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मेन्‍यू

अय्यूब के बारे में लोगों की अनेक ग़लतफ़हमियाँ

अय्यूब द्वारा झेली गई कठिनाईयाँ परमेश्वर द्वारा भेजे गए स्वर्गदूतों का कार्य नहीं थीं, न ही यह परमेश्वर द्वारा अपने हाथ से उत्पन्न था। इसके बजाय, यह परमेश्वर के शत्रु, शैतान, द्वारा व्यक्तिगत रूप से उत्पन्न किया गया था। परिणामस्वरूप, अय्यूब द्वारा झेली गई कठिनाईयों का स्तर अत्यधिक प्रगाढ़ था। फिर भी इस क्षण अय्यूब ने, बिना किसी संशय के, अपने हृदय में परमेश्वर के बारे में अपना प्रतिदिन का ज्ञान, अपने प्रतिदिन के कार्यकलापों के सिद्धांत, और परमेश्वर के प्रति अपनी प्रवृत्ति प्रदर्शित की थी—यही सत्य है। यदि अय्यूब को लुभाया नहीं गया होता, यदि परमेश्वर अय्यूब के ऊपर परीक्षण नहीं लाया होता, तो जब अय्यूब ने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," तब तुम कहते कि अय्यूब पाखंडी है; परमेश्वर ने उसे इतनी सारी संपत्तियाँ दी थीं, इसलिए सहज ही उसने यहोवा के नाम को धन्य कहा। यदि परीक्षाओं से गुज़ारे जाने से पहले, अय्यूब ने कहा होता, "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" तो तुम कहते कि अय्यूब बढ़ा-चढ़ा कर बातें कर रहा था, और वह परमेश्वर के नाम को नहीं त्यागेगा क्योंकि उसे परमेश्वर के हाथ से प्रायः धन्य किया गया था। तुम कहते कि यदि परमेश्वर उसके ऊपर विपत्ति लाया होता, तो उसने निश्चित रूप से परमेश्वर के नाम को त्याग दिया होता। फिर भी जब अय्यूब ने अपने को ऐसी परिस्थितियों में पाया जिनकी कोई भी कामना नहीं करेगा या देखना नहीं चाहेगा, परिस्थितियाँ जो कोई नहीं चाहेगा कि उसके ऊपर टूटें, जिनके अपने ऊपर आने से वे डरेंगे, परिस्थितियाँ जिन्हें परमेश्वर भी देखना सहन नहीं कर सकता था, उन परिस्थतियों में भी अय्यूब अपनी सत्यनिष्ठा को थामे रख पाया था : "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" और "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" इस समय के अय्यूब के आचरण से सामना होने पर, जो लोग ऊँची-ऊँची बातें करना पसंद करते हैं, और जो शब्द और सिद्धांत बोलना पसंद करते हैं, वे सब अवाक रह जाते हैं। जो केवल भाषण में ही परमेश्वर के नाम का गुणगान करते हैं, किंतु जिन्होंने कभी परमेश्वर की परीक्षाओं को स्वीकार नहीं किया, वे उसी सत्यनिष्ठा द्वारा निंदित किए जाते हैं जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था, और जिन्होंने कभी नहीं माना कि मनुष्य परमेश्वर के मार्ग को दृढ़ता से थामे रख पाता है वे अय्यूब की गवाही द्वारा परखे जाते हैं। इन परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के आचरण और उसके द्वारा बोले गए वचनों से सामना होने पर, कुछ लोग भ्रमित महसूस करेंगे, कुछ लोग ईर्ष्यालु महसूस करेंगे, कुछ लोग संदेहग्रस्त महसूस करेंगे, और यहाँ तक कि कुछ उदासीन भी दिखाई देंगे, अय्यूब की गवाही स्वीकार करने से इनकार कर देंगे क्योंकि वे न केवल उस यंत्रणा को देखते हैं जो परीक्षाओं के दौरान अय्यूब के ऊपर आ पड़ी थी, और अय्यूब द्वारा बोले गए वचन पढ़ते हैं, बल्कि वे अय्यूब द्वारा उसके ऊपर परीक्षाएँ आने के समय दिखाई गई मानवीय "कमज़ोरी" को भी देखते हैं। इस "कमज़ोरी" को वे अय्यूब की पूर्णता में अपेक्षित अपूर्णता मानते हैं, उस मनुष्य में एक धब्बा जो परमेश्वर की नज़रों में पूर्ण था। कहने का तात्पर्य यह कि यह माना जाता है कि जो लोग पूर्ण होते हैं वे दाग़ या धब्बे से रहित, दोषहीन होते हैं, कि उनमें कोई कमज़ोरी नहीं होती है, उन्हें पीड़ा का ज्ञान नहीं होता है, कि वे कभी अप्रसन्न या उदास महसूस नहीं करते हैं, और वे घृणा या किसी भी बाह्य उग्र व्यवहार से रहित होते हैं; परिणामस्वरूप, लोगों का बड़ा बहुमत नहीं मानता कि अय्यूब सचमुच पूर्ण था। लोग परीक्षाओं के दौरान उसके बहुत-से व्यवहार का अनुमोदन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब ने अपनी संपत्ति और बच्चों को गँवा दिया, तो वह फूट-फूट कर नहीं रोया, जैसा कि लोग कल्पना करते। उसमें "शिष्टचार का अभाव" लोगों को यह सोचने को विवश करता है कि वह भावशून्य था, क्योंकि अपने परिवार के प्रति वह आँसुओं, या लगाव से रहित था। यह आरंभिक बुरी छाप है जो अय्यूब की लोगों पर पड़ती है। वे उसके बाद उसका व्यवहार और भी उलझाने वाला पाते हैं : "बागा फाड़" की व्याख्या लोगों ने परमेश्वर के प्रति उसके अनादर के रूप में की है, और "सिर मुँडाने" का अर्थ ग़लत ढँग से परमेश्वर के प्रति अय्यूब की निंदा और विरोध माना जाता है। अय्यूब के इन शब्दों के अलावा कि "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है," लोगों को अय्यूब में ऐसी कोई भी धार्मिकता अलग से दिखाई नहीं देती जिसकी प्रशंसा परमेश्वर द्वारा की गई थी, और इस प्रकार उनके एक बड़े बहुमत द्वारा किया गया अय्यूब का आँकलन अबूझता, ग़लतफ़हमी, संदेह, निंदा, और मात्र सैद्धांतिक स्वीकृति के अलावा कुछ नहीं है। उनमें से कोई भी यहोवा परमेश्वर के इन वचनों को सचमुच समझने और सराहने में समर्थ नहीं है कि अय्यूब पूर्ण और खरा मनुष्य था, ऐसा मनुष्य जो परमेश्वर का भय मानता और बुराई से दूर रहता था।

