परमेश्वर के स्वभाव और सार को जानने पर वचन
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर वो है जो वो है और उसके पास वो है जो उसके पास है। जो कुछ वह प्रकट और उजागर करता है वह उसके सार और उसकी पहचान के निरूपण हैं। उसका स्वरूप, उसका सार और उसकी पहचान ऐसी चीज़ें हैं जिनकी जगह कोई मनुष्य नहीं ले सकता है। उसका स्वभाव मानवजाति के प्रति उसके प्रेम, मानवजाति के लिए उसकी दिलासा, मानवजाति के प्रति नफरत, और उस से भी बढ़कर, मानवजाति की सम्पूर्ण समझ को समेटे हुए है। जबकि, मुनष्य का व्यक्तित्व आशावादी, जीवन्त, या निष्ठुर हो सकता है। परमेश्वर का स्वभाव सभी चीज़ों और जीवित प्राणियों के शासक, सारी सृष्टि के प्रभु का स्वभाव है। उसका स्वभाव सम्मान, सामर्थ, कुलीनता, महानता, और सब से बढ़कर, सर्वोच्चता को दर्शाता है। उसका स्वभाव अधिकार का प्रतीक है, उन सबका प्रतीक है जो धर्मी, सुन्दर, और अच्छा है। इस के अतिरिक्त, यह उस परमेश्वर का भी प्रतीक है जिसे अंधकार और शत्रु बल के द्वारा हराया या आक्रमण नहीं किया जा सकता है,[क] साथ ही उस परमेश्वर का प्रतीक भी है जिसे किसी भी सृजे गए प्राणी के द्वारा ठेस नहीं पहुंचाई जा सकती है (न ही वह ठेस पहुंचाया जाना बर्दाश्त करेगा)।[ख] उसका स्वभाव सब से ऊँची सामर्थ का प्रतीक है। कोई भी मनुष्य या लोग उसके कार्य और उसके स्वभाव को बाधित नहीं कर सकते हैं। परन्तु मनुष्य का व्यक्तित्व, पशुओं से थोड़ा बेहतर होने के चिह्न से बढ़कर कुछ भी नहीं है। मनुष्य के पास अपने आप में और स्वयं में कोई अधिकार नहीं है, कोई स्वायत्तता नहीं है, स्वयं को श्रेष्ठ बनाने की कोई योग्यता नहीं है, बल्कि उसके सार में यह है कि वो हर प्रकार के व्यक्तियों, घटनाओं, या वस्तुओं के नियंत्रण में रहता है। परमेश्वर का आनन्द, धार्मिकता और ज्योति की उपस्थिति और अभ्युदय के कारण है; अँधकार और बुराई के विनाश के कारण है। वह मानवजाति तक ज्योति और अच्छा जीवन पहुंचाने में आनन्दित होता है; उसका आनन्द धार्मिक आनंद है, हर सकारात्मक चीज़ के अस्तित्व में होने का प्रतीक, और सब से बढ़कर कल्याण का प्रतीक है। परमेश्वर के क्रोध का कारण मानवजाति को अन्याय की मौजूदगी और उसके हस्तक्षेप के कारण पहुँचने वाली हानि है; बुराई और अँधकार है, और ऐसी चीज़ों का अस्तित्व है जो सत्य को निकाल बाहर करती हैं, और उस से भी बढ़कर इसका कारण ऐसी चीज़ों का अस्तित्व है जो उसका विरोध करती हैं जो भला और सुन्दर है। उसका क्रोध एक चिह्न है कि वे सभी चीज़ें जो नकारात्मक हैं आगे से अस्तित्व में न रहें, और इसके अतिरिक्त यह उसकी पवित्रता का प्रतीक है। उसका दुखः मानवजाति के कारण है, जिसके लिए उसने आशा की है परन्तु वह अंधकार में गिर गई है, क्योंकि जो कार्य वह मनुष्यों पर करता है, वह उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता और क्योंकि वह जिस मानवजाति से प्रेम करता है वह समस्त मानवजाति ज्योति में जीवन नहीं जी सकती। वह दुखः की अनुभूति करता है अपनी निष्कपट मानवजाति के लिए, ईमानदार किन्तु अज्ञानी मनुष्य के लिए, और उस मनुष्य के लिए जो भला तो है लेकिन जिसमें खुद के विचारों की कमी है। उसका दुखः, उसकी भलाई और उसकी करूणा का चिह्न है, सुन्दरता और उदारता का चिह्न है। उसकी प्रसन्नता वास्तव में, उसके शत्रुओं को हराने और मनुष्यों के भले विश्वास को प्राप्त करने से आती है। इसके अतिरिक्त, सभी शत्रु ताकतों को भगाने और उनके विनाश से उपजती है और मनुष्यों के भले और शांतिपूर्ण जीवन को प्राप्त करने से आती है। परमेश्वर की प्रसन्नता, मनुष्य के आनंद के समान नहीं है; उसके बजाए, यह मनोहर फलों को एकत्र करने का एहसास है, एक एहसास जो आनंद से भी बढ़कर है। उसकी प्रसन्नता इस बात का चिह्न है कि मानवजाति दुखः की जंज़ीरों को तोड़कर अब आज़ाद हो गयी है, यह मानवजाति के ज्योति के संसार में प्रवेश करने का चिह्न है। दूसरी ओर, मनुष्यों की भावनाएँ सिर्फ उनके स्वयं के सारे स्वार्थों के उद्देश्य से जन्मती हैं, धार्मिकता, ज्योति, या जो सुन्दर है उसके लिए नहीं है, और स्वर्ग द्वारा प्रदत्त अनुग्रह के लिए तो बिल्कुल नहीं है। मानवजाति की भावनाएँ स्वार्थी हैं और अँधकार के संसार से वास्ता रखती हैं। वे परमेश्वर की इच्छा के लिए अस्तित्व में नहीं हैं, परमेश्वर की योजना के लिए तो बिल्कुल नहीं हैं। इसलिए मनुष्य और परमेश्वर का उल्लेख एक साँस में नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर सर्वदा सर्वोच्च है और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य सर्वदा तुच्छ और हमेशा निकम्मा है। यह इसलिए है क्योंकि परमेश्वर हमेशा मनुष्यों के लिए बलिदान करता रहता है और अपने आप को समर्पित करता है; जबकि, मनुष्य हमेशा लेता है और सिर्फ अपने आप के लिए ही परिश्रम करता है। परमेश्वर सदा मानवजाति के अस्तित्व के लिए परिश्रम करता रहता है, फिर भी मनुष्य ज्योति और धार्मिकता में कभी भी कोई योगदान नहीं देता है। भले ही मनुष्य कुछ समय के लिए परिश्रम करे, लेकिन वह इतना कमज़ोर होता है कि हल्के से झटके का भी सामना नहीं सकता है, क्योंकि मनुष्य का परिश्रम केवल अपने लिए होता है दूसरों के लिए नहीं। मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर सर्वदा स्वार्थविहीन होता है। परमेश्वर उन सब का स्रोत है जो धर्मी, अच्छा, और सुन्दर है, जबकि मनुष्य सब प्रकार की गन्दगी और बुराई का वाहक और प्रकट करने वाला है। परमेश्वर कभी भी अपनी धार्मिकता और सुन्दरता के सार-तत्व को नहीं बदलेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय, किसी भी परिस्थिति में, धार्मिकता से विश्वासघात कर सकता है और परमेश्वर से दूर जा सकता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के स्वभाव को समझना अति महत्वपूर्ण है' से उद्धृत
मैं धार्मिक हूँ, मैं विश्वासयोग्य हूँ, और मैं वो परमेश्वर हूँ जो मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है! मैं एक क्षण में इसे प्रकट कर दूँगा कि कौन सच्चा और कौन झूठा है। घबराओ मत; सभी चीजें मेरे समय के अनुसार काम करती हैं। कौन मुझे ईमानदारी से चाहता है और कौन नहीं—मैं एक-एक करके तुम सब को बता दूँगा। तुम लोग वचनों को खाने-पीने का ध्यान रखो और जब तुम मेरी उपस्थिति में आओ तो मेरे करीब आ जाओ, और मैं अपना काम स्वयं करूँगा। तात्कालिक परिणामों के लिए बहुत चिंतित न हो जाओ; मेरा काम ऐसा नहीं है जो सारा एक साथ पूरा किया जा सके। इसके भीतर मेरे चरण और मेरी बुद्धि निहित है, इसलिए ही मेरी बुद्धि प्रकट की जा सकती है। मैं तुम सभी को देखने दूँगा कि मेरे हाथों द्वारा क्या किया जाता है—बुराई को दण्डित और भलाई को पुरस्कृत किया जाता है। मैं निश्चय ही किसी से पक्षपात नहीं करता। तुम जो मुझे पूरी निष्ठा से प्रेम करते हो, मैं भी तुम्हें निष्ठा से प्रेम करूँगा, और जहाँ तक उनकी बात है जो मुझे निष्ठा से प्रेम नहीं करते, उन पर मेरा क्रोध हमेशा रहेगा, ताकि वे अनंतकाल तक याद रख सकें कि मैं सच्चा परमेश्वर हूँ, ऐसा