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अय्यूब के बारे में

अय्यूब परीक्षाओं से होकर कैसे गुज़रा इस बारे में जानने के बाद, तुममें से अधिकांश संभवतः स्वयं अय्यूब के बारे में और अधिक विवरण जानना चाहोगे, विशेष रूप से उस रहस्य के संबंध में जिसके द्वारा उसने परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त की थी। इसलिए आओ, आज हम अय्यूब के बारे में बात करें!

अय्यूब के दैनिक जीवन में हम उसकी पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहना देखते हैं

यदि हमें अय्यूब की चर्चा करनी है, तो हमें उसके बारे में उस आँकलन से ही आरंभ करना चाहिए जो परमेश्वर के मुख से कहा गया था : “उसके तुल्य खरा और सीधा और मेरा भय माननेवाला और बुराई से दूर रहनेवाला मनुष्य और कोई नहीं है।”

आओ हम सबसे पहले अय्यूब की पूर्णता और खरेपन के बारे में जानें।

तुम लोग “पूर्ण” और “खरा” शब्दों से क्या समझते हो? क्या तुम मानते हो कि अय्यूब कलंक रहित था, कि वह सम्माननीय था? निस्संदेह, यह “पूर्ण” और “खरे” की शाब्दिक व्याख्या और समझ होगी। परंतु वास्तविक जीवन का परिप्रेक्ष्य अय्यूब की सच्ची समझ से अभिन्न है—वचन, किताबें, और सिद्धांत अकेले कोई उत्तर प्रदान नहीं करेंगे। हम अय्यूब के घरेलू जीवन पर नजर डालते हुए आरंभ करेंगे, इस पर कि अपने जीवन के दौरान उसका सामान्य आचरण किस प्रकार का था। यह हमें जीवन में उसके सिद्धांतों और उद्देश्यों, और साथ ही उसके व्यक्तित्व और खोज के बारे में बताएगा। आओ अब हम अय्यूब 1:3 के अंतिम वचन पढ़ें : “पूर्वी देशों के लोगों में वह सबसे बड़ा था।” ये वचन जो कह रहे हैं वह यह है कि अय्यूब की हैसियत और प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी, और यद्यपि हमें कारण नहीं बताया गया है कि पूर्वी देशों के लोगों में वह अपनी प्रचुर धन-संपत्ति के कारण सबसे बड़ा था, या इसलिए कि वह पूर्ण और खरा था और परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था, कुल मिलाकर, हम इतना जानते हैं कि अय्यूब की हैसियत और प्रतिष्ठा बहुत ही मूल्यवान थी। जैसा कि बाइबल में अभिलिखित है, अय्यूब के बारे में लोगों की पहली धारणा यह थी कि अय्यूब पूर्ण था, कि वह परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था, और यह कि उसके पास बहुत धन-संपत्ति और सम्माननीय हैसियत थी। ऐसे परिवेश में और ऐसी परिस्थितियों में रह रहे साधारण व्यक्ति के लिए, अय्यूब का आहार, जीवन की गुणवत्ता, और उसके व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पहलू अधिकांश लोगों के ध्यान के केंद्रबिंदु होंगे; इसलिए हमें पवित्र शास्त्र आगे पढ़ना होगा : “उसके बेटे बारी-बारी से एक दूसरे के घर में खाने-पीने को जाया करते थे; और अपनी तीनों बहिनों को अपने संग खाने-पीने के लिये बुलवा भेजते थे। जब जब भोज के दिन पूरे हो जाते, तब तब अय्यूब उन्हें बुलवाकर पवित्र करता, और बड़े भोर को उठकर उनकी गिनती के अनुसार होमबलि चढ़ाता था; क्योंकि अय्यूब सोचता था, ‘कदाचित् मेरे लड़कों ने पाप करके परमेश्वर को छोड़ दिया हो।’ इसी रीति अय्यूब सदैव किया करता था” (अय्यूब 1:4-5)। यह अंश हमें दो बातें बताता है : पहली यह कि अय्यूब के पुत्र और पुत्रियाँ, बहुत खाने और पीने के साथ, नियमित रूप से भोज करते थे; दूसरी यह है कि अय्यूब बहुधा होमबलियाँ चढ़ाता था क्योंकि वह अपने पुत्रों और पुत्रियों के लिए प्रायः चिंतित रहता था, इस डर से कि वे पाप कर रहे थे, कि उन्होंने अपने हृदय में परमेश्वर को त्याग दिया था। इसमें दो अलग-अलग प्रकार के लोगों के जीवन का वर्णन किया गया है। पहले, अय्यूब के पुत्र और पुत्रियाँ, जो अपनी संपन्नता के कारण अक़्सर भोज करते थे, ख़र्चीला जीवन जीते थे, वे अपने मन की संतुष्टि तक दाखरस पीते और दावत करते थे, और भौतिक संपदा से उत्पन्न उच्च जीवनशैली का आनंद उठाते थे। ऐसा जीवन जीते हुए, यह अवश्यंभावी ही था कि वे अक़्सर पाप करते होंगे और परमेश्वर को नाराज करते होंगे—फिर भी वे अपने को पवित्र नहीं करते थे या होमबलि नहीं चढ़ाते थे। