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मेन्‍यू

परमेश्वर संसार को जलप्रलय से नष्ट करने का इरादा करता है और नूह को एक जहाज बनाने का निर्देश देता है

उत्पत्ति 6:9-14 नूह की वंशावली यह है। नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था; और नूह परमेश्वर ही के साथ साथ चलता रहा। और नूह से शेम, और हाम, और येपेत नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए। उस समय पृथ्वी परमेश्वर की दृष्‍टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी। और परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो दृष्‍टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था। तब परमेश्वर ने नूह से कहा, “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्‍ट कर डालूँगा। इसलिये तू गोपेर वृक्ष की लकड़ी का एक जहाज बना ले, उसमें कोठरियाँ बनाना, और भीतर-बाहर उस पर राल लगाना।”

उत्पत्ति 6:18-22 “परन्तु तेरे संग मैं वाचा बाँधता हूँ; इसलिये तू अपने पुत्रों, स्त्री, और बहुओं समेत जहाज में प्रवेश करना। और सब जीवित प्राणियों में से तू एक एक जाति के दो दो, अर्थात् एक नर और एक मादा जहाज में ले जाकर, अपने साथ जीवित रखना। एक एक जाति के पक्षी, और एक एक जाति के पशु, और एक एक जाति के भूमि पर रेंगनेवाले, सब में से दो दो तेरे पास आएँगे, कि तू उनको जीवित रखे। और भाँति भाँति का भोज्य पदार्थ जो खाया जाता है, उनको तू लेकर अपने पास इकट्ठा कर रखना; जो तेरे और उनके भोजन के लिये होगा।” परमेश्वर की इस आज्ञा के अनुसार नूह ने किया।

इन दो अंशों को पढ़ने के बाद क्या अब तुम लोगों को सामान्य समझ है कि नूह कौन था? नूह किस प्रकार का व्यक्ति था? मूल पाठ है : “नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था।” वर्तमान लोगों की समझ के अनुसार, उन दिनों, एक “धर्मी पुरुष” किस प्रकार का व्यक्ति होता था? एक धर्मी पुरुष को पूर्ण होना चाहिए। क्या तुम लोग जानते हो कि यह पूर्ण व्यक्ति मनुष्य की दृष्टि में पूर्ण था या परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण था? बिना किसी शंका के, यह पूर्ण व्यक्ति परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण था और मनुष्य की दृष्टि में नहीं। यह तो निश्चित है! ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य अंधा है और देख नहीं सकता, और सिर्फ परमेश्वर ही पूरी पृथ्वी और हर एक व्यक्ति को देखता है, सिर्फ परमेश्वर ही जानता था कि नूह एक पूर्ण व्यक्ति था। इसलिए, संसार को जलप्रलय से नष्ट करने की परमेश्वर की योजना उस क्षण शुरू हो गई थी, जब उसने नूह को बुलाया था।

उस युग में, परमेश्वर ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए नूह को बुलाने का इरादा किया। यह कार्य क्यों करना पड़ा? क्योंकि उस घड़ी परमेश्वर के हृदय में एक योजना थी। उसकी योजना जलप्रलय से संसार का नाश करने की थी। वह संसार का नाश क्यों करता? यहाँ कहा गया है : “उस समय पृथ्वी परमेश्वर की दृष्‍टि में बिगड़ गई थी, और उपद्रव से भर गई थी।” तुम लोग इस वाक्यांश से क्या समझते हो “पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी”? यह पृथ्वी पर एक घटना थी, जब संसार और इसके लोग चरमावस्था तक भ्रष्ट हो गए थे; अतः “पृथ्वी उपद्रव