परमेश्वर जो मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है। लोगों के सामने एक तरह से और उनकी पीठ पीछे दूसरी तरह से काम न करो; तुम जो कुछ भी करते हो, उसे मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, तुम दूसरों को भले ही मूर्ख बना लो, लेकिन तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते। मैं यह सब स्पष्ट रूप से देखता हूँ। तुम्हारे लिए कुछ भी छिपाना संभव नहीं है; सबकुछ मेरे हाथों में है। अपनी क्षुद्र और छोटी-छोटी गणनाओं को अपने फायदे के लिए कर पाने के कारण खुद को बहुत चालाक मत समझो। मैं तुमसे कहता हूँ : इंसान चाहे जितनी योजनाएँ बना ले, हजारों या लाखों, लेकिन अंत में मेरी पहुँच से बच नहीं सकता। सभी चीज़ें और घटनाएं मेरे हाथों से ही नियंत्रित होती हैं, एक इंसान की तो बिसात ही क्या! मुझसे बचने या छिपने की कोशिश मत करो, फुसलाने या छिपाने की कोशिश मत करो। क्या ऐसा हो सकता है कि तुम अभी भी नहीं देख सकते कि मेरा महिमामय मुख, मेरा क्रोध और मेरा न्याय सार्वजनिक रूप से प्रकट किये गए हैं? मैं तत्काल और निर्ममता से उन सभी का न्याय करूँगा जो मुझे निष्ठापूर्वक नहीं चाहते। मेरी सहानुभूति समाप्त हो गई है; अब और शेष नहीं रही। अब और पाखंडी मत बनो, और अपने असभ्य एवं लापरवाह चाल-चलन को रोक लो।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 44' से उद्धृत
मैं जो कहता हूँ, उस पर दृढ़ रहता हूँ, और जिस पर मैं दृढ़ रहता हूँ, उसे पूरा जरूर करता हूँ, और कोई इसे बदल नहीं सकता—यह परम सिद्धांत है। चाहे वे मेरे द्वारा अतीत में कहे गए वचन हों या भविष्य कहे जाने वाले, मैं उन सबको एक-एक करके सच कर दूँगा, और समस्त मानवजाति को इसे सच होते हुए दिखाऊँगा। यह मेरे वचनों और कार्य के पीछे का सिद्धांत है। ... संसार में घटित होने वाली समस्त चीजों में से ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसमें मेरी बात आखिरी न हो। क्या कोई ऐसी चीज है, जो मेरे हाथ में न हो? जो कुछ मैं कहता हूँ, वह किया जाता है, और मनुष्यों के बीच कौन है, जो मेरे मन को बदल सकता है? क्या यह मेरे द्वारा पृथ्वी पर बनाई गई वाचा हो सकती है? कोई भी चीज मेरी योजना के आगे बढ़ने में बाधा नहीं डाल सकती; मैं अपने कार्य में और साथ ही अपने प्रबंधन की योजना में भी हमेशा उपस्थित हूँ। मनुष्यों में से कौन इसमें हस्तक्षेप कर सकता है? क्या मैंने स्वयं ही व्यक्तिगत रूप से ये व्यवस्थाएँ नहीं की हैं? आज इस क्षेत्र में प्रवेश करना, मेरी योजना या मेरे पूर्वानुमान से बाहर नहीं है; यह सब बहुत पहले मेरे द्वारा निर्धारित किया गया था। तुम लोगों में से कौन मेरी योजना के इस चरण की थाह पा सकता है? मेरे लोग निश्चित ही मेरी आवाज सुनेंगे, और हर वह आदमी, जो ईमानदारी से मुझसे प्रेम करता है, निश्चित ही मेरे सिंहासन के सामने लौट आएगा।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 1' से उद्धृत
मैं एक सर्वभक्षी अग्नि हूँ और मैं अपमान बरदाश्त नहीं करता। क्योंकि सभी मानव मेरे द्वारा बनाए गए थे, इसलिए मैं जो कुछ कहता और करता हूँ, उन्हें उसका पालन करना चाहिए और वे विद्रोह नहीं कर सकते। लोगों को मेरे कार्य में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, और वे इस बात का विश्लेषण करने के योग्य तो बिलकुल नहीं हैं कि मेरे कार्य और मेरे वचनों में क्या सही या ग़लत है। मैं सृष्टि का प्रभु हूँ, और सृजित प्राणियों को मेरे प्रति श्रद्धापूर्ण हृदय के साथ वह सब-कुछ प्राप्त करना चाहिए, जिसकी मुझे आवश्यकता है; उन्हें मेरे साथ बहस नहीं करनी चाहिए, और विशेष रूप से उन्हें मेरा विरोध नहीं करना चाहिए। मैं अपने अधिकार के साथ अपने लोगों पर शासन करता हूँ, और वे सभी लोग जो मेरी सृष्टि का हिस्सा हैं, उन्हें मेरे अधिकार के प्रति समर्पण करना चाहिए। यद्यपि आज तुम लोग मेरे सामने दबंग और धृष्ट हो, यद्यपि तुम उन वचनों की अवज्ञा करते हो जिनसे मैं तुम लोगों को शिक्षा देता हूँ, और कोई डर नहीं मानते, फिर भी मैं तुम लोगों की विद्रोहशीलता का केवल सहिष्णुता से सामना करता हूँ; मैं अपना आपा नहीं खोऊँगा और अपने कार्य को इसलिए प्रभावित नहीं करूँगा, क्योंकि छोटे, तुच्छ भुनगों ने गोबर के ढेर में गंदगी मचा दी है। मैं अपने पिता की इच्छा के वास्ते हर उस चीज़ के अविरत अस्तित्व को सहता हूँ जिससे मैं घृणा करता हूँ, और उन सभी चीज़ों को बरदाश्त करता हूँ, जिनसे मैं नफ़रत करता हूँ, और मैं अपने कथन पूरे होने तक, अपने अंतिम क्षण तक ऐसा करूँगा।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'जब झड़ते हुए पत्ते अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे, तो तुम्हें अपनी की हुई सभी बुराइयों पर पछतावा होगा' से उद्धृत
चूँकि तुम पहले ही मेरी सेवा करने का संकल्प ले चुके हो, इसलिए मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा। मैं वह परमेश्वर हूँ, जो बुराई से घृणा करता है, और मैं वह परमेश्वर हूँ, जो मनुष्य के प्रति शंकालु है। चूँकि तुमने पहले ही अपने शब्दों को वेदी पर रख दिया है, इसलिए मैं यह बरदाश्त नहीं करूँगा कि तुम मेरी ही आँखों के सामने से भाग जाओ, न ही मैं यह बरदाश्त करूँगा कि तुम दो स्वामियों की सेवा करो। क्या तुम्हें लगता है कि मेरी वेदी पर और मेरी आँखों के सामने अपने शब्दों को रखने के बाद तुम किसी दूसरे से प्रेम कर सकते हो? मैं लोगों को इस तरह से मुझे मूर्ख कैसे बनाने दे सकता हूँ? क्या तुम्हें लगता था कि तुम अपनी जीभ से यूँ ही मेरे लिए प्रतिज्ञा और शपथ ले सकते हो? तुम मेरे सिंहासन की शपथ कैसे ले सकते हो, मेरा सिंहासन, मैं जो सबसे ऊँचा हूँ? क्या तुम्हें लगा कि तुम्हारी शपथ पहले ही खत्म हो चुकी है? मैं तुम लोगों को बता दूँ : तुम्हारी देह भले ही खत्म हो जाए, पर तुम्हारी शपथ खत्म नहीं हो सकती। अंत में, मैं तुम लोगों की शपथ के आधार पर तुम्हें दंड दूंगा। हालाँकि तुम लोगों को लगता है कि अपने शब्द मेरे सामने रखकर मेरा सामना कर लोगे, और तुम लोगों के दिल अशुद्ध और बुरी आत्माओं की सेवा कर सकते हैं। मेरा क्रोध उन कुत्ते और सुअर जैसे लोगों को कैसे सहन कर सकता है, जो मुझे धोखा देते हैं? मुझे अपने प्रशासनिक आदेश कार्यान्वित करने होंगे, और अशुद्ध आत्माओं के हाथों से उन सभी पाखंडी, "पवित्र" लोगों को वापस खींचना होगा जिनका मुझमें विश्वास है, ताकि वे एक अनुशासित प्रकार से मेरे लिए "सेवारत" हो सकें, मेरे बैल बन सकें, मेरे घोड़े बन सकें, मेरे संहार की दया पर रह सकें। मैं तुमसे तुम्हारा पिछला संकल्प फिर से उठवाऊँगा और एक बार फिर से अपनी सेवा करवाऊँगा। मैं ऐसे किसी भी सृजित प्राणी को बरदाश्त नहीं करूँगा, जो मुझे धोखा दे। तुम्हें क्या लगा कि तुम बस बेहूदगी से अनुरोध कर सकते हो और मेरे सामने झूठ बोल सकते हो? क्या तुम्हें लगा कि मैंने तुम्हारे वचन और कर्म सुने या देखे नहीं? तुम्हारे वचन और कर्म मेरी दृष्टि में कैसे नहीं आ सकते? मैं लोगों को इस तरह अपने को धोखा कैसे देने दे सकता हूँ?
