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मेन्‍यू

परमेश्वर मनुष्य के साथ अपनी वाचा के लिए इंद्रधनुष को प्रतीक के रूप में उपयोग करता है

उत्पत्ति 9:11-13 “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्‍ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” फिर परमेश्वर ने कहा, “जो वाचा मैं तुम्हारे साथ, और जितने जीवित प्राणी तुम्हारे संग हैं उन सब के साथ भी युग-युग की पीढ़ियों के लिये बाँधता हूँ, उसका यह चिह्न है : मैं ने बादल में अपना धनुष रखा है, वह मेरे और पृथ्वी के बीच में वाचा का चिह्न होगा।”

अधिकांश लोग जानते हैं कि इंद्रधनुष क्या है और उन्होंने इंद्रधनुष से जुड़ी कुछ कहानियों को सुना है। जहाँ तक बाइबल में इंद्रधनुष के बारे में उस कहानी की बात है, कुछ लोग इसका विश्वास करते हैं, कुछ इसे किंवदंती की तरह मानते हैं, जबकि अन्य लोग इस पर बिलकुल भी विश्वास नहीं करते। चाहे जो हो, इंद्रधनुष के संबंध में घटित सभी घटनाएं परमेश्वर का कार्य थीं और मनुष्य के लिए परमेश्वर के प्रबंधन की प्रक्रिया के दौरान घटित हुई थीं। इन घटनाओं को बाइबल में हूबहू लिखा गया है। ये अभिलेख हमें यह नहीं बताते हैं कि उस समय परमेश्वर किस मनोदशा में था या इन वचनों के पीछे उसके क्या इरादे थे, जिन्हें परमेश्वर ने कहा था। इसके अतिरिक्त, कोई भी इसका आकलन नहीं कर सकता कि जब परमेश्वर ने उन्हें कहा तो वह कैसा महसूस कर रहा था। फिर भी, इस समूचे हालात के लिहाज से परमेश्वर के मन की दशा को पाठ की पंक्तियों के बीच प्रकट किया गया है। यह ऐसा है, मानो परमेश्वर के वचन के प्रत्येक शब्द एवं वाक्यांश के ज़रिये उस समय के उसके विचार पन्नों से निकल पड़ते हैं।

ये परमेश्वर के विचार हैं, जिनके बारे में लोगों को चिंतित होना चाहिए और जिन्हें जानने के लिए उन्हें सबसे अधिक कोशिश करनी चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर के विचार परमेश्वर के विषय में मनुष्य की समझ से जटिल ढंग से जुड़े हैं और परमेश्वर के बारे में मनुष्य की समझ मनुष्य के जीवन प्रवेश की एक अनिवार्य कड़ी है। अतः, परमेश्वर उस समय क्या सोच रहा था जब ये घटनाएं घटित हुई थीं?

मूल रूप से, परमेश्वर ने ऐसी मानवता की सृष्टि की थी जो उसकी दृष्टि में बहुत ही अच्छी और उसके बहुत ही निकट थी, किंतु उसके विरुद्ध विद्रोह करने के पश्चात जलप्रलय द्वारा उनका विनाश कर दिया गया। क्या इससे परमेश्वर को कष्ट पहुँचा कि एक ऐसी मानवता तुरंत ही इस तरह विलुप्त हो गई थी? निश्चय ही इससे कष्ट पहुँचा! तो उसकी इस दर्द की अभिव्यक्ति क्या थी? बाइबल में इसे कैसे लिखा गया? इसे बाइबल में इस रूप से लिखा गया : “और मैं तुम्हारे साथ अपनी यह वाचा बाँधता हूँ कि सब प्राणी फिर जल-प्रलय से नष्‍ट न होंगे : और पृथ्वी का नाश करने के लिये फिर जल-प्रलय न होगा।” यह साधारण वाक्य परमेश्वर के विचारों को प्रकट करता है। संसार के इस विनाश ने उसे बहुत अधिक दुःख पहुँचाया। मनुष्य के शब्दों में, वह बहुत ही दुःखी था। हम कल्पना कर सकते हैं : जलप्रलय के द्वारा नाश किए जाने के बाद पृथ्वी जो किसी समय जीवन से भरी हुई थी, वह कैसी दिखाई देती थी? वह पृथ्वी जो किसी समय मानवों से भरी हुई थी, अब कैसी दिखती थी? कोई मानवीय निवास नहीं, कोई जीवित प्राणी नहीं, हर जगह पानी ही पानी और जल की सतह पर पूरी तरह तबाही। जब परमेश्वर ने संसार को बनाया तो क्या उसकी मूल इच्छा ऐसा ही कोई दृश्य था? बिलकुल भी नहीं! परमेश्वर की मूल इच्छा थी कि वह समूची धरती पर जीवन देखे, जिन मानवों को उसने बनाया था उन्हें अपनी आराधना करते देखे, सिर्फ नूह ही उसकी आराधना करने वाला एकमात्र व्यक्ति न हो या ऐसा एकमात्र व्यक्ति जो उसकी पुकार का उत्तर दे सके और जो कुछ उसे सौंपा गया था, उसे पूर्ण करे। जब मानवता विलुप्त हो गई, तो परमेश्वर ने वह नहीं देखा, जिसकी उसने मूल रूप से इच्छा की थी बल्कि पूर्णतः विपरीत देखा। उसका हृदय तकलीफ में कैसे नहीं होता? अतः जब वह अपने स्वभाव को प्रकट कर रहा था और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा था, तब परमेश्वर ने एक निर्णय लिया। उसने किस प्रकार का निर्णय लिया? मनुष्य के साथ वाचा के रूप में बादल में एक धनुष बनाने का (यानी, वे इंद्रधनुष जो हम देखते हैं), एक प्रतिज्ञा कि परमेश्वर दोबारा मानवजाति का जलप्रलय से नाश नहीं करेगा। उसी समय, यह लोगों को बताने के लिए भी था कि परमेश्वर ने संसार को जलप्रलय से नाश किया था, ताकि मानवजाति हमेशा याद रखे कि परमेश्वर ने ऐसा कार्य क्यों किया था।

