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परमेश्वर का नाम क्यों बदलता है?

पुराने व्यवस्थान में लिखा है, "मैं ही यहोवा हूँ और मुझे छोड़ कोई उद्धारकर्ता नहीं" (यशायाह 43:11)। "यहोवा ... सदा तक मेरा नाम यही रहेगा, और पीढ़ी पीढ़ी में मेरा स्मरण इसी से हुआ करेगा" (निर्गमन 3:15)। पवित्रशास्त्र में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि यहोवा का नाम हमेशा के लिए है, और फिर भी नया नियम यह कहता है कि परमेश्वर का नाम बदलकर यीशु हो गया है, जैसा कि लिखा है, "यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है" (इब्रानियों 13:8)। परमेश्वर का नाम क्यों बदलता है? इसके पीछे क्या रहस्य है?

परमेश्वर का नाम क्यों बदलता है?

मैंने एक किताब में इसका उत्तर पाया है। किताब में लिखा है: "'यहोवा' वह नाम है, जिसे मैंने इस्राएल में अपने कार्य के दौरान अपनाया था, और इसका अर्थ है इस्राएलियों (परमेश्वर के चुने हुए लोगों) का परमेश्वर, जो मनुष्य पर दया कर सकता है, मनुष्य को शाप दे सकता है, और मनुष्य के जीवन का मार्गदर्शन कर सकता है; वह परमेश्वर, जिसके पास बड़ा सामर्थ्य है और जो बुद्धि से भरपूर है। 'यीशु' इम्मानुएल है, जिसका अर्थ है वह पाप-बलि, जो प्रेम से परिपूर्ण है, करुणा से भरपूर है, और मनुष्य को छुटकारा दिलाता है। उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया, और वह अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह प्रबंधन-योजना के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। अर्थात्, केवल यहोवा ही इस्राएल के चुने हुए लोगों का परमेश्वर, अब्राहम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, याकूब का परमेश्वर, मूसा का परमेश्वर और इस्राएल के सभी लोगों का परमेश्वर है। और इसलिए, वर्तमान युग में यहूदी लोगों के अलावा सभी इस्राएली यहोवा की आराधना करते हैं। वे वेदी पर उसके लिए बलिदान करते हैं, और याजकीय लबादे पहनकर मंदिर में उसकी सेवा करते हैं। वे यहोवा के पुन: प्रकट होने की आशा करते हैं। केवल यीशु ही मानवजाति को छुटकारा दिलाने वाला है, और वह वो पाप-बलि है, जिसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया है। कहने का तात्पर्य यह है कि यीशु का नाम अनुग्रह के युग से आया, और अनुग्रह के युग में छुटकारे के कार्य के कारण विद्यमान रहा। यीशु का नाम अनुग्रह के युग के लोगों को पुनर्जन्म दिए जाने और बचाए जाने के लिए अस्तित्व में आया, और वह पूरी मानवजाति के उद्धार के लिए एक विशेष नाम है। इस प्रकार, 'यीशु' नाम छुटकारे के कार्य को दर्शाता है और अनुग्रह के युग का द्योतक है। 'यहोवा' नाम इस्राएल के उन लोगों के लिए एक विशेष नाम है, जो व्यवस्था के अधीन जीए थे। प्रत्येक युग में और कार्य के प्रत्येक चरण में मेरा नाम आधारहीन नहीं है, बल्कि प्रातिनिधिक महत्व रखता है : प्रत्येक नाम एक युग का प्रतिनिधित्व करता है। 'यहोवा' व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व करता है, और उस परमेश्वर के लिए सम्मानसूचक है, जिसकी आराधना इस्राएल के लोगों द्वारा की जाती है। 'यीशु' अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व करता है और उन सबके परमेश्वर का नाम है, जिन्हें अनुग्रह के युग के दौरान छुटकारा दिया गया था" ("उद्धारकर्ता पहले ही एक 'सफेद बादल' पर सवार होकर वापस आ चुका है")

इस अंश को पढ़कर, हम महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर का कोई निर्धारित नाम नहीं है, बल्कि वह अलग-अलग युगों में अलग-अलग नामों को लेते हैं। किसी युग विशेष में अपने कार्य और व्यक्त किए गए स्वभाव के अनुसार वह नाम धारण करते हैं। एक नाम केवल एक युग, कार्य के एक चरण और परमेश्वर के स्वभाव के एक पहलू का प्रतिनिधित्व करता है, परमेश्वर का नाम तब तक नहीं बदलता है जब तक कि युग नहीं बदलता है। उदाहरण के लिए, व्यवस्था के युग में, परमेश्वर का नाम यहोवा था, और इस नाम के साथ उसने औपचारिक रूप से व्यवस्था के युग का कार्य शुरू किया; उसने अपनी व्यवस्था की घोषणा की, पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन में उसकी अगुआई की, उनसे अपेक्षा की कि वे संसार पर उसकी आराधना करें, और जो लोग व्यवस्था का कड़ाई से पालन करते थे उन्हें परमेश्वर का आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त होता था। अगर किसी ने व्यवस्था का उल्लंघन किया, तो वे स्वर्गिक आग द्वारा मारे जाते थे या पत्थर मार-मारकर मौत के घाट उतार दिए गए। उस युग में परमेश्वर ने जो स्वभाव व्यक्त किया था, वह धार्मिकता और प्रताप का स्वभाव था। यहोवा नाम व्यवस्था की घोषणा के कार्य और परमेश्वर ने जो स्वभाव व्यक्त किया था, उसके अनुसार लिया गया था।