अय्यूब के बारे में उनकी उपरोक्त धारणा के आधार पर, लोगों में उसकी धार्मिकता को लेकर और भी संदेह हैं, क्योंकि पवित्र शास्त्र में दर्ज अय्यूब के कार्यकलाप और उसका आचरण उतने ज़ोरदार ढँग से मर्मस्पर्शी नहीं हैं जितनी लोगों ने कल्पना की थी। न केवल उसने कोई बड़ा साहसिक कार्य पूरा नहीं किया, बल्कि राख के बीच बैठकर उसने अपने को खुजाने के लिए मटके का एक टुकड़ा भी लिया। यह कार्य भी लोगों को आश्चर्यचकित करता है और उन्हें अय्यूब की धार्मिकता पर संदेह करने—और यहाँ तक कि उसे नकारने—का कारण बनता है, क्योंकि स्वयं को खुजाते समय अय्यूब ने परमेश्वर से न तो प्रार्थना या न ही प्रतिज्ञाएँ कीं; इतना ही नहीं, न ही वह दर्द के आँसू रोते देखा गया। इस समय, लोग अय्यूब की केवल कमज़ोरी ही देखते हैं और उसके सिवा कुछ नहीं देखते, और इसलिए यहाँ तक कि जब वे अय्यूब को यह कहते हुए सुनते हैं, "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" तब वे बिल्कुल भावशून्य रह जाते हैं, या अन्यथा दुविधा में पड़ जाते हैं, और अय्यूब के वचनों से उसकी धार्मिकता को अब भी पहचान नहीं पाते हैं। अपने परीक्षणों की यंत्रणा के दौरान अय्यूब लोगों पर जो मूल छाप छोड़ता है वह यह है कि वह न तो दब्बू था और न ही दंभी। लोग उसके व्यवहार के पीछे की उस कहानी को नहीं देखते जो उसके हृदय की गहराइयों में घटी थी, न ही वे उसके हृदय के भीतर परमेश्वर का भय या बुराई से दूर रहने के मार्ग के सिद्धांत का अनुपालन देखते हैं। उसकी स्थिरचित्तता लोगों को यह सोचने को विवश करती है कि उसकी पूर्णता और खरापन खोखले शब्द मात्र थे, कि परमेश्वर के प्रति उसका भय सुनी-सुनाई बात भर थी; इसी बीच, उसने बाह्य रूप से जो "कमज़ोरी" प्रकट की थी, वह उनके ऊपर गहरी छाप छोड़ती है, परमेश्वर जिसे पूर्ण और खरे मनुष्य के रूप में परिभाषित करता है उसके बारे में एक "नया परिप्रेक्ष्य", और यहाँ तक कि उसके प्रति "एक नई समझ" भी देती है। ऐसा एक "नया परिप्रेक्ष्य" और "नई समझ" तब प्रमाणित होते हैं जब अय्यूब ने अपना मुँह खोला और उस दिन को कोसा जब वह पैदा हुआ था।

