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प्रभु यीशु ने कहा था, "जो मुझसे, 'हे प्रभु, हे प्रभु' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)।
स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना प्रत्येक ईसाई की इच्छा है, लेकिन स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के लिए किन शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए? बहुत से लोग सोचते हैं कि जब तक वे प्रभु के नाम को धारण करते हैं, प्रभु के लिए काम करते और अपने आप को बलिदान करते हैं, उन्हें स्वर्ग के राज्य में लाया जा सकता है। मैंने भी ऐसा सोचा था, लेकिन बाद में मैंने एक अंश ऑनलाइन पढ़ा: "प्रभु में बहुत से विश्वासी वही मानते हैं जैसे आप सोचते हैं: 'जब तक मैं कड़ी मेहनत करता हूं और प्रभु के लिए सलीब को उठाता हूं, कुछ अच्छे व्यवहारों का प्रदर्शन करता हूं और अच्छी तरह से गवाही देता हूं, मैं प्रभु के लौटने का इंतजार करने और स्वर्ग के राज्य में उठाए जाने के योग्य हो जाऊंगा।' मनुष्य इसे पूरी तरह से उचित मानते हैं, लेकिन क्या यह परमेश्वर की इच्छा है? क्या उनके शब्द यह कहते हैं? यदि नहीं, तो मनुष्य की यह सोच निश्चित रूप से मानवीय धारणाओं और कल्पनाओं से आती है। यह सोचकर कि जब फरीसी सभाओं में लोगों को धर्मग्रंथों के बारे में अक्सर समझाते थे, तो वे कानूनों, नियमों और आज्ञाओं का सख्ती से पालन करते दिखाई देते थे, और दूसरों की नज़र में वे बहुत पवित्र थे और अपने व्यवहार में समझ रखते थे। लेकिन उन्होंने फिर पागलों की तरह प्रभु यीशु की निंदा और विरोध क्यों किया? यह साबित करता है कि लोग प्रभु के लिए कड़ी मेहनत कर सकते हैं और बाहर से अच्छी तरह से व्यवहार कर सकते है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे अपने दिल में परमेश्वर का पालन करते हैं और प्यार करते हैं। बाहरी पवित्रता एक ऐसे हृदय का प्रतिनिधित्व नहीं करती है जो ईश्वर की महिमा और श्रद्धा करता है। लोग अक्सर दूसरों को बाइबल समझा सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे परमेश्वर के शब्दों को व्यवहार में लाने या परमेश्वर के तरीके का पालन करने में सक्षम हैं।" तब मुझे एहसास हुआ कि मेरी राय यीशु मसीह के बजाय पोलूस के शब्दों पर आधारित थी। यीशु मसीह ने कभी नहीं कहा कि कोई परिश्रम करके स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता है। इसके बजाय, उन्होंने कहा, "जो मुझसे, 'हे प्रभु, हे प्रभु' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। स्वर्गीय पिता की इच्छा के अनुसार चलकर हम परमेश्वर के वचनो का पालन करते है ,परमेश्वर की आज्ञाओं और परमेश्वर के निर्देशों का पालन करते है एै सा परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुम अपना हृदय, शरीर और अपना समस्त वास्तविक प्यार परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, उसके प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी हो सकते हो, और उसकी इच्छा के प्रति पूर्णतः विचारशील हो सकते हो-देह के लिए नहीं, परिवार के लिए नहीं, और अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के परिवार के हित के लिए, परमेश्वर के वचन को हर चीज में सिद्धांत और नींव के रूप में ले सकते हो-तो ऐसा करने से तुम्हारे इरादे और दृष्टिकोण सब युक्तिसंगत होंगे, और तब तुम परमेश्वर के सामने ऐसे व्यक्ति होगे, जो उसकी प्रशंसा प्राप्त करता है। जिन लोगों को परमेश्वर पसंद करता है वे वो लोग हैं जो पूर्णतः उसकी ओर उन्मुख हैं; वे वो लोग हैं जो केवल उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं।"
"जो जय पाए, उसे मैं अपने परमेश्वर के मन्दिर में एक खम्भा बनाऊँगा; और वह फिर कभी बाहर न निकलेगा; और मैं अपने परमेश्वर का नाम, और अपने परमेश्वर के नगर अर्थात् नये यरूशलेम का नाम, जो मेरे परमेश्वर के पास से स्वर्ग पर से उतरनेवाला है और अपना नया नाम उस पर लिखूँगा" (प्रकाशितवाक्य 3:12)।
“यहोवा का धन्यवाद करो, उस से प्रार्थना करो, देश देश के लोगों में उसके कामों का प्रचार करो!” भजन संहिता 105:1
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