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मेन्‍यू

परमेश्वर को सदोम का विनाश करना ही होगा

उत्पत्ति 18:26 यहोवा ने कहा, “यदि मुझे सदोम में पचास धर्मी मिलें, तो उनके कारण उस सारे स्थान को छोड़ूँगा।”

उत्पत्ति 18:29 फिर उसने उससे यह भी कहा, “कदाचित् वहाँ चालीस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं ऐसा न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:30 फिर उसने कहा, “कदाचित् वहाँ तीस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं ऐसा न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:31 फिर उसने कहा, “कदाचित् उसमें बीस मिलें।” उसने कहा, “मैं उसका नाश न करूँगा।”

उत्पत्ति 18:32 फिर उसने कहा, “कदाचित् उसमें दस मिलें।” उसने कहा, “तो भी मैं उसका नाश न करूँगा।”

ये कुछ उद्धरण हैं जो मैंने बाइबल से चुने हैं। वे पूर्ण, मूल संस्करण नहीं हैं। यदि तुम लोग उन्हें देखना चाहो, तो तुम लोग स्वयं उन्हें बाइबल में देख सकते हो; समय बचाने के लिए, मैंने मूल विषय-वस्तु का हिस्सा हटा दिया है। यहाँ मैंने कई मुख्य अंश और वाक्य भर चुने हैं, ऐसे कई वाक्य छोड़ दिए हैं जिनका हमारी आज की संगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। हम जिन अंशों और विषय-वस्तु के बारे में संगति करते हैं, उन सभी में हम कहानियों और कहानियों में मनुष्य के आचरण के विवरण अपने ध्यान से हटा देते हैं; इसके बजाए, उस समय परमेश्वर के जो विचार और मत थे, हम केवल उनके बारे में बात करते हैं। परमेश्वर के विचारों और मतों में, हम परमेश्वर का स्वभाव देखेंगे, और परमेश्वर जो करता था उस सबसे, हम सच्चे स्वयं परमेश्वर को देखेंगे—इसमें हम अपना उद्देश्य प्राप्त करेंगे।

परमेश्वर केवल उनकी परवाह करता है जो उसके वचनों का पालन और उसकी आज्ञाओं का अनुसरण कर पाते हैं

ऊपर दिए गए अंशों में अनेक मुख्य शब्द समाविष्ट हैं : संख्याएँ। पहला, यहोवा ने कहा कि यदि उसे नगर के भीतर पचास धार्मिक मिल गए, तो वह उस समस्त स्थान को छोड़ देगा, अर्थात्, वह नगर को नष्ट नहीं करेगा। तो क्या वहाँ, सदोम के भीतर, वास्तव में पचास धार्मिक थे? नहीं थे। इसके तुरंत बाद, अब्राहम ने परमेश्वर से क्या कहा? उसने कहा, कदाचित वहाँ चालीस मिले तो? और परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। इसके बाद, अब्राहम ने कहा, कदाचित वहाँ तीस मिले तो? परमेश्वर ने कहा, मैं नष्ट नहीं करूँगा। यदि वहाँ बीस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। दस मिले तो? मैं नष्ट नहीं करूँगा। क्या वहाँ नगर के भीतर, वास्तव में, दस धार्मिक थे? वहाँ दस भी नहीं थे—बल्कि एक ही था। और यह एक कौन था? यह लूत था। उस समय, सदोम में मात्र एक ही धार्मिक व्यक्ति था, परंतु जब बात इस संख्या की आई तो क्या परमेश्वर बहुत कठोर था या बलपूर्वक ठीक इतने की ही माँग कर रहा था? नहीं, वह नहीं था। और इसलिए, जब मनुष्य पूछता रहा, “चालीस हों तो क्या?” “तीस हों तो क्या?” जब तक वह “दस हों तो क्या?” पर नहीं पहुँच गया, तब परमेश्वर ने कहा, “यदि वहाँ मात्र दस भी हुए तो मैं नगर को नष्ट नहीं करूँगा; मैं उसे छोड़ दूँगा, और इन दस के अलावा अन्य लोगों को भी माफ कर दूँगा”। यदि मात्र दस भी होते, तो यह भी काफी दयनीय रहा होता, परंतु पता यह चला कि, सदोम में, वास्तव में, उतनी संख्या में भी धार्मिक लोग नहीं थे। तो, तुम देखो, कि परमेश्वर की नजरों में, नगर के लोगों का पाप और दुष्टता ऐसी थी कि परमेश्वर के पास उन्हें नष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। परमेश्वर ने जब कहा कि यदि पचास धार्मिक हुए तो वह नगर को नष्ट नहीं करेगा तब उसका क्या अभिप्राय था? परमेश्वर के लिए ये संख्याएँ महत्वपूर्ण नहीं थीं। महत्वपूर्ण यह था कि नगर में ऐसे धार्मिक थे या नहीं जैसे वह चाहता था। यदि नगर में मात्र एक धार्मिक व्यक्ति होता, तो परमेश्वर नगर के अपने विनाश के कारण उन्हें हानि नहीं पहुँचने देता। इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर चाहे उस नगर को नष्ट करने जा रहा था या नहीं, और उसके भीतर चाहे जितने धार्मिक थे, परमेश्वर के लिए यह पापी नगर श्रापित और घृणित था, और इसे नष्ट कर दिया जाना चाहिए था, इसे परमेश्वर की आँखों से ओझल हो जाना चाहिए था, जबकि धार्मिकों को बने रहना चाहिए था। युग चाहे जो भी हो, मनुष्यजाति के विकास की अवस्था चाहे जो हो, परमेश्वर की प्रवृत्ति नहीं बदलती है : वह बुराई से घृणा करता है, और उसकी नजरों में जो धार्मिक हैं उनकी परवाह करता है। परमेश्वर की यह सुस्पष्ट प्रवृत्ति परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन भी है। चूँकि नगर के भीतर मात्र एक धार्मिक व्यक्ति था, इसलिए परमेश्वर अब और नहीं हिचकिचाया। अंतिम परिणाम यह था कि सदोम को अनिवार्यतः नष्ट कर दिया जाता। तुम लोग इसमें क्या देखते हो? उस युग में, यदि एक नगर में पचास धार्मिक होते तो परमेश्वर उसे नष्ट नहीं करता, यदि दस होते तब भी नहीं करता, जिसका अर्थ है कि कुछेक लोगों के कारण जो उसका भय मानते और उसकी आराधना कर पाते हैं, परमेश्वर मनुष्यजाति को क्षमा करने और उसके प्रति सहिष्णु होने का निर्णय लेता था या मार्गदर्शन का कार्य करता था। परमेश्वर मनुष्य के धार्मिक कर्मों में बड़ा विश्वास करता है, वह उन लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसकी आराधना कर पाते हैं, और वह उन लोगों में बड़ा विश्वास करता है जो उसके समक्ष अच्छे कर्म कर पाते हैं।