यद्यपि उसने जो यंत्रणा झेली उसका स्तर किसी भी मनुष्य के लिए अकल्पनीय और अबूझ है, फिर भी उसने कोई सुनी-सुनाई बात नहीं कही, बल्कि उसने तो स्वयं अपने उपायों से अपने शरीर का दर्द कम भर किया था। जैसा पवित्र शास्त्र में दर्ज है, उसने कहा : "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'बेटे का गर्भ रहा'" (अय्यूब 3:3)। कदाचित, किसी ने भी इन वचनों को कभी महत्वपूर्ण नहीं माना है, और कदाचित ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने इन पर ध्यान दिया है। तुम लोगों के विचार से, क्या इनका अभिप्राय यह है कि अय्यूब परमेश्वर का विरोध करता था? क्या वे परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत हैं? मैं जानता हूँ कि अय्यूब के द्वारा कहे गए इन वचनों के बारे में तुम लोगों में से कइयों के कुछ निश्चित विचार हैं और वे मानते हैं कि यदि अय्यूब पूर्ण और खरा था, तो उसे कोई कमज़ोरी या वेदना नहीं दर्शानी चाहिए थी, और इसके बजाय शैतान के किसी भी आक्रमण का सकारात्मक ढँग से सामना करना ही चाहिए था, और यहाँ तक कि शैतान के प्रलोभनों के सामने मुस्कराना भी चाहिए था। उसे शैतान के द्वारा उसकी देह पर बरपाई गई किसी भी यंत्रणा के प्रति रत्ती भर भी प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए थी, न ही उसे अपने हृदय के भीतर की भावनाओं को ज़रा भी झलकने देना चाहिए था। उसे कहना चाहिए था कि परमेश्वर इन परीक्षाओं को और कठोर बना दे। यही वह है जो अविचल और सच्चे अर्थ में परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहे वाले किसी भी व्यक्ति को प्रदर्शित और धारण करना चाहिए। इस चरम यंत्रणा के बीच, अय्यूब ने अपने जन्म के दिन को कोसने के सिवा कुछ न किया। उसने परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं की, और परमेश्वर का विरोध करने का तो उसका और भी कोई इरादा नहीं था। यह कर पाना उतना आसान नहीं है जितना कहना, क्योंकि प्राचीन समयों से लेकर आज तक, किसी ने भी अब तक ऐसे प्रलोभन अनुभव नहीं किए या वह नहीं झेला जो अय्यूब पर टूटा था। तो, किसी को भी अब तक अय्यूब के समान प्रलोभनों से क्यों नहीं गुज़ारा गया है? ऐसा इसलिए है क्योंकि, जैसा कि परमेश्वर इसे देखता है, कोई भी ऐसा उत्तरदायित्व या आदेश वहन करने में समर्थ नहीं है, कोई भी वैसा नहीं कर सकता है जैसा अय्यूब ने किया, और इतना ही नहीं, कोई भी, अपने जन्म के दिन को कोसने के अलावा, ऐसा नहीं कर सकता था कि इतने सब के बाद भी परमेश्वर के नाम को नहीं त्यागे और यहोवा परमेश्वर के नाम को धन्य नहीं कहता रहे, जैसा अय्यूब ने उस समय किया था जब उस पर ऐसी यंत्रणा टूटी थी। क्या कोई यह कर सकता था? जब हम अय्यूब के बारे में ऐसा कहते हैं, तो क्या हम उसके व्यवहार की प्रशंसा कर रहे हैं? वह एक धार्मिक मनुष्य था, और परमेश्वर की ऐसी गवाही दे पाने में समर्थ था, और शैतान को अपना सिर अपने हाथों में लिए भागने को मजबूर करने में समर्थ था, ताकि वह उस पर दोष मढ़ने के लिए फिर कभी परमेश्वर के समक्ष न आए—तो उसकी प्रशंसा करने में क्या ग़लत है? क्या ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों के मानक परमेश्वर से भी ऊँचे हैं? क्या ऐसा हो सकता है कि जब परीक्षाएँ तुम लोगों पर टूटें तब तुम अय्यूब से भी बेहतर करो? अय्यूब की प्रशंसा परमेश्वर द्वारा की गई थी—तुम लोगों को भला क्या आपत्तियाँ हो सकती हैं?

