हिलायेगा जब परमेश्वर का रोषपूर्ण क्रोध पर्वतों, नदियों को,
तो परमेश्वर मदद नहीं देगा कायर इंसानों को।
रोष में उन्हें वो पछताने का मौका नहीं देगा,
उनसे कोई उम्मीद नहीं रखेगा,
जिसके लायक हैं वो सज़ा उन्हें देगा।
प्रचंड कुपित लहरों की तरह, भीषण गर्जनाएँ होंगी,
जैसे ढह रहे हों पर्वत हज़ारों।
इंसानों को उसके विद्रोह की वजह से गिराकर मार दिया जाएगा।
गर्जना और कड़कतीबिजली में मिटा दिये जाएँगे जीव सारे, जीव सारे।
एकाएक पूरी कायनात में उथल-पुथल हो जाती है,
सृष्टि ले नहीं पाती जीवन का मूल श्वास फिर से।
इंसान बच नहीं पाता भीषण गर्जनाओं से;
चमकती बिजलियों के बीच, प्रचंड धाराओं में,
पर्वतों से आती प्रचंड धारा में,
गिरकर बह जाते हैं इंसानी झुण्ड।
इंसान के "गंतव्य" में अचानक
"मानव" का विश्व जमा हो जाता है,
लाशें बहती हैं समंदर में, समंदर में।
बहुत दूर चला जाता है इंसान परमेश्वर से, उसके क्रोध की वजह से।
क्योंकि अपमान किया है पवित्र आत्मा के सार का इंसान ने,
नाख़ुश किया है परमेश्वर को इंसान के विद्रोह ने।
लाशें बहती हैं समंदर में, समंदर में।
बहुत दूर चला जाता है इंसान परमेश्वर से, उसके क्रोध की वजह से।
क्योंकि अपमान किया है पवित्र आत्मा के सार का इंसान ने,
नाख़ुश किया है परमेश्वर को इंसान के विद्रोह ने।
मगर धरती पर बेख़ौफ़, दूसरे लोग गा रहे हैं,
हँसी और गीतों के मध्य,
परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं का आनंद ले रहे हैं।