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर का उनके हृदय में कोई स्थान नहीं था, कि उन्होंने परमेश्वर के अनुग्रहों का कोई विचार नहीं किया, न ही वे परमेश्वर को नाराज करने से भयभीत हुए, अपने हृदय में परमेश्वर को त्यागने से तो वे और भी भयभीत नहीं हुए थे। निस्संदेह, हमारा ध्यान अय्यूब के बच्चों पर नहीं है, बल्कि उस पर है जो अय्यूब ने ऐसी चीजों से सामना होने पर किया; यह अय्यूब के दैनिक जीवन और उसके मानवता सार से जुड़ा दूसरा मामला है, जिसका इस अंश में वर्णन किया गया है। बाइबल अय्यूब के पुत्र और पुत्रियों के भोज का उल्लेख तो करती है, किंतु अय्यूब का कोई उल्लेख नहीं है; केवल इतना कहा गया है कि उसके पुत्र और पुत्रियाँ अक्सर एक साथ मिलकर खाते और पीते थे। दूसरे शब्दों में, उसने भोज आयोजित नहीं किए, न ही वह अपने पुत्र और पुत्रियों के साथ ख़र्चीले ढँग से खान-पान में शामिल हुआ। धनाढ्य और कई संपत्तियों और सेवकों से संपन्न होते हुए भी, अय्यूब का जीवन विलासी जीवन नहीं था। वह जीवन जीने के अपने सर्वोत्कृष्ट परिवेश से मोहित नहीं हुआ था, और उसने, अपनी संपदा के कारण, स्वयं को देह के आनंदों से ठूँस-ठूँसकर नहीं भरा या होमबलि चढ़ाना नहीं भूला, और इसके कारण अपने हृदय में परमेश्वर से धीरे-धीरे दूर तो वह और भी नहीं हुआ। तो, स्पष्ट रूप से, अय्यूब अपनी जीवनशैली में अनुशासित था, और उसे मिले परमेश्वर के आशीषों के परिणामस्वरूप वह लोभी या सुखवादी नहीं था, और वह जीवन की गुणवत्ता में तल्लीन नहीं था। इसके बजाय, वह विनम्र और शालीन था, वह ठाठ-बाट का आदी नहीं था, और परमेश्वर के सामने वह सतर्क और सावधान था। वह परमेश्वर के अनुग्रहों और आशीषों पर बहुधा विचार करता था, और निरंतर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखता था। अपने दैनिक जीवन में, अय्यूब अपने पुत्र और पुत्रियों के हेतु होमबलि चढ़ाने के लिए प्रायः जल्दी उठ जाता था। दूसरे शब्दों में, न केवल अय्यूब स्वयं परमेश्वर का भय मानता था, बल्कि वह यह आशा भी करता था कि उसके बच्चे भी उसी प्रकार परमेश्वर का भय मानेंगे और परमेश्वर के विरुद्ध पाप नहीं करेंगे। अय्यूब की भौतिक संपदा का उसके हृदय में कोई स्थान नहीं था, न ही उसने परमेश्वर द्वारा ग्रहित स्थान लिया था; चाहे वे स्वयं अपने लिए हों या अपने बच्चों के लिए, अय्यूब के सभी दैनिक कार्यकलाप परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से जुड़े थे। यहोवा परमेश्वर का उसका भय उसके मुँह तक ही नहीं रुका, बल्कि वह कुछ ऐसा था जिसे उसने क्रियान्वित किया था और जो उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक और सभी भागों में प्रतिबिंबित होता था। अय्यूब का यह वास्तविक आचरण हमें दिखाता है कि वह ईमानदार था, और उस सार से युक्त था जो न्याय और उन चीजों से जो सकारात्मक थीं प्रेम करता था। अय्यूब अपने पुत्रों और पुत्रियों को प्रायः भेजता और पवित्र करता था, इसका अर्थ है कि उसने अपने बच्चों के व्यवहार को अपनी स्वीकृति नहीं दी या अनुमोदन नहीं दिया था; इसके बजाय वह दिल से उनके व्यवहार से खिन्न होकर उनकी भर्त्सना करता था। उसने निष्कर्ष निकाला कि उसके पुत्र और पुत्रियों का व्यवहार यहोवा परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला नहीं था, और इसलिए वह प्रायः उनसे यहोवा परमेश्वर के सामने जाने और अपने पाप स्वीकार करने के लिए कहता था। अय्यूब के कार्यकलाप हमें उसकी मानवता का दूसरा पक्ष दिखाते हैं, वह पक्ष जिसमें वह कभी उनके साथ नहीं चलता था जो अक्सर पाप करते थे और परमेश्वर को नाराज करते थे, बल्कि इसके बजाय वह उनसे दूर रहता था और उनसे बचता था। यद्यपि ये लोग उसके पुत्र और पुत्रियाँ थे, फिर भी उसने अपने सिद्धांत इसलिए नहीं छोड़े कि वे उसके अपने सगे-संबंधी थे, न ही वह अपने मनोभावों के कारण उनके पापों में लिप्त हुआ। अपितु, उसने उनसे स्वीकार करने और यहोवा परमेश्वर की क्षमा प्राप्त करने का आग्रह किया, और उसने उन्हें चेताया कि वे अपने लोभी आनंद के वास्ते परमेश्वर को न तजें। दूसरों के साथ अय्यूब के व्यवहार के सिद्धांत उसके परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के सिद्धांतों से अलग नहीं किए जा सकते हैं। वह उससे प्रेम करता था जो परमेश्वर द्वारा स्वीकृत था, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के लिए घृणास्पद थे; और वह उनसे प्रेम करता था जो अपने हृदय में परमेश्वर का भय मानते थे, और उनसे घृणा करता था जो परमेश्वर के विरुद्ध बुराई या पाप करते थे। ऐसा प्रेम और ऐसी घृणा उसके दैनिक जीवन में प्रदर्शित होती थी, और यह अय्यूब का वही खरापन था जिसे परमेश्वर की नजरों से देखा गया था। स्वाभाविक रूप से, यह उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में दूसरों के साथ उसके रिश्तों में अय्यूब की सच्ची मानवता की अभिव्यक्ति और जीवन यापन भी है, जिसके बारे में हमें अवश्य सीखना चाहिए।

अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी मानवता की अभिव्यंजनाएँ (अय्यूब की परीक्षाओं के दौरान उसकी पूर्णता, खरापन, परमेश्वर का भय, और बुराई से दूर रहने को समझना)

हमने ऊपर अय्यूब की मानवता के विभिन्न पहलू बताए हैं जो प्रलोभन के सामने टिके रहने से पहले उसके दैनिक जीवन में दिखलाई दिए थे। बिना किसी संदेह के, ये विभिन्न अभिव्यंजनाएँ अय्यूब के खरेपन, परमेश्वर के भय, और बुराई से दूर रहने का आरंभिक परिचय और समझ प्रदान करती हैं, और स्वाभाविक रूप से आरंभिक अभिपुष्टि प्रदान करती हैं। मैं “आरंभिक” क्यों कहता हूँ इसका कारण यह है कि अधिकांश लोगों को अब भी अय्यूब के व्यक्तित्व की उस स्तर तक सच्ची समझ नहीं है और जिस स्तर तक उसने परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसका भय मानने के मार्ग का अनुसरण किया था। कहने का तात्पर्य यह है कि अय्यूब के बारे में अधिकांश लोगों की समझ उसके संबंध में उस किंचित अनुकूल धारणा से ज़रा भी गहरे नहीं जाती है जो बाइबल में उसके वचनों से युक्त दो अंशों द्वारा प्रदान की गई है, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है” और “क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?” इस प्रकार, हमें यह समझने की अत्यंत आवश्यकता है कि अय्यूब ने परमेश्वर की परीक्षाओं का स्वागत करते समय अपनी मानवता को कैसे जिया; इस तरह, अय्यूब की सच्ची मानवता उसकी संपूर्णता में सभी को दिखाई जाएगी।

