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प्रभु यीशु जब भी प्रार्थना करते थे तो वह परमेश्वर को स्वर्गीय पिता कहकर क्यों बुलाते थे?

प्रश्न 7: अगर प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं, तो ऐसा क्यों है कि जब प्रभु यीशु प्रार्थना करते हैं, तो वे परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। यहाँ निश्चित रूप से एक रहस्य है जिसे उजागर करना जरूरी है। हमारे लिए चर्चा करें।

उत्तर: प्रभु यीशु द्वारा अपनी प्रार्थनाओं में स्वर्ग के परमेश्वर को पिता कहे जाने में सचमुच रहस्य छिपा है। जब परमेश्वर देहधारण करते हैं, परमेश्वर की आत्मा शरीर में छुपी रहती है, शरीर स्वयं भी आत्मा की मौजूदगी से अनजान रहता है। बिलकुल उसी तरह, जैसे हम स्वयं अपनी आत्मा को अपने अंदर महसूस नहीं कर पाते। इतना ही नहीं, परमेश्वर की आत्मा अपने शरीर में रहकर कोई भी अलौकिक कार्य नहीं करती है। इसलिए, भले ही प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर थे, अगर परमेश्वर की आत्मा ने स्वयं वचन नहीं बोले होते और परमेश्वर की गवाही नहीं दी होती, तो प्रभु यीशु को यह पता नहीं होता कि वे देहधारी परमेश्वर हैं। इसलिए, बाइबल में यह कहा गया है, "न पुत्र; परन्तु केवल पिता" (मरकुस 13:32)। प्रभु यीशु अपनी सेवा का प्रदर्शन करने से पहले, सामान्य मानवता में रहते थे। वे असल में नहीं जानते थे कि वे परमेश्वर का अवतार हैं क्योंकि शरीर के भीतर मौजूद परमेश्वर की आत्मा ने अलौकिक तरीके से कार्य नहीं किया था, उन्होंने सामान्य सीमाओं में कार्य किया, बिल्कुल किसी अन्य मनुष्य की तरह। इसलिए, स्वाभाविक रूप से, प्रभु यीशु स्‍वर्ग के पिता से प्रार्थना करते थे, जिसका मतलब यह है कि अपनी सामान्य मानवता के भीतर, प्रभु यीशु परमेश्‍वर की आत्मा से प्रार्थना करते थे। यह बात पूरी तरह से समझ में आती है। जब प्रभु यीशु ने औपचारिक रूप से अपनी सेवा का प्रदर्शन किया, तब पवित्र आत्मा ने बोलना और प्रचार करना शुरू किया, यह गवाही देते हुए कि वह देहधारी परमेश्वर हैं। सिर्फ़ तभी जाकर प्रभु यीशु ने अपने सही अस्तित्व को पहचाना, कि वे छुटकारे का कार्य करने के लिए आये थे। लेकिन जब वह क्रूस पर लटकाए जाने वाले थे, तब भी उन्होंने परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना की। इससे पता चलता है कि मसीह का सार पूरी तरह से परमेश्वर के लिए आज्ञाकारी है।

प्रभु यीशु जब भी प्रार्थना करते थे तो वह परमेश्वर को स्वर्गीय पिता कहकर क्यों बुलाते थे?