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'तुम सभी कितने नीच चरित्र के हो!' से उद्धृत
मैं स्वयं अद्वितीय परमेश्वर हूँ, इसके अतिरिक्त मैं परमेश्वर का एकमात्र प्रतिनिधि हूँ। इतना ही नहीं, मैं, देह की समग्रता के साथ परमेश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति हूँ। जो कोई मेरा सम्मान न करने का साहस करता है, जो कोई अपनी आँखों में प्रतिरोध प्रदर्शित करने का साहस करता है, और जो कोई मेरे विरुद्ध अवज्ञा के शब्द बोलने की धृष्टता करता है, वह निश्चित रूप से मेरे शापों और कोप से मारा जाएगा (मेरे कोप के कारण शाप दिए जाएँगे)। इतना ही नहीं, जो कोई मेरे प्रति निष्ठावान अथवा संतानोचित नहीं होता, और जो कोई मुझसे चालबाज़ी करने का प्रयास करता है, वह निश्चित रूप से मेरी घृणा से मर जाएगा। मेरी धार्मिकता, प्रताप और न्याय सदा-सदा के लिए कायम रहेंगे। पहले मैं प्रेममय और दयालु था, परंतु यह मेरी पूरी दिव्यता का स्वभाव नहीं है; केवल धार्मिकता, प्रताप और न्याय ही मेरे, स्वयं पूर्ण परमेश्वर के, स्वभाव में शामिल हैं। अनुग्रह के युग में मैं प्रेममय और दयालु था। जो कार्य मुझे पूरा करना था, उसके कारण मुझमें प्रेममय-कृपालुता और दयालुता थी; उसके बाद ऐसी चीज़ों की कोई आवश्यकता न रही (और तबसे कोई भी नहीं रही है)। यह सब धार्मिकता, प्रताप और न्याय है और यह मेरी सामान्य मानवता के साथ जुड़ी मेरी पूर्ण दिव्यता का संपूर्ण स्वभाव है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 79' से उद्धृत
मैं दुष्टों को दंड दूँगा और अच्छे लोगों को इनाम दूँगा, और मैं अपनी धार्मिकता को लागू करूँगा और अपने न्याय को कार्यान्वित करूँगा। मैं हर चीज़ पूरी करने के लिए अपने वचनों का उपयोग करूँगा, और सभी लोगों और सभी चीज़ों को अपने ताड़ना देने वाले हाथ का अनुभव करवाऊँगा, और मैं सभी लोगों को अपनी पूरी महिमा, अपनी पूरी बुद्धि, अपनी पूरी उदारता दिखवाऊँगा। कोई भी व्यक्ति आलोचना करने के लिए उठने का साहस नहीं करेगा, क्योंकि मुझमें सभी चीज़ें पूरी होती हैं, और यहाँ, हर आदमी मेरी पूरी गरिमा देखे और मेरी पूरी जीत का स्वाद ले, क्योंकि मुझमें सभी चीज़ें अभिव्यक्त होती हैं। इससे मेरे महान सामर्थ्य और मेरे अधिकार को देखना संभव है। कोई मुझे अपमानित करने का साहस नहीं करेगा, और कोई मुझे बाधित करने का साहस नहीं करेगा। मुझमें सब खुला हुआ है। कौन कुछ छिपाने का साहस करेगा? मैं निश्चित रूप से उस व्यक्ति पर दया नहीं दिखाऊँगा! ऐसे अभागों को मेरी गंभीर सजा मिलनी चाहिए और ऐसे बदमाशों को मेरी नजरों से दूर कर दिया जाना चाहिए। मैं ज़रा-सी भी दया न दिखाते हुए और उनकी भावनाओं का ज़रा भी ध्यान न रखते हुए, उन पर लोहे की छड़ी से शासन करूँगा और मैं उनका न्याय करने के लिए अपने अधिकार का उपयोग करूँगा, क्योंकि मैं स्वयं परमेश्वर हूँ, जो भावना से रहित है और प्रतापी है और जिसका अपमान नहीं किया जा सकता। सभी को यह समझना और देखना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि "बिना कारण या तर्क" के मेरे द्वारा मार डाले और नष्ट कर दिए जाएँ, क्योंकि मेरी छड़ी उन सभी को मार डालेगी, जो मुझे अपमानित करते हैं। मुझे इस बात की परवाह नहीं वे मेरी प्रशासनिक आज्ञाओं को जानते हैं या नहीं; इसका मेरे लिए कोई महत्व नहीं होगा, क्योंकि मेरा व्यक्तित्व किसी के भी द्वारा अपमानित किया जाना बरदाश्त नहीं करता। इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि मैं एक शेर हूँ; जिस किसी को भी छूता हूँ, उसे मार डालता हूँ। इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि अब यह कहना कि मैं करुणा और प्रेम का परमेश्वर हूँ, मेरी निंदा करना है। सारांश यह कि मैं मेमना नहीं, बल्कि शेर हूँ। कोई मुझे अपमानित करने का साहस नहीं करता; जो कोई मेरा अपमान करेगा, मैं बिना दया के तुरंत उसे मृत्युदंड दूँगा!
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 120' से उद्धृत
मेरी आवाज़ न्याय और कोप है; मैं किसी के भी साथ नरमी नहीं बरतता और किसी के भी प्रति दया नहीं दिखाता हूँ, क्योंकि मैं धार्मिक परमेश्वर स्वयं हूँ, और मैं कोप से युक्त हूँ; मैं ज्वलन, प्रक्षालन, और विनाश से युक्त हूँ। मुझमें कुछ भी छिपा हुआ, या भावुकतापूर्ण नहीं है, बल्कि इसके विपरीत, सब कुछ खुला, धार्मिक, और निष्पक्ष है। चूँकि मेरे ज्येष्ठ पुत्र पहले ही सिंहासन पर मेरे साथ हैं, सभी राष्ट्रों और सभी लोगों के ऊपर शासन कर रहे हैं, जो चीज़ें और लोग अन्यायी और अधार्मिक हैं, उनका न्याय किया जाना अब शुरू हो रहा है। मैं एक-एक कर उनकी जाँच-पड़ताल करूँगा, कुछ भी नहीं छोड़ूँगा, और उन्हें पूर्णतः प्रकट करूँगा। चूँकि मेरा न्याय पूरी तरह प्रकट हो गया है और पूरी तरह खोल दिया गया है, और मैंने बिल्कुल कुछ भी छिपाया नहीं है; इसलिए मैं उस सबको निकाल फेंकूँगा जो मेरी इच्छा के अनुरूप नहीं है, और उसे अथाह कुंड में अनंत काल के लिए नष्ट हो जाने दूँगा। वहाँ मैं उसे सदा के लिए जलने दूँगा। यह मेरी धार्मिकता है; यह मेरा खरापन है। कोई भी इसे बदल नहीं सकता है, और सब मेरी प्रभुता के अधीन होना ही चाहिए।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 103' से उद्धृत
मैंने लंबे समय से दुष्ट आत्माओं के विभिन्न दुष्कर्मों को स्पष्ट रूप से देखा है। और दुष्ट आत्माओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले लोगों (गलत इरादों वाले लोग, जो देह-सुख या धन की लालसा करते हैं, जो खुद को ऊंचा उठाते हैं, जो कलीसिया को बाधित करते हैं, आदि) की असलियत भी मैं स्पष्ट रूप से जान गया हूँ। यह मत समझो कि दुष्ट आत्माओं को बाहर निकालते ही सब कुछ खत्म हो जाता है। मैं तुम्हें बता दूँ! अब से, मैं इन लोगों का एक-एक करके निपटारा करूँगा, कभी उनका उपयोग नहीं करूँगा! कहने का तात्पर्य है, दुष्ट आत्माओं द्वारा भ्रष्ट किसी भी व्यक्ति का उपयोग मेरे द्वारा नहीं किया जाएगा, और उसे बाहर निकाल दिया जाएगा! ऐसा मत सोचना कि मैं भावनाविहीन हूँ! जान लो! मैं पवित्र परमेश्वर हूँ, और मैं एक गंदे मंदिर में नहीं रहूँगा! मैं केवल ईमानदार और बुद्धिमान लोगों का उपयोग करता हूँ जो मेरे प्रति पूरी तरह वफ़ादार और मेरे बोझ के प्रति विचारशील हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों को मेरे द्वारा पूर्वनिर्धारित किया गया था। कोई भी दुष्ट आत्मा उनपर बिलकुल काम नहीं करता है। मुझे यह बात स्पष्ट करने दो: अब से, जिन सब लोगों के पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, उनके पास दुष्ट आत्माओं का काम है। मैं एक बार फिर बता दूँ: मैं एक भी ऐसे व्यक्ति को नहीं चाहता जिसपर दुष्ट आत्माएँ काम करती हैं। वे सभी अपनी देह के साथ नरक में डाल दिए जाएँगे!
