परमेश्वर आध्यात्मिक क्षेत्र पर कैसे शासन करता और उसे चलाता है : विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र
हमने अभी पहली श्रेणी के लोगों, अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में चर्चा की। अब हम द्वितीय श्रेणी के, विभिन्न आस्था वाले लोगों के बारे में चर्चा करते हैं। “विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र” एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, और इसकी कुछ समझ होना तुम लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है। पहले, हम इस बारे में बात करते हैं कि “आस्था वाले लोगों” में “आस्था” : यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म, इन पाँच प्रमुख धर्मों में से किन्हें संदर्भित करती है। अविश्वासियों के अतिरिक्त, इन पाँच धर्मों में विश्वास करने वाले लोगों का विश्व की जनसंख्या में एक बड़ा अनुपात है। इन पाँच धर्मों में से जिन्होंने अपनी आस्था से करियर बनाया है, वे बहुत थोड़े-से हैं, फिर भी इन धर्मों के बहुत अनुयायी हैं। जब वे मरते हैं, तो भिन्न स्थान पर जाते हैं। किससे “भिन्न”? अविश्वासियों से—उन लोगों से, जिनकी कोई आस्था नहीं है—जिनके बारे में हम अभी बात कर रहे थे। मरने के बाद इन पाँचों धर्मों के विश्वासी किसी अन्य स्थान पर जाते हैं, अविश्वासियों से भिन्न किसी स्थान पर। किंतु प्रक्रिया वही रहती है; आध्यात्मिक क्षेत्र उनके बारे में उसी तरह उस सबके आधार पर निर्णय करेगा, जो उन्होंने मरने से पहले किया था, जिसके बाद तदनुसार उनके बारे में कार्रवाई की जाएगी। लेकिन कार्रवाई करने के लिए इन लोगों को किसी अन्य स्थान पर क्यों भेजा जाता है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। क्या है वह कारण? मैं तुम लोगों को इसे एक उदाहरण से समझाऊँगा। लेकिन इससे पहले कि मैं बताऊँ, तुम मन में सोच रहे होगे : “ऐसा शायद इसलिए हो, क्योंकि परमेश्वर में उनका थोड़ा विश्वास होता है! वे पूर्ण अविश्वासी नहीं होते।” किंतु यह कारण नहीं है। उन्हें दूसरों से अलग रखने का एक महत्वपूर्ण कारण है।
उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म को लो : मैं तुम्हें एक तथ्य बताऊँगा। कोई बौद्ध सबसे पहले वह व्यक्ति होता है, जो बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गया है, और वह ऐसा व्यक्ति है, जो जानता है कि उसका विश्वास क्या है। जब बौद्ध अपने बाल कटवाते हैं और भिक्षु या भिक्षुणी बनते हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने आपको लौकिक संसार से पृथक कर लिया है और मानव-जगत के कोलाहल को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे प्रतिदिन सूत्रों का उच्चारण करते हैं और बुद्ध के नाम जपते हैं, केवल शाकाहारी भोजन करते हैं, तपस्वी का जीवन व्यतीत करते हैं, और अपने दिन तेल के दीये की ठंडी, क्षीण रोशनी में गुजारते हैं। वे अपना सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत करते हैं। जब बौद्धों का भौतिक जीवन समाप्त होता है, तो वे अपने जीवन का सारांश बनाते हैं, परंतु अपने हृदय में उन्हें पता नहीं होता कि मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे, किससे मिलेंगे, या उनका अंत क्या होगा : अपने हृदय की गहराई में उन्हें इन चीजों के बारे स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। उन्होंने अपने पूरे जीवन में आँख मूँदकर एक प्रकार का विश्वास करने से अधिक कुछ नहीं किया होता, जिसके बाद वे अपनी अंधी इच्छाओं और आदर्शों के साथ मानव-संसार से चले जाते हैं। ऐसा