से भर गई थी”, आज की बोलचाल में, “उपद्रव से भर गई थी” का मतलब होगा कि सब कुछ अस्त-व्यस्त है। मनुष्य के लिए, इसका मतलब था कि जीवन के हर पहलू में व्यवस्था दिखनी बंद हो गई थी और सब कुछ अराजक और अनियंत्रित हो गया था। परमेश्वर की नज़रों में, इसका मतलब था कि संसार के लोग बहुत ही भ्रष्ट हो गए थे। लेकिन किस हद तक भ्रष्ट? उस हद तक भ्रष्ट कि परमेश्वर उन्हें अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता था या और अधिक धीरज नहीं धर सकता था। उस हद तक भ्रष्ट कि परमेश्वर ने उन्हें नष्ट करने का इरादा किया। जब परमेश्वर ने संसार को नष्ट करने की ठान ली, तो उसने जहाज़ बनाने के लिए किसी को ढूंढने की योजना बनाई। परमेश्वर ने इस कार्य को करने के लिए नूह को चुना; अर्थात नूह को जहाज़ बनाने दिया। उसने नूह को क्यों चुना? परमेश्वर की नज़रों में, नूह एक धार्मिक पुरुष था; और चाहे परमेश्वर ने उसे कुछ भी करने का निर्देश दिया, नूह ने वैसा ही किया। इसका मतलब है कि नूह वह सब करने को तैयार था, जो परमेश्वर ने उसे करने के लिए कहा था। परमेश्वर अपने साथ कार्य करने के लिए ऐसा कोई चाहता था, कोई ऐसा जो कुछ उसने सौंपा था उसे पूर्ण कर सके—पृथ्वी पर उसके कार्य को पूर्ण कर सके। उस समय अतीत में, क्या नूह के अलावा कोई और व्यक्ति था, जो ऐसे कार्य को पूर्ण कर सकता था? निश्चित रूप से नहीं! नूह ही एकमात्र उम्मीदवार था, एकमात्र व्यक्ति जो उसे पूर्ण कर सकता था, जिसे परमेश्वर ने सौंपा था और इसलिए परमेश्वर ने उसे चुना। लेकिन क्या लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर का दायरा एवं मापदंड अब वैसे ही हैं, जैसे तब थे? उत्तर यह है कि इसमें निश्चित रूप से एक अंतर है! और मैं यह क्यों पूछता हूँ? उस समय परमेश्वर की नज़रों में केवल नूह ही एक धार्मिक पुरुष था, इसका तात्पर्य यह हुआ कि न तो उसकी पत्नी धार्मिक थी और न उसके बेटे और बहूएँ धार्मिक लोग थे, लेकिन परमेश्वर ने नूह के कारण इन लोगों को भी बख्श दिया। परमेश्वर ने उनसे उस तरह अपेक्षा नहीं की थी, जैसे वह आज करता है और इसके बजाय उसने नूह के परिवार के सभी आठ सदस्यों को जीवित रखा। उन्होंने नूह की धार्मिकता के कारण परमेश्वर के आशीष को प्राप्त किया। नूह के बिना उनमें से कोई भी उस कार्य को पूर्ण नहीं कर सकता था जो परमेश्वर ने सौंपा था। इसलिए, नूह ही एकमात्र व्यक्ति था, जिसे संसार के उस विनाश में जीवित बचना था और अन्य लोग बस अतिरिक्त सहायक लाभार्थी थे। यह दर्शाता है कि परमेश्वर के प्रबंधकीय कार्य को आधिकारिक रूप से प्रारंभ करने से पहले के युग में, लोगों से व्यवहार करने और उनसे अपेक्षा करने के उसके सिद्धांत एवं मापदंड अपेक्षाकृत शिथिल थे। आज के लोगों के लिए, जिस तरह परमेश्वर ने नूह के परिवार के आठ सदस्यों से व्यवहार किया, उसमें “निष्पक्षता” का अभाव प्रतीत होता है। किंतु कार्य के उस परिमाण, जिसे वह अब लोगों पर करता है और उसके द्वारा दिये जाने वाले वचन की बड़ी मात्रा की तुलना में, परमेश्वर का नूह के परिवार के आठ लोगों से किया व्यवहार महज़ उस समय उसके कार्य की पृष्ठभूमि के मद्देनज़र एक कार्य सिद्धांत था। तुलनात्मक रूप से, क्या नूह के परिवार के आठ लोगों ने परमेश्वर से ज़्यादा प्राप्त किया था या आज के लोग ज़्यादा प्राप्त करते हैं?

