अय्यूब परमेश्वर के नाम को धन्य कहता और आशीषों या विपत्तियों के बारे में नहीं सोचता
एक तथ्य है जिसकी ओर पवित्र शास्त्र की अय्यूब की कहानियों में कभी भी संकेत नहीं किया गया है, जिस पर आज हम ध्यान केंद्रित करेंगे। हालाँकि अय्यूब ने परमेश्वर को कभी भी नहीं देखा था या अपने कानों से परमेश्वर के वचनों को कभी नहीं सुना था, फिर भी अय्यूब के हृदय में परमेश्वर का एक स्थान था। और परमेश्वर के प्रति अय्यूब की मनोवृत्ति क्या थी? यह वैसा ही था जैसा पहले संकेत किया गया था, "यहोवा का नाम धन्य है।" उसके द्वारा परमेश्वर के नाम को धन्य कहना बिना किसी शर्त, बिना किसी योग्यता, और बिना किसी तर्क के था। हम देखते हैं कि अय्यूब ने अपना हृदय परमेश्वर को दिया था, यह अनुमति देते हुए कि परमेश्वर के द्वारा उसका नियंत्रण किया जाए; वह सब जो वह सोचता था, वह सब जिसका निर्णय वह लेता था, और वह सब जिनकी योजना उसने अपने हृदय में बनाई थी उसे परमेश्वर पर डाल दिया गया था और उसे परमेश्वर से दूर रखकर बन्द नहीं किया गया था। उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं हुआ, और उसने परमेश्वर से कभी नहीं कहा कि वह उसके लिए कुछ करे या उसे कोई चीज़ दे, और उसने फिज़ूल की इच्छाओं को पनाह नहीं दी कि वह परमेश्वर की आराधना से कोई भी चीज़ हासिल कर लेगा। उसने व्यापार के विषय में परमेश्वर कोई बातचीत नहीं की, और परमेश्वर से कोई मांग एवं विनती नहीं की। वह सभी चीज़ों पर शासन करने के लिए परमेश्वर की बड़ी सामर्थ एवं अधिकार के कारण परमेश्वर के नाम की प्रशंसा करता था, और वह इस बात पर आश्रित नहीं था कि उसे आशीषें हासिल होंगी या उसे आपदाओं के द्वारा मारा जाएगा। उसने विश्वास किया कि इसकी परवाह किए बगैर कि परमेश्वर लोगों को आशीष देता है या उनके ऊपर आपदा लाता है, परमेश्वर की सामर्थ्य एवं उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, किसी व्यक्ति की परिस्थितियों की परवाह किए बगैर, परमेश्वर के नाम की प्रशंसा की जानी चाहिए। ऐसे मनुष्य को परमेश्वर की संप्रभुता के कारण परमेश्वर के द्वारा आशीषित किया जाता है, और जब विपत्ति उसके ऊपर आती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही आती है। परमेश्वर की सामर्थ्य एवं अधिकार मनुष्य के ऊपर शासन करती है और मनुष्य की हर एक चीज़ को व्यवस्थित करती है; मनुष्य के तक़दीर की अनिश्चित्ताएं परमेश्वर की सामर्थ्य एवं अधिकार का प्रगटीकरण हैं, और किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण की परवाह किए बगैर, परमेश्वर के नाम की प्रशंसा की जानी चाहिए। यह वही है जिसका अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जाना था। अय्यूब के सभी विचार और कार्य परमेश्वर के कानों तक पहुंचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर के द्वारा उन्हें उतने ही महत्वपूर्ण रूप से देखा गया था। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को संजोकर रखा था, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सहेजकर रखा था। ऐसे हृदय ने हमेशा, एवं सभी स्थानों में परमेश्वर की आज्ञाओं का इंतज़ार किया था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि समय या स्थान क्या था जो कुछ भी उसके ऊपर आया था इसने उसका स्वागत किया था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई मांग नहीं की थी। जो भी उसने स्वयं से मांगा था वह यह था कि वह उन सभी इंतज़ामों का इंतज़ार करे, उन्हें स्वीकार करे, और उनको माने जो परमेश्वर से आई थीं; अय्यूब ने विश्वास किया कि यह उसका कर्तव्य था, और यह बिलकुल