होता है एक बौद्ध के भौतिक जीवन का अंत, जब वह जीवित संसार को छोड़ता है; उसके बाद वह आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने मूल स्थान पर वापस लौट जाता है। पृथ्वी पर लौटने और आत्म-विकास करते रहने के लिए इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा या नहीं, यह मृत्यु से पहले के उसके आचरण और अभ्यास पर निर्भर करता है। अगर अपने जीवन-काल में उसने कुछ गलत नहीं किया, तो शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म हो जाएगा और उसे पृथ्वी पर वापस भेज दिया जाएगा, जहाँ यह व्यक्ति एक बार फिर भिक्षु या भिक्षुणी बन जाएगा। अर्थात् वे अपने भौतिक जीवन के दौरान उसी तरह आत्म-विकास का अभ्यास करते हैं, जिस तरह से उन्होंने पहली बार आत्म-विकास का अभ्यास किया था, और फिर अपने भौतिक जीवन के समापन के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र में वापस आ जाते हैं, जहाँ उनकी जाँच की जाती है। इसके बाद, अगर कोई समस्या नहीं पाई जाती, तो वे एक बार फिर मनुष्यों के संसार में लौट सकते हैं, और फिर से बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो सकते हैं और इस प्रकार अपना अभ्यास जारी रख सकते हैं। तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद वे एक बार फिर आध्यात्मिक क्षेत्र में लौटते हैं, जहाँ अपने भौतिक जीवन की समाप्ति पर वे हर बार जाते हैं। अगर मानव-जगत में उनकी विभिन्न योग्यताएँ और व्यवहार आध्यात्मिक क्षेत्र की स्वर्गिक आज्ञाओं के मुताबिक होते हैं, तो इसके बाद वे वहीं रहेंगे; उनका फिर मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा, न ही उन्हें पृथ्वी पर बुरे कार्यों के लिए दंडित किए जाने का कोई जोखिम होगा। उन्हें फिर कभी इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा। इसके बजाय, अपनी परिस्थितियों के अनुसार, वे आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई पद ग्रहण करेंगे। इसे ही बौद्ध लोग “बुद्धत्व की प्राप्ति” कहते हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति का मुख्य रूप से अर्थ है आध्यात्मिक क्षेत्र के एक पदाधिकारी के रूप में सिद्धि प्राप्त करना, और उसके बाद पुनर्जन्म लेने या दंड भोगने का कोई जोखिम न होना। इसके अतिरिक्त, इसका अर्थ है अब पुनर्जन्म के बाद मनुष्य होने के कष्ट न भोगना। तो क्या अभी भी उनका पशु के रूप में पुनर्जन्म होने की कोई संभावना होती है? (नहीं।) इसका मतलब है कि वे कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में ही बने रहेंगे और उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। बौद्ध धर्म में बुद्धत्व की सिद्धि की प्राप्ति का यह एक उदाहरण है। जहाँ तक यह सिद्धि प्राप्त न करने वालों की बात है, आध्यात्मिक क्षेत्र में लौटने पर वे संबंधित पदाधिकारी द्वारा जाँच और सत्यापन के भागी होते हैं, जो यह पता लगाता है कि जीवित रहते हुए उन्होंने परिश्रमपूर्वक आत्म-विकास का अभ्यास नहीं किया था या ईमानदारी से बौद्ध धर्म द्वारा निर्धारित सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप नहीं किया था; इसके बजाय, उन्होंने कई दुष्कर्म किए थे, और वे अनेक बुरे आचरणों में संलग्न रहे थे। तब आध्यात्मिक क्षेत्र में उनके बुरे कार्यों के बारे में निर्णय लिया जाता है, जिसके बाद उन्हें दंड दिया जाना निश्चित होता है। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। तो इस प्रकार का व्यक्ति सिद्धि कब प्राप्त कर सकता है? उस जीवन-काल में, जिसमें वह कोई बुरा कार्य नहीं करता—जब आध्यात्मिक क्षेत्र में उसके लौटने के बाद यह देखा जाता है कि उसने मृत्यु से पूर्व कुछ गलत नहीं किया था। तब वे पुनर्जन्म लेते रहते हैं, सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप करते रहते हैं, अपने दिन तेल के दीये के ठंडे और क्षीण प्रकाश में गुजारते रहते हैं, जीव-हत्या या मांस-भक्षण से परहेज करते हैं। वे मनुष्य के संसार में हिस्सा नहीं लेते, उसकी समस्याओं को बहुत पीछे छोड़ देते हैं, और दूसरों के साथ कोई विवाद नहीं करते। इस प्रक्रिया में, अगर उन्होंने कोई बुरा कार्य नहीं किया होता, तो आध्यात्मिक क्षेत्र में उनके लौटकर आने और उनके समस्त क्रियाकलापों और व्यवहार की जाँच हो चुकने के बाद उन्हें तीन से सात बार तक चलने वाले जीवन-चक्र के लिए एक बार पुनः मनुष्य के संसार में भेजा जाता है। अगर इस दौरान कोई कदाचार नहीं किया जाता, तो बुद्धत्व की उनकी प्राप्ति अप्रभावित रहेगी, और विलंबित नहीं होगी। यह समस्त आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र का एक लक्षण है : वे “सिद्धि प्राप्त” करने और आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं; यही बात है, जो उन्हें अविश्वासियों से अलग बनाती है। पहली बात, जब वे अभी भी पृथ्वी पर जी रहे होते हैं, तो आध्यात्मिक क्षेत्र में पद ग्रहण करने में सक्षम रहने वाले लोग कैसा आचरण करते हैं? उन्हें निश्चित करना चाहिए कि वे कोई भी बुरा कार्य बिलकुल न करें : उन्हें हत्या, आगजनी, बलात्कार या लूटपाट नहीं करनी चाहिए; अगर वे कपट, धोखाधड़ी, चोरी या डकैती में संलग्न होते हैं, तो वे सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में, अगर कुकर्म से उनका कोई भी संबंध या संबद्धता है, तो वे आध्यात्मिक क्षेत्र द्वारा उन्हें दिए जाने वाले दंड से बच नहीं पाएँगे। आध्यात्मिक क्षेत्र उन बौद्धों के लिए उचित प्रबंध करता है, जो बुद्धत्व प्राप्त करते हैं : उन्हें उन लोगों को प्रशासित करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, जो बौद्ध धर्म में और आकाश के वृद्ध मनुष्य पर विश्वास करते हैं—उन्हें एक अधिकार-क्षेत्र आबंटित किया जा सकता है। वे केवल अविश्वासियों के प्रभारी भी हो सकते हैं, या बहुत गौण कर्तव्यों वाले पदों पर भी हो सकते हैं। ऐसा आबंटन उनकी आत्माओं की विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार होता है। यह बौद्ध धर्म का एक उदाहरण है।
हमने जिन पाँच धर्मों की बात की है, उनमें ईसाई धर्म अपेक्षाकृत विशेष है। ईसाइयों को विशेष क्या बनाता है? ये वे लोग हैं, जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यहाँ कैसे सूचीबद्ध किया जा सकता है? यह कहने पर कि ईसाइयत एक प्रकार की आस्था है, निस्संदेह उसका संबंध केवल आस्था से होगा; वह केवल एक प्रकार का अनुष्ठान, एक प्रकार का धर्म होगी, और उन लोगों की आस्था से बिलकुल अलग चीज होगी, जो ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मेरे द्वारा ईसाइयत को पाँच प्रमुख “धर्मों” के बीच सूचीबद्ध किए जाने का कारण यह है कि इसे भी यहूदी, बौद्ध और इस्लाम धर्मों के स्तर तक घटा दिया गया है। यहाँ अधिकतर लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते कि कोई परमेश्वर है या वह सभी चीजों पर शासन करता है, उसके अस्तित्व पर विश्वास तो वे बिलकुल भी नहीं करते। इसके बजाय, वे मात्र धर्मशास्त्र की चर्चा करने के लिए धर्मग्रंथों का उपयोग करते हैं, और लोगों को दयालु बनना, कष्ट सहना और अच्छे कार्य करना सिखाने के लिए धर्मशास्त्र का उपयोग करते हैं। ईसाइयत इसी प्रकार का धर्म बन गया है : वह केवल धर्मशास्त्र संबंधी सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करता है, मनुष्य का प्रबंधन करने या उसे बचाने के परमेश्वर के कार्य से उसका बिलकुल भी कोई संबंध नहीं है। वह उन लोगों का धर्म बन गया है, जो परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं, पर जिन्हें वास्तव में परमेश्वर द्वारा अंगीकार नहीं किया जाता। लेकिन, ऐसे लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर के पास भी एक सिद्धांत है। वह उन्हें अपनी मर्जी से उसी तरह बेमन से नहीं सँभालता या उनसे उसी तरह बेमन से नहीं निपटता, जैसा कि वह अविश्वासियों के साथ करता है। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा कि वह बौद्धों के साथ करता है : अगर जीवित रहते हुए कोई ईसाई आत्मानुशासन का पालन कर पाता है, कठोरता से दस आज्ञाओं का पालन करता है और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं के अनुसार परिश्रमपूर्वक व्यवहार करता है, और जीवन भर उन पर दृढ़ रह सकता है, तो उन्हें भी वास्तव में तथाकथित “स्वर्गारोहण” प्राप्त कर पाने से पहले उतना ही समय जीवन और मृत्यु के चक्र से गुजारना होगा। इस स्वर्गारोहण को प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक क्षेत्र में बने रहते हैं, जहाँ वे कोई पद लेते हैं और उसके एक पदाधिकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार, अगर वे पृथ्वी पर बुराई करते हैं—अगर वे बहुत पापी हैं और बहुत पाप करते हैं—तब वे अनिवार्यतः भिन्न-भिन्न तीव्रता से दंडित और अनुशासित किए जाएँगे। बौद्ध धर्म में सिद्धि की प्राप्ति का अर्थ है परमानंद की शुद्ध भूमि पर से गुजरना, किंतु ईसाइयत में इसे क्या कहा जाता है? इसे “स्वर्ग में प्रवेश करना” और “स्वर्गारोहण करवाया जाना” कहते हैं। जिन्हें वास्तव में स्वर्गारोहण करवाया जाता है, वे भी जीवन और मृत्यु के चक्र से तीन से सात बार तक गुजरते हैं, जिसके बाद, मर जाने पर, वे आध्यात्मिक क्षेत्र में आते हैं, मानो वे सो गए हों। अगर वे मानक के अनुरूप होते हैं, तो वे कोई पद ग्रहण करने के लिए वहाँ बने रह सकते हैं, और पृथ्वी पर मौजूद लोगों के विपरीत, साधारण तरीके से, या परंपरा के अनुसार, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा।
इन सब धर्मों में, जिस अंत के बारे में लोग बात करते हैं और जिसके लिए वे प्रयास करते हैं, वह वैसा ही होता है, जैसा कि बौद्ध धर्म में सिद्धि प्राप्त करना; फर्क सिर्फ यह है कि “सिद्धि” भिन्न-भिन्न तरीकों से प्राप्त की जाती है। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन धर्मों के अनुयायियों के इस भाग के लिए, जो अपने आचरण में धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में समर्थ होते हैं, परमेश्वर एक उचित गंतव्य, जाने के लिए एक उचित स्थान उपलब्ध कराता है, और उन्हें उचित प्रकार से सँभालता है। यह सब तर्कसंगत है, किंतु यह वैसा नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। अब, ईसाइयत में लोगों का क्या होता है, इस बारे में सुनने के बाद, तुम लोग कैसा अनुभव करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि उनकी दुर्दशा अनुचित है? क्या तुम्हें उनसे सहानुभूति होती है? (थोड़ी-सी।) इसमें कुछ नहीं किया सकता; उन्हें केवल स्वयं को ही दोष देना होगा। मै ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर का कार्य सच्चा है; वह जीवित और व्यावहारिक है, और उसका कार्य संपूर्ण मानवजाति और प्रत्येक व्यक्ति पर लक्षित है। तो फिर वे इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? क्यों