नूह को बुलाया जाना एक साधारण तथ्य है, परंतु इस अभिलेख में वह मुख्य बिंदु इतना साधारण नहीं है जिसके विषय में हम बात कर रहे हैं—परमेश्वर का स्वभाव, उसके इरादे और उसका सार। परमेश्वर के इन विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए, हमें पहले समझना होगा कि परमेश्वर किस प्रकार के व्यक्ति को बुलाने की इच्छा करता है, और इसके माध्यम से हमें उसके स्वभाव, इरादों और सार को समझना होगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः परमेश्वर की नज़रों में, यह किस प्रकार का व्यक्ति होता है, जिसे वह बुलाता है? यह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो उसके वचनों को सुन सके, जो उसके निर्देशों का अनुसरण कर सके। साथ ही, यह ऐसा व्यक्ति भी होना चाहिए, जिसमें ज़िम्मेदारी की भावना हो, कोई ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर के वचन को ऐसी ज़िम्मेदारी एवं कर्तव्य मानकर क्रियान्वित करेगा, जिसे निभाने के लिए वो बाध्य है। तब क्या इस व्यक्ति को ऐसा व्यक्ति होने की आवश्यकता है, जो परमेश्वर को जानता है? नहीं। उस समय अतीत में, नूह ने परमेश्वर की शिक्षाओं के बारे में बहुत कुछ नहीं सुना था या परमेश्वर के किसी कार्य का अनुभव नहीं किया था। इसलिए, परमेश्वर के बारे में नूह का ज्ञान बहुत ही कम था। हालाँकि यहाँ लिखा है कि नूह परमेश्वर के साथ-साथ चलता रहा, तो क्या उसने कभी परमेश्वर के व्यक्तित्व को देखा था? उत्तर है, पक्के तौर पर नहीं! क्योंकि उन दिनों, सिर्फ परमेश्वर के दूत ही लोगों के बीच आते थे। जबकि वे चीज़ों की कथनी और करनी में परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते थे, वे महज परमेश्वर की इच्छा एवं इरादों को सूचित कर रहे होते थे। परमेश्वर का व्यक्तित्व मनुष्य पर आमने-सामने प्रकट नहीं हुआ था। पवित्र शास्त्र के इस भाग में, हम सब मूल रूप से यही देखते हैं कि नूह को क्या करना था और उसके लिए परमेश्वर के निर्देश क्या थे। अतः वह सार क्या था जिसे यहाँ परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया था? सब कुछ जो परमेश्वर करता है, उसकी योजना सटीकता के साथ बनाई जाती है। जब वह किसी चीज़ या परिस्थिति को घटित होते देखता है, तो उसकी दृष्टि में इसे नापने के लिए एक मापदंड होता है और यह मापदंड निर्धारित करता है कि इससे निपटने के लिए वह किसी योजना की शुरुआत करता है या नहीं या उसे इस चीज़ एवं परिस्थिति के साथ किस प्रकार निपटना है। वह उदासीन नहीं है या उसमें सभी चीज़ों के प्रति भावनाओं की कमी नहीं है। असल में इसका पूर्णतः विपरीत है। यहाँ एक पद है, जिसे परमेश्वर ने नूह से कहा था : “सब प्राणियों के अन्त करने का प्रश्न मेरे सामने आ गया है; क्योंकि उनके कारण पृथ्वी उपद्रव से भर गई है, इसलिये मैं उनको पृथ्वी समेत नष्‍ट कर डालूँगा।” जब परमेश्वर ने यह कहा तो क्या उसका मतलब था वह सिर्फ मनुष्यों का विनाश कर रहा था? नहीं! परमेश्वर ने कहा कि वह देह वाले सभी जीवित प्राणियों का विनाश