व्यवस्था के युग के अंत में, चूँकि मनुष्य अधिकाधिक भ्रष्ट होता जा रहा था और वो व्यवस्था को बनाए रखने में सक्षम नहीं था, वे सभी दंडित किये जाने और व्यवस्था का उल्लंघन करने के लिए दोषी ठहरने के खतरे में थे। मानवजाति को बचाने के लिए, परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से देहधारण किया और यीशु नाम के साथ, उन्होंने अनुग्रह का युग शुरू किया, छुटकारे का कार्य किया, मानवजाति के लिए अनुग्रह की प्रचुरता लाये और दया और प्रेमपूर्ण उदारता का अपना स्वभाव व्यक्त किया। उसने हमें पाप से छुटकारा दिलाया, और जब तक हम प्रभु यीशु के नाम से प्रार्थना करते हैं, तब तक हम परमेश्वर से प्रचुर अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे तरीके से कहें तो, यीशु का नाम अनुग्रह के युग में परमेश्वर का नाम था, और इसने उस युग में परमेश्वर के कार्य के साथ-साथ उस युग के दौरान व्यक्त किए गए स्वभाव का भी प्रतिनिधित्व किया।

यीशु मसीह की पिक्चर-खोई हुई भेड़ का दृष्टान्त

इस तरह हम परमेश्वर के कार्य के पिछले दो चरणों से जान सकते हैं कि परमेश्वर का नाम उनके कार्य के साथ बदलता है। प्रत्येक युग में परमेश्वर द्वारा धारण किये गये नाम का प्रतिनिधिक महत्व इसमें निहित होता है कि यह उनके कार्य के साथ-साथ प्रत्येक युग में उनके द्वारा व्यक्त किए गए स्वभाव का भी प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर अपने नाम का उपयोग युगों की शुरुआत करने और एक युग को दूसरे में बदलने के लिए करते हैं। अर्थात हर बार जब युग और परमेश्वर का कार्य बदलता है, तब परमेश्वर को एक नया नाम लेना आवश्यक है—यह परमेश्वर के कार्य का एक सिद्धांत है। हालाँकि, परमेश्वर द्वारा मानवजाति के उद्धार के दौरान, उन्हें कभी यहोवा कहा गया, कभी यीशु भी कहा गया, लेकिन परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलता है; परमेश्वर अनंत रूप से परमेश्वर है, और इन सब कार्यों को करने वाला परमेश्वर हमेशा एक ही रहता है। उदाहरण के लिए, जब कोई स्कूल में शिक्षक के रूप में काम करता है, तो लोग उसे शिक्षक कहेंगे। फिर, वही व्यक्ति करियर बदलकर डॉक्टर बन सकता है, फिर लोग उसे डॉक्टर कहेंगे। यदि वह व्यक्ति फिर किसी कंपनी का प्रबंधक बन गया, तो लोग उसे प्रबंधक कहेंगे। लेकिन वह व्यक्ति खुद वही रहता है, बस उसका काम बदलता जाता है और इसलिए लोग उसे अलग-अलग उपाधियों से बुलाते हैं। दरअसल, परमेश्वर के कार्य से, हम यह देख पाते हैं कि परमेश्वर का नाम हमेशा के लिए अपरिवर्तित नहीं है, बल्कि यह परमेश्वर के कार्य और युगों के परिवर्तन के साथ-साथ बदलता रहता है। जब परमेश्वर अपने कार्य को शुरू करने के लिए एक नया नाम धारण करते हैं, केवल उनके नए नाम को स्वीकार करने से ही हम उनके कार्य के साथ तालमेल रखने में सक्षम हो पाते हैं।