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'आरंभ में मसीह के कथन' के 'अध्याय 76' से उद्धृत
अपमान के प्रति परमेश्वर की असहिष्णुता उसका अद्वितीय सार है; परमेश्वर का कोप उसका अद्वितीय स्वभाव है; परमेश्वर का प्रताप उसका अद्वितीय सार है। परमेश्वर के क्रोध के पीछे का सिद्धांत उस पहचान और हैसियत का प्रदर्शन है, जिसे सिर्फ वही धारण करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह अद्वितीय स्वयं परमेश्वर के सार का एक प्रतीक भी है। परमेश्वर का स्वभाव उसका अपना अंतर्निहित सार है, जो समय के साथ बिलकुल नहीं बदलता, और न यह भौगोलिक स्थान के बदलने से ही बदलता है। उसका अंतर्निहित स्वभाव उसका स्वाभाविक सार है। वह चाहे जिस किसी पर भी अपना कार्य क्यों न करे, उसका सार नहीं बदलता, और न ही उसका धार्मिक स्वभाव बदलता है। जब कोई परमेश्वर को क्रोधित करता है, तो वह अपना अंतर्निहित स्वभाव प्रस्फुटित करता है; इस समय उसके क्रोध के पीछे का सिद्धांत नहीं बदलता, और न ही उसकी अद्वितीय पहचान और हैसियत बदलती है। वह अपने सार में परिवर्तन के कारण या अपने स्वभाव से विभिन्न तत्त्वों के उत्पन्न होने के कारण क्रोधित नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है क्योंकि उसके विरुद्ध मनुष्य का विरोध उसके स्वभाव को ठेस पहुँचाता है। मनुष्य द्वारा परमेश्वर को खुले तौर पर पर उकसाना परमेश्वर की अपनी पहचान और हैसियत के लिए एक गंभीर चुनौती है। परमेश्वर की नज़र में, जब मनुष्य उसे चुनौती देता है, तब मनुष्य उससे मुकाबला कर रहा होता है और उसके क्रोध की परीक्षा ले रहा होता है। जब मुनष्य परमेश्वर का विरोध करता है, जब मनुष्य परमेश्वर से मुकाबला करता है, जब मनुष्य लगातार उसके क्रोध की परीक्षा लेता है—और यह उस समय होता है, जब पाप अनियंत्रित हो जाता है—तब परमेश्वर का कोप स्वाभाविक रूप से अपने आपको प्रकट और प्रस्तुत करेगा। इसलिए, परमेश्वर के कोप की अभिव्यक्ति इस बात की प्रतीक है कि समस्त बुरी ताकतें अस्तित्व में नहीं रहेंगी, और यह इस बात की प्रतीक है कि सभी विरोधी शक्तियाँ नष्ट कर दी जाएँगी। यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसके कोप की अद्वितीयता है। जब परमेश्वर की गरिमा और पवित्रता को चुनौती दी जाती है, जब मनुष्य द्वारा न्याय की ताकतों को रोका जाता है और उनकी अनदेखी की जाती है, तब परमेश्वर अपने कोप को भेजता है। परमेश्वर के सार के कारण पृथ्वी की वे सारी ताकतें, जो परमेश्वर का मुकाबला करती हैं, उसका विरोध करती हैं और उसके साथ संघर्ष करती हैं, बुरी, भ्रष्ट और अन्यायी हैं; वे शैतान से आती हैं और उसी से संबंधित हैं। चूँकि परमेश्वर न्यायी है, प्रकाशमय है, दोषरहित और पवित्र है, इसलिए समस्त बुरी, भ्रष्ट और शैतान से संबंध रखने वाली चीज़ें परमेश्वर का कोप प्रकट होने पर नष्ट हो जाएँगी।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II' से उद्धृत
नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर द्वारा अपने इरादे बदलने में कोई झिझक या ऐसी चीज़ शामिल नहीं थी, जो अस्पष्ट या अज्ञात हो। बल्कि, यह शुद्ध क्रोध से शुद्ध सहनशीलता में हुआ एक रूपांतरण था। यह परमेश्वर के सार का एक सच्चा प्रकटन है। परमेश्वर अपने कार्यों में कभी अस्थिर या संकोची नहीं होता; उसके कार्यों के पीछे के सिद्धांत और उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी, शुद्ध और दोषरहित होते हैं, जिनमें कोई धोखा या षड्यंत्र बिलकुल भी मिला नहीं होता। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के सार में कोई अंधकार या बुराई शामिल नहीं होती। परमेश्वर नीनवे के नागरिकों से इसलिए क्रोधित हुआ, क्योंकि उनकी दुष्टता के कार्य उसकी नज़रों में आ गए थे; उस समय उसका क्रोध उसके सार से निकला था। किंतु जब परमेश्वर का कोप जाता रहा और उसने नीनवे के लोगों पर एक बार फिर से सहनशीलता दिखाई, तो वह सब जो उसने प्रकट किया, वह भी उसका अपना सार ही था। यह संपूर्ण परिवर्तन परमेश्वर के प्रति मनुष्य के रवैये में हुए बदलाव के कारण था। इस पूरी अवधि के दौरान परमेश्वर का अनुल्लंघनीय स्वभाव नहीं बदला, परमेश्वर का सहनशील सार नहीं बदला, परमेश्वर का प्रेममय और दयालु सार नहीं बदला। जब लोग दुष्टता के काम करते हैं और परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो वह उन पर क्रोध करता है। जब लोग सच में पश्चात्ताप करते हैं, तो परमेश्वर का हृदय बदलता है, और उसका क्रोध थम जाता है। जब लोग हठपूर्वक परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो उसका कोप निरंतर बना रहता है और धीरे-धीरे उन्हें तब तक दबाता रहता है, जब तक वे नष्ट नहीं हो जाते। यह परमेश्वर के स्वभाव का सार है। परमेश्वर चाहे कोप प्रकट कर रहा हो या दया और प्रेममय करुणा, यह मनुष्य के हृदय की गहराइयों में परमेश्वर के प्रति उसका आचरण, व्यवहार और रवैया ही होता है, जो यह तय करता है कि परमेश्वर के स्वभाव के प्रकाशन के माध्यम से क्या व्यक्त होगा। यदि परमेश्वर किसी व्यक्ति परनिरंतर अपना क्रोध बनाए रखता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति का हृदय परमेश्वर का विरोध करता है। चूँकि इस व्यक्ति ने कभी सच में पश्चात्ताप नहीं किया है, परमेश्वर के सम्मुख अपना सिर नहीं झुकाया है या परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखा है, इसलिए उसने कभी परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति अकसर परमेश्वर की देखरेख, उसकी दया और उसकी सहनशीलता प्राप्त करता है, तो निस्संदेह ऐसे व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर के प्रति सच्चा विश्वास है, और उसका हृदय परमेश्वर के विरुद्ध नहीं है। यह व्यक्ति अकसर सच में परमेश्वर के सम्मुख पश्चात्ताप करता है; इसलिए, भले ही परमेश्वर का अनुशासन अकसर इस व्यक्ति के ऊपर आए, पर उसका कोप नहीं आएगा।
इस संक्षिप्त विवरण से लोग परमेश्वर के हृदय को देख सकते हैं, उसके सार की वास्तविकता को देख सकते हैं, और यह देख सकते हैं कि परमेश्वर का क्रोध और उसके हृदय के बदलाव बेवजह नहीं हैं। परमेश्वर द्वारा कुपित होने और अपना मन बदल लेने पर दिखाई गई स्पष्ट विषमता के बावजूद, जिससे लोग यह मानते हैं कि परमेश्वर के सार के इन दोनों पहलुओं—उसके क्रोध और उसकी सहनशीलता—के बीच एक बड़ा अलगाव या अंतर है, नीनवे के लोगों के पश्चात्ताप के प्रति परमेश्वर का रवैया एक बार फिर से लोगों को परमेश्वर के सच्चे स्वभाव का दूसरा पहलू दिखाता है। परमेश्वर के हृदय का बदलाव मनुष्य को सच में एक बार फिर से परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा की सच्चाई दिखाता है, और परमेश्वर के सार का सच्चा प्रकाशन दिखाता है। मनुष्य को मानना पड़ेगा कि परमेश्वर की दया और प्रेममय करुणा मिथक नहीं हैं, न ही वे मनगढ़ंत हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उस क्षण परमेश्वर की भावना सच्ची थी, और परमेश्वर के हृदय का बदलाव सच्चा था—परमेश्वर ने वास्तव में एक बार फिर मनुष्य के ऊपर अपनी दया और सहनशीलता बरसाई थी।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II' से उद्धृत
