ने सभा के दिन पर्वत पर अग्नि के मध्य में से तुम से कहे थे, वे ही उसने पहले के समान उन पटियाओं पर लिखे; और उनको मुझे सौंप दिया" (व्यवस्थाविवरण 10:4)

दस आज्ञाएँ:

"तब परमेश्‍वर ने ये सब वचन कहे: मैं तेरा परमेश्‍वर यहोवा हूँ, जो तुझे दासत्व के घर अर्थात् मिस्र देश से निकाल लाया है। तू मुझे छोड़ दूसरों को परमेश्‍वर करके न मानना। तू अपने लिये कोई मूर्ति खोदकर न बनाना, न किसी कि प्रतिमा बनाना, जो आकाश में, या पृथ्वी पर, या पृथ्वी के जल में है। तू उनको दण्डवत् न करना, और न उनकी उपासना करना; क्योंकि मैं तेरा परमेश्‍वर यहोवा जलन रखने वाला परमेश्‍वर हूँ, और जो मुझसे बैर रखते हैं, उनके बेटों, पोतों, और परपोतों को भी पितरों का दण्ड दिया करता हूँ, और जो मुझसे प्रेम रखते और मेरी आज्ञाओं को मानते हैं, उन हजारों पर करुणा किया करता हूँ। तू अपने परमेश्‍वर का नाम व्यर्थ न लेना; क्योंकि जो यहोवा का नाम व्यर्थ ले वह उसको निर्दोष न ठहराएगा। तू विश्रामदिन को पवित्र मानने के लिये स्मरण रखना। छः दिन तो तू परिश्रम करके अपना सब काम-काज करना; परन्तु सातवाँ दिन तेरे परमेश्‍वर यहोवा के लिये विश्रामदिन है। उसमें न तो तू किसी भाँति का काम-काज करना, और न तेरा बेटा, न तेरी बेटी, न तेरा दास, न तेरी दासी, न तेरे पशु, न कोई परदेशी जो तेरे फाटकों के भीतर हो। क्योंकि छः दिन में यहोवा ने आकाश और पृथ्वी, और समुद्र, और जो कुछ उनमें है, सबको बनाया, और सातवें दिन विश्राम किया; इस कारण यहोवा ने विश्रामदिन को आशीष दी और उसको पवित्र ठहराया। तू अपने पिता और अपनी माता का आदर करना, जिससे जो देश तेरा परमेश्‍वर यहोवा तुझे देता है उसमें तू बहुत दिन तक रहने पाए। तू खून न करना। तू व्यभिचार न करना। तू चोरी न करना। तू किसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना। तू किसी के घर का लालच न करना; न तो किसी की स्त्री का लालच करना, और न किसी के दास-दासी, या बैल गदहे का, न किसी की किसी वस्तु का लालच करना" (निर्गमन 20:1-17)

परमेश्वर कहते हैं:

व्यवस्था के युग के नियम परमेश्वर द्वारा संपूर्ण मनुष्यजाति के निर्देशन के वास्तविक प्रमाण हैं