क्या उस समय संसार का विनाश कुछ ऐसा था जो परमेश्वर चाहता था? यह निश्चित रूप से वह नहीं था, जो परमेश्वर चाहता था। संसार के विनाश के बाद हम शायद पृथ्वी के दयनीय दृश्य के एक छोटे से भाग की कल्पना कर सकते हैं, परंतु हम सोच भी नहीं सकते कि उस समय परमेश्वर की निगाहों में वह दृश्य कैसा था। हम कह सकते हैं कि चाहे यह आज के लोग हों या उस समय के, कोई भी यह कल्पना या आकलन नहीं कर सकता कि परमेश्वर उस समय क्या महसूस कर रहा था, जब उसने वो दृश्य, संसार की वो तस्वीर देखी जो जलप्रलय के द्वारा विनाश के बाद की थी। मनुष्य के विद्रोहीपन के कारण परमेश्वर इसे करने के लिए मजबूर हुआ था, परंतु जलप्रलय से संसार के विनाश के कारण परमेश्वर के हृदय के द्वारा सहा गया दर्द एक वास्तविकता है, जिसकी कोई थाह नहीं ले सकता या समझ नहीं सकता। इसीलिए परमेश्वर ने मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, जो लोगों को यह बताने के लिए थी कि वे स्मरण रखें कि परमेश्वर ने किसी समय ऐसा कुछ किया था और उन्हें यह वचन देने के लिए था कि परमेश्वर कभी संसार का इस तरह दोबारा नाश नहीं करेगा। इस वाचा में हम परमेश्वर के हृदय को देखते हैं—हम देखते हैं कि परमेश्वर का हृदय पीड़ा में था, जब उसने मानवता का नाश किया। मनुष्य की भाषा में, जब परमेश्वर ने मानवजाति का नाश किया और मानवजाति को विलुप्त होते हुए देखा, तो उसका हृदय रो रहा था और उससे लहू बह रहा था। क्या उसके वर्णन का यह सबसे उत्तम तरीका नहीं है? मानवीय भावनाओं को दर्शाने के लिए इन शब्दों को मनुष्य द्वारा उपयोग किया जाता है, पर चूँकि मनुष्य की भाषा में बहुत कमी है, तो परमेश्वर के अहसास एवं भावनाओं का वर्णन करने के लिए उनका उपयोग करना मुझे बहुत बुरा नहीं लगता और न ही यह बहुत ज़्यादा है। कम से कम यह तुम लोगों को उस समय परमेश्वर की मनोदशा क्या थी, उसकी एक बहुत जीवंत एवं बहुत ही उपयुक्त समझ प्रदान करता है। जब तुम लोग इंद्रधनुष को दोबारा देखोगे, तो अब तुम क्या सोचोगे? कम से कम तुम लोग स्मरण करोगे कि किस प्रकार एक समय परमेश्वर जल-प्रलय के द्वारा संसार के विनाश पर दुःखी था। तुम लोग स्मरण करोगे कि कैसे, यद्यपि परमेश्वर ने इस संसार से नफ़रत की और इस मानवता को तुच्छ जाना था, जब उसने उन मनुष्यों का विनाश किया, जिन्हें उसने अपने हाथों से बनाया था तो उसका हृदय दुख रहा था, उसका हृदय उन्हें छोड़ने के लिए संघर्ष कर रहा था, उसका हृदय अनिच्छुक था और इसे सहना कठिन महसूस हो रहा था। उसका सुकून सिर्फ नूह के परिवार के आठ लोगों में ही था। यह नूह का सहयोग था, जिसने सभी चीज़ों की सृष्टि करने के परमेश्वर के श्रमसाध्य प्रयासों को व्यर्थ नहीं जाने दिया। एक समय जब परमेश्वर कष्ट में था, तब यह एकमात्र चीज़ थी जो उसकी पीड़ा की क्षतिपूर्ति कर सकती थी। उस बिंदु से, परमेश्वर ने मानवता की अपनी सारी अपेक्षाओं को नूह के परिवार के ऊपर डाल दिया, इस उम्मीद में कि वे उसके आशीषों के अधीन जीवन बिताएँगे और उसके शाप के अधीन नहीं, इस उम्मीद में कि वे परमेश्वर को फिर कभी संसार का जलप्रलय से नाश करते हुए नहीं देखेंगे, और इस उम्मीद में भी कि उनका विनाश नहीं किया जाएगा।