जब अय्यूब ने सुना कि उसकी संपत्ति चुरा ली गई है, कि उसके पुत्र और पुत्रियों ने अपने प्राण गँवा दिए हैं, और उसके सेवकों को मार दिया गया है, तब उसने नीचे लिखे अनुसार प्रतिक्रिया की : “तब अय्यूब उठा, और बागा फाड़, सिर मुँड़ाकर भूमि पर गिरा और दण्डवत् करके कहा” (अय्यूब 1:20)। ये वचन हमें एक तथ्य बताते हैं : यह समाचार सुनने के बाद, अय्यूब घबराया नहीं, वह रोया नहीं या उन सेवकों को दोषी नहीं ठहराया जिन्होंने उसे यह समाचार दिया था, और उसने विवरणों की जाँच और सत्यापन करने तथा यह पता लगाने के लिए कि वास्तव में क्या हुआ था अपराध के दृश्य का मुआयना तो और भी नहीं किया। उसने अपनी संपत्तियों के नुक़्सान पर किसी पीड़ा या खेद का प्रदर्शन नहीं किया, न ही वह अपने बच्चों और अपने प्रियजनों को खो बैठने के कारण फूट-फूटकर रोया। इसके विपरीत, उसने अपना बागा फाड़ा, और अपना सिर मुँडाया, और भूमि पर गिर गया, और आराधना की। अय्यूब के कार्यकलाप किसी भी सामान्य मनुष्य के कार्यकलापों से भिन्न हैं। वे बहुत-से लोगों को भ्रमित करते हैं, और वे उन्हें अय्यूब की “नृशंसता” के कारण अपने हृदय में उसे धिक्कारने को विवश करते हैं। अचानक अपनी संपत्तियाँ गँवा बैठने पर, साधारण लोग हृदय विदीर्ण या हताश दिखाई देते हैं—या, कुछ लोग तो गहरे अवसाद में भी जा सकते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि लोगों के हृदय में उनकी संपत्ति जीवन भर के प्रयास की द्योतक होती है—यह वह है जिस पर उनका जीवित रहना निर्भर होता है, यह वह आशा है जो उन्हें जीवित रखती है; अपनी संपत्ति गँवा देने का अर्थ है कि उनके प्रयास व्यर्थ रहे हैं, कि वे आशा रहित है, और यहाँ तक कि उनका कोई भविष्य भी नहीं है। किसी भी सामान्य व्यक्ति की अपनी संपत्ति और उसके साथ उनका जो निकट संबंध होता है उसके प्रति यही प्रवृत्ति होती है, और यही लोगों की नज़रों में संपत्ति का महत्व भी है। ऐसे में, लोगों की बड़ी बहुसंख्या अपनी संपत्ति गँवा बैठने के प्रति उसकी उदासीन प्रवृत्ति से भ्रमित महसूस करती है। आज, हम इन सभी लोगों का भ्रम दूर करने जा रहे हैं, यह बताकर कि अय्यूब के हृदय में क्या चल रहा था।