प्राचीनतम काल से लेकर आज तक, क्या तुम लोगों ने बाइबल में कभी भी किसी भी व्यक्ति से सत्य का संवाद करते, या परमेश्वर के मार्ग के बारे में बात करते परमेश्वर के बारे में पढ़ा है? नहीं, कभी नहीं। मनुष्य के लिए परमेश्वर के जिन वचनों के बारे में हम पढ़ते हैं, उन्होंने लोगों को केवल यह बताया कि क्या करना है। कुछ लोगों ने उसे किया, कुछ ने नहीं किया; कुछ ने विश्वास किया, और कुछ ने नहीं किया। बस कुल इतना ही था। इस प्रकार, उस युग के धार्मिक लोग—वे जो परमेश्वर की नज़रों में धार्मिक थे—मात्र वे लोग थे जो परमेश्वर के वचन सुन सकते थे और परमेश्वर की आज्ञाओं का अनुसरण कर सकते थे। वे सेवक थे जिन्होंने मनुष्यों के बीच परमेश्वर के वचन को कार्यान्वित किया था। क्या ऐसे लोगों को परमेश्वर को जानने वाला कहा जा सकता था? क्या उन्हें ऐसे लोग कहा जा सकता था जिन्हें परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किया गया था? नहीं, उन्हें नहीं कहा जा सकता था। इसलिए, उनकी संख्या चाहे जितनी हो, परमेश्वर की नज़रों में ये धार्मिक लोग क्या परमेश्वर के विश्वासपात्र कहलाने योग्य थे? क्या उन्हें परमेश्वर के गवाह कहा जा सकता था? निश्चित रूप से नहीं! वे परमेश्वर के विश्वासपात्र और गवाह कहलाने के योग्य निश्चित रूप से नहीं थे। तो परमेश्वर ने ऐसे लोगों को क्या कहकर पुकारा? बाइबल के पुराने नियम में परमेश्वर द्वारा उन्हें “मेरा सेवक” कहकर पुकारने के कई दृष्टांत हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय, परमेश्वर की नज़रों में ये धार्मिक लोग परमेश्वर के सेवक थे, ये वे लोग थे जो पृथ्वी पर उसकी सेवा करते थे। और परमेश्वर ने इस विशिष्ट पदवी के बारे में कैसे सोचा? उसने उन्हें ऐसे क्यों पुकारा? परमेश्वर लोगों को जिन विशिष्ट पदवियों से पुकारता है, उनके लिए क्या उसके पास अपने हृदय में कोई मानक हैं? उसके पास निश्चित रूप से हैं। वह लोगों को चाहे धार्मिक, पूर्ण, सच्चा, या सेवक कहे, परमेश्वर के पास मानक हैं। जब वह किसी को अपना सेवक कहकर पुकारता है, तब उसे दृढ़ विश्वास होता है कि यह व्यक्ति उसके संदेशवाहकों की अगवानी करने में समर्थ है, उसके आदेशों का पालन करने में समर्थ है, और उसे कार्यान्वित करने में समर्थ है जिसका आदेश संदेशवाहकों द्वारा दिया जाता है। यह व्यक्ति क्या कार्यान्वित करता है? वे वह कार्यान्वित करते हैं जो परमेश्वर पृथ्वी पर मनुष्य को करने और कार्यान्वित करने का आदेश देता है। उस समय, परमेश्वर ने मनुष्य को पृथ्वी पर जो करने और कार्यान्वित करने के लिए कहा, क्या उसे परमेश्वर का मार्ग कहा जा सकता था? नहीं, इसे नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि उस समय, परमेश्वर ने उस मनुष्य से केवल कुछ सीधी-सरल चीज़ें करने के लिए कहा; उसने मनुष्य को यह या वह करने के लिए कहते हुए, कुछेक सीधे-सरल आदेश बोले, और इससे ज़्यादा कुछ नहीं। परमेश्वर अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा था। चूँकि उस समय, बहुत-सी परिस्थितियाँ अभी विद्यमान नहीं थीं, समय अभी परिपक्व नहीं था, और मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर के मार्ग को धारण कर पाना कठिन था, इसलिए परमेश्वर के मार्ग को परमेश्वर के हृदय से बाहर निकलना अभी आरंभ करना था। परमेश्वर ने उन धार्मिक लोगों को देखा जिनके बारे में उसने बात की थी, जिन्हें हम यहाँ—चाहे तीस हों या बीस—उसके सेवकों के रूप में देखते हैं। जब परमेश्वर के संदेशवाहक इन सेवकों को अचानक मिल गए, तब वे उनकी अगवानी कर पाए, और उनके आदेशों का पालन कर पाए, और उनके वचनों के अनुसार कार्य कर पाए। यह ठीक वही था जिसे उनके द्वारा जो परमेश्वर की नज़रों में सेवक थे किया और प्राप्त किया जाना चाहिए था। लोगों को अपनी पदवियाँ देने में परमेश्वर न्यायसंगत है। उसने उन्हें अपना सेवक कहकर पुकारा तो इसलिए नहीं क्योंकि वे वैसे थे जैसे अब तुम लोग हो—क्योंकि उन्होंने काफी उपदेश सुने थे, जानते थे कि परमेश्वर को क्या करना था, परमेश्वर की बहुत-कुछ इच्छा समझते थे, और उसकी प्रबंधन योजना को बूझते थे—बल्कि इसलिए कि वे अपनी मानवता में ईमानदार थे और वे परमेश्वर के वचनों का अनुपालन करने में समर्थ थे; जब परमेश्वर ने उन्हें आदेश दिया, तब वे जो कर रहे थे उसे एक तरफ़ रखने और परमेश्वर ने जो आदेश दिया था उसे कार्यान्वित करने में समर्थ थे। तो, परमेश्वर के लिए, सेवक की उपाधि में अर्थ की दूसरी परत यह है कि उन्होंने पृथ्वी पर उसके कार्य के साथ सहयोग किया, और यद्यपि वे परमेश्वर के संदेशवाहक नहीं थे, फिर भी वे पृथ्वी पर परमेश्वर के वचनों के निर्वाहक और क्रियान्वयक थे। तो, तुम देखो कि ये सेवक या धार्मिक लोग परमेश्वर के हृदय में बहुत महत्व रखते थे। परमेश्वर को पृथ्वी पर जिस कार्य की शुरुआत करनी थी, वह उसके साथ लोगों के सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता था, और परमेश्वर के सेवकों ने जो भूमिका अपने ऊपर ली थी, उसमें उनका स्थान परमेश्वर के संदेशवाहकों द्वारा ले पाना असंभव था। प्रत्येक कार्य जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने इन सेवकों को दी थी उसके लिए अत्यधिक महत्व का था, और इसलिए वह उन्हें गँवा नहीं सकता था। परमेश्वर के साथ इन सेवकों के सहयोग के बिना, मनुष्यजाति के बीच उसका कार्य ठप पड़ गया होता, जिसके परिणामस्वरूप परमेश्वर की प्रबंधन योजना और परमेश्वर की आशाएँ चूर-चूर हो गई होतीं।