तो, तुम लोगों ने व्यवस्था के युग के ये नियम और सिद्धांत पढ़ लिए हैं, तुमने पढ़ लिए हैं न? क्या इन नियमों का दायरा व्यापक है? सबसे पहले, उनमें दस आज्ञाएँ शामिल हैं, जिसके बाद नियम हैं कि वेदियाँ कैसे बनाएँ, इत्यादि। इनके बाद सब्त का पालन करने और तीन पर्व मनाने के नियम हैं, जिसके बाद बलियाँ चढ़ाने के नियम हैं। क्या तुम लोगों ने देखा कि कितने प्रकार की बलियाँ हैं? होमबलि, अन्नबलि, मेलबलि, पापबलि, इत्यादि हैं। इनके बाद याजकों के लिए बलि के नियम आते हैं, जिसमें याजकों द्वारा होमबलि और अन्नबलि, और अन्य प्रकार की बलियाँ शामिल हैं। आठवां नियम याजकों द्वारा बलियों को खाने के लिए है। फिर इसके लिए नियम हैं कि लोगों के जीवन के दौरान किन चीज़ों का पालन किया जाना चाहिए। लोगों के जीवन के कई पहलुओं के लिए निर्धारित नियम हैं, जैसे इसके लिए नियम कि वे क्या खा सकते या क्या नहीं खा सकते हैं, बच्चे के जन्म के बाद महिलाओं के शुद्धिकरण के लिए नियम, और कोढ़ से चंगे हो गए लोगों के लिए नियम। इन नियमों में, परमेश्वर इस सीमा तक जाता है कि बीमारी के बारे में बात करता है, और इनमें भेड़-बकरी और मवेशी, इत्यादि का वध करने के लिए भी नियम हैं। भेड़-बकरी और मवेशी परमेश्वर द्वारा सृजित किए गए थे, और उनका वध तुम्हें उसी तरह करना चाहिए जिस तरह परमेश्वर तुमसे करने के लिए कहता है; बिना किसी संदेह, परमेश्वर के वचनों में तर्क है; परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञाओं के अनुसार कार्य करना निस्संदेह सही है, और निश्चित ही लोगों के लिए लाभदायक है! पर्व और उन्हें मनाने के नियम भी हैं, जैसे सब्त का दिन, फसह, और अन्य—परमेश्वर ने इन सबके बारे में बोला था। आओ हम अंतिम नियमों पर नज़र डालें : अन्य नियम—दीपक जलाना, जुबली वर्ष, भूसंपत्ति छुड़ाना, मन्नतें मानना, दशवाँ अंश चढ़ाना, इत्यादि। क्या इनका दायरा व्यापक है? सबसे पहले जिसकी बात की जाए वह है लोगों द्वारा बलियों का मुद्दा। फिर चोरी और मुआवज़े, और सब्त का दिन मनाने के लिए नियम हैं...; जीवन का एक-एक विवरण शामिल है। कहने का तात्पर्य यह, जब परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना का आधिकारिक कार्य आरंभ किया, तब उसने अनेक नियम निर्धारित किए जिनका पालन मनुष्य द्वारा किया जाना था। ये नियम मनुष्य को पृथ्वी पर मनुष्य का सामान्य जीवन जीने देने के लिए थे, मनुष्य का सामान्य जीवन जो परमेश्वर और उसके मार्गदर्शन से अवियोज्य है। परमेश्वर ने सबसे पहले मनुष्य को बताया कि वेदियाँ कैसे बनाएँ, वेदियाँ किस प्रकार स्थापित करें। उसके बाद, उसने मनुष्य को बताया कि बलि कैसे चढ़ाएँ, और स्थापित किया कि मनुष्य को किस प्रकार जीना था—उसे जीवन में किस पर ध्यान देना था, उसे किसका पालन करना था, उसे क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए जो निर्दिष्ट किया वह सर्वव्यापी था, और इन रीति-रिवाज़ों, नियमों, और सिद्धांतों के साथ उसने लोगों के व्यवहार के मानक तय किए, उनके जीवन का मार्गदर्शन किया, परमेश्वर की व्यवस्थाओं में उनकी दीक्षा का मार्गदर्शन किया, परमेश्वर की वेदी के समक्ष आने के लिए उनका मार्गदर्शन किया, और उन सभी चीज़ों के बीच जीवन पाने के लिए उनका मार्गदर्शन किया जो परमेश्वर ने व्यवस्था, नियमितता, और संयम से युक्त मनुष्य के लिए बनाई थीं। परमेश्वर ने मनुष्य के लिए सीमाएँ निर्धारित करने के उद्देश्य से सबसे पहले इन सीधे-सादे नियमों और सिद्धांतों का उपयोग किया था, ताकि पृथ्वी पर मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने वाला सामान्य जीवन हो, और उसके पास मनुष्य का सामान्य जीवन हो; ऐसी है उसकी छह हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना के आरंभ की विशिष्ट विषयवस्तु। इन नियमों और व्यवस्थाओं में बहुत व्यापक विषयवस्तु समाहित है, वे व्यवस्था के युग के दौरान मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर के मार्गदर्शन के विशिष्ट विवरण हैं, इन्हें व्यवस्था के युग के लोगों द्वारा स्वीकार और इनका पालन किया जाना था, ये व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य का अभिलेख हैं, और वे संपूर्ण मनुष्यजाति की परमेश्वर द्वारा अगुआई और मार्गदर्शन का वास्तविक प्रमाण हैं।