सामान्य समझ कहती है कि परमेश्वर द्वारा इतनी प्रचुर संपत्ति दिए जाने के बाद, अय्यूब को परमेश्वर के सामने शर्मिंदा महसूस करना चाहिए, क्योंकि उसने ये संपत्तियाँ गँवा दी थीं, क्योंकि उसने उनकी देखरेख नहीं की थी या उनका ख्याल नहीं रखा था; उसने परमेश्वर द्वारा उसे दी गई संपत्तियाँ सँभालकर नहीं रखी थीं। इस प्रकार, जब उसने सुना कि उसकी संपत्ति चुरा ली गई है, तब उसकी पहली प्रतिक्रिया यह होनी चाहिए थी कि वह अपराध के दृश्य पर जाता और जो गँवा बैठा था उन सब सामानों की सूची बनाता, और फिर परमेश्वर के सामने जाकर स्वीकार करता ताकि वह एक बार फिर परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सके। परंतु अय्यूब ने ऐसा नहीं किया, और उसके पास स्वाभाविक ही ऐसा न करने के अपने कारण थे। अपने हृदय में, अय्यूब गहराई से मानता था कि उसके पास जो कुछ भी था वह सब परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया था, और उसके अपने श्रम की उपज नहीं था। इस प्रकार, वह इन आशीषों को कोई ऐसी चीज़ के रूप में नहीं देखता था जिसका लाभ उठाया जाए, बल्कि इसके बजाय उसने अपने जीवित रहने के सिद्धांतों का सहारा लेकर उस मार्ग को अपनी पूरी शक्ति से थामे रखा जो उसे थामना ही चाहिए था। उसने परमेश्वर की आशीषों को सँजोकर रखा और उनके लिए धन्यवाद दिया, किंतु वह आशीषों से आसक्त नहीं था, न ही उसने और अधिक आशीषों की खोज की। ऐसी थी उसकी प्रवृत्ति संपत्ति के प्रति। उसने आशीष प्राप्त करने की ख़ातिर न तो कभी कुछ किया था, न ही वह परमेश्वर के आशीषों के अभाव या हानि से चिंतित या व्यथित था; वह परमेश्वर के आशीषों के कारण न तो ख़ुशी से पागल या उन्मत्त हुआ था, न ही उसने बारंबार आनंद लिए गए इन आशीषों के कारण परमेश्वर के मार्ग की उपेक्षा की या परमेश्वर का अनुग्रह विस्मृत किया था। अपनी संपत्ति के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति लोगों के समक्ष उसकी सच्ची मानवता को प्रकट करती है : सबसे पहले, अय्यूब लोभी मनुष्य नहीं था, और अपने भौतिक जीवन में संकोची था। दूसरे, अय्यूब को कभी यह चिंता या डर नहीं था कि परमेश्वर उसका सब कुछ ले लेगा, यह उसके हृदय में परमेश्वर के प्रति समर्पण भाव था; अर्थात, उसकी कोई माँगें या शिकायतें नहीं थीं कि परमेश्वर उससे कब ले अथवा ले या नहीं, और उसने कारण नहीं पूछा कि क्यों ले, बल्कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने भर की चेष्टा की। तीसरे, उसने कभी यह नहीं माना कि उसकी संपत्तियाँ उसकी अपनी मेहनत से आई थीं, बल्कि यह कि वे परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई थीं। यह परमेश्वर में अय्यूब की आस्था थी, और उसके दृढ़विश्वास का संकेत है। क्या अय्यूब की मानवता और उसका प्रतिदिन सच्चा अनुसरण उसके बारे में इस तीन-सूत्रीय सारांश में स्पष्ट कर दिया गया है? अय्यूब की मानवता और अनुसरण अपनी संपत्ति गँवा बैठने का सामना करते समय उसके शांत आचरण का अभिन्न भाग थे। यह निश्चित रूप से उसके प्रतिदिन के अनुसरण के कारण ही था कि परमेश्वर की परीक्षाओं के दौरान अय्यूब में यह कहने की कद-काठी और दृढ़विश्वास था, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।” ये वचन रातों-रात प्राप्त नहीं किए गए थे, न ही वे बस यूँ ही अय्यूब के दिमाग़ में प्रकट हुए थे। ये वे थे जो उसने कई साल जीवन का अनुभव करने के दौरान देखे और अर्जित किए थे। उन सब लोगों की तुलना में जो परमेश्वर के आशीषों की तलाश भर करते हैं, और जो डरते हैं कि परमेश्वर उनसे ले लेगा, और जो इससे नफ़रत करते और इसकी शिकायत करते हैं, क्या अय्यूब का समर्पण एकदम वास्तविक नहीं था? उन सब लोगों की तुलना में जो मानते हैं कि परमेश्वर है, किंतु जिन्होंने कभी नहीं माना कि परमेश्वर सभी चीज़ों के ऊपर शासन करता है, क्या अय्यूब अत्यधिक ईमानदारी और खरेपन से युक्त नहीं है?

