ऑनलाइन बैठक

मेन्‍यू

अंतिम दिनों के केवल मसीह ही क्यों अनंत जीवन के रास्ते से मनुष्य को प्रदान कर सकते हैं

प्रभु यीशु ने कहा था, "परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूँगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा; वरन् जो जल मैं उसे दूँगा, वह उसमें एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा" (यूहन्ना 4:14)बाइबल भी ऐसा ही कहती है: "जो पुत्र पर विश्‍वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; परन्तु जो पुत्र की नहीं मानता, वह जीवन को नहीं देखेगा, परन्तु परमेश्‍वर का क्रोध उस पर रहता है" (यूहन्ना 3:36)। हम मानते हैं कि प्रभु यीशु मसीह है, मनुष्य का पुत्र, और यह कि प्रभु यीशु का मार्ग अनंत जीवन का मार्ग है। हम मानते हैं कि जब तक हम प्रभु में विश्वास करते रहें, हम अनन्त जीवन पाने में सक्षम होंगे। परन्तु आप यह गवाही देते हैं कि केवल अंतिम दिनों का मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मनुष्य को अनन्त जीवन का मार्ग प्रदान कर सकता है। क्या आप यह कह रहे हैं कि यदि हम प्रभु यीशु का अनुसरण करते हैं, तो हम अनंत जीवन का मार्ग प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे? हमें अंतिम दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर, के वचनों और कार्यों को स्वीकार करने की आवश्यकता क्यों है?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद:

"मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)

अंतिम दिनों के केवल मसीह ही क्यों अनंत जीवन के रास्ते से मनुष्य को प्रदान कर सकते हैं

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।

— "वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना' से उद्धृत

यीशु का काम केवल मनुष्य के छुटकारे और सूली पर चढ़ाये जाने के लिए था, और इस प्रकार, किसी भी व्यक्ति को जीतने के लिए उसे अधिक वचन कहने की कोई जरूरत नहीं थी। उसने मनुष्य को जो कुछ भी सिखाया उसमें से काफी कुछ पवित्र शास्त्रों के वचनों से लिया गया था, और भले ही उसका काम पवित्र शास्त्रों से आगे नहीं बढ़ा, फिर भी वह सूली पर चढ़ाये जाने के काम को पूरा कर पाया। उसका काम सिर्फ वचन का कार्य नहीं था, न ही मानव-जाति पर विजय पाने की खातिर किया गया काम था, बल्कि मानव जाति के छुटकारे के लिए किया गया काम था। उसने मानव-जाति के लिए बस पापबलि का काम किया, और मानव-जाति के लिए वचन के स्रोत का काम नहीं किया। उसने अन्यजातियों का काम नहीं किया, जो कि मनुष्य को जीतने का काम था, बल्कि सूली पर चढ़ने का काम था, वह काम जो उन लोगों के बीच किया गया था जो एक परमेश्वर के होने में विश्वास करते थे। यद्यपि उसका काम पवित्र शास्त्रों की बुनियाद पर किया गया था, और उसने पुराने नबियों की भविष्यवाणी का इस्तेमाल फरीसियों की निंदा करने के लिए किया, फिर भी यह सूली पर चढ़ाये जाने के काम को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। यदि आज का काम भी, पवित्र शास्त्रों में पुराने नबियों की भविष्यवाणियों की बुनियाद पर किया जाता, तो तुम लोगों को जीतना नामुमकिन होता, क्योंकि पुराने विधान में तुम चीनियों की कोई अवज्ञा और पाप दर्ज नहीं है, और वहां तुम लोगों के पापों का कोई इतिहास नहीं है। इसलिए, अगर यह काम बाइबल में अब भी होता, तो तुम कभी राजी नहीं होते। बाइबल में इस्राएलियों का एक सीमित इतिहास दर्ज है, जो कि यह स्थापित करने में असमर्थ है कि तुम लोग बुरे हो या अच्छे, या यह तुम लोगों का न्याय करने में असमर्थ है। कल्पना करो कि मुझे तुम लोगों का न्याय इस्राएलियों के इतिहास के अनुसार करना होता—तो क्या तुम लोग मेरा वैसे ही अनुसरण करते जैसा कि आज करते हो? क्या तुम लोग जानते हो कि तुम लोग कितने जिद्दी हो? अगर इस चरण के दौरान कोई वचन न बोले जाते, तो विजय का काम पूरा करना असंभव होता। क्योंकि मैं क्रूस पर चढ़ाये जाने के लिए नहीं आया हूँ, मुझे उन वचनों को बोलना ही होगा जो बाइबल से अलग हैं, ताकि तुम लोगों पर विजय प्राप्त हो सके।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के कार्य का दर्शन (1)' से उद्धृत