वही था जिसे परमेश्वर द्वारा मांगा गया था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, न ही उसे कोई वचन कहते हुए, कोई आज्ञा देते हुए, कोई शिक्षा देते हुए, या कोई निर्देश देते हुए सुना था। आज के शब्दों में, उसके लिए परमेश्वर के प्रति ऐसे ज्ञान एवं मनोवृत्ति को धारण करने के योग्य होना जबकि परमेश्वर ने उसे कोई अद्भुत प्रकाशन, मार्गदर्शन, और सत्य के लिहाज से कोई प्रावधान नहीं दिया था—बहुत ही बहुमूल्य था, और उसके लिए ऐसी चीज़ों को प्रदर्शित करना परमेश्वर के लिए काफी था, और परमेश्वर के द्वारा उसकी गवाही की प्रशंसा की गई थी, और परमेश्वर के द्वारा उसकी गवाही को हृदय में संजोकर रखा गया था। अय्यूब ने परमेश्वर को कभी नहीं देखा या व्यक्तिगत रूप से उसे कोई शिक्षा देते हुए नहीं सुना था, परन्तु परमेश्वर के लिए उसका हृदय और वह स्वयं उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक अनमोल थे जो परमेश्वर के सामने केवल गहरे सिद्धान्तों की बात कर सकते थे, जो केवल घमण्ड कर सकते थे, और केवल बलिदानों को चढ़ाने की बात कर सकते थे, परन्तु जिनके पास परमेश्वर का असली ज्ञान कभी नहीं था, और उन्होंने सचमुच में परमेश्वर का भय कभी नहीं माना था। क्योंकि अय्यूब का हृदय शुद्ध और परमेश्वर से छिपा हुआ नहीं था, और उसकी मानवता ईमानदार एवं उदार थी, और वह न्याय से और उससे प्रेम करता था जो सकारात्मक था। केवल इस प्रकार का व्यक्ति ही, जिसने ऐसे हृदय एवं मनुष्यत्व को धारण किया था, उस मार्ग का अनुसरण करने के योग्य था, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता को देख सकता था, उसके अधिकार एवं सामर्थ्य को देख सकता था, और ऐसा व्यक्ति ही उसकी संप्रभुता एवं इंतज़ामों के प्रति आज्ञाकारिता को हासिल करने के योग्य था। केवल ऐसा व्यक्ति ही सचमुच में परमेश्वर के नाम को धन्य कह सकता था। यह इसलिए है क्योंकि उसने यह नहीं देखा था कि परमेश्वर उसे आशीष देगा या उसके ऊपर विपत्ति लाएगा, क्योंकि वह जानता था कि हर एक चीज़ को परमेश्वर के हाथ के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है, और यह कि मनुष्य के लिए चिंता करना मूर्खता, अज्ञानता, या तर्कहीनता का एक चिन्ह है, और सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के प्रति सन्देह का एक चिन्ह है, और परमेश्वर का भय न मानने एक चिन्ह है। अय्यूब का ज्ञान बिलकुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर चाहता था। अतः, क्या तुम लोगों की अपेक्षा अय्यूब के पास परमेश्वर के विषय में बड़ा सैद्धांतिक ज्ञान था? क्योंकि उस समय परमेश्वर का कार्य और उसके कथन बहुत ही कम थे, और परमेश्वर के ज्ञान को हासिल करना कोई आसान बात नहीं थी। अय्यूब के द्वारा हासिल की गई ऐसी उपलब्धि कोई साहसिक कार्य नहीं था। उसने परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं किया था, न ही कभी परमेश्वर को बोलते हुए सुना था, या न ही परमेश्वर के चेहरे को देखा था। यह कि वह इस योग्य था कि उसके पास परमेश्वर के प्रति ऐसी मनोवृत्ति हो जो पूरी तरह से उसकी मानवता एवं उसके व्यक्तिगत अनुसरण का परिणाम था, ऐसी मानवता एवं अनुसरण जिन्हें आज के लोगों के द्वारा धारण नहीं किया जाता है। इस प्रकार, उस युग में, परमेश्वर ने कहा, "क्योंकि उसके तुल्य खरा और सीधा मनुष्य और कोई नहीं है।" उस युग में, परमेश्वर ने पहले से ही उसके विषय में ऐसा आंकलन कर लिया था, और वह ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचा था। आज यह कितना अधिक सत्य होगा?
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II