अय्यूब की तर्कशक्ति

अय्यूब के वास्तविक अनुभवों और उसकी खरी और सच्ची मानवता का अर्थ था कि उसने अपनी संपत्तियाँ और अपने बच्चे गँवा बैठने पर सर्वाधिक तर्कसंगत निर्णय और चुनाव किए थे। ऐसे तर्कसंगत चुनाव उसके दैनिक अनुसरणों और परमेश्वर के कर्मों से अवियोज्य थे जिन्हें वह अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन के दौरान जानने लगा था। अय्यूब की ईमानदारी ने उसे यह विश्वास कर पाने में समर्थ बनाया कि यहोवा का हाथ सभी चीज़ों पर शासन करता है; उसके विश्वास ने उसे सभी चीज़ों के ऊपर यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य को जानने दिया; उसके ज्ञान ने उसे यहोवा परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने का इच्छुक और समर्थ बनाया; उसके समर्पण ने उसे यहोवा परमेश्वर के प्रति अपने भय में अधिकाधिक सच्चा होने में समर्थ बनाया; उसके भय ने उसे बुराई से दूर रहने में अधिकाधिक वास्तविक बनाया; अंततः, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के कारण अय्यूब पूर्ण बन गया; उसकी पूर्णता ने उसे बुद्धिमान बनाया, और उसे उच्चतम तर्कशक्ति प्रदान की।

हमें इस “तर्कशक्ति” शब्द को कैसे समझना चाहिए? एक शाब्दिक व्याख्या यह है कि इसका अर्थ है अच्छी समझ का होना, अपनी सोच में तार्किक और समझदार होना, अच्छी वाणी, चाल-चलन, और परख का होना, और अच्छे तथा नियमित नैतिक मानदण्ड धारण करना। फिर भी अय्यूब की तर्कशीलता समझा पाना इतना आसान नहीं है। यहाँ जब कहा जाता है कि अय्यूब उच्चतम तर्कशक्ति से युक्त था, तो यह उसकी मानवता और परमेश्वर के समक्ष उसके आचरण के संबंध में कहा जाता है। चूँकि अय्यूब ईमानदार था, इसलिए वह परमेश्वर की संप्रभुता में विश्वास और समर्पण कर पाता था, जिसने उसे ऐसा ज्ञान दिया जो दूसरों द्वारा अप्राप्य था, और इस ज्ञान ने उसे उस सबको जो उसके ऊपर बीता था अधिक सटीकता से पहचनाने, परखने, और परिभाषित करने में समर्थ बनाया, जिसने उसे अधिक सटीकता और चतुराई से यह चुनने में समर्थ बनाया कि उसे क्या करना है और किसे दृढ़ता से थामे रहना है। कहने का तात्पर्य यह है कि उसके वचन, व्यवहार, उसके कार्यकलापों के पीछे के सिद्धांत, और वह संहिता जिसके अनुसार उसने कार्य किया, सब नियमित, सुस्पष्ट और विनिर्दिष्ट थे, और अंधाधुँध, आवेगपूर्ण या भावनात्मक नहीं थे। वह जानता था कि उस पर जो भी बीते उससे कैसे पेश आना है, वह जानता था कि जटिल घटनाओं के बीच संबंधों को कैसे संतुलित करना और सँभालना है, वह जानता था कि जिस मार्ग को दृढ़ता से थामे रखना चाहिए उसे कैसे थामे रखना है, और, इतना ही नहीं, वह जानता था कि यहोवा परमेश्वर के देने और ले लेने के साथ कैसे पेश आना है। यही अय्यूब की तर्कशक्ति थी। जब वह अपनी संपत्तियों और पुत्रों और पुत्रियों से हाथ धो बैठा, उस समय ठीक इसीलिए कि अय्यूब ऐसी तर्कशक्ति से सुसज्जित था उसने कहा, “यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है।”

जब अय्यूब ने शरीर की अत्यधिक पीड़ा का, और अपने कुटुंबियों और मित्रों के उलाहनों का सामना किया, और जब उसने मृत्यु का सामना किया, तो उसके वास्तविक आचरण ने एक बार फिर लोगों को उसका सच्चा चेहरा दिखाया।