मनुष्यजाति परमेश्वर की शिक्षाओं और भरण-पोषण से सदा के लिए अवियोज्य है

इन नियमों में हम देखते हैं कि अपने कार्य के प्रति, अपने प्रबंधन के प्रति, और मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति गंभीर, कर्तव्यनिष्ठ, कठोर और दायित्वपूर्ण है। वह कार्य जो उसे मनुष्यजाति के बीच करना ही चाहिए, रत्ती भर भी विसंगति के बिना, वह अपने चरणों के अनुसार करता है, वे वचन जो मनुष्यजाति के बीच उसे बोलने ही चाहिए, रत्ती भर भी त्रुटि या चूक के बिना, वह बोल रहा है, मनुष्य को यह देखने दे रहा है कि वह परमेश्वर की अगुआई से अवियोज्य है, और उसे दिखा रहा है कि वह सब जो परमेश्वर करता और कहता है मनुष्यजाति के लिए कितना अधिक महत्वपूर्ण है। परमेश्वर ने बिलकुल आरंभ में—व्यवस्था के युग के दौरान—ये सीधी-सादी चीज़ें कीं, इस बात की परवाह किए बिना कि अगले युग में मनुष्य किस प्रकार का है। उस युग में परमेश्वर, संसार और मनुष्यजाति के बारे में लोगों की धारणाएँ परमेश्वर के लिए अमूर्त और अस्पष्ट थीं, और यद्यपि उनमें कुछ जाने-बूझे विचार और अभिप्राय थे, किंतु वे सब अस्पष्ट और ग़लत थे, और इस प्रकार मनुष्यजाति उनके लिए परमेश्वर की शिक्षाओं और भरण-पोषण से अवियोज्य थी। सबसे आरंभिक मनुष्यजाति बिल्कुल कुछ भी नहीं जानती थी, और इसलिए परमेश्वर को, इन नियमों के माध्यम से, और इन व्यवस्थाओं के माध्यम से, जो वचनों की थीं, मनुष्य को जीवित बचने के सर्वाधिक सतही और मूलभूत सिद्धांत और जीवन जीने के लिए आवश्यक नियम सिखाने से, इन चीज़ों को थोड़ा-थोड़ा करके मनुष्य के हृदय में उतारने से, और मनुष्य को परमेश्वर की क्रमिक समझ, परमेश्वर की अगुआई की क्रमिक सराहना और समझ, और मनुष्य तथा परमेश्वर के बीच संबंध की मूलभूत अवधारणा देने से आरंभ करना पड़ा था। यह प्रभाव प्राप्त करने के बाद ही, परमेश्वर, थोड़ा-थोड़ा करके, वह कार्य कर पाया था जो वह बाद में करता, और इस प्रकार ये नियम और व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर द्वारा किया गया कार्य मनुष्यजाति को बचाने के उसके कार्य की आधारशिला, और परमेश्वर की प्रबंधन योजना के कार्य का पहला चरण हैं। यद्यपि, व्यवस्था के युग के कार्य से पहले, परमेश्वर ने आदम, हव्वा और उनके वंशजों से बात की थी, फिर भी वे आज्ञाएँ और शिक्षाएँ इतनी व्यवस्थित या विशिष्ट नहीं थीं कि एक-एक करके मनुष्य को दी जातीं, और उन्हें लिखा नहीं गया था, न ही वे नियम बनी थीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि, उस समय, परमेश्वर की योजना उतनी दूर तक नहीं गई थी; जब परमेश्वर मनुष्य को इस चरण तक ले आया, केवल तभी वह व्यवस्था के युग के ये नियम बोलना आरंभ कर सका, और मनुष्य से इन्हें कार्यान्वित करवाना आरंभ कर सका था। यह आवश्यक प्रक्रिया थी, और यह परिणाम अवश्यंभावी था। ये सीधे-सादे रीति-रिवाज़ और नियम मनुष्य को परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के चरण और उसकी प्रबंधन योजना में प्रकट हुई परमेश्वर की बुद्धि दर्शाते हैं। परमेश्वर जानता है कि उसकी गवाही देने वाले लोगों का एक समूह प्राप्त कर सकने के उद्देश्य से, और उसके समान एक मन वाले लोगों का एक समूह प्राप्त कर सकने के उद्देश्य से, आरंभ करने के लिए किस विषयवस्तु और किन साधनों का उपयोग करना है, आगे बढ़ाने के लिए किन साधनों का उपयोग करना है, और समाप्त करने के लिए किन साधनों का उपयोग करना है। वह जानता है कि मनुष्य के भीतर क्या है, और जानता है कि मनुष्य में क्या कमी है। वह जानता है कि उसे क्या पोषण देना है, और उसे मनुष्य की अगुआई कैसे करनी चाहिए, और इसलिए वह यह भी जानता है कि मनुष्य को