करने जा रहा था। परमेश्वर ने विनाश क्यों चाहा? यहाँ परमेश्वर के स्वभाव का एक और प्रकाशन है; परमेश्वर की दृष्टि में, मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति, सभी देहधारियों की अशुद्धता, उपद्रव और विद्रोहीपन के प्रति उसके सब्र की एक सीमा है। उसकी सीमा क्या है? यह ऐसा है जैसा परमेश्वर ने कहा था : “और परमेश्वर ने पृथ्वी पर जो दृष्‍टि की तो क्या देखा कि वह बिगड़ी हुई है; क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था।” इस वाक्यांश “क्योंकि सब प्राणियों ने पृथ्वी पर अपना अपना चाल-चलन बिगाड़ लिया था” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कोई भी जीवित प्राणी, इनमें परमेश्वर का अनुसरण करने वाले, वे जो परमेश्वर का नाम पुकारते थे, ऐसे लोग जो किसी समय परमेश्वर को होमबलि चढ़ाते थे, ऐसे लोग जो मौखिक रूप से परमेश्वर को स्वीकार करते थे और यहाँ तक कि परमेश्वर की स्तुति भी करते थे—जब एक बार उनका व्यवहार भ्रष्टता से भर गया और परमेश्वर की दृष्टि में आ गया, तो उसे उनका नाश करना होगा। यह परमेश्वर की सीमा थी। अतः परमेश्वर किस हद तक मनुष्य एवं सभी देहधारियों की भ्रष्टता के प्रति सहनशील बना रहा? उस हद तक जब सभी लोग, चाहे वे परमेश्वर के अनुयायी हों या अविश्वासी, सही मार्ग पर नहीं चल रहे थे। उस हद तक जब मनुष्य केवल नैतिक रूप से भ्रष्ट और बुराई से भरा हुआ नहीं था, बल्कि जहाँ कोई व्यक्ति नहीं था, जो परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता था, किसी ऐसे व्यक्ति के होने की तो बात ही छोड़ दीजिए जो विश्वास करता हो कि परमेश्वर द्वारा इस संसार पर शासन किया जाता है और यह कि परमेश्वर लोगों के लिए प्रकाश का और सही मार्ग ला सकता है। उस हद तक जहाँ मनुष्य ने परमेश्वर के अस्तित्व से घृणा की और परमेश्वर को अस्तित्व में रहने की अनुमति नहीं दी। जब एक बार मनुष्य का भ्रष्टाचार इस बिंदु पर पहुँच गया, तो परमेश्वर इसे और अधिक नहीं सह सका। उसका स्थान कौन लेता? परमेश्वर के क्रोध और परमेश्वर के दंड का आगमन। क्या यह परमेश्वर के स्वभाव का एक आंशिक प्रकाशन नहीं था? इस वर्तमान युग में, क्या ऐसे कोई मनुष्य नहीं हैं, जो परमेश्वर की दृष्टि में धार्मिक हों? क्या ऐसे कोई मनुष्य नहीं हैं, जो परमेश्वर की दृष्टि में पूर्ण हों? क्या यह युग ऐसा युग है, जिसके अंतर्गत परमेश्वर की दृष्टि में पृथ्वी पर सभी देहधारियों का व्यवहार भ्रष्ट हो गया है? आज के दिन और युग में, ऐसे लोगों को छोड़कर जिन्हें परमेश्वर पूर्ण करना चाहता है और जो परमेश्वर का अनुसरण और उसके उद्धार को स्वीकार कर सकते हैं, क्या सभी देहधारी लोग परमेश्वर के धीरज की सीमा को चुनौती नहीं दे रहे हैं? क्या सभी चीज़ें, जो तुम लोगों के आसपास घटित होती हैं, जिन्हें तुम लोग अपनी आँखों से देखते हो और अपने कानों से सुनते हो और इस संसार में व्यक्तिगत रूप से अनुभव करते हो, उपद्रव से भरी हुई नहीं हैं? परमेश्वर की दृष्टि में, क्या एक ऐसे संसार एवं ऐसे युग को