अंत के दिनों का कार्य वचन बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर लोगों में अब जो परिवर्तन हुए हैं, वे उन परिवर्तनों से बहुत अधिक बड़े हैं, जो चिह्न और चमत्कार स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों में हुए थे। क्योंकि अनुग्रह के युग में हाथ रखकर और प्रार्थना करके दुष्टात्माओं को मनुष्य से निकाला जाता था, परंतु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा कर दिया जाता था और उसके पाप क्षमा कर दिए जाते थे, किंतु जहाँ तक इस बात का संबंध था कि मनुष्य को उसके भीतर के शैतानी स्वभावों से कैसे मुक्त किया जाए, तो यह कार्य अभी किया जाना बाकी था। मनुष्य को उसके विश्वास के कारण केवल बचाया गया था और उसके पाप क्षमा किए गए थे, किंतु उसका पापी स्वभाव उसमें से नहीं निकाला गया था और वह अभी भी उसके अंदर बना हुआ था। मनुष्य के पाप देहधारी परमेश्वर के माध्यम से क्षमा किए गए थे, परंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं रह गया था। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए जा सकते हैं, परंतु मनुष्य इस समस्या को हल करने में पूरी तरह असमर्थ रहा है कि वह आगे कैसे पाप न करे और कैसे उसका भ्रष्ट पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया और रूपांतरित किया जा सकता है। मनुष्य के पाप क्षमा कर दिए गए थे और ऐसा परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से हुआ था, परंतु मनुष्य अपने पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीता रहा। इसलिए मनुष्य को उसके भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से पूरी तरह से बचाया जाना आवश्यक है, ताकि उसका पापी स्वभाव पूरी तरह से मिटाया जा सके और वह फिर कभी विकसित न हो पाए, जिससे मनुष्य का स्वभाव रूपांतरित होने में सक्षम हो सके। इसके लिए मनुष्य को जीवन में उन्नति के मार्ग को समझना होगा, जीवन के मार्ग को समझना होगा, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझना होगा। साथ ही, इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता होगी, ताकि उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल सके और वह प्रकाश की चमक में जी सके, ताकि वह जो कुछ भी करे, वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हो, ताकि वह अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, और इसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जिस समय यीशु अपना कार्य कर रहा था, उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अनिश्चित और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा उसे दाऊद का पुत्र माना, और उसके एक महान नबी और उदार प्रभु होने की घोषणा की, जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिलाया। कुछ लोग अपने विश्वास के बल पर केवल उसके वस्त्र के किनारे को छूकर ही चंगे हो गए; अंधे देख सकते थे, यहाँ तक कि मृतक भी जिलाए जा सकते थे। कितु मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए भ्रष्ट शैतानी स्वभाव का पता लगाने में असमर्थ रहा, न ही वह यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुत अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार को आशीष, बीमारी से चंगाई, इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उसकी ईश्वर के अनुरूप दिखावट थी; यदि कोई इनके आधार पर जी सकता था, तो उसे एक स्वीकार्य विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ था कि उन्हें बचा लिया गया है। परंतु अपने जीवन-काल में इन लोगों ने जीवन के मार्ग को बिलकुल नहीं समझा था। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि अपना स्वभाव बदलने के किसी मार्ग को अपनाए बिना बस एक निरंतर चक्र में पाप किए और उन्हें स्वीकार कर लिया : अनुग्रह के युग में मनुष्य की स्थिति ऐसी थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया है? नहीं! इसलिए, उस चरण का कार्य पूरा हो जाने के बाद भी न्याय और ताड़ना का कार्य बाकी रह गया था। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाने और उसके परिणामस्वरूप उसे अनुसरण हेतु एक मार्ग प्रदान करने के लिए है। यह चरण फलदायक या अर्थपूर्ण न होता, यदि यह दुष्टात्माओं को निकालने के साथ जारी रहता, क्योंकि यह मनुष्य की पापपूर्ण प्रकृति को दूर करने में असफल रहता और मनुष्य केवल अपने पापों की क्षमा पर आकर रुक जाता। पापबलि के माध्यम से मनुष्य के पाप क्षमा किए गए हैं, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। किंतु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उसके भीतर बना रहने के कारण वह अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है, और परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और उससे सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करवाता है। यह चरण पिछले चरण से अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया होने में सक्षम बनाता है; कार्य का यह चरण कहीं अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन-योजना का पूर्णतः समापन किया है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'देहधारण का रहस्य (4)' से उद्धृत