अय्यूब का वास्तविक चेहरा : सच्चा, शुद्ध, और असत्यता से रहित

आओ हम अय्यूब 2:7-8 पढ़ें : “तब शैतान यहोवा के सामने से निकला, और अय्यूब को पाँव के तलवे से ले सिर की चोटी तक बड़े बड़े फोड़ों से पीड़ित किया। तब अय्यूब खुजलाने के लिये एक ठीकरा लेकर राख पर बैठ गया।” यह अय्यूब के उस समय के आचरण का वर्णन है जब उसके शरीर पर दर्दनाक़ फोड़े निकल आए थे। इस समय, अय्यूब राख पर बैठ गया और पीड़ा सहता रहा। किसी ने उसका उपचार नहीं किया, और उसके शरीर का दर्द कम करने में किसी ने उसकी सहायता नहीं की; इसके बजाय, उसने पीड़ादायक फोड़ों के ऊपरी भाग को खुजाने के लिए एक ठीकरे का उपयोग किया। सतही तौर पर, यह अय्यूब की यंत्रणा का एक चरण मात्र था, और इसका उसकी मानवता और परमेश्वर के भय से कोई नाता नहीं है, क्योंकि इस समय अय्यूब ने अपनी मनोदशा और विचार व्यक्त करने के लिए कोई वचन नहीं बोले थे। फिर भी, अय्यूब के कार्यकलाप और उसका आचरण अब भी उसकी मानवता की सच्ची अभिव्यक्ति है। पिछले अध्याय के अभिलेख में हमने पढ़ा था कि अय्यूब पूर्वी देशों के सभी मनुष्यों में सबसे बड़ा था। इस बीच, दूसरे अध्याय का यह अंश हमें दिखाता है कि पूर्व के इस महान मनुष्य ने वास्तव में राख में बैठकर अपने आपको खुजाने के लिए एक ठीकरा लिया। क्या इन दोनों वर्णनों के बीच स्पष्ट अंतर्विरोध नहीं है? यह ऐसा अंतर्विरोध है जो हमें अय्यूब के सच्चे आत्म का दर्शन कराता है : अपनी प्रतिष्ठापूर्ण हैसियत और रुतबे के बावज़ूद, उसने इन चीज़ों से न कभी प्रेम किया था और न ही कभी उन पर ध्यान दिया था; उसने परवाह नहीं की कि दूसरे उसकी प्रतिष्ठा को कैसे देखते हैं, न ही वह अपने कार्यकलापों और आचरण का अपनी प्रतिष्ठा पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ने या न पड़ने के विषय में चिंतित था; वह प्रतिष्ठा के लाभों में लिप्त नहीं हुआ, न ही उसने हैसियत और प्रतिष्ठा के साथ आने वाली महिमा का आनंद उठाया। उसने केवल यहोवा परमेश्वर की नज़रों में अपने मूल्य और अपने जीवन जीने के महत्व की परवाह की। अय्यूब का सच्चा आत्म ही उसका सार था : वह प्रसिद्धि और सौभाग्य से प्रेम नहीं करता था, और वह प्रसिद्धि और सौभाग्य के लिए नहीं जीता था; वह सच्चा, और शुद्ध और असत्यता से रहित था।

अय्यूब द्वारा प्रेम और घृणा का विभाजन

अय्यूब की मानवता का एक और पहलू उसके और उसकी पत्नी के बीच इस संवाद में प्रदर्शित होता है : “तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, ‘क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।’ उसने उससे कहा, ‘तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?’” (अय्यूब 2:9-10)। वह जो यंत्रणा भुगत रहा था उसे देखकर, अय्यूब की पत्नी ने उसे इस यंत्रणा से बच निकलने में सहायता करने के लिए सलाह देने की कोशिश की, तो भी उसके “भले इरादों” को अय्यूब की स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई; इसके बजाय, उन्होंने उसका क्रोध भड़का दिया, क्योंकि उसने यहोवा परमेश्वर में उसके विश्वास और उसके प्रति उसके समर्पण को नकारा था, और यहोवा परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकारा था। यह अय्यूब के लिए असहनीय था, क्योंकि उसने, दूसरों की तो बात ही छोड़ दें, स्वयं अपने को भी कभी ऐसा कुछ नहीं करने दिया था जो परमेश्वर का विरोध करता हो या उसे ठेस पहुँचाता हो। उस समय वह कैसे चुपचाप रह सकता था जब उसने दूसरों को ऐसे वचन बोलते देखा जो परमेश्वर की निंदा और उसका अपमान करते थे? इस प्रकार उसने अपनी पत्नी को “मूढ़ स्त्री” कहा। अपनी पत्नी के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्रोध और घृणा, और साथ ही भर्त्सना और फटकार की थी। यह अय्यूब की मानवता की—प्रेम और घृणा के बीच अंतर करने की—स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, और उसकी खरी मानवता का सच्चा निरूपण था। अय्यूब में न्याय की एक समझ थी—ऐसी समझ जिसकी बदौलत वह बुराई की प्रवृत्तियों और ज्वार से नफ़रत करता था, और अनर्गल मतांतरों, बेतुके तर्कों और हास्यास्पद दावों से घृणा, उनकी भर्त्सना और उन्हें अस्वीकार करता था, और वह स्वयं अपने, सही सिद्धांतों और रवैये को उस समय सच्चाई से थामे रह सका जब उसे भीड़ के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था और उन लोगों द्वारा छोड़ दिया गया था जो उसके क़रीबी थे।

