बरसों की मुश्किलों, ताड़ना और शुद्धिकरण के बाद,
आख़िरकार तूफ़ानों से टूट चुका इंसान,
हालांकि मनुष्य ने अतीत की "महिमा" और "प्रणय" को खो दिया है,
उसने अनजाने में मनुष्य होने के सत्य को समझ लिया है,
और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सालों के समर्पण को भी समझ गया है।
और मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के सालों के समर्पण को भी समझ गया है।
मनुष्य धीरे-धीरे स्वयं की बर्बरता से घृणा करने लगता है।
वह अपनी असभ्यता से घृणा करने लगता है,
और परमेश्वर के प्रति सभी प्रकार की गलतफहमियों से
तथा उन सभी अनुचित मांगों से भी वह घृणा करने लगता है जो वह परमेश्वर से करता रहा
वो पलट नहीं सकता है समय को,
अपने पछतावे बदल नहीं सकता है वो।
मगर परमेश्वर का वचन, प्रेम देते हैं उसे नया जीवन।
वो पलट नहीं सकता है समय को,
अपने पछतावे बदल नहीं सकता है वो।
मगर परमेश्वर का वचन, प्रेम देते हैं उसे नया जीवन।
दिन-ब-दिन भरते हैं घाव, लौटती है शक्ति इंसान की।
उठकर निहारता है चेहरा सर्वशक्तिमान का,
और पाता है, परमेश्वर तो सदा से है यहाँ,
अब भी उतनी मोहक है उसकी मुस्कान और उसका प्रेम।
उसके दिल में फ़िक्र है इंसान की;
उतने ही स्नेही और मज़बूत हैं उसके हाथ,
जितने शुरुआत से हमेशा रहे हैं।
जैसे अदनवाटिका में इंसाँ लौट आया हो।
विरोध करता है वो सर्प का,
मुड़ता है यहोवा की ओर।
मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है,
परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है,
और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता
है—ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!
मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है,
परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है,
और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता
है—ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!
मनुष्य परमेश्वर के सामने घुटने टेकता है,
परमेश्वर के मुस्कुराते हुए चेहरे को देखता है,
और उसे अपनी सबसे प्रिय भेंट चढ़ाता
है—ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!
है—ओह! मेरे प्रभु, मेरे परमेश्वर!