इससे हमको परमेश्वर के स्वभाव के किस भाग को समझना चाहिए? परमेश्वर ने मनुष्य से घृणा की थी क्योंकि मनुष्य उसके प्रति शत्रुतापूर्ण था, लेकिन उसके हृदय में, मानवता के लिए उसकी देखभाल, चिंता एवं दया अपरिवर्तनीय बनी रही। यहाँ तक कि जब उसने मानवजाति का नाश किया, उसका हृदय अपरिवर्तनीय बना रहा। जब मानवता भ्रष्टता से भरकर परमेश्वर के प्रति एक गंभीर हद तक विद्रोही हो गई तो उसे अपने स्वभाव एवं अपने सार के कारण और अपने सिद्धांतों के अनुसार इस मानवता का विनाश करना पड़ा था। लेकिन परमेश्वर के सार के कारण, उसने तब भी मानवजाति पर दया की और यहाँ तक कि वह मानवजाति के छुटकारे के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग करना चाहता था ताकि वे निरंतर जीवित रह सकें। लेकिन, मनुष्य ने परमेश्वर का विरोध किया, परमेश्वर से विद्रोह करना जारी रखा और परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने से इनकार किया; अर्थात् उसके अच्छे इरादों को स्वीकार करने से इनकार किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर ने उन्हें कैसे पुकारा, उन्हें कैसे स्मरण दिलाया, कैसे उनकी आपूर्ति की, कैसे उनकी सहायता की या कैसे उनको सहन किया, मनुष्य ने न तो इसे समझा, न सराहा, न ही उन्होंने कुछ ध्यान दिया। अपनी पीड़ा में, परमेश्वर अब भी मनुष्य के प्रति अधिकतम सहनशील बना रहा था, इस इंतज़ार में कि मनुष्य ढर्रा बदलेगा। अपनी सीमा पर पहुँचने के पश्चात, परमेश्वर ने बिना किसी हिचकिचाहट के वह किया, जो उसे करना था। दूसरे शब्दों में, उस घड़ी जब परमेश्वर ने मानवजाति का विनाश करने की योजना बनाई, तब से उसके मानवजाति के विनाश के अपने कार्य की आधिकारिक शुरुआत तक, एक विशेष समय अवधि एवं प्रक्रिया थी। यह प्रक्रिया मनुष्य को ढर्रा बदलने योग्य बनाने के उद्देश्य के लिए अस्तित्व में थी और यह वह आख़िरी मौका था, जो परमेश्वर ने मनुष्य को दिया था। अतः परमेश्वर ने मानवजाति का विनाश करने से पहले इस अवधि में क्या किया था? परमेश्वर ने प्रचुर मात्रा में स्मरण दिलाने एवं प्रोत्साहन देने का कार्य किया था। चाहे परमेश्वर का हृदय कितनी भी पीड़ा एवं दुःख में था, उसने मानवता पर अपनी देखभाल, चिंता और भरपूर दया को जारी रखा। हम इससे क्या देखते हैं? बेशक, हम देखते हैं कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तविक है और कोई ऐसी चीज़ नहीं जिसके प्रति वह दिखावा कर रहा हो। यह वास्तविक, स्‍पर्शगम्‍य एवं प्रशंसनीय है, न कि जाली, मिलावटी, झूठा या कपटपूर्ण। परमेश्वर कभी किसी छल का उपयोग नहीं करता या झूठी छवियाँ नहीं बनाता कि लोगों को यह दिखाए कि वह कितना मनभावन है। वह लोगों को अपनी मनोहरता दिखाने के लिए या अपनी मनोहरता एवं पवित्रता के दिखावे के लिए झूठी गवाही का उपयोग कभी नहीं करता। क्या परमेश्वर के स्वभाव के ये पहलू मनुष्य के प्रेम के लायक नहीं हैं? क्या ये आराधना के योग्य नहीं हैं? क्या ये संजोकर रखने के योग्य नहीं हैं? इस बिंदु पर, मैं तुम लोगों से पूछना चाहता हूँ : इन शब्दों को सुनने के बाद, क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर की महानता कागज के टुकड़ों पर लिखे गए खोखले शब्द मात्र है? क्या परमेश्वर की मनोहरता केवल खोखले शब्द ही है? नहीं! निश्चित रूप से नहीं! परमेश्वर की सर्वोच्चता, महानता, पवित्रता, सहनशीलता, प्रेम, इत्यादि—परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के इन सब विभिन्न पहलुओं के हर विवरण को हर उस समय व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिलती है, जब वह अपना कार्य करता है, ये सब मनुष्य के प्रति उसके इरादे में समाहित हैं और ये प्रत्येक व्यक्ति में भी साकार और प्रतिबिंबित होते हैं। चाहे तुमने इसे पहले महसूस किया हो या नहीं, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की हर संभव तरीके से देखभाल कर रहा है, वह प्रत्येक व्यक्ति के हृदय को स्नेह देने और प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा को जगाने के लिए अपने निष्कपट हृदय, बुद्धि एवं विभिन्न तरीकों का उपयोग कर रहा है। यह एक निर्विवादित तथ्य है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि यहाँ कितने लोग बैठे हैं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के पास परमेश्वर की सहनशीलता, धीरज एवं मनोहरता के विषय में अलग-अलग अनुभव और उसके प्रति अलग-अलग भावनाएँ हैं। परमेश्वर के ये अनुभव और उसके प्रति ये भावनाएँ या अनुभूति—संक्षेप में, ये सभी सकरात्मक चीज़ें परमेश्वर की ओर से हैं। अतः परमेश्वर के विषय में प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव एवं ज्ञान को मिलकर और इन्हें आज बाइबल के इन अंशों के हमारे पठन से जोड़कर, क्या अब तुम लोगों के पास परमेश्वर की और अधिक वास्तविक एवं उचित समझ है?