परमेश्वर जिनकी परवाह करता है उनके प्रति अत्यधिक दयावान और जिनसे तिरस्कार करता है उनके प्रति प्रचंड कोपपूर्ण होता है

बाइबल के वर्णनों में, क्या सदोम में परमेश्वर के दस सेवक थे? नहीं, नहीं थे! क्या वह नगर परमेश्वर के द्वारा छोड़ दिए जाने योग्य था? नगर में केवल एक व्यक्ति—लूत—ने परमेश्वर के संदेशवाहकों की अगवानी की थी। इसका निहितार्थ यह है कि उस नगर में परमेश्वर का केवल एक ही सेवक था, और इसलिए परमेश्वर के पास लूत को बचाने और सदोम नगर को नष्ट करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अब्राहम और परमेश्वर के बीच ऊपर उद्धृत संवाद सीधे-सादे लग सकते हैं, किंतु वे कुछ बहुत गहरी बात का चित्रण करते हैं : परमेश्वर के कार्यकलापों के अपने सिद्धांत हैं, और निर्णय लेने से पहले वह अवलोकन और सोच-विचार करते हुए लंबा समय बिताएगा; वह निश्चित रूप से सही समय आने से पहले कोई निर्णय नहीं लेगा या हड़बड़ी में किन्हीं निष्कर्षों पर नहीं पहुँचेगा। अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवाद हमें दिखाते हैं कि सदोम को नष्ट करने का परमेश्वर का निर्णय रत्ती भर भी ग़लत नहीं था, क्योंकि परमेश्वर पहले से जानता था कि उस नगर में चालीस धार्मिक नहीं थे, न तीस धार्मिक थे, न ही बीस थे। दस भी नहीं थे। उस नगर में एकमात्र धार्मिक व्यक्ति लूत था। परमेश्वर ने सदोम में जो हुआ उस सबका और उसकी परिस्थितियों का अवलोकन किया था, और वे परमेश्वर की उतनी ही जानी-पहचानी थीं जितनी उसके अपने हाथ की हथेली जानी-पहचानी थी। इस प्रकार, उसका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता था। इसके विपरीत, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की तुलना में, मनुष्य इतना अधिक संवेदनशून्य, इतना अधिक नासमझ और अज्ञानी, और इतना अधिक अदूरदर्शी है। यह वही बात है जो हम अब्राहम और परमेश्वर के बीच के संवादों में देखते हैं। परमेश्वर आरंभ से लेकर आज तक अपना स्वभाव प्रकट करता रहा है। उसी प्रकार, यहाँ भी परमेश्वर का स्वभाव है जिसे हमें देखना चाहिए। संख्याएँ तो सीधी-सरल होती हैं—वे कुछ प्रदर्शित नहीं करतीं—किंतु यहाँ परमेश्वर के स्वभाव की एक अत्यंत महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। परमेश्वर पचास धार्मिकों की वजह से नगर को नष्ट नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की अनुकंपा के कारण है? क्या यह उसके प्रेम और सहिष्णुता के कारण है? क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के स्वभाव का यह पहलू देखा है? यदि वहाँ मात्र दस धार्मिक भी होते, इन दस धार्मिक लोगों के कारण, परमेश्वर ने नगर को नष्ट नहीं किया होता। यह परमेश्वर की सहिष्णुता और प्रेम है या नहीं है? उन धार्मिक लोगों के प्रति परमेश्वर की अनुकंपा, सहिष्णुता और सरोकार के कारण, उसने वह नगर नष्ट नहीं किया होता। यही परमेश्वर की सहिष्णुता है। और अंत में, क्या परिणाम हम देखते हैं? जब अब्राहम ने कहा, “कदाचित् उसमें दस मिलें,” तब परमेश्वर ने कहा, “मैं उसका नाश न करूँगा।” उसके बाद, अब्राहम ने और कुछ नहीं कहा—क्योंकि सदोम के भीतर ऐसे दस धार्मिक नहीं थे जिनका उसने उल्लेख किया था, और उसके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, और उस समय उसने समझा कि परमेश्वर ने सदोम को नष्ट करने का संकल्प क्यों किया था। इसमें, तुम लोग परमेश्वर का क्या स्वभाव देखते हो? परमेश्वर ने किस प्रकार का संकल्प किया था? परमेश्वर ने संकल्प किया था कि यदि इस नगर में दस धार्मिक नहीं हुए, तो वह इसके अस्तित्व की अनुमति नहीं देगा, और अनिवार्यतः उसे नष्ट कर देगा। क्या यह परमेश्वर का कोप नहीं है? क्या यह कोप परमेश्वर का स्वभाव निरूपित करता है? क्या यह स्वभाव परमेश्वर के पवित्र सार का प्रकाशन है? क्या यह परमेश्वर के धार्मिक सार का प्रकाशन है, जिसका मनुष्य को उल्लंघन नहीं ही करना चाहिए? पुष्टि हो जाने के बाद कि सदोम में दस धार्मिक नहीं थे, यह निश्चित था कि परमेश्वर नगर को नष्ट करेगा, और उस नगर के भीतर रह रहे लोगों को कठोरता से दण्ड देगा, क्योंकि वे परमेश्वर का विरोध करते थे, और क्योंकि वे बहुत ही गंदे और भ्रष्ट थे।