क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। मनुष्य कठपुतली के समान है : उसे परमेश्वर की इच्छा की भले ही कोई समझ नहीं थी, किंतु उसके पास आज तक, चरण-दर-चरण, परमेश्वर के प्रबंधन के कार्य की अगुआई में चलने के सिवा और कोई चारा नहीं था। परमेश्वर को जो करना था उसके बारे में उसके हृदय में कोई धुँधलापन नहीं था; उसके हृदय में बहुत ही सुस्पष्ट और सजीव योजना थी, और वह जो कार्य करना चाहता था उसे उसने, सतही से गहराई की ओर आगे बढ़ते हुए, अपने चरणों और अपनी योजना के अनुसार कार्यान्वित किया। यद्यपि उसने उस कार्य की ओर संकेत नहीं किया था जो उसे बाद में करना था, फिर भी उसका बाद का कार्य कड़ाई से उसकी योजना के अनुसार निरंतर कार्यान्वित होता और प्रगति करता रहा, जो परमेश्वर के स्वरूप का आविर्भाव है, और परमेश्वर का अधिकार भी है। वह अपनी प्रबंधन योजना के चाहे जिस चरण का कार्य कर रहा हो, उसका स्वभाव और उसका सार स्वयं उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। यह बिल्कुल सत्य है। युग, या कार्य का चरण चाहे जो हो, ऐसी भी चीज़ें हैं जो कभी नहीं बदलेंगी : परमेश्वर किस प्रकार के लोगों से प्रेम करता है, किस प्रकार के लोगों से वह घृणा करता है, उसका स्वभाव और वह सब जो वह है और उसका है। यद्यपि ये नियम और सिद्धांत जो परमेश्वर द्वारा व्यवस्था के युग के दौरान स्थापित किए गए थे आज के लोगों को बहुत ही सीधे-सादे और सतही प्रतीत होते हैं, और यद्यपि उन्हें समझना और प्राप्त करना आसान है, फिर भी उनमें परमेश्वर की बुद्धि है, और फिर भी उनमें परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप है। क्योंकि प्रकट रूप से इन सीधे-सादे नियमों के भीतर मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का उत्तरदायित्व और देखरेख, साथ ही उसके विचारों का उत्कृष्ट सार अभिव्यक्त हुए हैं, जो इस प्रकार मनुष्य को सच में इस तथ्य अहसास होने देते हैं कि परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है, और सभी चीज़ें उसके हाथ से नियंत्रित होती हैं। मनुष्यजाति चाहे जितना अधिक ज्ञान पर निपुणता प्राप्त कर ले, या वह चाहे जितने सिद्धांत और रहस्य समझ ले, परमेश्वर के लिए इनमें से कुछ भी मनुष्यजाति के लिए उसके भरण-पोषण का, और उसकी अगुवाई का स्थान लेने में सक्षम नहीं है; मनुष्यजाति परमेश्वर के मार्गदर्शन और परमेश्वर के व्यक्तिगत कार्य से हमेशा अवियोज्य रहेगी। ऐसा है मनुष्य और परमेश्वर के बीच अवियोज्य संबंध। परमेश्वर तुम्हें चाहे आज्ञा, या नियम दे, या उसकी इच्छा को समझने के लिए तुम्हें सत्य प्रदान करे, वह चाहे जो करे, परमेश्वर का लक्ष्य सुंदर कल की ओर मनुष्य का मार्गदर्शन करना है। परमेश्वर द्वारा कहे गए वचन और वह जो कार्य करता है दोनों उसके सार के एक पहलू का प्रकाशन हैं, और उसके स्वभाव तथा उसकी बुद्धि के एक पहलू का प्रकाशन हैं; और वे उसकी प्रबंधन योजना का अपरिहार्य चरण हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए! परमेश्वर जो कुछ करता है उसमें उसकी इच्छा होती है; परमेश्वर ग़लत टीका-टिप्पणियों से भयभीत नहीं होता है, न ही वह अपने बारे में मनुष्य की किन्हीं भी धारणाओं या विचारों से डरता है। वह किसी भी मनुष्य, विषय या वस्तु से अबाधित, बस अपना कार्य करता है और अपनी प्रबंधन योजना के अनुसार अपना प्रबंधन आगे बढ़ाता है।

विषय के अनुसार बाइबल के पद” और “बाइबल अध्ययन” खंडों में दैनिक भक्ति संसाधनों का उपयोग करने के लिए आपका स्वागत है, ये आपके आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध कर सकते हैं।

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