समाप्त नहीं कर देना चाहिए? यद्यपि इस वर्तमान युग की पृष्ठभूमि नूह के समय की पृष्ठभूमि से पूर्णतः अलग है, फिर भी वे भावनाएँ एवं क्रोध जो मनुष्य की भ्रष्टता के प्रति परमेश्वर में है, वे वैसी ही बना रहता है। परमेश्वर अपने कार्य के कारण सहनशील होने में समर्थ है, किन्तु सब प्रकार की परिस्थितियों एवं हालात के अनुसार, परमेश्वर की दृष्टि में इस संसार को बहुत पहले ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए था। जब जलप्रलय द्वारा संसार का विनाश किया गया था, उस लिहाज से तो परिस्थितियाँ कहीं ज़्यादा खराब हैं। किंतु अंतर क्या है? यह भी ऐसी चीज़ है, जो परमेश्वर के हृदय को अत्यंत दुःखी करती है, और कदाचित कुछ ऐसा है, जिसकी तुम लोगों में से कोई भी सराहना नहीं कर सकता।

जब उसने जलप्रलय द्वारा संसार का नाश किया, तब परमेश्वर नूह को जहाज़ बनाने और कुछ तैयारी के काम के लिए बुलाने में सक्षम था। परमेश्वर एक पुरुष—नूह—को बुला सकता था कि वह उसके लिए कार्यों की इन श्रृंखलाओं को अंजाम दे। किंतु इस वर्तमान युग में, परमेश्वर के पास कोई नहीं है, जिसे वो बुलाए। ऐसा क्यों है? हर एक व्यक्ति जो यहाँ बैठा है, वह शायद उस कारण को बहुत अच्छी तरह समझता और जानता है। क्या तुम चाहते हो कि मैं इसे बोलकर बताऊँ? ज़ोर से कहने से हो सकता है कि तुम लोगों के सम्मान को चोट पहुँचे या सब परेशान हो जाएँ। कुछ लोग कह सकते हैं : “हालाँकि परमेश्वर की दृष्टि में हम लोग धार्मिक और पूर्ण नहीं हैं, फिर भी यदि परमेश्वर हमें कुछ करने के लिए निर्देश देता है, तो हम अभी भी इसे करने में समर्थ होंगे। इससे पहले, जब उसने कहा कि एक विनाशकारी तबाही आ रही थी, तो हमने भोजन एवं ऐसी चीज़ों को तैयार करना शुरू कर दिया था, जिनकी आवश्यकता किसी आपदा में होगी। क्या यह सब परमेश्वर की माँगों के अनुसार नहीं किया गया था? क्या हम सचमुच में परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग नहीं कर रहे थे? जो चीज़ें हमने कीं क्या उनकी तुलना जो कुछ नूह ने किया, उससे नहीं की जा सकती? हमने जो किया क्या वो सच्चा समर्पण नहीं है? क्या हम परमेश्वर के निर्देशों का अनुसरण नहीं कर रहे थे? क्या जो परमेश्वर ने कहा हमने वो इसलिए नहीं किया क्योंकि हमें परमेश्वर के वचनों में विश्वास है? तो परमेश्वर अभी भी दुःखी क्यों है? परमेश्वर क्यों कहता है कि उसके पास बुलाने के लिए कोई भी नहीं है?” क्या तुम लोगों के कार्यों और नूह के कार्यों के बीच कोई अंतर है? अंतर क्या है? (आपदा के लिए आज भोजन तैयार करना हमारा अपना इरादा था।) (हमारे कार्य “धार्मिक” नहीं कहला सकते हैं, जबकि नूह परमेश्वर की दृष्टि में एक धार्मिक पुरुष था।) जो कुछ तुमने कहा वह बहुत गलत नहीं है। जो नूह ने किया वह आवश्यक रूप से उससे अलग है, जो लोग अब कर रहे हैं। जब नूह ने वैसा किया जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था, तो वह नहीं जानता था कि परमेश्वर के इरादे क्या थे। उसे नहीं पता था कि परमेश्वर कौनसा कार्य पूरा