इस कहानी को पढ़ने और इस घटना के ज़रिए प्रकट परमेश्वर के स्वभाव के कुछ भाग को समझने के पश्चात, तुम लोगों के पास परमेश्वर के बारे में कैसा नया ज्ञान है? क्या इसने तुम लोगों को परमेश्वर एवं उसके हृदय की एक गहरी समझ प्रदान की है? क्या अब तुम दोबारा नूह की कहानी को देखने पर अलग महसूस करते हो? तुम लोगों के विचारों के अनुसार, क्या बाइबल के इन पदों के बारे में संगति करना अनावश्यक था? अब जब हमने उन पर संगति कर ली है, क्या तुम लोग सोचते हो कि यह अनावश्यक था? निश्चित ही यह आवश्यक था! हालाँकि जो हमने पढ़ी, वह एक कहानी है, फिर भी यह उस कार्य का सच्चा अभिलेख है, जो परमेश्वर ने किया है। मेरा लक्ष्य यह नहीं था कि तुम लोगों को इन कहानियों के विवरणों या इस पात्र को समझाऊँ, न ही यह था कि तुम लोग जाकर इस पात्र का अध्ययन कर सको और निश्चित रूप से यह भी नहीं था कि तुम लोग वापस जाओ और फिर से बाइबल का अध्ययन करो। क्या तुम लोग समझ गए? तो क्या इन कहानियों ने परमेश्वर के विषय में तुम लोगों का ज्ञान बढ़ाया है? इस कहानी ने परमेश्वर के विषय में तुम लोगों की समझ में क्या जोड़ा है? हाँगकाँग के भाइयो एवं बहनो, हमें बताओ। (हमने देखा कि परमेश्वर का प्रेम कुछ ऐसा है, जो हममें से किसी भ्रष्ट मानव में नहीं है।) दक्षिण कोरिया के भाइयो एवं बहनो, तुम लोग बताओ। (मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम वास्तविक है। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम उसके स्वभाव को लिए हुए है और उसकी महानता, पवित्रता, सर्वोच्चता एवं उसकी सहनशीलता को लिए हुए है। यह इस योग्य है कि हम इसकी गहरी समझ प्राप्त करने की कोशिश करें।) (संगति के माध्यम से उस समय, एक ओर, मैं परमेश्वर के धार्मिक एवं पवित्र स्वभाव को देख सकता हूँ और साथ ही मैं उस चिंता को भी देख सकता हूँ जो मानवजाति के लिए परमेश्वर को है, मानवजाति के प्रति परमेश्वर की दया को देख सकता हूँ और हर चीज़ जो परमेश्वर करता है और उसका हर चिंतन एवं विचार, यह सब मानवता के लिए उसके प्रेम एवं चिंता को प्रकट करता है।) (अतीत में मेरी समझ यह थी कि परमेश्वर ने संसार का विनाश करने के लिए जलप्रलय का उपयोग किया था क्योंकि मानवजाति एक गंभीर हद तक बुरी हो गई थी, और यह ऐसा था मानो परमेश्वर ने इस मानवता का विनाश किया क्योंकि उसको उससे घृणा थी। आज जब परमेश्वर ने नूह की कहानी के बारे में बात की और कहा कि परमेश्वर के हृदय से लहू बह रहा था, उसके बाद ही मुझे लगा कि परमेश्वर असल में इस मानवता को छोड़ने का अनिच्छुक था। मानवजाति बहुत ही विद्रोही थी, इसलिए परमेश्वर के पास उनका नाश करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। असल में, परमेश्वर का हृदय उस समय बहुत दुःखी था। यहां से, मैं परमेश्वर के स्वभाव में मानवजाति के लिए उसकी देखभाल एवं चिंता को देख सकती हूँ। यह कुछ ऐसा है, जो मैं पहले नहीं जानती थी।) बहुत अच्छा! अब बाकी लोग बता सकते हैं। (सुनने के बाद मैं बहुत प्रभावित हुआ था। मैंने अतीत में बाइबल पढ़ी है, किंतु मैंने आज के समान कभी अनुभव नहीं किया, जहाँ परमेश्वर सीधे तौर पर इन चीज़ों का विश्लेषण करता है, जिससे हम उसे जान सकें। बाइबल को देखने के लिए परमेश्वर हमें इस तरह साथ ले चलता है, जो मुझे यह जानने का मौका देता है कि मनुष्य की भ्रष्टता से पहले परमेश्वर का सार मानवजाति के लिए प्रेम एवं परवाह था। मनुष्य के भ्रष्ट होने के समय से लेकर आज के अंतिम दिनों तक, भले ही परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है, फिर भी उसका प्रेम एवं परवाह अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह दिखाता है कि चाहे मनुष्य भ्रष्ट है या नहीं, सृष्टि से लेकर अब तक परमेश्वर के प्रेम का सार, कभी नहीं बदलता।) (आज मैंने देखा कि उसके कार्य के समय या स्थान में हुए परिवर्तन की वजह से परमेश्वर का सार नहीं बदलेगा। मैंने यह भी देखा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर संसार को बना रहा है या मनुष्य के भ्रष्ट होने के पश्चात इसका नाश कर रहा है, वह जो कुछ करता है उसका अर्थ होता है और इसमें उसका स्वभाव शामिल होता है। इसलिए मैंने देखा कि परमेश्वर का प्रेम असीमित एवं अगाध है, और साथ ही मैंने, जैसा अन्य भाईयों एवं बहनों ने जिक्र किया, मानवजाति के प्रति परमेश्वर की परवाह एवं दया को भी देखा, जब परमेश्वर ने संसार का विनाश किया था।) (ये ऐसी चीज़ें थीं जिन्हें मैं वास्तव में पहले से नहीं जानती थी। आज यह सब सुनने के बाद, मैं महसूस करती हूँ कि परमेश्वर सचमुच में विश्वसनीय है, सचमुच में भरोसे के लायक है, विश्वास करने योग्य है और उसका वास्तव में अस्तित्व है। मैं सही मायनों में अपने हृदय में सराहना कर सकती हूँ कि परमेश्वर का स्वभाव और प्रेम वास्तव में इतना ठोस है। आज की बातें सुनने के बाद मुझमें यह भावना है।) बहुत बढ़िया! ऐसा लगता है कि जो कुछ तुम लोगों ने सुना है, उसे तुम लोगों ने किया आत्मसात है।

क्या तुम लोगों ने बाइबल के सभी पदों में एक बात पर ध्यान दिया है, जिसमें बाइबल की वो कहानियां भी शामिल हैं, जिन पर हमने आज संगति की? क्या परमेश्वर ने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए या मानवता के लिए अपने प्रेम एवं देखरेख का वर्णन करने के लिए कभी अपनी भाषा का उपयोग किया है? क्या उसका कोई अभिलेख है, जहाँ वह यह बताने के लिए साधारण भाषा का उपयोग करता है कि वह मानवजाति के लिए कितना चिंतित है या उससे कितना प्रेम करता है? नहीं। क्या यह सही नहीं है? तुम लोगों में से बहुत से हैं, जिन्होंने बाइबल या बाइबल के अलावा किताबें पढ़ी हैं। क्या तुम में से किसी ने ऐसे वचन देखे हैं? उत्तर निश्चित रूप से न है! अर्थात, बाइबल के अभिलेखों में, परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य के दस्तावेज़ समेत, परमेश्वर ने मानवजाति के लिए अपनी भावनाओं का वर्णन करने के लिए या अपने प्रेम एवं परवाह को व्यक्त करने के लिए किसी युग में या किसी समयावधि में अपने स्वयं के तरीकों का उपयोग कभी नहीं किया है, न ही कभी परमेश्वर ने अपने अहसास एवं भावनाओं को बताने के लिए भाषण या किन्हीं तरीकों का उपयोग किया है—क्या यह एक तथ्य नहीं है? मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मुझे इसका ज़िक्र क्यों करना पड़ता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इसमें भी परमेश्वर की मनोहरता एवं उसका स्वभाव समाविष्ट है।