योना की पुस्तक 4:10-11 में निम्नलिखित अंश दर्ज किया गया है : "तब यहोवा ने कहा, 'जिस रेंड़ के पेड़ के लिये तू ने कुछ परिश्रम नहीं किया, न उसको बढ़ाया, जो एक ही रात में हुआ, और एक ही रात में नष्ट भी हुआ; उस पर तू ने तरस खाई है। फिर यह बड़ा नगर नीनवे, जिसमें एक लाख बीस हज़ार से अधिक मनुष्य हैं जो अपने दाहिने बाएँ हाथों का भेद नहीं पहिचानते, और बहुत से घरेलू पशु भी उसमें रहते हैं, तो क्या मैं उस पर तरस न खाऊँ?'" ये यहोवा परमेश्वर के वास्तविक वचन हैं, जो उसके और योना के बीच हुए वार्तालाप से दर्ज किए गए हैं। यद्यपि यह संवाद संक्षिप्त है, फिर भी यह मानवजाति के प्रति सृष्टिकर्ता की परवाह और उसे त्यागने की उसकी अनिच्छा से भरा हुआ है। ये वचन उस सच्चे रवैये और भावनाओं को व्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर अपनी सृष्टि के लिए अपने हृदय में रखता है। इन वचनों के जरिये, जो इतने स्पष्ट और सटीक हैं कि मनुष्य ने शायद ही कभी ऐसे स्पष्ट और सटीक वचन सुने हों, परमेश्वर मनुष्यों के प्रति अपने सच्चे इरादे बताता है। यह संवाद नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को दर्शाता है—किंतु यह किस प्रकार का रवैया है? यह वह रवैया है, जिसे परमेश्वर ने नीनवे के लोगों के प्रति उनके पश्चात्ताप से पहले और बाद में अपनाया, और वह रवैया, जिससे वह मानवजाति के साथ व्यवहार करता है। इन वचनों में उसके विचार और उसका स्वभाव है।
............
यद्यपि नीनवे का नगर ऐसे लोगों से भरा हुआ था, जो सदोम के लोगों के समान ही भ्रष्ट, बुरे और हिंसक थे, किंतु उनके पश्चात्ताप के कारण परमेश्वर का मन बदल गया और उसने उन्हें नष्ट न करने का निर्णय लिया। चूँकि परमेश्वर के वचनों और निर्देशों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया ने एक ऐसे रवैये का प्रदर्शन किया, जो सदोम के नागरिकों के रवैये के बिलकुल विपरीत था, और परमेश्वर के प्रति उनके सच्चे समर्पण और अपने पापों के लिए उनके सच्चे पश्चात्ताप, और साथ ही साथ हर लिहाज से उनके सच्चे और हार्दिक व्यवहार के कारण, परमेश्वर ने एक बार फिर उन पर अपनी हार्दिक करुणा दिखाई और उन्हें अपनी करुणा प्रदान की। परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी जाने वाली चीज़ें और उसकी करुणा की नकल कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है, और परमेश्वर की दया, उसकी सहनशीलता, या किसी भी व्यक्ति में मनुष्य के प्रति परमेश्वर की सच्ची भावनाएँ होना असंभव है। क्या कोई है, जिसे तुम महान पुरुष या स्त्री मानते हो, या कोई अतिमानव मानते हो, जो एक ऊँचे मुकाम से, एक महान पुरुष या स्त्री के रूप में, या सबसे ऊँचे मुकाम पर बोलते हुए, मानवजाति या सृष्टि के लिए इस प्रकार का कथन कहेगा? मनुष्यों में से कौन मानव-जीवन की स्थितियों को भली-भाँति जान सकता है? कौन मनुष्य के अस्तित्व का दायित्व और ज़िम्मेदारी उठा सकता है? कौन किसी नगर के विनाश की घोषणा करने के योग्य है? और कौन किसी नगर को क्षमा करने के योग्य है? कौन कह सकता है कि वह अपनी सृष्टि को सँजोता है? केवल सृष्टिकर्ता! केवल सृष्टिकर्ता में ही इस मानवजाति के लिए कोमलता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के लिए करुणा और स्नेह दिखाता है। केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति के प्रति सच्चा, अटूट स्नेह रखता है। इसी प्रकार, केवल सृष्टिकर्ता ही इस मानवजाति पर दया कर सकता है और अपनी संपूर्ण सृष्टि को सँजो सकता है। उसका हृदय मनुष्य के हर कार्य पर उछलता और पीड़ित होता है : वह मनुष्य की दुष्टता और भ्रष्टता पर क्रोधित, परेशान और दुखी होता है; वह मनुष्य के पश्चात्ताप और विश्वास से प्रसन्न, आनंदित, क्षमाशील और उल्लसित होता है; उसका हर एक विचार और अभिप्राय मानवजाति के अस्तित्व के लिए है और उसी के इर्द-गिर्द घूमता है; उसका स्वरूप पूरी तरह से मानवजाति के वास्ते प्रकट होता है; उसकी संपूर्ण भावनाएँ मानवजाति के अस्तित्व के साथ गुथी हैं। मनुष्य के वास्ते वह भ्रमण करता है और यहाँ-वहाँ भागता है; वह खामोशी से अपने जीवन का कतरा-कतरा दे देता है; वह अपने जीवन का हर पल-पल अर्पित कर देता है...। उसने कभी नहीं जाना कि अपने ही जीवन पर किस प्रकार दया करे है, किंतु उसने हमेशा उस मानवजाति को सँजोया है, जिसकी रचना जिसे उसने स्वयं की है ...। वह अपना सब-कुछ इस मानवजाति को दे देता है...। वह बिना किसी शर्त के और बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के अपनी दया और सहनशीलता प्रदान करता है। वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति उससे जीवन का पोषण प्राप्त करते हुए उसकी नज़रों के सामने निरंतर जीवित रह सके; वह ऐसा सिर्फ इसलिए करता है, ताकि मानवजाति एक दिन उसके सम्मुख समर्पित हो जाए और यह जान जाए कि वही मुनष्य के अस्तित्व का पोषण करता है और समूची सृष्टि के जीवन की आपूर्ति करता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II' से उद्धृत
"परमेश्वर की पवित्रता" का अर्थ है कि परमेश्वर का सार दोषरहित है और परमेश्वर का प्रेम निःस्वार्थ है, जो कुछ परमेश्वर मनुष्य को प्रदान करता है वह निःस्वार्थ है; और परमेश्वर की पवित्रता निष्कलंक और दोषरहित है। परमेश्वर के ये सार के ये पहलू मात्र ऐसे शब्द नहीं हैं जिसे वह अपनी हैसियत का दिखावा करने के लिए उपयोग करता है, बल्कि इसके बजाए परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ खामोश ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए अपने सार का उपयोग करता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर का सार खोखला नहीं है, न ही यह सैद्धान्तिक या मत-संबंधी है और यह निश्चित रूप से एक प्रकार का ज्ञान नहीं है। यह मनुष्य के लिए एक प्रकार की शिक्षा नहीं है; बल्कि इसके बजाए यह परमेश्वर के स्वयं के कार्यकलापों का सच्चा प्रकाशन है और परमेश्वर के स्वरूप का प्रकटित सार है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI' से उद्धृत
परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की हुई देह परमेश्वर की अपनी देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इसी तरह, उसकी देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इस तरह की देह केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धार्मिक और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महिमामयी और प्रतापी है; वह ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य, नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, वह ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इसलिए उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया जा सकता; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह परमेश्वर नहीं बल्कि मनुष्य है, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है; यह संभव नहीं कि शैतान परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट कर सके। इस प्रकार, इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य और मसीह एक ही स्थान के भीतर रहते हैं, यह केवल मनुष्य है, जो शैतान द्वारा काबू और उपयोग किया जाता है और जाल में फँसाया जाता है। इसके विपरीत, मसीह शैतान की भ्रष्टता के लिए शाश्वत रूप से अभेद्य है, क्योंकि शैतान कभी भी उच्चतम स्थान तक आरोहण करने में सक्षम नहीं होगा, और कभी भी परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच पाएगा। आज, तुम सभी लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि यह केवल शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति है, जो मेरे साथ विश्वासघात करती है। मसीह के लिए विश्वासघात की समस्या हमेशा अप्रासंगिक रहेगी।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)' से उद्धृत
स्वयं परमेश्वर में अवज्ञा के तत्व नहीं होते; उसका सार अच्छा है। वह समस्त सुंदरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि देह में भी परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं करता, जिससे परमपिता परमेश्वर की अवज्ञा होती हो। यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने की क़ीमत पर भी वह ऐसा करने को पूरे मन से तैयार रहेगा और कोई विकल्प नहीं बनाएगा। परमेश्वर में आत्मतुष्टि और ख़ुदगर्ज़ी के या दंभ या घमंड के तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी परमेश्वर की अवज्ञा करता है, वह शैतान से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएं होने का कारण यह है कि मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित किया गया है। मसीह को शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएं हैं तथा शैतान की एक भी विशेषता नहीं है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है' से उद्धृत
तुम परमेश्वर को चीज़ों के संबंध में मनुष्यों जैसे विचार रखते नहीं देखोगे, और इतना ही नहीं, उसे तुम चीज़ों को सँभालने के लिए मनुष्य के दृष्टिकोणों, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन या कल्पना का उपयोग करते हुए भी नहीं देखोगे। इसके बजाय, परमेश्वर जो कुछ भी करता है और जो कुछ भी वह प्रकट करता है, वह सत्य से जुड़ा है। अर्थात्, उसका कहा हर वचन और उसका किया हर कार्य सत्य से संबंधित है। यह सत्य किसी आधारहीन कल्पना की उपज नहीं है; यह सत्य और ये वचन परमेश्वर द्वारा अपने सार और अपने जीवन के आधार पर व्यक्त किए जाते हैं। चूँकि ये वचन और परमेश्वर द्वारा की गई हर चीज़ का सार सत्य हैं, इसलिए हम कह सकते हैं कि परमेश्वर का सार पवित्र है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक बात जो परमेश्वर कहता और करता है, वह लोगों के लिए जीवन-शक्ति और प्रकाश लाती है; वह लोगों को सकारात्मक चीजें और उन सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता देखने में सक्षम बनाती है, और मनुष्यों को राह दिखाती है, ताकि वे सही मार्ग पर चलें। ये सब चीज़ें परमेश्वर के सार और उसकी पवित्रता के सार द्वारा निर्धारित की जाती हैं।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है V' से उद्धृत
परमेश्वर ने मानवजाति की सृष्टि की; इसकी परवाह किए बगैर कि उन्हें भ्रष्ट किया गया है या वे उसका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर मनुष्य से अपने सबसे अधिक दुलारे प्रियजनों के समान व्यवहार करता है—या जैसा मानव कहेंगे, ऐसे लोग जो उसके लिए अतिप्रिय हैं—और उसके खिलौनों जैसा नहीं। हालाँकि परमेश्वर कहता है कि वह सृष्टिकर्ता है और मनुष्य उसकी सृष्टि है, जो सुनने में ऐसा लग सकता है कि यहाँ पद में थोड़ा अंतर है, फिर भी वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी परमेश्वर ने मानवजाति के लिए किया है, वह इस प्रकार के रिश्ते से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर मानवजाति से प्रेम करता है, मानवजाति की देखभाल करता है, मानवजाति के लिए चिंता दिखाता है, इसके साथ ही साथ लगातार और बिना रुके मानवजाति के लिए आपूर्तियाँ करता है। वह कभी अपने हृदय में यह महसूस नहीं करता कि यह एक अतिरिक्त कार्य है या जिसे ढेर सारा श्रेय मिलना चाहिए। न ही वह यह महसूस करता है कि मानवता को बचाना, उनके लिए आपूर्तियाँ करना, और उन्हें सब कुछ देना, मानवजाति के लिए एक बहुत बड़ा योगदान है। वह मानवजाति को अपने तरीके से और स्वयं के सार और जो वह स्वयं है और जो उसके पास है, उसके माध्यम से बस खामोशी से एवं चुपचाप प्रदान करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति को उससे कितना भोजन प्रबंध एवं कितनी सहायता प्राप्त होती है, परमेश्वर इसके बारे में कभी नहीं सोचता या श्रेय लेने की कोशिश नहीं करता। यह परमेश्वर के सार द्वारा निर्धारित होता है और साथ ही यह परमेश्वर के स्वभाव की बिलकुल सही अभिव्यक्ति भी है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I' से उद्धृत
"और यहोवा परमेश्वर ने आदम और उसकी पत्नी के लिये चमड़े के अँगरखे बनाकर उनको पहिना दिए," इस दृश्य में परमेश्वर किस प्रकार की भूमिका निभाता है जब वह आदम और हव्वा के साथ होता है? ... परमेश्वर ने इन दो लोगों की सृष्टि की और उनके साथ अपने साथियों के समान व्यवहार किया। उनके एकमात्र परिवार के समान, परमेश्वर ने उनके जीवन का ख्याल रखा और उनकी भोजन, कपड़े और घर जैसी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा। यहाँ, परमेश्वर आदम और हव्वा के माता-पिता के रूप में प्रकट होता है। जब परमेश्वर यह करता है, मनुष्य नहीं देखता कि परमेश्वर कितना ऊँचा है; वह परमेश्वर की सर्वोच्चता, उसकी रहस्यमयता और ख़ासकर उसके क्रोध या प्रताप को नहीं देखता। जो कुछ वह देखता है वह परमेश्वर की विनम्रता, उसका स्नेह, मनुष्य के लिए उसकी चिंता और उसके प्रति उसकी ज़िम्मेदारी एवं देखभाल है। जिस रवैये एवं तरीके से परमेश्वर ने आदम और हव्वा के साथ व्यवहार किया, वह वैसा है जैसे माता-पिता अपने बच्चों के लिए चिंता करते हैं। यह ऐसा है, जैसे माता-पिता अपने पुत्र एवं पुत्रियों से प्रेम करते हैं, उन पर ध्यान देते हैं और उनकी देखरेख करते हैं—वास्तविक, दृश्यमान और स्पर्शगम्य। खुद को एक उच्च और शक्तिमान पद पर रखने के बजाय, परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के लिए पहरावा बनाने के लिए चमड़ों का उपयोग किया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस रोएँदार कोट का उपयोग उनकी लज्जा छिपाने के लिए किया गया था या उन्हें ठंड से बचाने के लिए। जो मायने रखता है वह यह कि मनुष्य के शरीर को ढँकने वाला पहरावा, परमेश्वर द्वारा अपने हाथों से बनाया गया था। बस कपड़ों को सोचकर अस्तित्व में लाने या कुछ अन्य चमत्कारी साधनों का उपयोग करने के बजाय, जैसा लोग कल्पना कर सकते हैं कि परमेश्वर