अनुग्रह के युग में पश्चात्ताप के सुसमाचार का उपदेश दिया गया और कहा गया कि यदि मनुष्य विश्वास करेगा, तो उसे बचाया जाएगा। आज, उद्धार की जगह सिर्फ विजय और पूर्णता की ही बात होती है। ऐसा नहीं कहा जाता कि अगर कोई व्यक्ति विश्वास करता है, तो उसका पूरा परिवार धन्य होगा, जिसे एक बार बचाया गया है, उसे हमेशा के लिए बचा लिया गया है। आज कोई ये बातें नहीं बोलता, ये चीजें पुरानी हो चुकी हैं। उस समय यीशु का कार्य समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाना था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; अगर तुम उस पर विश्वास करते हो, तो वह तुम्हें छुटकारा दिलाएगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते, तो तुम पापी नहीं रह जाते, तुम अपने पापों से मुक्त हो जाते हो। यही बचाए जाने और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ है। फिर विश्वासियों के अंदर परमेश्वर के प्रति विद्रोह और विरोध का भाव था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया है, बल्कि यह था कि मनुष्य अब पापी नहीं रह गया है, उसे उसके पापों से मुक्त कर दिया गया है। अगर तुम विश्वास करते हो, तो तुम फिर कभी भी पापी नहीं रहोगे। उस समय, यीशु ने बहुत से ऐसे कार्य किये जो उसके शिष्यों की समझ से बाहर थे, और ऐसी बहुत-सी बातें कहीं जो लोगों की समझ में नहीं आयीं। इसका कारण यह है कि उस समय उसने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। इस प्रकार, यीशु के जाने के कई वर्ष बाद, मत्ती ने उसकी एक वंशावली बनायी और अन्य लोगों ने भी बहुत से ऐसे कार्य किये जो मनुष्य की इच्छा के अनुसार थे। यीशु मनुष्य को पूर्ण करने और प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि कार्य का एक चरण संपन्न करने के लिए आया था: जो कि स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को आगे बढ़ाने और सूली पर चढ़ने का कार्य था। इसलिए, एक बार जब यीशु को सूली पर चढ़ा दिया गया, तो उसके कार्य का पूरी तरह से अंत हो गया। किन्तु वर्तमान चरण में जो कि विजय का कार्य है, अधिक वचन बोले जाने चाहिए, अधिक कार्य किया जाना चाहिए और कई प्रक्रियाएँ होनी चाहिए। उसी तरह, यीशु और यहोवा के कार्यों के रहस्य भी प्रकट होने चाहिए, ताकि लोगों को अपने विश्वास में समझ और स्पष्टता मिल जाए, क्योंकि यह अंत के दिनों का कार्य है, और अंत के दिन परमेश्वर के कार्य की समाप्ति के दिन हैं, इस कार्य के समापन का समय है। कार्य का यह चरण तुम्हारे लिए यहोवा की व्यवस्था और यीशु द्वारा छुटकारे को स्पष्ट करेगा। यह मुख्य रूप से इसलिए है ताकि तुम परमेश्वर की छह हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना के पूरे कार्य को समझ सको, इस छह हज़ार-वर्षीय प्रबंधन योजना की महत्ता और सार का मूल्यांकन कर सको, और यीशु द्वारा किए गए सभी कार्यों और उसके द्वारा बोले गए वचनों के प्रयोजन और बाइबल में अपने अंधविश्वास और श्रद्धा को समझ सको। यह सब तुम्हें पूरी तरह से समझने में मदद करेगा। तुम यीशु द्वारा किए गए कार्य और परमेश्वर के आज के कार्य, दोनों को समझ जाओगे; तुम समस्त सत्य, जीवन और मार्ग को समझ लोगे और देख लोगे। यीशु द्वारा किए गए कार्य के चरण में, यीशु समापन कार्य किए बिना क्यों चला गया? क्योंकि यीशु के कार्य का चरण समापन का कार्य नहीं था। जब उसे सूली पर चढ़ाया गया, तब उसके वचनों का भी अंत हो गया था; उसके सूली पर चढ़ने के बाद, उसका कार्य पूरी तरह समाप्त हो गया। वर्तमान चरण भिन्न है : वचनों के अंत तक बोले जाने और परमेश्वर के समस्त कार्य का उपसंहार हो जाने के बाद ही उसका कार्य समाप्त हुआ होगा। यीशु के कार्य के चरण के दौरान, ऐसे बहुत-से वचन थे जो अनकहे रह गए थे, या जो स्पष्ट रूप से नहीं बोले गए थे। फिर भी यीशु ने इस बात की परवाह नहीं की कि उसने क्या कहा और क्या नहीं कहा, क्योंकि उसकी सेवकाई कोई वचनों की सेवकाई नहीं थी, इसलिए सूली पर चढ़ाये जाने के बाद वह चला गया। कार्य का वह चरण मुख्यतः सूली पर चढ़ने के वास्ते था और वह वर्तमान चरण से भिन्न है। कार्य का यह चरण मुख्य रूप से पूरा करने, शुद्ध करने और समस्त कार्य का समापन करने के लिए है। यदि अंत तक वचन नहीं बोले गए, तो इस कार्य का समापन करना असंभव होगा, क्योंकि कार्य के इस चरण में समस्त कार्य का समापन और उसे पूरा करने का काम वचनों के उपयोग से किया जाता है और यह किया जाना है। उस समय यीशु ने ऐसा बहुत-सा कार्य किया, जो मनुष्य की समझ से बाहर था। वह चुपचाप चला गया और आज भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो उसके वचनों को नहीं समझते, जिनकी समझ त्रुटिपूर्ण है, मगर फिर भी जो उसे सही मानते हैं, जो नहीं जानते कि वे गलत हैं। अंत में, यह वर्तमान चरण पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य का अंत और इसका उपसंहार करेगा। सभी लोग परमेश्वर की प्रबंधन योजना को समझ और जान लेंगे। मनुष्य की अवधारणाएँ, उसके इरादे, उसकी त्रुटिपूर्ण समझ, यहोवा और यीशु के कार्यों के प्रति उसकी अवधारणाएँ, अन्यजातियों के बारे में उसके विचार और उसके अन्य विचलन और सभी त्रुटियाँ ठीक कर दी जाएँगी। जीवन के सभी सही मार्ग, परमेश्वर द्वारा किया गया समस्त कार्य और संपूर्ण सत्य मनुष्य की समझ में आ जाएँगे। जब ऐसा होगा, तो कार्य का यह चरण समाप्त हो जाएगा।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)' से उद्धृत

अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है' से उद्धृत

राज्य के युग में, परमेश्वर नए युग की शुरुआत करने, अपने कार्य के साधन बदलने और संपूर्ण युग के लिए काम करने के लिए अपने वचन का उपयोग करता है। वचन के युग में यही वह सिद्धांत है जिसके द्वारा परमेश्वर कार्य करता है। वह देहधारी हुआ ताकि विभिन्न दृष्टिकोण से बोल सके, मनुष्य वास्तव में परमेश्वर को देख सके, जो देह में प्रकट होने वाला वचन है, उसकी बुद्धि और चमत्कार को जान सके। इस तरह का कार्य मनुष्य को जीतने, उन्हें पूर्ण बनाने और ख़त्म करने के लक्ष्यों को बेहतर ढंग से हासिल करने के लिए किया जाता है। वचन के युग में वचन के उपयोग का यही वास्तविक अर्थ है। वचन के द्वारा परमेश्वर के कार्यों को, परमेश्वर के स्वभाव को मनुष्य के सार और इस राज्य में प्रवेश करने के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए, यह जाना जा सकता है। वचन के युग में परमेश्वर जिन सभी कार्यों को करना चाहता है, वे वचन के द्वारा संपन्न होते हैं। वचन के द्वारा ही मनुष्य की असलियत का पता चलता है, उसे नष्ट किया जाता है और परखा जाता है। मनुष्य ने वचन देखा है, सुना है और वचन के अस्तित्व को जाना है। इसके परिणामस्वरूप वह परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करता है, मनुष्य परमेश्वर के सर्वशक्तिमान होने और उसकी बुद्धि पर, साथ ही साथ मनुष्य के लिए परमेश्वर के हृदय के प्रेम और मनुष्य को बचाने की उसकी इच्छा पर विश्वास करता है। यद्यपि "वचन" शब्द सरल और साधारण है, देहधारी परमेश्वर के मुख से निकला वचन संपूर्ण ब्रह्माण्ड को झकझोरता है; और उसका वचन मनुष्य के हृदय को रूपांतरित करता है, मनुष्य के सभी विचारों और पुराने स्वभाव और समस्त संसार के पुराने स्वरूप में परिवर्तन लाता है। युगों-युगों से केवल आज के दिन का परमेश्वर ही इस प्रकार से कार्य करता है और केवल वही इस प्रकार से बोलता और मनुष्य का उद्धार करता है। इसके बाद मनुष्य वचन के मार्गदर्शन में, उसकी चरवाही में और उससे प्राप्त आपूर्ति में जीवन जीता है। वह वचन के संसार में जीता है, परमेश्वर के वचन के कोप और आशीषों के बीच जीता है, तथा और भी अधिक लोग अब परमेश्वर के वचन के न्याय और ताड़ना के अधीन जीने लगे हैं। ये वचन और यह कार्य सब कुछ मनुष्य के उद्धार, परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने और पुरानी सृष्टि के संसार के मूल स्वरूप को बदलने के लिए है। परमेश्वर ने संसार की सृष्टि वचन से की, वह समस्त ब्रह्माण्ड में मनुष्य की अगुवाई वचन के द्वारा करता है, उन्हें वचन के द्वारा जीतता और उनका उद्धार करता है। अंत में, वह इसी वचन के द्वारा समस्त प्राचीन जगत का अंत कर देगा। तभी उसके प्रबंधन की योजना पूरी होगी।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'राज्य का युग वचन का युग है' से उद्धृत