परमेश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की; इसकी परवाह किए बगैर कि उन्हें भ्रष्ट किया गया है या वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर मनुष्य से अपने सबसे अधिक दुलारे प्रियजनों के समान व्यवहार करता है—या जैसा मानव कहेंगे, ऐसे लोग जो उसके लिए अतिप्रिय हैं—और उसके खिलौनों जैसा नहीं। भले ही परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसका सृजित प्राणी है, जो सुनने में ऐसा लग सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अंतर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है, वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है। इसीलिए, चाहे यह बाइबल में हो या किसी अन्य पुस्तक में, हम परमेश्वर को कभी अपने विचार व्यक्त करते हुए नहीं पाते हैं और हम कभी परमेश्वर को मनुष्यों को यह वर्णन करते या घोषणा करते हुए नहीं पाते हैं कि वह इन कार्यों को क्यों करता है या वह मानवजाति की इतनी देखरेख क्यों करता है, जिससे वह मानवजाति को अपने प्रति आभारी बनाए या उससे अपनी स्तुति कराए। यहाँ तक कि जब उसे क़़ष्ट भी होता है, जब उसका हृदय अत्यंत पीड़ा में होता है, तब भी वह मानवजाति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी या मानवजाति के लिए अपनी चिंता को कभी नहीं भूलता; वह पूरे समय इस कष्ट एवं दर्द को चुपचाप अकेला सहता रहता है। इसके विपरीत, परमेश्वर निरंतर मानवजाति को प्रदान करता रहता है जैसा कि वह हमेशा से करता आया है। हालाँकि मानवजाति अक्सर परमेश्वर की स्तुति करती है या उसकी गवाही देती है, पर इसमें से किसी भी व्यवहार की माँग परमेश्वर द्वारा नहीं की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर कभी ऐसा इरादा नहीं रखता कि मानवजाति के लिए किए गए उसके अच्छे कार्य के बदले उसे धन्यवाद दिया जाए या उसका मूल्य वापस किया जाए। दूसरी ओर, ऐसे लोग जो परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहते हैं, जो सचमुच परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, उसको सुनते हैं और उसके प्रति वफादार हैं और जो उसके प्रति समर्पण कर सकते हैं—ये ऐसे लोग हैं, जो प्रायः परमेश्वर के आशीष प्राप्त करते हैं और परमेश्वर बिना किसी हिचकिचाहट के ऐसे आशीष प्रदान करेगा। इसके अतिरिक्त, ऐसे आशीष जिन्हें लोग परमेश्वर से प्राप्त करते हैं, अक्सर उनकी कल्पना से परे होते हैं और साथ ही किसी भी ऐसी चीज़ से परे होते हैं, जिसका औचित्य मानव उससे सिद्ध कर सकते हों जो उन्होंने किया है या जो कीमत उन्होंने चुकाई है। जब मानवजाति परमेश्वर के आशीष का आनंद ले रही होती है, तब क्या कोई परवाह करता है कि परमेश्वर क्या कर रहा है? क्या कोई किसी प्रकार की चिंता करता है कि परमेश्वर कैसा महसूस कर रहा होता है? क्या कोई परमेश्वर की पीड़ा के आकलन की कोशिश करता है? इन प्रश्नों का साफ उत्तर है, नहीं! क्या नूह समेत कोई मनुष्य उस दर्द का आकलन कर सकता है, जिसे परमेश्वर उस समय महसूस कर रहा था? क्या कोई समझ सकता है कि क्यों परमेश्वर ऐसी वाचा तैयार करेगा? वे नहीं समझ सकते! मानवजाति परमेश्वर की पीड़ा का आकलन नहीं करती है, इसलिए नहीं कि वो परमेश्वर की पीड़ा नहीं समझती और इसलिए नहीं कि परमेश्वर एवं मनुष्य के बीच अंतर है या उनकी हैसियत में अंतर है; बल्कि इसलिए क्योंकि मानवजाति परमेश्वर की किसी भावना की बिल्कुल परवाह नहीं करती। मानवजाति सोचती है कि परमेश्वर तो आत्मनिर्भर है—परमेश्वर को इसकी कोई आवश्यकता नहीं है कि लोग उसकी देखरेख करें, उसे समझें या उसके प्रति परवाह दिखाएं। परमेश्वर तो परमेश्वर है, अतः उसे कोई दर्द नहीं होता, उसकी कोई भावनाएँ नहीं हैं; वह दुःखी नहीं होगा, वह शोक महसूस नहीं करता है, यहाँ तक कि वह रोता भी नहीं है। परमेश्वर तो परमेश्वर है, इसलिए उसे किसी भावनात्मक अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है और उसे किसी भावनात्मक सुकून की आवश्यकता नहीं है। यदि उसे कुछ निश्चित परिस्थितियों में इनकी आवश्यकता होती भी है, तो वह अकेले ही इस सबसे निपट सकता है और उसे मानवजाति से किसी सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके विपरीत, यह तो कमज़ोर, अपरिपक्व मनुष्य हैं, जिन्हें परमेश्वर की सांत्वना, भोजन-प्रबंध एवं प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है और यहाँ तक कि उन्हें अपनी भावनाओं को किसी भी समय एवं स्थान पर सांत्वना देने के लिए भी परमेश्वर की आवश्यकता होती है। ऐसी चीज़ें मानवजाति के हृदय के भीतर गहराई में छिपी होती हैं : मनुष्य कमज़ोर प्राणी है; उन्हें परमेश्वर की आवश्यकता होती है कि वह हर तरीके से उनकी देखरेख करे, वे परमेश्वर से मिलने वाली सब प्रकार की देखभाल के हकदार हैं और उन्हें परमेश्वर से किसी भी ऐसी चीज़ की माँग करनी चाहिए जिसे वे महसूस करते हैं कि वह उनकी होनी चाहिए। परमेश्वर बलवान है; उसके पास सब कुछ है और उसे मानवजाति का अभिभावक और आशीष प्रदान करने वाला होना चाहिए। चूँकि वह पहले से ही परमेश्वर है, वह सर्वशक्तिमान है और उसे मानवजाति से कभी किसी भी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती है।

चूँकि मनुष्य परमेश्वर के किसी भी प्रकाशन पर ध्यान नहीं देता है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर के शोक, पीड़ा या आनंद को महसूस नहीं किया है। परंतु इसके विपरीत, परमेश्वर मनुष्य की सभी अभिव्यक्तियों को अंदर-बाहर अच्छी तरह जानता है। परमेश्वर सभी समय एवं सभी स्थानों पर प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है, प्रत्येक मनुष्य के बदलते विचारों का अवलोकन करता है और इस प्रकार उनको सांत्वना एवं प्रोत्साहन देता है और उन्हें मार्गदर्शन देता और रोशन करता है। उन सभी चीजों के संदर्भ में जो परमेश्वर ने मानवजाति पर की हैं और उनके कारण उसने जो कीमतें चुकाई हैं, क्या लोग बाइबल से या किसी ऐसी चीज़ से एक अंश भी ढूँढ़ सकते हैं, जो परमेश्वर ने अब तक कहा है, जो साफ़-साफ़ कहता हो कि परमेश्वर मनुष्य से किसी चीज़ की माँग करेगा? नहीं! इसके विपरीत, चाहे लोग परमेश्वर की सोच को कितना भी अनदेखा करें, वह फिर भी बार-बार मानवजाति की अगुआई करता है, बार-बार मानवजाति की आपूर्ति करता है और उनकी सहायता करता है कि वे परमेश्वर के मार्ग पर चल सकें ताकि वे उस खूबसूरत मंज़िल को प्राप्त कर सकें जो उसने उनके लिए तैयार की है। जब परमेश्वर की बात आती है, जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके अनुग्रह, उसकी दया और उसके सभी प्रतिफल बिना किसी हिचकिचाहट के उन लोगों को प्रदान किए जाएँगे, जो उससे प्रेम एवं उसका अनुसरण करते हैं। किंतु वह उस पीड़ा को, जो उसने सही है या अपनी मनोदशा को कभी किसी व्यक्ति पर प्रकट नहीं करता और वह किसी के बारे में कभी शिकायत नहीं करता कि वह उसके प्रति ध्यान नहीं देता या उसके इरादों को नहीं जानता है। वह खामोशी से यह सब सहता है, उस दिन का इंतज़ार करते हुए जब मानवजाति यह समझने के योग्य हो जाएगी।