हमने इन अंशों का इस तरह विश्लेषण क्यों किया है? इसलिए कि ये कुछ सीधे-सादे वाक्य परमेश्वर के अतिशय दयावान और प्रचंड कोपपूर्ण स्वभाव को पूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं। धार्मिकों को सँजोने, और उन पर अनुकंपा करने, उन्हें सहने, और उनकी देखभाल करने के साथ ही साथ, परमेश्वर के हृदय में सदोम के उन सभी लोगों के लिए प्रगाढ़ घृणा थी जो भ्रष्ट कर दिए गए थे। यह अतिशय दया और गहरा कोप था, या नहीं था? परमेश्वर ने किन साधनों से नगर को नष्ट किया? आग से। और उसने आग से उसे नष्ट क्यों किया? जब तुम किसी चीज़ को आग से जलाए जाते देखते हो, या जब तुम किसी चीज़ को बस जलाने ही वाले होते हो, तब उसके प्रति तुम्हारी भावनाएँ क्या होती हैं? तुम इसे क्यों जलाना चाहते हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसकी अब और आवश्यकता नहीं रही, कि तुम इसे अब और देखना नहीं चाहते हो? क्या तुम इसे तज देना चाहते हो? परमेश्वर के द्वारा आग के उपयोग का अर्थ है तज देना, और घृणा, और यह कि वह सदोम को अब और देखना नहीं चाहता था। यही वह भावना थी जिसने परमेश्वर से आग का उपयोग करके सदोम को मटियामेट करवाया। आग का उपयोग दर्शाता है कि परमेश्वर कितना अधिक क्रोधित था। परमेश्वर की अनुकंपा और सहिष्णुता तो सचमुच हैं ही, किंतु जब वह अपने कोप का बाँध खोलता है तब परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता मनुष्य को परमेश्वर का वह पहलू भी दिखाती है जो अपमान सहन नहीं करता। जब मनुष्य परमेश्वर के आदेशों का पालन करने में पूर्णतः सक्षम होता है, और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करता है, तब मनुष्य के प्रति परमेश्वर अपनी अनुकंपा से भरपूर होता है; जब मनुष्य भ्रष्टता, उसके प्रति घृणा और शत्रुता से भर जाता है, तब परमेश्वर अत्यधिक क्रोधित होता है। किस सीमा तक वह अत्यधिक क्रोधित होता है? उसका कोप तब तक बना रहेगा जब तक उसे मनुष्य का प्रतिरोध और दुष्ट कर्म दिखने बंद नहीं होते, जब तक वे उसकी नज़रों के सामने अब और नहीं होते हैं। तब कहीं जाकर परमेश्वर का क्रोध ग़ायब होगा। दूसरे शब्दों में, चाहे जो व्यक्ति हो, यदि उसका हृदय परमेश्वर से दूर हो गया है और परमेश्वर से विमुख हो गया है, कभी न लौटने के लिए, तब फिर वे अपने शरीर में या अपनी सोच में, सभी प्रकटनों के लिए या अपनी व्यक्तिपरक अभिलाषाओं की दृष्टि से, परमेश्वर की चाहे जितनी आराधना, अनुसरण और उसके प्रति समर्पण करना चाहते हों, परमेश्वर के कोप का बाँध टूट जाएगा और रुकेगा नहीं। यह ऐसे होगा कि मनुष्य को प्रचुर अवसर देने के बाद, जब परमेश्वर प्रचंड वेग से अपने कोप का बाँध खोलता है, एक बार जब इसे खोल दिया जाएगा, तब इसे वापस लेने का कोई रास्ता न होगा, और ऐसी मनुष्यजाति के प्रति वह फिर कभी दयावान और सहिष्णु नहीं होगा। यह परमेश्वर के स्वभाव का एक पक्ष है जो अपमान सहन नहीं करता है। यहाँ, लोगों को यह सामान्य प्रतीत होता है कि परमेश्वर एक नगर को इसलिए नष्ट कर देता क्योंकि, परमेश्वर की नज़रों में, पाप से भरा हुआ एक नगर विद्यमान और अनवरत बना नहीं रह सकता था, और यह तर्कसंगत ही था कि इसे परमेश्वर द्वारा नष्ट कर दिया जाना चाहिए। फिर भी परमेश्वर के द्वारा सदोम के विनाश के पहले और उसके बाद जो घटित हुआ, उसमें हम परमेश्वर के स्वभाव की समग्रता देखते हैं। वह उन चीज़ों के प्रति सहिष्णु और दयावान है जो कृपालु, सुंदर और भली हैं; जो चीज़ें बुरी, पापमय और दुष्ट हैं, उनके प्रति वह प्रचंड रूप से कोपपूर्ण है, इतना कि उसका कोप रुकता नहीं है। ये परमेश्वर के स्वभाव के दो सर्वोपरि और सबसे प्रमुख पहलू हैं, और, इतना ही नहीं, इन्हें परमेश्वर ने आरंभ से लेकर अंत तक प्रकट किया है : प्रचुर दया और प्रचंड कोप। तुम लोगों में से अधिकतर परमेश्वर की दया का कुछ न कुछ अनुभव कर चुके हो, किंतु तुममें से बहुत कम लोगों ने परमेश्वर का कोप पूर्णतः पहचाना है। परमेश्वर की अनुकंपा और प्रेममय दयालुता प्रत्येक व्यक्ति में देखी जा सकती है; अर्थात्, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के प्रति अतिशय दयावान रहा है। फिर भी परमेश्वर तुम लोगों के बीच किसी व्यक्ति पर या किसी जनसमूह के प्रति अत्यंत दुर्लभ ही—या, कहा जा सकता है, कभी नहीं—प्रचंड रूप से क्रोधित रहा है। इत्मीनान रखो! परमेश्वर का कोप कभी न कभी प्रत्येक व्यक्ति द्वारा देखा और अनुभव किया जाएगा, किंतु अभी वह समय नहीं है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब परमेश्वर किसी से लगातार क्रोधित होता है, अर्थात्, जब वह उसके ऊपर अपने प्रचंड कोप का बाँध खोल देता है, तो इसका अर्थ है कि वह उस व्यक्ति से लंबे समय से तिरस्कार करता आया है, कि वह उसके अस्तित्व से जुगुप्सा करता है, और वह उनके अस्तित्व को सहन नहीं कर सकता है; ज्यों ही उसका क्रोध उन पर टूटेगा, वे विलुप्त हो जाएँगे। आज, परमेश्वर का कार्य अभी उस बिंदु पर नहीं पहुँचा है। एक बार परमेश्वर प्रचंड रूप से क्रोधित हो जाए तो तुम लोगों में से कोई भी उसे सहन नहीं कर पाएगा। तो, तुम देखो, इस समय परमेश्वर तुम सब लोगों के प्रति अतिशय दयावान है, और तुम लोगों ने अभी उसका प्रचंड क्रोध देखा नहीं है। यदि ऐसे लोग हैं जो मानने को तैयार नहीं हैं, तो तुम उनसे कह सकते हो कि परमेश्वर का कोप तुम्हारे ऊपर टूटे, ताकि तुम अनुभव कर सको कि परमेश्वर का क्रोध और उसका वह स्वभाव जो मनुष्य से कोई अपमान सहन नहीं करता वास्तव में अस्तित्वमान है या नहीं। करते हो तुम लोग हिम्मत?