परमेश्वर स्वयं ही जीवन है, और सत्य है, और उसका जीवन और सत्य साथ-साथ विद्यमान हैं। वे लोग जो सत्य प्राप्त करने में असमर्थ हैं कभी भी जीवन प्राप्त नहीं करेंगे। मार्गदर्शन, समर्थन, और पोषण के बिना, तुम केवल अक्षर, सिद्धांत, और सबसे बढ़कर, मृत्यु ही प्राप्त करोगे। परमेश्वर का जीवन सतत विद्यमान है, और उसका सत्य और जीवन साथ-साथ विद्यमान हैं। यदि तुम सत्य का स्रोत नहीं खोज पाते हो, तो तुम जीवन की पौष्टिकता प्राप्त नहीं करोगे; यदि तुम जीवन का पोषण प्राप्त नहीं कर सकते हो, तो तुममें निश्चित ही सत्य नहीं होगा, और इसलिए कल्पनाओं और धारणाओं के अलावा, संपूर्णता में तुम्हारा शरीर तुम्हारी देह—दुर्गंध से भरी तुम्हारी देह—के सिवा कुछ न होगा। यह जान लो कि किताबों की बातें जीवन नहीं मानी जाती हैं, इतिहास के अभिलेख सत्य नहीं माने जा सकते हैं, और अतीत के नियम वर्तमान में परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों के वृतांत का काम नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर पृथ्वी पर आकर और मनुष्य के बीच रहकर जो अभिव्यक्त करता है, केवल वही सत्य, जीवन, परमेश्वर की इच्छा, और उसका कार्य करने का वर्तमान तरीक़ा है। यदि तुम अतीत के युगों के दौरान परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों के अभिलेखों को आज पर लागू करते हो, तो यह तुम्हें पुरातत्ववेत्ता बना देता है, और तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा ऐतिहासिक धरोहर का विशेषज्ञ ही कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि तुम हमेशा परमेश्वर द्वारा बीते समयों में किए गए कार्य के अवशेषों पर विश्वास करते हो, केवल पूर्व में मनुष्य के बीच कार्य करते समय छोड़ी गई परमेश्वर की परछाई में विश्वास करते हो, और केवल पहले के समयों में परमेश्वर द्वारा अपने अनुयायियों को दिए गए मार्ग में विश्वास करते हो। तुम परमेश्वर के आज के कार्य के मार्गदर्शन में विश्वास नहीं करते हो, परमेश्वर के आज के महिमामयी मुखमंडल में विश्वास नहीं करते हो, और परमेश्वर द्वारा आज के समय में व्यक्त किए गए सत्य के मार्ग में विश्वास नहीं करते हो। और इसलिए तुम निर्विवाद रूप से एक दिवास्वप्नदर्शी हो जो वास्तविकता से कोसों दूर है। यदि तुम अब भी उन वचनों से चिपके हुए हो जो मनुष्य को जीवन प्रदान करने में असमर्थ हैं, तो तुम एक निर्जीव काष्ठ[क] के बेकार टुकड़े हो, क्योंकि तुम अत्यंत रूढ़िवादी, अत्यंत असभ्य, तर्क के प्रति अत्यंत विवेकशून्य हो।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है' से उद्धृत