मैं यहाँ ये बातें क्यों कहता हूँ? तुम लोग उन बातों में क्या देखते हो जिन्हें मैंने कहा है? परमेश्वर के सार एवं स्वभाव में कुछ ऐसा है जिसे बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ किया सकता है, कुछ ऐसा जो केवल परमेश्वर के ही पास है और किसी व्यक्ति के पास नहीं, इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें अन्य महान, अच्छे लोग या अपनी कल्पना में परमेश्वर मानते हैं। यह चीज़ क्या है? यह परमेश्वर की निःस्वार्थता है। निःस्वार्थता के बारे में बोलते समय, शायद तुम सोचोगे कि तुम भी बहुत निःस्वार्थ हो क्योंकि जब तुम्हारे बच्चों की बात आती है, तो तुम उनके साथ कभी सौदा या मोलभाव नहीं करते या तुम्हें लगता है कि तुम तब भी बहुत निःस्वार्थ होते हो, जब तुम्हारे माता-पिता की बात आती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम क्या सोचते हो, कम से कम तुम्हारे पास “निःस्वार्थ” शब्द की एक अवधारणा तो है और तुम इसे एक सकारात्मक शब्द और यह तो मानते हो निःस्वार्थ व्यक्ति होना बहुत ही श्रेष्ठ होना है। जब तुम निःस्वार्थ होते हो, तो तुम स्वयं को अत्यधिक सम्मान देते हो। परंतु ऐसा कोई नहीं है, जो सभी चीज़ों के मध्य, सभी लोगों, घटनाओं एवं वस्तुओं के मध्य और उसके कार्य में परमेश्वर की निःस्वार्थता को देख सके। ऐसी स्थिति क्यों है? क्योंकि मनुष्य बहुत स्वार्थी है! मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मानवजाति एक भौतिक संसार में रहती है। तुम परमेश्वर का अनुसरण तो करते हो, किंतु तुम कभी नहीं देखते या तारीफ नहीं करते कि किस प्रकार परमेश्वर तुम्हारे लिए आपूर्तियाँ करता है, तुम्हें प्रेम करता है और तुम्हारे लिए चिंता करता है। तो तुम क्या देखते हो? तुम अपने खून के रिश्तेदारों को देखते हो, जो तुम्हें प्रेम करते हैं या तुम्हें बहुत स्नेह करते हैं। तुम उन चीज़ों को देखते हो, जो तुम्हारी देह के लिए लाभकारी हैं, तुम उन लोगों एवं चीज़ों की परवाह करते हो, जिनसे तुम प्रेम करते हो। यह मनुष्य की तथाकथित निःस्वार्थता है। ऐसे “निःस्वार्थ” लोग कभी भी उस परमेश्वर की चिंता नहीं करते, जो उन्हें जीवन देता है। परमेश्वर के विपरीत, मनुष्य की निःस्वार्थता मतलबी एवं निंदनीय हो जाती है। वह निःस्वार्थता जिसमें मनुष्य विश्वास करता है, खोखली एवं अवास्तविक, मिलावटी, परमेश्वर से असंगत एवं परमेश्वर से असंबद्ध है। मनुष्य की निःस्वार्थता सिर्फ उसके लिए है, जबकि परमेश्वर की निःस्वार्थता उसके सार का सच्चा प्रकाशन है। यह बिलकुल परमेश्वर की निःस्वार्थता की वजह से है कि मनुष्य उससे निरंतर आपूर्ति प्राप्त करता रहता है। तुम लोग शायद इस विषय से, जिसके बारे में आज मैं बात कर रहा हूँ, अत्यंत गहराई से प्रभावित न हो और मात्र सहमति में सिर हिला रहे हो, परंतु जब तुम अपने हृदय में परमेश्वर के हृदय की सराहना करने की कोशिश करते हो, तो तुम अनजाने में ही इसे जान जाओगे : सभी लोगों, मामलों एवं चीज़ों के मध्य, जिन्हें तुम इस संसार में महसूस कर सकते हो, केवल परमेश्वर की निःस्वार्थता ही वास्तविक एवं ठोस है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर का प्रेम ही तुम्हारे लिए बिना किसी शर्त के है और बेदाग है। परमेश्वर के अतिरिक्त, किसी भी व्यक्ति की तथाकथित निःस्वार्थता झूठी, सतही एवं अप्रामाणिक है; उसका एक उद्देश्य होता है, निश्चित इरादे होते हैं, समझौते होते हैं और वह परीक्षा में नहीं ठहर सकती। तुम यह तक कह सकते हो कि यह गंदी एवं घिनौनी है। क्या तुम लोग इन वचनों से सहमत हो?

मैं जानता हूँ कि तुम लोग इन विषयों से बिलकुल अपरिचित हो और इससे पहले कि तुम सचमुच इन्हें समझ सको, इन्हें मन में उतारने के लिए तुम लोगों को थोड़ा समय चाहिए। जितना अधिक तुम लोग इन मुद्दों एवं विषयों से अपरिचित होते हो, उतना ही अधिक यह साबित करता है कि तुम लोगों के हृदय में ये विषय अनुपस्थित हैं। यदि मैंने इन विषयों का कभी जिक्र नहीं किया होता, तो क्या तुम लोगों में से कोई भी उनके बारे में कुछ भी जान पाता? मैं मानता हूँ कि तुम लोग कभी उन्हें नहीं जान पाते। यह तो निश्चित है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम लोग इन विषयों के बारे में कितना कुछ समझ या बूझ सकते हो, संक्षेप में, जिनके बारे में मैं बोलता हूँ, ये ऐसे विषय हैं जिनकी लोगों में सबसे अधिक कमी है और जिनके बारे में उन्हें सबसे अधिक जानना चाहिए। ये विषय प्रत्येक के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं—ये बहुमूल्य हैं और यही जीवन हैं, और ऐसी चीज़ें हैं, जिन्हें आगे के मार्ग के लिए तुम लोगों के पास अवश्य ही होना चाहिए। मार्गदर्शन के रूप में इन वचनों के बिना, परमेश्वर के स्वभाव एवं सार के बारे में तुम्हारी समझ के बिना, परमेश्वर के मामले में तुम हमेशा एक प्रश्न चिह्न लेकर चलोगे। तुम परमेश्वर में अच्छी तरह कैसे विश्वास कर सकते हो, यदि तुम उसे समझते ही नहीं हो? तुम परमेश्वर की भावनाओं, उसके इरादों, उसकी मनोदशा, जो वह सोच रहा है, जो उसे उदास करता है और जो उसे खुश करता है, उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते, तो तुम परमेश्वर के हृदय की परवाह कैसे कर सकते हो?