अय्यूब अपने जन्म के दिन को कोसता है क्योंकि वह नहीं चाहता कि परमेश्वर को उसके द्वारा पीड़ा पहुँचे

मैं अक्सर कहता हूँ कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय के भीतर देखता है, जबकि लोग लोगों का बाह्य स्वरूप देखते हैं। चूँकि परमेश्वर लोगों के हृदयों के भीतर देखता है, इसलिए वह उनका सार समझता है, जबकि लोग अन्य लोगों का सार उनके बाह्य स्वरूप के आधार पर परिभाषित करते हैं। जब अय्यूब ने अपना मुँह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा, तब इस कृत्य ने, अय्यूब के तीन मित्रों सहित, सभी आध्यात्मिक महानुभावों को अचंभित कर दिया। मनुष्य परमेश्वर से आया, और उसे जीवन तथा देह के लिए, और साथ ही अपने जन्म के दिन के लिए भी, जो परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया है, आभारी होना चाहिए, और उन्हें कोसना नहीं चाहिए। यह कुछ ऐसा है जिसे साधारण लोग समझ सकते और इसकी परिकल्पना कर सकते हैं। परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए, यह समझ पवित्र और अनुल्लंघनीय है, और यह ऐसा सत्य है जो कभी बदल नहीं सकता है। दूसरी ओर, अय्यूब ने नियम तोड़े : उसने अपने जन्म के दिन को कोसा। यह ऐसा कृत्य है जिसे साधारण लोग सीमा पर करके निषिद्ध क्षेत्र में जाना मानते हैं। अय्यूब न केवल लोगों की समझ और सहानुभूति का अधिकारी नहीं है, बल्कि वह परमेश्वर की क्षमा का भी अधिकारी नहीं है। साथ ही साथ, और भी अधिक लोग अय्यूब की धार्मिकता के प्रति शंकालु हो जाते हैं, क्योंकि ऐसा प्रतीत होता था कि अपने प्रति परमेश्वर की कृपा ने अय्यूब को आत्म-आसक्त बना दिया था; इसने उसे इतना निर्भीक और उतावला बना दिया था कि उसने न केवल अपने जीवनकाल के दौरान उसे आशीष देने के लिए और उसकी देखभाल करने के लिए परमेश्वर को धन्यवाद नहीं दिया, बल्कि उसने अपने जन्म के दिन को भी विनाश के लिए शापित कर दिया। यदि यह परमेश्वर के प्रति विरोध नहीं तो क्या है? ऐसे उथलेपन लोगों को अय्यूब के इस कृत्य की निंदा करने के लिए प्रमाण उपलब्ध कराते हैं, परंतु कौन जान सकता है कि अय्यूब उस समय सचमुच क्या सोच रहा था? कौन वह कारण जान सकता है कि अय्यूब ने उस तरह क्यों किया? इसकी अंतर्कथा और कारण तो बस परमेश्वर और स्वयं अय्यूब ही जानते हैं।