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उदाहरण के लिए, व्यवस्था के युग में, परमेश्वर का नाम यहोवा था, और सभी ने यहोवा के नाम का पालन किया। व्यवस्था के युग का कार्य कई सदियों तक चला, फिर भी सभी को यहोवा के नाम से प्रार्थना करनी थी। हालाँकि, जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने के लिए आए तो परमेश्वर का नाम बदलकर यीशु हो गया, और उसके बाद जिन्होंने भी यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार किया उन्हें परमेश्वर की प्रशंसा मिली। हालाँकि, उस समय, यहूदी फरीसियों को यह नहीं पता था कि परमेश्वर का नाम युग में परिवर्तन और उनके कार्य के साथ बदल जाता है। वे मानते थे कि केवल यहोवा ही उनका परमेश्वर, उनका उद्धारकर्ता हो सकता है क्योंकि समय के साथ वे यह धारणा बनाये हुए थे कि केवल यहोवा ही परमेश्वर है, और कोई अन्य उद्धारकर्ता नहीं है बस यहोवा है। परिणामस्वरूप, जब परमेश्वर ने अपना नाम बदल दिया और यीशु नाम के साथ उद्धारका कार्य करने के लिए आए, तो उन्होंने पागलों की तरह प्रभु यीशु की निंदा और विरोध किया। अंत में, उन्होंने यीशु को क्रूस पर चढ़ा दिया, एक जघन्य अपराध कर बैठे, और परमेश्वर के दंड के भागी हुए। इसी तरह, जैसा कि हम सभी जानते हैं, प्रभु यीशु अंत के दिनों में प्रत्येक को उनकी किस्म के अनुसार छांटने का कार्य करने के लिए लौटेंगे। यदि परमेश्वर यीशु का नाम ही धारण किये रहे और अपनी दया और प्रेमपूर्ण उदारता की भावना को व्यक्त करना जारी रखा, तो सभी प्रकार के लोगों के अंत का प्रकाशन कैसे होगा? तो क्या परमेश्‍वर अपने काम की ज़रूरतों के मुताबिक अंत के दिनों में अपना नाम बदलेंगे? यदि हम अपने स्वयं के विचारों से चिपके रहते हैं, विश्वास करते रहते हैं कि, जब प्रभु यीशु वापस आएंगे, तो परमेश्वर का नाम नहीं बदलेगा और उन्हें अभी भी यीशु कहा जाएगा, क्या हम फरीसियों की तरह परमेश्वर के कार्य का विरोध और निंदा नहीं करेंगे? क्या हम उन्हीं के रास्तों पर नहीं चल रहे होंगे?

तो, जब परमेश्वर अंत के दिनों में लौटते हैं, तो उनका नाम बदलेगा या नहीं? क्या उन्हें अभी भी यीशु कहा जायेगा? प्रकाशितवाक्य में भविष्यवाणी की गयी है: "जो जय पाए उसे मैं अपने परमेश्‍वर के मन्दिर में एक खंभा बनाऊँगा, और वह फिर कभी बाहर न निकलेगा; और मैं अपने परमेश्‍वर का नाम और अपने परमेश्‍वर के नगर अर्थात् नये यरूशलेम का नाम, जो मेरे परमेश्‍वर के पास से स्वर्ग पर से उतरनेवाला है, और अपना नया नाम उस पर लिखूँगा" (प्रकाशितवाक्य 3:12)। इस पद में "नया नाम," का उल्लेख है अर्थात एक नया नाम जिसका पहले कभी उपयोग नहीं किया गया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं, यीशु नाम हमें इस रूप में दिया गया था कि हम इस पर बचाए जाने के लिए भरोसा कर सकें, और अनुग्रह के युग में दो हजार वर्षों से लोग प्रभु यीशु के नाम का आह्वान करते रहे हैं। यदि प्रकाशितवाक्य में नया नाम यीशु ही था, तो इसे नया नाम कैसे कहा जा सकता है? चूंकि यह एक नया नाम है, तो इसका मतलब निश्चित रूप से यह होना चाहिए कि परमेश्वर का नाम एक बार फिर से बदल जाएगा। बाइबल को गौर से देखने पर, हम देख सकते हैं कि प्रकाशितवाक्य 1:8 लिखा है: "प्रभु परमेश्‍वर, जो है और जो था और जो आनेवाला है, जो सर्वशक्‍तिमान है, यह कहता है, 'मैं ही अल्फ़ा और ओमेगा हूँ।'" और 11:17 में लिखा है: "हे सर्वशक्‍तिमान प्रभु परमेश्‍वर, जो है और जो था, हम तेरा धन्यवाद करते हैं कि तू ने अपनी बड़ी सामर्थ्य को काम में लाकर राज्य किया है।" और ऐसे कई अन्य पद हैं, जैसे प्रकाशितवाक्य 19:6, जो यह भविष्यवाणी करते हैं कि अंत के दिनों में परमेश्वर का नया नाम सर्वशक्तिमान होगा। इन भविष्यवाणियों से, हम देख सकते हैं कि अंत के दिनों में जब परमेश्वर लौटते हैं तो उनका नाम संभवतः सर्वशक्तिमान हो सकता है। उपरोक्त संगति से, हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर अंत के दिनों में लौट आएंगे और उनका नाम बदल जाएगा। तो हमें प्रभु की वापसी का स्वागत कैसे करना चाहिए? यह कुछ ऐसा जिसके साथ प्रभु की वापसी के लालायित हर भाई-बहन को बहुत सावधानी से व्यवहार करना चाहिए।

हमारे 'यीशु मसीह को जानना' पेज पर और अधिक पढ़ने के लिए आपका स्वागतहै, इसके अलावा, आप नीचे दी गई सामग्री के बारे में अधिक जान सकते हैं। ये प्रभु यीशु को जानने और उनके दूसरे आगमन का स्वागत करने में आपकी मदद करेंगे।

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