अंत के दिनों के लोग परमेश्वर का कोप केवल उसके वचनों में देखते हैं, और सच में अनुभव नहीं करते परमेश्वर का कोप

क्या परमेश्वर के स्वभाव के ये दो पक्ष, जो पवित्र शास्त्र के इन अंशों में दिखाई देते हैं, संगति के योग्य हैं? यह कहानी सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को परमेश्वर की एक नई समझ प्राप्त हुई है? तुम्हारी किस प्रकार की समझ है? कहा जा सकता है कि सृजन के समय से लेकर आज तक, किसी भी समूह ने परमेश्वर के अनुग्रह या दया और प्रेममय दयालुता का उतना आनंद नहीं लिया है जितना इस अंतिम समूह ने लिया है। यद्यपि, अंतिम चरण में, परमेश्वर ने न्याय और ताड़ना का कार्य किया है, और अपना कार्य प्रताप और कोप के साथ किया है, तो भी अधिकांश बार परमेश्वर अपना कार्य संपन्न करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करता है; वह सिखाने और सींचने, भरण-पोषण और भोजन के लिए वचनों का उपयोग करता है। इस बीच, परमेश्वर के कोप को हमेशा छिपाकर रखा गया है, और परमेश्वर के वचनों में उसके कोपपूर्ण स्वभाव का अनुभव करने के अलावा, बहुत ही कम लोगों ने व्यक्तिगत रूप से उसके क्रोध का अनुभव किया है। कहने का तात्पर्य है, न्याय और ताड़ना के परमेश्वर के कार्य के दौरान, यद्यपि परमेश्वर के वचनों में प्रकट किया गया कोप लोगों को परमेश्वर की महिमा और अपमान के प्रति उसकी असहिष्णुता अनुभव करने देता है, फिर भी यह कोप उसके वचनों से आगे नहीं जाता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर मनुष्य को झिड़कने, मनुष्य को उजागर करने, मनुष्य का न्याय करने, मनुष्य को ताड़ना देने, और यहाँ तक कि मनुष्य की निंदा करने के लिए भी वचनों का उपयोग करता है—परंतु परमेश्वर अभी तक मनुष्य के प्रति प्रचंड रूप से क्रोधित नहीं हुआ है, और अपने वचनों के साथ के अलावा उसने अपने कोप का बाँध मनुष्य पर मुश्किल से ही खोला है। इस प्रकार, मनुष्य के द्वारा इस युग में अनुभव की गई परमेश्वर की अनुकंपा और प्रेममय दयालुता परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का प्रकाशन है, जबकि मनुष्य के द्वारा अनुभव किया गया परमेश्वर का कोप महज़ उसके कथनों के स्वर और भाव का प्रभाव है। बहुत-से लोग इस प्रभाव को ग़लत ढंग से परमेश्वर के कोप का सच्चा अनुभव करना और सच्चा ज्ञान मान लेते हैं। परिणामस्वरूप, अधिकतर लोग मानते हैं कि उन्होंने परमेश्वर के वचनों में उसकी अनुकंपा और प्रेममय दयालुता को देखा है, कि उन्होंने मनुष्य द्वारा अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता को भी देखा है, और उनमें से अधिकांश लोग तो मनुष्य के प्रति परमेश्वर की करुणा और सहिष्णुता की सराहना भी करने लगे हैं। परंतु मनुष्य का व्यवहार चाहे जितना बुरा हो, या उसका स्वभाव चाहे जितना भ्रष्ट हो, परमेश्वर ने हमेशा सहन किया है। सहन करने में, उसका उद्देश्य इस बात की प्रतीक्षा करना है कि जो वचन उसने कहे हैं, जो प्रयास उसने किए हैं और जो क़ीमत उसने चुकाई है, वे उन लोगों में जिन्हें वह प्राप्त करना चाहता है, सफलतापूर्वक निष्कर्ष पर पहुँच सकें। ऐसे एक परिणाम की प्रतीक्षा करने में समय लगता है, और मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न परिवेशों का सृजन करने की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार जैसे लोग जन्म लेते ही वयस्क नहीं हो जाते हैं; इसमें अट्ठारह या उन्नीस वर्ष लग जाते हैं, और कुछ लोगों को तो बीस या तीस वर्ष लग जाते हैं तब कहीं जाकर वे वास्तविक वयस्क के रूप में परिपक्व होते हैं। परमेश्वर इस प्रक्रिया के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करता है, वह ऐसा समय आने की प्रतीक्षा करता है, और वह इस परिणाम के आगमन की प्रतीक्षा करता है। और उस पूरे समय जब वह प्रतीक्षा करता है, परमेश्वर अतिशय रूप से दयावान होता है। हालाँकि, परमेश्वर के कार्य की अवधि के दौरान, परमेश्वर के प्रति घोर विरोध के कारण बहुत ही छोटी संख्या में लोगों को मार गिराया जाता है, और कुछ को दण्डित किया जाता है। ऐसे उदाहरण परमेश्वर के उस स्वभाव के और भी अधिक बड़े प्रमाण हैं जो मनुष्य के द्वारा अपमान बर्दाश्त नहीं करता है, और चुने हुए लोगों के प्रति परमेश्वर की सहिष्णुता और सहनशीलता के वास्तविक अस्तित्व की पूर्णतः पुष्टि करते हैं। निस्संदेह, इन विशिष्ट उदाहरणों में, इन लोगों में परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रकाशन परमेश्वर की समग्र प्रबंधन योजना को प्रभावित नहीं करता है। वास्तव में, परमेश्वर के कार्य के इस अंतिम चरण में, परमेश्वर ने प्रतीक्षा करते रहने की अपनी इस संपूर्ण अवधि के दौरान सहन किया है, और उसने अपनी सहनशीलता और अपने जीवन को अपना अनुसरण करने वाले लोगों के उद्धार के साथ अदल-बदल लिया है। क्या तुम लोग यह देखते हो? परमेश्वर अकारण अपनी योजना में उलट-फेर नहीं करता है। वह अपने कोप का बाँध खोल सकता है, और वह दयावान भी हो सकता है; यह परमेश्वर के स्वभाव के दो मुख्य भागों का प्रकाशन है। यह बिल्कुल स्पष्ट है, या नहीं है? दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर की बात आती है, तो सही और ग़लत, न्यायसंगत और अन्यायपूर्ण, सकारात्मक और नकारात्मक—यह सब कुछ मनुष्य को स्पष्ट रूप से दिखाया जाता है। वह क्या करेगा, वह क्या पसंद करता है, वह किससे घृणा करता है—यह सब उसके स्वभाव में सीधे प्रतिबिंबित हो सकता है। ऐसी चीज़ें परमेश्वर के कार्य में भी प्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं, और वे धुँधली या सामान्य नहीं हैं; इसके बजाय, वे सभी लोगों को विशेष रूप से मूर्त, सच्चे और व्यावहारिक ढँग से परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप देखने देती हैं। यही स्वयं सच्चा परमेश्वर है।