जब कभी परमेश्वर परेशान होता है, उसके सामने एक ऐसी मानवजाति होती है, जो उसकी तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देती है, ऐसी मानवजाति जो उसका अनुसरण करती है और उससे प्रेम करने का दावा तो करती है लेकिन उसकी भावनाओं की पूरी तरह से उपेक्षा करती है। कैसे परमेश्वर के हृदय को चोट नहीं पहुँचेगी? परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य में, वह ईमानदारी से अपने कार्य को क्रियान्वित करता रहता है और प्रत्येक व्यक्ति से बात करता है, और बिना किसी प्रकार कि हिचकिचाहट या छिपाव के उनका सामना करता है; किंतु इसके विपरीत, हर व्यक्ति जो उसका अनुसरण करता है वह उसके प्रति खुला दिल नहीं रखता और कोई भी सक्रिय रूप से उसके करीब आने, उसके हृदय को समझने, या उसकी भावनाओं पर ध्यान देने के लिए तैयार नहीं होता। यहाँ तक कि वे जो परमेश्वर के अंतरंग होना चाहते हैं, वे भी उसके निकट आना, उसके हृदय की परवाह करना, या उसे समझने की कोशिश नहीं करना चाहते। जब परमेश्वर आनंदित एवं प्रसन्न होता है, तो उसकी प्रसन्नता को बाँटने के लिए कोई भी नहीं होता। जब लोगों द्वारा परमेश्वर को गलत समझा जाता है, तो उसके ज़ख़्मी हृदय को सांत्वना देने के लिए कोई भी नहीं होता। जब उसका हृदय दुख रहा होता है, तो एक भी व्यक्ति नहीं होता है जो उसे सुनने के लिए तैयार हो कि वह उस पर भरोसा करके कुछ कह सके। परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य के इन हज़ारों सालों के दौरान, ऐसा कोई नहीं हुआ है जो परमेश्वर की भावनाओं को समझता हो, न ही कोई ऐसा है जो उन्हें बूझता या सराहता रहा हो, किसी ऐसे व्यक्ति की तो बात ही छोड़ो जो परमेश्वर के आनंद एवं दुखों में सहभागी होने के लिए उसके बगल में खड़ा हो सके। परमेश्वर अकेला है। वह अकेला है! परमेश्वर सिर्फ़ इसलिए अकेला नहीं है क्योंकि भ्रष्ट मानवजाति उसका विरोध करती है, परंतु इससे भी अधिक वह इसलिए अकेला है क्योंकि वे जो आध्यात्मिक बनना चाहते हैं, वे जो परमेश्वर को जानने और उसे समझने का प्रयास करते हैं, और यहाँ तक कि वे भी जो उसके लिए अपने पूरे जीवन को खपाने के लिए तैयार हैं, वे भी उसके विचारों को नहीं जानते हैं और उसके स्वभाव एवं उसकी भावनाओं को नहीं समझते हैं।