वे पागलों की तरह परमेश्वर का विरोध करते और उसे यातना देते हैं? इस तरह का परिणाम पाकर भी उन्हें स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए, तो तुम लोग उनके लिए खेद क्यों महसूस करते हो? उन्हें इस प्रकार से सँभाला जाना बड़ी सहिष्णुता दर्शाता है। जिस हद तक वे परमेश्वर का विरोध करते हैं, उसके हिसाब से तो उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए, फिर भी परमेश्वर ऐसा नहीं करता, वह बस ईसाइयत को किसी दूसरे साधारण धर्म की तरह ही सँभालता है। तो क्या अन्य धर्मों के बारे में विस्तार से जाने की कोई आवश्यकता है? इन सभी धर्मों की प्रकृति है कि लोग अधिक कठिनाइयाँ सहन करें, कोई बुराई न करें, अच्छे कर्म करें, दूसरों को गाली न दें, दूसरों के बारे में निर्णय न दें, विवादों से दूर रहें, और सज्जन बनें—अधिकांश धार्मिक शिक्षाएँ इसी प्रकार की हैं। इसलिए, अगर ये आस्था वाले लोग—ये विभिन्न धर्मों और पंथों के अनुयायी—अगर अपने धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन कर पाते हैं, तो वे पृथ्वी पर रहने के दौरान बड़ी त्रुटियाँ या पाप नहीं करेंगे, और तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद सामान्यतः ये लोग—जो धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में सक्षम रहते हैं—आम तौर पर, आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई पद लेने के लिए बने रहेंगे। क्या ऐसे बहुत लोग होते हैं? (नहीं।) तुम्हारा उत्तर किस बात पर आधारित है? भलाई करना या धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना आसान नहीं है। बौद्ध धर्म लोगों को मांस खाने की अनुमति नहीं देता—क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अगर तुम्हें भूरे वस्त्र पहनकर किसी बौद्ध मंदिर में पूरे दिन मंत्रों का उच्चारण और बुद्ध के नामों का जाप करना पड़े, तो क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यह आसान नहीं होगा। ईसाइयत में दस आज्ञाएँ हैं, आज्ञाएँ और व्यवस्थाएँ, क्या उनका पालन करना आसान है? वह आसान नहीं है, है न? उदाहरण के लिए, दूसरों को गाली न देने को लो : लोग इस नियम का पालन करने में एकदम अक्षम हैं। स्वयं को रोक पाने में असमर्थ होकर वे गाली देते हैं—और गाली देने के बाद वे उन शब्दों को वापस नहीं ले सकते, तो वे क्या करते हैं? रात्रि में वे अपने पाप स्वीकार करते हैं! कभी-कभी दूसरों को गाली देने के बाद भी वे अपने दिल में घृणा को आश्रय दिए रहते हैं, और वे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि वे उन लोगों को किसी समय और ज्यादा नुकसान पहुँचाने की योजना बना लेते हैं। संक्षेप में, जो लोग इस जड़ हठधर्मिता के बीच जीते हैं, उनके लिए पाप करने से बचना या बुराई करने से दूर रहना आसान नहीं है। इसलिए, हर धर्म में केवल कुछ लोग ही वास्तव में सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि चूँकि इतने अधिक लोग इन धर्मों का अनुसरण करते हैं, इसलिए उनका एक बड़ा भाग आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए बने रहने में सक्षम रहता होगा? ऐसे लोग उतने अधिक नहीं होते; वास्तव में केवल कुछ लोग ही इसे प्राप्त कर पाते हैं। आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र में सामान्यतः ऐसा ही होता है। जो चीज उन्हें अलग करती है, वह यह है कि वे सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं, और यही बात उन्हें अविश्वासियों से अलग करती है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X