परमेश्वर का स्वभाव कभी मनुष्य से छिपा नहीं रहा है—मनुष्य का हृदय परमेश्वर से भटक गया है

यदि मैं इन चीज़ों के बारे में संगति नहीं करता, तो तुम लोगों में से कोई भी बाइबल की कहानियों में परमेश्वर के सच्चे स्वभाव को नहीं देख पाता। यह तथ्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, यद्यपि बाइबल की इन कहानियों ने परमेश्वर द्वारा की गई कुछ चीज़ों को अंकित किया है, किंतु परमेश्वर ने मात्र कुछ वचन कहे थे, और उसने मनुष्य से न तो अपने स्वभाव का सीधे परिचय कराया था या न ही खुलकर अपने इरादे सामने रखे थे। बाद की पीढ़ियों ने इन अभिलेखों को कहानियों से अधिक कुछ और नहीं माना, इसीलिए लोगों को लगता है कि परमेश्वर स्वयं को मनुष्य से छिपाता है, कि यह परमेश्वर का व्यक्तित्व नहीं, बल्कि उसका स्वभाव और उसके इरादे ही हैं जो मनुष्य से छिपे हुए हैं। आज की मेरी संगति के बाद, क्या तुम लोगों को अब भी लगता है कि परमेश्वर मनुष्य से पूरी तरह छिपा हुआ है? क्या तुम लोग अब भी मानते हो कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य से छिपा हुआ है?