अंत के दिनों का मसीह जीवन लेकर आता है, और सत्य का स्थायी और शाश्वत मार्ग लेकर आता है। यह सत्य वह मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है, और यह एकमात्र मार्ग है जिसके द्वारा मनुष्य परमेश्वर को जानेगा और परमेश्वर द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। यदि तुम अंत के दिनों के मसीह द्वारा प्रदान किया गया जीवन का मार्ग नहीं खोजते हो, तो तुम यीशु की स्वीकृति कभी प्राप्त नहीं करोगे, और स्वर्ग के राज्य के फाटक में प्रवेश करने के योग्य कभी नहीं हो पाओगे, क्योंकि तुम इतिहास की कठपुतली और कैदी दोनों ही हो। वे लोग जो नियमों से, शब्दों से नियंत्रित होते हैं, और इतिहास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं, न तो कभी जीवन प्राप्त कर पाएँगे और न ही जीवन का शाश्वत मार्ग प्राप्त कर पाएँगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास, सिंहासन से प्रवाहित होने वाले जीवन के जल की बजाय, बस मैला पानी ही है जिससे वे हजारों सालों से चिपके हुए हैं। वे जिन्हें जीवन के जल की आपूर्ति नहीं की गई है, हमेशा के लिए मुर्दे, शैतान के खिलौने, और नरक की संतानें बने रहेंगे। फिर वे परमेश्वर को कैसे देख सकते हैं? यदि तुम केवल अतीत को पकड़े रखने की कोशिश करते हो, केवल जड़वत खड़े रहकर चीजों को जस का तस रखने की कोशिश करते हो, और यथास्थिति को बदलने और इतिहास को ख़ारिज़ करने की कोशिश नहीं करते हो, तो क्या तुम हमेशा परमेश्वर के विरुद्ध नहीं होगे? परमेश्वर के कार्य के चरण उमड़ती लहरों और गरजते तूफानों की तरह विशाल और शक्तिशाली हैं—फिर भी तुम निठल्ले बैठकर तबाही का इंतजार करते हो, अपनी नादानी से चिपके रहते हो और कुछ भी नहीं करते हो। इस तरह, तुम्हें मेमने के पदचिह्नों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति कैसे माना जा सकता है? तुम जिस परमेश्वर को थामे हो उसे उस परमेश्वर के रूप में सही कैसे ठहरा सकते हो जो हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं होता? और तुम्हारी पीली पड़ चुकी किताबों के शब्द तुम्हें नए युग में कैसे ले जा सकते हैं? वे परमेश्वर के कार्य के चरणों को ढूँढ़ने में तुम्हारी अगुआई कैसे कर सकते हैं? और वे तुम्हें ऊपर स्वर्ग में कैसे ले जा सकते हैं? तुम अपने हाथों में जो थामे हो वे शब्द हैं, जो तुम्हें केवल अस्थायी सांत्वना दे सकते हैं, जीवन देने में सक्षम सत्य नहीं दे सकते। तुम जो शास्त्र पढ़ते हो वे केवल तुम्हारी जिह्वा को समृद्ध कर सकते हैं और ये बुद्धिमत्ता के वचन नहीं हैं जो मानव जीवन को जानने में तुम्हारी मदद कर सकते हैं, तुम्हें पूर्णता की ओर ले जाने की बात तो दूर रही। क्या यह विसंगति तुम्हारे लिए गहन चिंतन का कारण नहीं है? क्या यह तुम्हें अपने भीतर समाहित रहस्यों का बोध नहीं करवाती है? क्या तुम परमेश्वर से अकेले में मिलने के लिए अपने आप को स्वर्ग को सौंप देने में समर्थ हो? परमेश्वर के आए बिना, क्या तुम परमेश्वर के साथ पारिवारिक आनंद मनाने के लिए अपने आप को स्वर्ग में ले जा सकते हो? क्या तुम अभी भी स्वप्न देख रहे हो? तो मेरा सुझाव यह है कि तुम स्वप्न देखना बंद कर दो और उसकी ओर देखो जो अभी कार्य कर रहा है—उसकी ओर देखो जो अब अंत के दिनों में मनुष्य को बचाने का कार्य कर रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो, तो तुम कभी भी सत्य प्राप्त नहीं करोगे, और न ही कभी जीवन प्राप्त करोगे।

— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है' से उद्धृत

फुटनोट:
क. निर्जीव काष्ठ का टुकड़ा : एक चीनी मुहावरा, जिसका अर्थ है—"सहायता से परे"।

यदि अपनी आस्था के बारे में आपके मन में कोई उलझन है, तो "आस्था प्रश्न और उत्तर" खंड या नीचे दिए गए लेखों में सामग्री ज़रूर देखें। हमारे साथ लाइव चैट करने के लिए आप स्क्रीन के निचले दाएं कोने पर मौजूद बटन पर भी क्लिक कर सकते हैं।

उत्तर यहाँ दें