करेगा, परमेश्वर ने वैध रूप से कुछ ऐसा किया, जो मनुष्य ने सोचा होगा कि परमेश्वर नहीं करेगा और उसे नहीं करना चाहिए। यह एक मामूली बात लग सकती है—कुछ लोग यहाँ तक भी सोच सकते हैं कि यह जिक्र करने लायक भी नहीं है—परंतु यह परमेश्वर का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति को, जो उसके विषय में पहले अस्पष्ट विचारों से घिरा हुआ था, उसकी सच्चाई एवं मनोहरता में अन्तःदृष्टि प्राप्त करने और उसकी निष्ठा एवं विनम्रता को देखने की गुंजाइश भी देता है। यह असह्य रूप से अभिमानी लोगों को, जो सोचते हैं कि वे ऊँचे एवं शक्तिशाली हैं, परमेश्वर की सच्चाई एवं विनम्रता के सामने लज्जा से अपने अहंकारी सिरों को झुकाने के लिए मजबूर करता है। यहाँ, परमेश्वर की सच्चाई एवं विनम्रता लोगों को और यह देखने लायक बनाती है कि परमेश्वर कितना मनभावन है। इसके विपरीत, "असीम" परमेश्वर, "मनभावन" परमेश्वर और "सर्वशक्तिमान" परमेश्वर लोगों के हृदय में कितना छोटा एवं नीरस हो गया है और हल्के स्पर्श से भी बिखर जाता है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I' से उद्धृत
परमेश्वर के सार एवं स्वभाव में कुछ ऐसा है जिसे बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ किया सकता है, कुछ ऐसा जो केवल परमेश्वर के ही पास है और किसी व्यक्ति के पास नहीं, इनमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें अन्य महान, अच्छे लोग या अपनी कल्पना में परमेश्वर मानते हैं। यह चीज़ क्या है? यह परमेश्वर की निःस्वार्थता है। निःस्वार्थता के बारे में बोलते समय, शायद तुम सोचोगे कि तुम भी बहुत निःस्वार्थ हो क्योंकि जब तुम्हारे बच्चों की बात आती है, तो तुम उनके साथ कभी सौदा या मोलभाव नहीं करते या तुम्हें लगता है कि तुम तब भी बहुत निःस्वार्थ होते हो, जब तुम्हारे माता-पिता की बात आती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम क्या सोचते हो, कम से कम तुम्हारे पास "निःस्वार्थ" शब्द की एक अवधारणा तो है और तुम इसे एक सकारात्मक शब्द और यह तो मानते हो निःस्वार्थ व्यक्ति होना बहुत ही श्रेष्ठ होना है। जब तुम निःस्वार्थ होते हो, तो तुम स्वयं को अत्यधिक सम्मान देते हो। परंतु ऐसा कोई नहीं है, जो सभी चीज़ों के मध्य, सभी लोगों, घटनाओं एवं वस्तुओं के मध्य और उसके कार्य में परमेश्वर की निःस्वार्थता को देख सके। ऐसी स्थिति क्यों है? क्योंकि मनुष्य बहुत स्वार्थी है! मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मानवजाति एक भौतिक संसार में रहती है। तुम परमेश्वर का अनुसरण तो करते हो, किंतु तुम कभी नहीं देखते या तारीफ नहीं करते कि किस प्रकार परमेश्वर तुम्हारे लिए आपूर्तियाँ करता है, तुम्हें प्रेम करता है और तुम्हारे लिए चिंता करता है। तो तुम क्या देखते हो? तुम अपने खून के रिश्तेदारों को देखते हो, जो तुम्हें प्रेम करते हैं या तुम्हें बहुत स्नेह करते हैं। तुम उन चीज़ों को देखते हो, जो तुम्हारी देह के लिए लाभकारी हैं, तुम उन लोगों एवं चीज़ों की परवाह करते हो, जिनसे तुम प्रेम करते हो। यह मनुष्य की तथाकथित निःस्वार्थता है। ऐसे "निःस्वार्थ" लोग कभी भी उस परमेश्वर की चिंता नहीं करते, जो उन्हें जीवन देता है। परमेश्वर के विपरीत, मनुष्य की निःस्वार्थता मतलबी एवं निंदनीय हो जाती है। वह निःस्वार्थता जिसमें मनुष्य विश्वास करता है, खोखली एवं अवास्तविक, मिलावटी, परमेश्वर से असंगत एवं परमेश्वर से असंबद्ध है। मनुष्य की निःस्वार्थता सिर्फ उसके लिए है, जबकि परमेश्वर की निःस्वार्थता उसके सार का सच्चा प्रकाशन है। यह बिलकुल परमेश्वर की निःस्वार्थता की वजह से है कि मनुष्य उससे निरंतर आपूर्ति प्राप्त करता रहता है। तुम लोग शायद इस विषय से, जिसके बारे में आज मैं बात कर रहा हूँ, अत्यंत गहराई से प्रभावित न हो और मात्र सहमति में सिर हिला रहे हो, परंतु जब तुम अपने हृदय में परमेश्वर के हृदय की सराहना करने की कोशिश करते हो, तो तुम अनजाने में ही इसे जान जाओगे: सभी लोगों, मामलों एवं चीज़ों के मध्य, जिन्हें तुम इस संसार में महसूस कर सकते हो, केवल परमेश्वर की निःस्वार्थता ही वास्तविक एवं ठोस है, क्योंकि सिर्फ परमेश्वर का प्रेम ही तुम्हारे लिए बिना किसी शर्त के है और बेदाग है। परमेश्वर के अतिरिक्त, किसी भी व्यक्ति की तथाकथित निःस्वार्थता झूठी, सतही एवं अप्रामाणिक है; उसका एक उद्देश्य होता है, निश्चित इरादे होते हैं, समझौते होते हैं और वह परीक्षा में नहीं ठहर सकती। तुम यह तक कह सकते हो कि यह गंदी एवं घिनौनी है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I' से उद्धृत
मानवजाति के कार्य के लिए परमेश्वर ने कई रातें बिना सोए गुज़ारी हैं। गहन ऊँचाई से लेकर अनंत गहराई तक, जीते-जागते नरक में जहाँ मनुष्य रहता है, वह मनुष्य के साथ अपने दिन गुज़ारने के लिए उतर आया है, फिर भी उसने कभी मनुष्य के बीच अपनी फटेहाली की शिकायत नहीं की है, अपनी अवज्ञा के लिए कभी भी मनुष्य को तिरस्कृत नहीं किया है, बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से अपने कार्य को करते हुए सबसे बड़ा अपमान सहन करता है। परमेश्वर नरक का अंग कैसे हो सकता है? वह नरक में अपना जीवन कैसे बिता सकता है? लेकिन समस्त मानवजाति के लिए, ताकि पूरी मानवजाति को जल्द ही आराम मिल सके, उसने अपमान सहा है और पृथ्वी पर आने का अन्याय झेला है, मनुष्य को बचाने की खातिर व्यक्तिगत रूप से "नरक" और "अधोलोक" में, शेर की माँद में, प्रवेश किया है। मनुष्य परमेश्वर का विरोध करने योग्य कैसे हो सकता है? परमेश्वर से शिकायत करने का उसके पास क्या कारण है? वह परमेश्वर की ओर नज़र उठाकर देखने की हिम्मत कैसे कर सकता है? स्वर्ग का परमेश्वर बुराई की इस सबसे गंदी भूमि में आया है, और कभी भी उसने अपने कष्टों की शिकायत नहीं की है, बल्कि वह चुपचाप मनुष्य द्वारा किए गए विनाश[1] और अत्याचार को स्वीकार करता है। उसने कभी मनुष्य की अनुचित माँगों का प्रतिकार नहीं किया है, कभी भी उसने मनुष्य से अत्यधिक माँगें नहीं की हैं, और कभी भी उसने मनुष्य से गैरवाजिब तकाजे नहीं किए हैं; वह केवल बिना किसी शिकायत के मनुष्य द्वारा अपेक्षित सभी कार्य करता है : शिक्षा देना, प्रबुद्ध करना, डाँटना-फटकारना, शब्दों का परिष्कार करना, याद दिलाना, प्रोत्साहन देना, सांत्वना देना, न्याय करना और उजागर करना। उसका कौन-सा कदम मनुष्य के जीवन की खातिर नहीं है? यद्यपि उसने मनुष्यों की संभावनाओं और नियति को हटा दिया है, फिर भी परमेश्वर द्वारा उठाया गया कौन-सा कदम मनुष्य के भाग्य के लिए नहीं रहा है? उनमें से कौन-सा कदम मनुष्य के अस्तित्व के लिए नहीं रहा है? उनमें से कौन-सा कदम मनुष्य को इस दुःख और अँधेरी ताकतों के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए नहीं रहा है, जो इतनी काली हैं जितनी कि रात? उनमें से कौन-सा कदम मनुष्य की खातिर नहीं है? परमेश्वर के हृदय को, जो ममतामयी माँ के हृदय जैसा है, कौन समझ सकता है? परमेश्वर के उत्सुक हृदय को कौन समझ सकता है?