अय्यूब की उदार हृदयता और शुद्ध हृदयता

चूँकि, अय्यूब के आचरण से, हम उसकी मानवता के विभिन्न पहलुओं को व्यक्त होते देख पाते हैं, तो जब उसने अपने जन्म के दिन को कोसने के लिए अपना मुँह खोला तब हम अय्यूब की मानवता का कौन-सा पहलू देखते हैं? यही वह विषय है जिसे हम नीचे साझा करेंगे।

ऊपर, मैंने अय्यूब द्वारा अपने जन्म के दिन को कोसने की उत्पत्तियों के बारे में बात की है। तुम लोग इसमें क्या देखते हो? यदि अय्यूब कठोर हृदय और प्रेम से रहित होता, यदि वह उत्साहहीन और भावनाहीन होता और मानवता से वंचित होता तो क्या वह परमेश्वर के इरादों के प्रति चिंता प्रकट कर सकता था? चूँकि वह परमेश्वर के हृदय की परवाह करता था, क्या इसलिए स्वयं अपने जन्म के दिन का तिरस्कार कर सकता था? दूसरे शब्दों में, यदि अय्यूब कठोर हृदय और मानवता से पूर्णतया रहित होता, तो क्या वह परमेश्वर की पीड़ा से संतप्त हुआ हो सकता था? क्या वह अपने जन्म के दिन को इसलिए कोस सकता था क्योंकि परमेश्वर उसके द्वारा व्यथित हुआ था? उत्तर है, बिल्कुल नहीं! क्योंकि वह दयालु हृदय था, इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर के हृदय की परवाह की थी; क्योंकि उसने परमेश्वर के हृदय की परवाह की थी, इसलिए अय्यूब ने परमेश्वर की पीड़ा समझ ली थी; क्योंकि वह दयालु हृदय था, इसलिए उसने परमेश्वर की पीड़ा को समझ लेने के परिणामस्वरूप और अधिक यंत्रणा भुगती; क्योंकि उसने परमेश्वर की पीड़ा समझ ली थी, इसलिए वह अपने जन्म के दिन से घृणा करने लगा, और इसलिए उसने अपने जन्म के दिन को कोसा। बाहरी लोगों के लिए, अय्यूब की परीक्षा के दौरान उसका समूचा आचरण अनुकरणीय है। उसका केवल अपने जन्म के दिन को कोसना ही उसकी पूर्णता और खरेपन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है, या एक भिन्न आँकलन प्रस्तुत करता है। वास्तव में, यह अय्यूब के मानवता सार की सबसे सच्ची अभिव्यक्ति थी। उसका मानवता सार छिपा या बंद नहीं था, या किसी अन्य के द्वारा संशोधित नहीं था। जब उसने अपने जन्म के दिन को कोसा, तो उसने अपने हृदय की गहराई में उदार हृदयता और शुद्ध हृदयता का प्रदर्शन किया; वह उस जलसोत के समान था जिसका पानी इतना साफ और पारदर्शी था कि उसका तल दिखाई देता था।

अय्यूब के बारे में यह सब जानने के बाद, निस्संदेह अधिकांश लोगों के पास अय्यूब के मानवता सार का समुचित रूप से सटीक और वस्तुनिष्ठ आंकलन होगा। उनके पास अय्यूब की उस पूर्णता और खरेपन की गहरी, व्यावहारिक, और अधिक उन्नत समझ और सराहना भी होनी चाहिए जिसके बारे में परमेश्वर द्वारा कहा गया था। आशा करनी चाहिए कि यह समझ और सराहना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने में लोगों की सहायता करेगी।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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