सृजन के समय से ही, परमेश्वर का स्वभाव उसके कार्य के साथ क़दम से क़दम मिलाता रहा है। यह मनुष्य से कभी भी छिपा हुआ नहीं रहा है, बल्कि मनुष्य के लिए पूरी तरह प्रचारित और स्पष्ट किया गया है। फिर भी, समय बीतने के साथ, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से और भी अधिक दूर हो गया है, और जैसे-जैसे मनुष्य की भ्रष्टता अधिक गहरी होती गई है, वैसे-वैसे मनुष्य और परमेश्वर अधिकाधिक दूर होते गए हैं। धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से, मनुष्य परमेश्वर की नज़रों से ओझल हो गया है। मनुष्य परमेश्वर को “देखने” में असमर्थ हो गया है, जिससे उसके पास परमेश्वर का कोई “समाचार” नहीं रह गया है; इस प्रकार, वह नहीं जानता कि परमेश्वर विद्यमान है या नहीं, और इस हद तक चला जाता है कि परमेश्वर के अस्तित्व को ही पूरी तरह नकार देता है। परिणामस्वरूप, परमेश्वर के स्वभाव, और स्वरूप, के बारे में मनुष्य की अबूझता इसलिए नहीं है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य से छिपा हुआ है, बल्कि इसलिए है क्योंकि उसका हदय परमेश्वर से विमुख हो गया है। हालाँकि मनुष्य परमेश्वर में विश्वास करता है, फिर भी उसका हृदय परमेश्वर से रहित है, और वह अनजान है कि परमेश्वर से कैसे प्रेम करे, न ही वह परमेश्वर से प्रेम करना चाहता है, क्योंकि उसका हृदय कभी भी परमेश्वर के नज़दीक नहीं आता है और वह हमेशा परमेश्वर से बचता है। परिणामस्वरूप, मनुष्य का हृदय परमेश्वर से दूर है। तो उसका हृदय कहाँ है? वास्तव में, मनुष्य का हृदय कहीं गया नहीं है : इसे परमेश्वर को देने के बजाय या इसे परमेश्वर के देखने के लिए प्रकट करने के बजाय, उसने इसे स्वयं के लिए रख लिया है। यह इस तथ्य के बावज़ूद है कि कुछ लोग प्रायः परमेश्वर से प्रार्थना करते और कहते हैं, “हे परमेश्वर, मेरे हृदय पर दृष्टि डाल—जो मैं सोचता हूँ तू वह सब कुछ जानता है,” और कुछ लोग तो परमेश्वर को अपने ऊपर दृष्टि डालने देने की सौगंध खाते हैं, कि यदि वे अपनी सौगंध तोड़ें तो उन्हें दण्ड दिया जाए। यद्यपि मनुष्य परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर झाँकने देता है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने में सक्षम है, न ही यह कि उसने अपना भाग्य और संभावनाएँ और अपना सर्वस्व परमेश्वर के नियंत्रण के अधीन छोड़ दिया है। इस प्रकार, तुम परमेश्वर के समक्ष चाहे जो सौगंध खाओ या चाहे जो घोषणा करो, परमेश्वर की नज़रों में तुम्हारा हृदय अब भी उसके प्रति बंद है, क्योंकि तुम परमेश्वर को अपने हृदय के भीतर केवल झाँकने देते हो किंतु इसे नियंत्रित करने की अनुमति उसे नहीं देते हो। दूसरे शब्दों में, तुमने अपना हृदय परमेश्वर को थोड़ा भी दिया ही नहीं है, और केवल परमेश्वर को सुनाने के लिए अच्छे लगने वाले शब्द बोलते हो; इस बीच, तुम अपने षडयंत्रों, कुचक्रों और मनसूबों के साथ-साथ अपने छल-कपट से भरे नानाविध मंतव्य भी परमेश्वर से छिपा लेते हो, और तुम अपनी संभावनाओं और भाग्य को अपने हाथों में जकड़ लेते हो, इस गहरे डर से कि परमेश्वर उन्हें ले लेगा। इस प्रकार, परमेश्वर कभी अपने प्रति मनुष्य की शुद्ध हृदयता नहीं देखता है। यद्यपि परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराइयों को ध्यान से देखता है, और देख सकता