करना चाहता था। परमेश्वर ने नूह को सिर्फ एक आज्ञा दी थी और अधिक स्पष्टीकरण के बिना उसे कुछ करने का निर्देश दिया था, नूह ने आगे बढ़कर इसे कर दिया। उसने गुप्त रूप से परमेश्वर के इरादों को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर का विरोध किया या निष्ठाहीनता दिखाई। वह बस गया और एक शुद्ध एवं सरल हृदय के साथ इसे तदनुसार कर डाला। परमेश्वर उससे जो कुछ भी करवाना चाहता था, उसने किया और इस काम में परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर इन्हें सुनने में विश्वास उसका सहारा बना। इस प्रकार जो कुछ परमेश्वर ने उसे सौंपा था, उसने ईमानदारी एवं सरलता से उसे निपटाया था। समर्पण ही उसका सार था, उसके कार्यों का सार था—न कि अपनी अटकलें लगाना या प्रतिरोध करना, न ही अपने निजी हितों और अपने लाभ-हानि के विषय में सोचना था। इसके आगे, जब परमेश्वर ने कहा कि वह जलप्रलय से संसार का नाश करेगा, तो नूह ने नहीं पूछा कब या उसने नहीं पूछा कि चीज़ों का क्या होगा और उसने निश्चित तौर पर परमेश्वर से नहीं पूछा कि वह किस प्रकार संसार को नष्ट करने जा रहा था। उसने बस वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने निर्देश दिया था। हालाँकि परमेश्वर चाहता था कि इसे बनाया जाए और जिससे बनाया जाए, उसने बिलकुल वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने उसे कहा था और तुरंत कार्रवाई भी शुरू कर दी। उसने परमेश्वर को संतुष्ट करने की इच्छा के रवैये के साथ परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार काम किया। क्या वह आपदा से खुद को बचाने में सहायता करने के लिए यह कर रहा था? नहीं। क्या उसने परमेश्वर से पूछा कि संसार को नष्ट होने में कितना समय बाकी है? उसने नहीं पूछा। क्या उसने परमेश्वर से पूछा या क्या वह जानता था कि जहाज़ बनाने में कितना समय लगेगा? वह यह भी नहीं जानता था। उसने बस समर्पण किया, सुना और तदनुसार कार्य किया। अब के लोग वैसे नहीं हैं : जैसे ही परमेश्वर के वचन से हल्की सी जानकारी निकलती है, जैसे ही लोग परेशानी या समस्या के किसी चिह्न का आभास करते हैं, वे किसी भी चीज़ और कीमत की परवाह किए बगैर, आपदा के बाद क्या खाएँगे, क्या पियेंगे एवं क्या उपयोग करेंगे, इसकी तैयारी करने के लिए हरकत में आ जाते हैं, यहाँ तक कि विपत्ति से बच निकलने के अपने मार्गों की योजना बना लेते हैं। इससे भी अधिक दिलचस्प तो यह है कि इस अहम घड़ी में, मानवीय दिमाग “काम पूरा करने” में बहुत अच्छे होते हैं। उन परिस्थितियों में जहाँ परमेश्वर ने कोई निर्देश नहीं दिया है, मनुष्य बिलकुल उपयुक्त ढंग से हर चीज़ की योजना बना सकता है। तुम ऐसी योजनाओं का वर्णन करने के लिए “पूर्ण” शब्द का उपयोग कर सकते हो। जहाँ तक इसकी बात है कि परमेश्वर क्या कहता है, परमेश्वर के इरादे क्या हैं या परमेश्वर क्या चाहता है, कोई भी परवाह नहीं करता और न कोई इसकी सराहना करने की कोशिश करता है। क्या यह आज के लोगों और नूह के बीच में सबसे बड़ा अंतर नहीं है?