जब शैतान ने अय्यूब की हड्डियों में पीड़ा पहुँचाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया, तो बचने के उपायों या प्रतिरोध करने की शक्ति के बिना, अय्यूब उसके चंगुल में फँस गया। उसके शरीर और उसकी आत्मा ने अत्यधिक पीड़ा झेली, और इस पीड़ा ने उसे देह में रह रहे मनुष्य की महत्वहीनता, निर्बलता, और शक्तिहीनता से गहराई से परिचित कराया। साथ ही साथ, उसने गहरी सराहना और समझ भी प्राप्त की कि परमेश्वर मनुष्यजाति की परवाह और देखभाल करने वाले मन का क्यों है। शैतान के चंगुल में, अय्यूब को एहसास हुआ कि मनुष्य, जो हाड़-माँस का है, वास्तव में बहुत ही निर्बल और कमज़ोर है। जब वह अपने घुटनों के बल गिरा और परमेश्वर से प्रार्थना की, तो उसने महसूस किया मानो परमेश्वर अपना चेहरा ढँक रहा और छिप रहा था, क्योंकि परमेश्वर ने उसे पूरी तरह शैतान के हाथ में रख दिया था। साथ ही साथ, परमेश्वर उसके लिए रोया भी, और इतना ही नहीं, वह उसके लिए व्यथित था; परमेश्वर उसकी पीड़ा से पीड़ित, और उसकी चोट से चोटिल था...। अय्यूब ने परमेश्वर की पीड़ा महसूस की, साथ ही यह भी कि परमेश्वर के लिए यह कितना असहनीय था...। अय्यूब परमेश्वर को और अधिक व्यथा पहुँचाना नहीं चाहता था, न ही वह यह चाहता था कि परमेश्वर उसके लिए रोए, परमेश्वर को अपने द्वारा पीड़ित होते देखना तो वह और भी नहीं चाहता था। इस क्षण, अय्यूब बस अपनी देह को उतार देना चाहता था, ताकि इस देह द्वारा पहुँचाई गई पीड़ा को अब और न सहना पड़े, क्योंकि यह उसकी पीड़ा से परमेश्वर का उत्पीड़ित होना रोक देगा—तो भी वह नहीं कर सका, और उसे न केवल देह की पीड़ा, बल्कि परमेश्वर को उद्विग्न नहीं करने की इच्छा की यंत्रणा भी सहनी पड़ी। इन दो पीड़ाओं ने—एक देह से, और एक आत्मा से—अय्यूब पर हृदयविदारक, अत्यंत दारूण पीड़ा बरपाई, और उसे महसूस कराया कि कैसे हाड़-माँस से बने मनुष्य की सीमाएँ उसे कुंठित और असहाय बना सकती हैं। इन परिस्थितियों में, परमेश्वर के लिए उसकी ललक और भी तीव्र हो गई थी, और शैतान के लिए उसकी घृणा और भी गहरी हो गई थी। इस समय, परमेश्वर को उसके वास्ते आँसू-आँसू रोते या दर्द सहते देखने की अपेक्षा, अय्यूब ने मनुष्यों के इस संसार में कभी जन्म ही न लेना पसंद किया होता, बल्कि उसका अस्तित्व ही न होता। वह अपनी देह से गहरी घृणा करने लगा, और अपने आप से, अपने जन्म के दिन से, और यहाँ तक कि उस सबसे जो उससे जुड़ा था ऊबने और थकने लगा। वह अपने जन्म के दिन का और उसके साथ जुड़ी किसी भी चीज़ का अब और उल्लेख किया जाना नहीं चाहता था, और इसलिए उसने अपना मुँह खोला और अपने जन्म के दिन को कोसा : "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'बेटे का गर्भ रहा।' वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो" (अय्यूब 3:3-4)। अय्यूब के वचन स्वयं अपने प्रति उसकी घृणा वहन करते हैं, "वह दिन जल जाए जिसमें मैं उत्पन्न हुआ, और वह रात भी जिसमें कहा गया, 'बेटे का गर्भ रहा'," और साथ ही उनमें स्वयं अपने प्रति जो दोष उसने महसूस किया वह और परमेश्वर को पीड़ा पहुँचाने के लिए ऋणी होने का बोध भी है, "वह दिन अन्धियारा हो जाए! ऊपर से ईश्वर उसकी सुधि न ले, और न उसमें प्रकाश हो।" ये दो अंश इस बात की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं कि अय्यूब ने तब कैसा महसूस किया था, और सभी को उसकी पूर्णता और खरापन प्रदर्शित करते हैं। साथ ही साथ, बिल्कुल वैसे ही जैसे अय्यूब ने चाहा था, परमेश्वर के प्रति उसकी आस्था और आज्ञाकारिता, साथ ही परमेश्वर के प्रति उसका भय सचमुच ऊँचे उठ गए थे। निस्संदेह, यह ऊँचा उठना ठीक वही प्रभाव है जिसकी परमेश्वर ने अपेक्षा की थी।

परमेश्वर का वचन” खंड अंत के दिनों में सभी मनुष्यों के लिए परमेश्वर के वचन को साझा करता है, जिससे ईसाईयों को परमेश्वर के बारे में अधिक जानने में मदद मिलती है।

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