है कि मनुष्य अपने हृदय में क्या सोच रहा है और क्या करना चाहता है, और देख सकता है कि उसके हृदय के भीतर कौन-सी चीज़ें रखी हैं, किंतु मनुष्य का हृदय परमेश्वर का नहीं है, उसने उसे परमेश्वर के नियंत्रण में नहीं सौंपा है। कहने का तात्पर्य है कि परमेश्वर को अवलोकन का अधिकार है, किंतु उसे नियंत्रण का अधिकार नहीं है। अपनी व्यक्तिपरक चेतना में मनुष्य अपने लिए परमेश्वर को आयोजन नहीं करने देना चाहता, न ही उसका ऐसा कोई इरादा है। मनुष्य ने न केवल स्वयं को परमेश्वर से बंद कर लिया है, बल्कि ऐसे भी लोग हैं जो एक मिथ्या धारणा बनाने और परमेश्वर का भरोसा प्राप्त करने, और परमेश्वर की नज़रों से अपना असली चेहरा छिपाने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातों और चापलूसी का उपयोग करके अपने हृदयों को ढँक लेने के तरीक़ों के बारे में सोचते हैं। परमेश्वर को देखने नहीं देने में उनका उद्देश्य परमेश्वर को यह जानने-समझने नहीं देना है कि वे वास्तव में कैसे हैं। वे परमेश्वर को अपने हृदय देना नहीं चाहते, बल्कि उन्हें स्वयं के लिए रखना चाहते हैं। इसका निहितार्थ यह है कि मनुष्य जो करता है और वह जो चाहता है, उन सब का नियोजन, आकलन, और निर्णय स्वयं मनुष्य द्वारा किया जाता है; उसे परमेश्वर की भागीदारी या हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं की आवश्यकता तो और भी नहीं है। इस प्रकार, बात चाहे परमेश्वर की आज्ञाओं, उसके आदेश, या परमेश्वर द्वारा मनुष्य से की जाने वाली अपेक्षाओं से संबंधित हो, मनुष्य के निर्णय उसके अपने मंतव्यों और हितों पर, उस समय की उसकी अपनी अवस्था और परिस्थितियों पर आधारित होते हैं। मनुष्य को जो मार्ग अपनाना चाहिए उसे परखने और चुनने के लिए वह अपने चिर-परिचित ज्ञान और अंतर्दृष्टियों का, और अपनी विचार शक्ति का उपयोग करता है, और परमेश्वर को हस्तक्षेप या नियंत्रण नहीं करने देता है। यही वह मनुष्य का हृदय है जिसे परमेश्वर देखता है।

आरंभ से लेकर आज तक, केवल मनुष्य ही परमेश्वर के साथ बातचीत करने में समर्थ रहा है। अर्थात्, परमेश्वर के सभी जीवित जीव-जंतुओं और प्राणियों में, मनुष्य के अलावा कोई भी परमेश्वर से बातचीत करने में समर्थ नहीं रहा है। मनुष्य के पास कान हैं जो उसे सुनने में समर्थ बनाते हैं, और उसके पास आँखें हैं जो उसे देखने देती हैं; उसके पास भाषा, अपने स्वयं के विचार, और स्वतंत्र इच्छा है। वह उस सबसे युक्त है जो परमेश्वर को बोलते हुए सुनने, परमेश्वर के इरादों को समझने और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के लिए आवश्यक है, और इसलिए परमेश्वर अपनी सारी इच्छाएँ मनुष्य को प्रदान करता है, मनुष्य को ऐसा साथी बनाना चाहता है जो उसके साथ एक मन हो और जो उसके साथ चल सके। जब से परमेश्वर ने प्रबंधन करना प्रारंभ किया है, तभी से वह प्रतीक्षा करता रहा है कि मनुष्य अपना हृदय उसे दे, परमेश्वर को उसे शुद्ध और सुसज्जित करने दे, उसे परमेश्वर के लिए संतोषप्रद और परमेश्वर द्वारा प्रेममय बनाने दे, उसे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने वाला बनाने दे। परमेश्वर ने सदा ही इस परिणाम की प्रत्याशा और प्रतीक्षा की है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

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