नूह की कहानी के इस अभिलेख में, क्या तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग को देखते हो? मनुष्य की भ्रष्टता, गंदगी एवं उपद्रव के प्रति परमेश्वर के धीरज की एक सीमा है। जब वह उस सीमा तक पहुँच जाता है, तो वह और अधिक धीरज नहीं रखेगा और इसके बजाय वह अपने नए प्रबंधन और नई योजना को शुरू करेगा, जो उसे करना है उसे प्रारम्भ करेगा, अपने कर्मों और अपने स्वभाव के दूसरे पहलू को प्रकट करेगा। उसका यह कार्य यह दर्शाने के लिए नहीं है कि मनुष्य द्वारा कभी उसे नाराज़ नहीं किया जाना चाहिए या यह कि वह अधिकार एवं क्रोध से भरा हुआ है और यह इस बात को दर्शाने के लिए नहीं है कि वह मानवता का नाश कर सकता है। बात यह है कि उसका स्वभाव एवं उसका पवित्र सार इस प्रकार की मानवता को परमेश्वर के सामने जीवन बिताने हेतु और उसके प्रभुत्व के अधीन जीवन जीने हेतु न तो और अनुमति दे सकता है और न धीरज रख सकता है। कहने का तात्पर्य है, जब सारी मानवजाति उसके विरुद्ध है, जब सारी पृथ्वी पर ऐसा कोई नहीं है जिसे वह बचा सके, तो ऐसी मानवता के लिए उसके पास और अधिक धीरज नहीं होगा और वह बिना किसी संदेह के इस प्रकार की मानवता का नाश करने के लिए अपनी योजना को कार्यान्वित करेगा। परमेश्वर के द्वारा ऐसा कार्य उसके स्वभाव से निर्धारित होता है। यह एक आवश्यक परिणाम है और ऐसा परिणाम है, जिसे परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन प्रत्येक सृजित प्राणी को सहना होगा। क्या यह नहीं दर्शाता है कि इस वर्तमान युग में, परमेश्वर अपनी योजना को पूर्ण करने और उन लोगों को बचाने के लिए जिन्हें वह बचाना चाहता है और इंतज़ार नहीं कर सकता? इन परिस्थितियों में, परमेश्वर किस बात की सबसे अधिक परवाह करता है? इसकी नहीं कि किस प्रकार वे जो उसका बिलकुल अनुसरण नहीं करते या वे जो हर तरह से उसका विरोध करते हैं, वे उससे कैसा व्यवहार करते हैं या उसका कैसे प्रतिरोध करते हैं, या मानवजाति किस प्रकार उस पर कलंक लगा रही है। वह केवल इसकी परवाह करता है कि वे लोग जो उसका अनुसरण करते हैं, वे जो उसकी प्रबंधन योजना में उसके उद्धार के विषय हैं, उन्हें उसके द्वारा पूरा किया गया है या नहीं, कि वे उसकी संतुष्टि के योग्य बन गए हैं या नहीं। जहाँ तक उसका अनुसरण करने वालों के अलावा अन्य लोगों की बात है, वह मात्र कभी-कभार ही अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए थोड़ा सा दंड देता है। उदाहरण के लिए : सुनामी, भूकंप, ज्वालामुखी का विस्फोट। ठीक उसी समय, वह उनको भी मजबूती से बचा रहा होता और देखरेख कर रहा होता है, जो उसका अनुसरण करते हैं और जिन्हें उसके द्वारा बचाया जाना है। परमेश्वर का स्वभाव यह है : एक ओर, वह उन लोगों के प्रति अधिकतम धीरज एवं सहनशीलता रख सकता है, जिन्हें वह पूर्ण बनाने का इरादा करता है और उनके लिए वह तब तक इंतज़ार कर सकता है, जब तक वह संभवतः कर सकता है; दूसरी ओर, परमेश्वर शैतान-जैसे लोगों से, जो उसका अनुसरण नहीं करते और उसका विरोध करते हैं, अत्यंत नफ़रत एवं घृणा करता है। यद्यपि वह इसकी परवाह नहीं करता कि ये शैतान-जैसे लोग उसका अनुसरण या उसकी आराधना करते हैं या नहीं, वह तब भी उनसे घृणा करता है, जबकि उसके हृदय में उनके लिए धीरज होता है और चूँकि वह इन शैतान-जैसे लोगों के अंत को निर्धारित करता है, इसलिए वह अपनी प्रबंधकीय योजना के चरणों के आगमन का भी इंतज़ार कर रहा होता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I

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