इस विषय पर अपनी समझ को स्पष्ट करने के लिए, आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "जब प्रार्थना करते हुए यीशु ने स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाया, तो यह केवल एक सृजित मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से किया गया था, केवल इसलिए कि परमेश्वर के आत्मा ने एक सामान्य और साधारण देह का चोला धारण किया था और उसका वाह्य आवरण एक सृजित प्राणी का था। भले ही उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा था, उसका बाहरी प्रकटन अभी भी एक सामान्य व्यक्ति का था; दूसरे शब्दों में, वह 'मनुष्य का पुत्र" बन गया था, जिसके बारे में स्वयं यीशु समेत सभी मनुष्यों ने बात की थी। यह देखते हुए कि वह मनुष्य का पुत्र कहलाता है, वह एक व्यक्ति है (चाहे पुरुष हो या महिला, किसी भी हाल में एक इंसान के बाहरी चोले के साथ) जो सामान्य लोगों के साधारण परिवार में पैदा हुआ। इसलिए, यीशु का स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना, वैसा ही था जैसे तुम लोगों ने पहले उसे पिता कहा था; उसने सृष्टि के एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से ऐसा किया। क्या तुम लोगों को अभी भी प्रभु की प्रार्थना याद है, जो यीशु ने तुम लोगों को याद करने के लिए सिखाई थी? 'स्वर्ग में हमारे पिता...' उसने सभी मनुष्यों से स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाने को कहा। और चूँकि वह भी उसे पिता कहता था, उसने ऐसा उस व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से किया, जो तुम सभी के साथ समान स्तर पर खड़ा था। चूंकि तुम लोगों ने स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाया था, इससे पता चलता है कि यीशु ने स्वयं को तुम सबके साथ समान स्तर पर देखा और पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा चुने गए व्यक्ति (अर्थात परमेश्वर के पुत्र) के रूप में देखा। यदि तुम लोग परमेश्वर को पिता कहते हो, तो क्या यह इसलिए नहीं कि तुम सब सृजित प्राणी हो? पृथ्वी पर यीशु का अधिकार चाहे जितना अधिक हो, क्रूस पर चढ़ने से पहले, वह मात्र मनुष्य का पुत्र था, पवित्र आत्मा (यानी परमेश्वर) द्वारा नियंत्रित था और पृथ्वी के सृजित प्राणियों में से एक था क्योंकि उसे अभी भी अपना कार्य पूरा करना था। इसलिए, स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना पूरी तरह से उसकी विनम्रता और आज्ञाकारिता थी। परमेश्वर (अर्थात स्वर्ग में आत्मा) को उसका इस प्रकार संबोधन करना हालांकि यह साबित नहीं करता कि वह स्वर्ग में परमेश्वर के आत्मा का पुत्र है। बल्कि, यह केवल यही है कि उसका दृष्टिकोण अलग था, न कि वह एक अलग व्यक्ति था। अलग व्यक्तियों का अस्तित्व एक मिथ्या है! क्रूस पर चढ़ने से पहले, यीशु मनुष्य का पुत्र था, जो देह की सीमाओं से बंधा था और उसमें पूरी तरह आत्मा का अधिकार नहीं था। यही कारण है कि वह केवल एक सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से परमपिता परमेश्वर की इच्छा तलाश सकता था। यह वैसा ही है जैसा गतसमनी में उसने तीन बार प्रार्थना की थी: 'जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।' क्रूस पर रखे जाने से पहले, वह बस यहूदियों का राजा था; वह मसीह मनुष्य का पुत्र था और महिमा का शरीर नहीं था। यही कारण है कि एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से, उसने परमेश्वर को पिता बुलाया।" "अभी भी ऐसे हैं, जो कहते हैं, 'क्या परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया कि यीशु उसका प्रिय पुत्र है?' यीशु परमेश्वर का प्रिय पुत्र है, जिस पर वह प्रसन्न है—यह निश्चित रूप से परमेश्वर ने स्वयं ही कहा था। यह परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही थी, लेकिन केवल एक अलग परिप्रेक्ष्य से, स्वर्ग में आत्मा के अपने स्वयं के देहधारण को गवाही देना। यीशु उसका देहधारण है, स्वर्ग में उसका पुत्र नहीं। क्या तुम समझते हो? यीशु के वचन, 'मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है,' क्या यह संकेत नहीं देते कि वे एक आत्मा हैं? और यह देहधारण के कारण नहीं है कि वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच अलग हो गए थे? वास्तव में, वे अभी भी एक हैं; चाहे कुछ भी हो, यह केवल परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही है। युग में परिवर्तन, कार्य की आवश्यकताओं और उसकी प्रबंधन योजना के विभिन्न चरणों के कारण, जिस नाम से मनुष्य उसे बुलाता है, वह भी अलग हो जाता है। जब वह कार्य के पहले चरण को क्रियान्वित करने आया था, तो उसे केवल यहोवा, इस्राएलियों का चरवाहा ही कहा जा सकता था। दूसरे चरण में, देहधारी परमेश्वर को केवल प्रभु और मसीह कहा जा सकता था। परंतु उस समय, स्वर्ग में आत्मा ने केवल यह बताया था कि वह परमेश्वर का प्यारा पुत्र है और उसके परमेश्वर का एकमात्र पुत्र होने का कोई उल्लेख नहीं किया था। ऐसा हुआ ही नहीं था। परमेश्वर की एकमात्र संतान कैसे हो सकती है? तब क्या परमेश्वर मनुष्य नहीं बन जाता? क्योंकि वह देहधारी था, उसे परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा गया और इससे पिता और पुत्र के बीच का संबंध आया। यह बस स्वर्ग और पृथ्वी के बीच जो विभाजन है, उसके कारण हुआ" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'क्या त्रित्व का अस्तित्व है?')

सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इन बातों को कितना स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। जब प्रभु यीशु लोगों के बीच कार्य कर रहे थे, तो असल में मनुष्य के रूप में देहधारण कर परमेश्वर की आत्मा लोगों के बीच कार्य कर रही थी और प्रकट होती थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रभु यीशु अपने वचन कैसे व्यक्त कर रहे थे या परमपिता परमेश्वर से कैसे प्रार्थना कर रहे थे, उनका सार दिव्यता था, मानवता नहीं। परमेश्वर मनुष्य के लिए अदृश्य आत्मा हैं। जब परमेश्वर देह धारण करते हैं, मनुष्य सिर्फ़ देह को देखता है, वह परमेश्वर की आत्मा को नहीं देख सकता। अगर पवित्र आत्मा सीधे इस तथ्य का गवाह बनता कि देहधारी प्रभु यीशु परमेश्वर थे, तो मनुष्य ने उनको स्वीकार नहीं किया होता। क्योंकि, उस समय कोई यह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर के देहधारी होने का क्या मतलब है। वे सिर्फ़ परमेश्वर के देहधारण के संपर्क में आये और उनको बहुत कम समझ थी। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह सामान्य मनुष्य का पुत्र परमेश्वर की आत्मा का शरीर रूप होगा, यानी देह रूप में परमेश्वर का प्रकटन होगा। इसके बावजूद प्रभु यीशु ने अपने अधिकांश वचन अपने कार्य के दौरान व्यक्त किए, मनुष्य के सामने यह रास्ता दिया, "पश्चाताप करो: क्योंकि स्वर्ग का राज्य हाथ में है," और कई चमत्कार किए, परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य को पूरी तरह से प्रकट करते हुए, मनुष्य प्रभु यीशु के वचन और कार्य से यह पहचान पाने में विफल रहा कि प्रभु यीशु ही स्वयं परमेश्वर थे यानी वे परमेश्वर का प्रकटन थे। तो, परमेश्वर ने उस समय के लोगों के महत्व के अनुसार कार्य किया, उन्होंने उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं बनाया। पवित्र आत्मा उस समय सिर्फ़ लोगों की समझ के दायरे में रहकर गवाही दे सकता था, इसलिए उसने प्रभु यीशु को परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा, जिससे लोगों ने कुछ समय तक प्रभु यीशु को परमेश्वर का पुत्र समझा। यह तरीका लोगों की अवधारणाओं के अनुरूप था और इसे स्वीकार करना अधिक आसान था क्योंकि उस समय प्रभु यीशु सिर्फ़ छुटकारे का कार्य कर रहे थे। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि लोग प्रभु यीशु को क्या कहकर बुलाते थे, महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु उद्धारकर्ता थे, उन्होंने उनको पापों से मुक्ति दी थी, और इस तरह परमेश्वर का अनुग्रह पाने के योग्य थे। इसलिए, परमेश्वर की आत्मा ने इस तरह प्रभु यीशु के लिए गवाही दी क्योंकि यह उस समय के लोगों के महत्व के लिए अधिक उपयुक्त था। यह प्रभु यीशु के वचन को पूरी तरह से पूर्ण करता है: "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा, क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)

इस तथ्य के बावजूद कि हम परमेश्वर की आत्मा को देख नहीं सकते हैं, जब परमेश्वर की आत्मा देह धारण करती है, परमेश्वर का स्वभाव, उनका अस्तित्व, उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता सभी उनके शरीर के माध्यम से व्यक्त होते हैं। प्रभु यीशु मसीह के वचन और कार्य एवं उनके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव से हम पूरी तरह से आश्वस्त हो सकते हैं कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं। प्रभु यीशु के वचन और कार्य अधिकार और सामर्थ्य से भरे हैं। वे जो कहते हैं वह सच हो जाता है, वे जो माँग रखते हैं वह पूरी हो जाती है। जैसे ही वे बोलते हैं, उनके वचन सच हो जाते हैं। जिस तरह प्रभु यीशु का एक वचन मनुष्य के पापों को क्षमा करने और मृतक को फिर से जिंदगी देने के लिए काफ़ी था। उनके एक वचन ने हवा और समुद्र को शांत कर दिया आदि आदि। प्रभु यीशु के कार्य और वचन से, क्या हम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्‍य को नहीं देख सकते, जो सभी चीजों पर शासन करता है? क्या हमने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धिमत्ता और चमत्कारी कार्यों को नहीं देखा है? प्रभु यीशु ने अपने वचनों में यह मार्ग बताया, "पश्चाताप करो: क्योंकि स्वर्ग का राज्य करीब है।" उन्होंने व्यवस्था के युग को समाप्त करते हुए, अनुग्रह के युग का आरंभ किया, परमेश्वर के करुणामय और प्रेम भरे स्वभाव को व्यक्त किया और मनुष्य के छुटकारे का कार्य पूरा किया। क्या प्रभु यीशु ने स्वयं परमेश्वर का कार्य पूरा किया? प्रभु यीशु का वचन और कार्य परमेश्वर की आत्मा की सीधी अभिव्यक्ति है। क्‍या यह प्रमाण नहीं है कि परमेश्वर की आत्मा मनुष्य से वचन बोलने और उनके लिए कार्य करने, उनके समक्ष प्रकट होने के लिए देह रूप में आयी थी? क्या ऐसा संभव हो सकता है कि चाहे परमेश्वर की आत्मा जैसे भी वचन बोलती हो और कार्य करती हो, हम उनको पहचान पाने में असमर्थ हैं? क्या देह का यह बाहरी आवरण सचमुच हमें मसीह के दिव्य सार की पहचान करने से रोक सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि जब परमेश्वर की आत्मा वचन बोलने और कार्य करने के लिए देहधारण करती है, हम चाहे कितना भी अनुभव करें, फिर भी हम परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को पहचान पाने में असमर्थ होंगे? अगर ऐसी बात है, तो हम अपने विश्वास में काफ़ी पीछे रह गए हैं। और हम किस तरह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त कर सकते हैं?

"भक्ति का भेद - भाग 2" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश

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