नूह की कहानी के अंत में, हम देखते हैं कि उस समय परमेश्वर ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक असामान्य तरीके का उपयोग किया था। यह तरीका बहुत ही ख़ास था : मनुष्य के साथ एक वाचा बांधना, जिसने जलप्रलय से संसार के विनाश के अंत की घोषणा की। ऊपर से, एक वाचा बांधना बहुत ही साधारण सी बात लग सकती है। यह दो पक्षों को आबद्ध करने और अपने समझौते का उल्लंघन करने से रोकने के लिए शब्दों का उपयोग करने के अलावा और कुछ नहीं है, ताकि दोनों के हितों की रक्षा हो सके। देखने में, यह बहुत ही साधारण बात है, किंतु इसे करने के पीछे की प्रेरणा और परमेश्वर द्वारा इसे करने के इरादे से यह परमेश्वर के स्वभाव एवं मनोदशा का एक सच्चा प्रकाशन है। यदि तुम बस इन वचनों को एक तरफ रखते और उन्हें अनदेखा करते, यदि मैं तुम लोगों को इन चीज़ों की सच्चाई कभी न बताऊँ, तो मानवजाति परमेश्वर की सोच को वास्तव में कभी नहीं जान पाएगी। कदाचित तुम्हारी कल्पना में परमेश्वर मुस्कुरा रहा था जब उसने यह वाचा बाँधी, या कदाचित उसकी अभिव्यक्ति गंभीर थी, परंतु इसकी परवाह किए बगैर कि लोगों की कल्पनाओं में परमेश्वर के पास कौन सी सबसे सामान्य अभिव्यक्ति थी, कोई भी परमेश्वर के हृदय या उसकी पीड़ा को नहीं देख पाया था, उसके अकेलेपन की तो बात ही छोड़ो। कोई भी परमेश्वर से अपने ऊपर भरोसा नहीं करवा सकता या परमेश्वर के भरोसे के लायक नहीं हो सकता, या ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जिसके सामने परमेश्वर अपने विचारों को व्यक्त कर सके या जिसे अपनी पीड़ा बता सके। इसीलिए परमेश्वर के पास ऐसा कार्य करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं था। ऊपरी तौर पर, परमेश्वर ने मानवता को वैसे ही विदाई देकर एक आसान कार्य किया जैसी वह थी, भूतकाल के मुद्दे को व्यवस्थित किया और जलप्रलय द्वारा संसार के अपने विनाश का उपयुक्त निष्कर्ष निकाला। हालाँकि, परमेश्वर ने इसी क्षण से उस पीड़ा को अपने हृदय की गहराई में दफन कर दिया। ऐसे समय जब परमेश्वर के पास भरोसा करने लायक कोई नहीं था, उसने मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, उन्हें यह बताते हुए कि वह दोबारा संसार का जलप्रलय द्वारा नाश नहीं करेगा। जब इंद्रधनुष प्रकट हुआ तो यह लोगों को स्मरण दिलाने के लिए था कि किसी समय एक ऐसी घटना घटी थी और उन्हें चेतावनी देने के लिए था कि वे बुरे काम न करें। यहाँ तक कि ऐसी दुखदायी दशा में भी, परमेश्वर मानवजाति के बारे में नहीं भूला और तब भी उसने उनके लिए अत्यधिक चिंता दिखाई। क्या यह परमेश्वर का प्रेम एवं निःस्वार्थता नहीं है? किंतु लोग क्या सोचते हैं जब वे कष्ट सह रहे होते हैं? क्या यह वह समय नहीं, जब उन्हें परमेश्वर की सबसे अधिक ज़रूरत होती है? ऐसे समय, लोग हमेशा परमेश्वर को घसीट लाते हैं ताकि परमेश्वर उन्हें सांत्वना दे। चाहे कोई भी समय हो, परमेश्वर लोगों को कभी निराश होने नहीं देगा, और वह हमेशा लोगों को इस लायक बनाएगा कि वे अपनी दुर्दशा से बाहर निकलें और प्रकाश में जीवन बिताएँ। हालाँकि परमेश्वर मानवजाति के लिए इतना प्रदान करता है, फिर भी मनुष्य के हृदय में परमेश्वर एक आश्वासन की गोली और सांत्वना के स्फूर्तिदायक द्रव्य के अलावा और कुछ नहीं है। जब परमेश्वर दुख उठा रहा होता है, जब उसका हृदय ज़ख्मी होता है, तब उसका साथ देने या उसे सांत्वना देने के लिए किसी सृजित किए गए प्राणी या किसी व्यक्ति का होना निःसन्देह परमेश्वर के लिए एक असाधारण इच्छा ही होगी। मनुष्य कभी परमेश्वर की भावनाओं पर ध्यान नहीं देता है, अतः परमेश्वर कभी यह माँग या अपेक्षा नहीं करता है कि कोई हो जो उसे सांत्वना दे। अपनी मनोदशा व्यक्त करने के लिए वह महज अपने तरीकों का उपयोग करता है। लोग नहीं सोचते हैं कि थोड़े-बहुत दुःख-दर्द से होकर गुज़रना परमेश्वर के लिए कोई बहुत बड़ी बात है, लेकिन जब तुम सचमुच में परमेश्वर को समझने की कोशिश करते हो, जब वह सब कुछ जो परमेश्वर करता है, उसमें तुम सचमुच उसके सच्चे इरादों की सराहना कर सकते हो, केवल तभी तुम परमेश्वर की महानता एवं उसकी निःस्वार्थता को महसूस कर सकते हो। यद्यपि परमेश्वर ने इंद्रधनुष का उपयोग करते हुए मानवजाति के साथ एक वाचा बाँधी, फिर भी उसने किसी को कभी नहीं बताया कि उसने ऐसा क्यों किया था—क्यों उसने इस वाचा को स्थापित किया था—मतलब उसने कभी किसी को अपने वास्तविक विचार नहीं बताए थे। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा कोई नहीं है, जो उस प्रेम की गहराई को बूझ सके, जो अपने हाथों से बनाई मानवजाति के लिए परमेश्वर के पास है और साथ ही ऐसा भी कोई नहीं है जो इसकी सराहना कर सके कि मानवता का विनाश करते हुए उसके हृदय ने वास्तव में कितनी पीड़ा सहन की थी। इसलिए, भले ही परमेश्वर ने लोगों को बताया होता कि उसने कैसा महसूस किया था, फिर भी वे उस पर भरोसा नहीं कर पाते। पीड़ा में होने के बावजूद, वह अभी भी अपने कार्य के अगले चरण को जारी रखे हुए है। परमेश्वर हमेशा मानवजाति को अपना सर्वोतम पहलू एवं बेहतरीन चीजें देता है जबकि स्वयं ही सारे दुखों को खामोशी से सहता रहता है। परमेश्वर कभी भी इन पीड़ाओं को खुले तौर पर प्रकट नहीं करता। इसके बजाय, वह उन्हें सहता है और खामोशी से इंतज़ार करता है। परमेश्वर की सहनशीलता शुष्क, सुन्न, या असहाय नहीं है, न ही यह कमज़ोरी का चिह्न है। बल्कि परमेश्वर का प्रेम एवं सार हमेशा से ही निःस्वार्थ रहा है। यह उसके सार एवं स्वभाव का एक प्राकृतिक प्रकाशन है और एक सच्चे सृष्टिकर्ता के रूप में परमेश्वर की पहचान का एक सच्चा मूर्तरूप है।

यह कहने पर, कुछ लोग मेरी बात और सोच का गलत अर्थ निकाल सकते हैं। “क्या परमेश्वर की भावनाओं का इतने विस्तार से एवं इतनी सनसनी के साथ वर्णन करने का इरादा यह था कि लोग परमेश्वर पर तरस खाएँ?” क्या ऐसा कोई इरादा था? (नहीं।) इन बातों को कहने का मेरा एकमात्र उद्देश्य है कि तुम लोग परमेश्वर को बेहतर ढंग से जान सको, उसके असंख्य पहलुओं को समझो, उसकी भावनाओं को समझो, इसकी सराहना करो कि परमेश्वर के सार एवं स्वभाव को ठोस रूप से एवं थोड़ा-थोड़ा करके, उसके कार्य के जरिए व्यक्त किया गया है, न कि मनुष्य के खोखले शब्दों, उनके शब्दों एवं धर्म-सिद्धांतों या उनकी कल्पनाओं के माध्यम से दर्शाया गया है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर एवं परमेश्वर के सार का वास्तव में अस्तित्व है—वे तस्वीरें नहीं हैं, काल्पनिक नहीं हैं, मनुष्य द्वारा निर्मित नहीं हैं और निश्चित रूप से उनके द्वारा गढ़ी हुई नहीं हैं। क्या अब तुम लोग इसे पहचान गए हो? यदि तुम लोग इसे पहचान गए हो, तो आज मेरे वचनों ने अपना लक्ष्य पा लिया है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I

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