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'कार्य और प्रवेश (9)' से उद्धृत
परमेश्वर ने स्वयं को इस स्तर तक विनम्र किया है कि वह अपना कार्य इन अशुद्ध और भ्रष्ट लोगों में करता है, और लोगों के इस समूह को पूर्ण बनाता है। परमेश्वर न केवल लोगों के बीच जीने और खाने-पीने, लोगों की चरवाही करने, और लोग जो चाहते हैं, उन्हें वह प्रदान करने के लिए देह में आया है, बल्कि इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह उद्धार और विजय का अपना प्रबल कार्य इन असहनीय रूप से भ्रष्ट लोगों पर करता है। वह इन सबसे अधिक भ्रष्ट लोगों को बचाने के लिए बड़े लाल अजगर के केंद्र में आया, जिससे सभी लोग परिवर्तित हो सकें और नए बनाए जा सकें। वह अत्यधिक कष्ट, जो परमेश्वर सहन करता है, मात्र वह कष्ट नहीं है जो देहधारी परमेश्वर सहन करता है, अपितु सबसे बढ़कर वह परम निरादर है, जो परमेश्वर का आत्मा सहन करता है—वह स्वयं को इतना अधिक विनम्र बनाता है और इतना अधिक छिपाए रखता है कि वह एक साधारण व्यक्ति बन जाता है। परमेश्वर ने इसलिए देहधारण किया और देह का रूप लिया, ताकि लोग देखें कि उसका जीवन एक सामान्य मानव का जीवन है, और उसकी आवश्यकताएँ एक सामान्य मानव की आवश्यकताएँ हैं। यह इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि परमेश्वर ने स्वयं को बेहद विनम्र बनाया है। परमेश्वर का आत्मा देह में साकार होता है। उसका आत्मा बहुत उच्च और महान है, फिर भी वह अपने आत्मा का कार्य करने के लिए एक सामान्य मानव, एक तुच्छ मनुष्य का रूप ले लेता है। तुम लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता, अंतर्दृष्टि, समझ, मानवता और जीवन दर्शाते हैं कि तुम सब वास्तव में परमेश्वर के इस प्रकार के कार्य को स्वीकार करने के अयोग्य हो। तुम लोग वास्तव में इस योग्य नहीं हो कि परमेश्वर तुम्हारे लिए यह कष्ट सहन करे। परमेश्वर अत्यधिक महान है। वह इतना सर्वोच्च है और लोग इतने निम्न हैं, फिर भी वह उन पर कार्य करता है। उसने लोगों का भरण-पोषण करने, उनसे बात करने के लिए न केवल देहधारण किया, अपितु वह उनके साथ रहता भी है। परमेश्वर इतना विनम्र, इतना प्यारा है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं' से उद्धृत
हर चीज़ जो परमेश्वर करता है वह व्यावहारिक है, वह ऐसा कुछ नहीं करता है जो खोखला हो, और वह सब कुछ स्वयं अनुभव करता है। परमेश्वर मानवजाति के लिए गंतव्य के बदले में दु:ख सहन करने के अपने अनुभव को कीमत के रूप में चुकाता है। क्या यह व्यावहारिक कार्य नहीं है? माता-पिता अपने बच्चों के लिए एक सच्ची कीमत चुका सकते हैं और यह उनकी नेकनीयती को दर्शाता है। ऐसा करने में, देहधारी परमेश्वर ज़ाहिर तौर पर मानवता के प्रति अत्यधिक ईमानदार और वफादार है। परमेश्वर का सार विश्वसनीय है; जो वह कहता है उसे करता है और जो कुछ भी वह करता है वह पूरा होता है। हर चीज़ जो वह मनुष्य के लिए करता है वो निष्कपट है। वह मात्र कथनों की उक्ति नहीं करता; जब वह कहता है कि वह मूल्य चुकाएगा, तो वह यथार्थ में मूल्य चुकाता है; जब वह कहता है कि वह मनुष्य के दुःख को उठाएगा, तो वह यथार्थ में उनके बीच रहने के लिए आयेगा, व्यक्तिगत रूप से इस दु:ख को महसूस और अनुभव करेगा। उसके बाद, ब्रह्मांड की सभी चीज़ें मानेंगी कि हर चीज़ जो परमेश्वर करता है वह सही और धर्मी है, कि सब कुछ जो परमेश्वर करता है वह वास्तविक है : यह प्रमाण की सामर्थ्यवान मिसाल है। इसके अलावा, भविष्य में मानवजाति के पास एक ख़ूबसूरत मंज़िल होगी और वे सभी जो बचेंगे वे परमेश्वर की प्रशंसा करेंगे; वे बड़ाई करेंगे कि परमेश्वर के कार्य वास्तव में मानवता के लिए उसके प्रेम के कारण किए गए हैं। परमेश्वर मानव के बीच एक साधारण व्यक्ति के रूप में विनम्रतापूर्वक आता है। वह केवल कुछ कार्य करके, कुछ वचनों को बोलकर, चला नहीं जाता है; बल्कि, वह वास्तव में मनुष्यों के बीच आता है और संसार की पीड़ा का अनुभव करता है। जब वह इस पीड़ा का अनुभव कर लेगा, तभी वह जाएगा। परमेश्वर का कार्य इतना वास्तविक और इतना व्यावहारिक होता है; वे सब जो बाकी रहेंगे वे इसके कारण उसकी प्रशंसा करेंगे, और वे मनुष्य के प्रति परमेश्वर की निष्ठा और उसकी दयालुता को देखेंगे। परमेश्वर की सुन्दरता और अच्छाई के सार को देह में उसके देहधारण के महत्व में देखा जा सकता है। जो कुछ भी वह करता है वह सच्चा है; जो कुछ भी वह कहता है वह गंभीर और विश्वसनीय है। वह जो भी चीज़ें करने का इरादा करता है, उन्हें वास्तव में करता है और मूल्य चुकाते हुए वास्तव में मूल्य चुकाता है; वह महज़ कथनों की उक्ति नहीं करता। परमेश्वर एक धर्मी परमेश्वर है; परमेश्वर एक विश्वसनीय परमेश्वर है।
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'देहधारण के अर्थ का दूसरा पहलू' से उद्धृत
जब परमेश्वर पृथ्वी पर आया, तो वह संसार का नहीं था, और संसार का सुख भोगने के लिए वह देह नहीं बना था। जिस स्थान पर कार्य करना सबसे अच्छी तरह से उसके स्वभाव को प्रकट करता और जो सबसे अर्थपूर्ण होता, वह वही स्थान है, जहाँ वह पैदा हुआ। चाहे वह स्थल पवित्र हो या गंदा, और चाहे वह कहीं भी काम करे, वह पवित्र है। दुनिया में हर चीज़ उसके द्वारा बनाई गई थी, हालाँकि शैतान ने सब-कुछ भ्रष्ट कर दिया है। फिर भी, सभी चीजें अभी भी उसकी हैं; वे सभी चीजें उसके हाथों में हैं। वह अपनी पवित्रता प्रकट करने के लिए एक गंदे देश में आता है और वहाँ कार्य करता है; वह केवल अपने कार्य के लिए ऐसा करता है, अर्थात् वह इस दूषित भूमि के लोगों को बचाने के लिए ऐसा कार्य करने में बहुत अपमान सहता है। यह पूरी मानवजाति की खातिर, गवाही के लिए किया जाता है। ऐसा कार्य लोगों को परमेश्वर की धार्मिकता दिखाता है, और वह परमेश्वर की सर्वोच्चता प्रदर्शित करने में अधिक सक्षम है। उसकी महानता और शुचिता उन नीच लोगों के एक समूह के उद्धार के माध्यम से व्यक्त होती है, जिनका अन्य लोग तिरस्कार करते हैं। एक मलिन भूमि में पैदा होना यह बिलकुल साबित नहीं करता कि वह दीन-हीन है; यह तो केवल सारी सृष्टि को उसकी महानता और मानवजाति के लिए उसका सच्चा प्यार दिखाता है। जितना अधिक वह ऐसा करता है, उतना ही अधिक यह मनुष्य के लिए उसके शुद्ध प्रेम, उसके दोषरहित प्रेम को प्रकट करता है। परमेश्वर पवित्र और धर्मी है। यद्यपि वह एक गंदी भूमि में पैदा हुआ था, और यद्यपि वह उन लोगों के साथ रहता है जो गंदगी से भरे हुए हैं, ठीक वैसे ही जैसे यीशु अनुग्रह के युग में पापियों के साथ रहता था, फिर भी क्या उसका हर कार्य संपूर्ण मानवजाति के अस्तित्व की खातिर नहीं किया जाता? क्या यह सब इसलिए नहीं है कि मानवजाति महान उद्धार प्राप्त कर सके? दो हजार साल पहले वह कई वर्षों तक पापियों के साथ रहा। वह छुटकारे के लिए था। आज वह गंदे, नीच लोगों के एक समूह के साथ रह रहा है। यह उद्धार के लिए है। क्या उसका सारा कार्य तुम मनुष्यों के लिए नहीं है? यदि यह मानवजाति को बचाने के लिए न होता, तो क्यों वह एक नाँद में पैदा होने के बाद कई सालों तक पापियों के साथ रहता और कष्ट उठाता? और यदि यह मानवजाति को बचाने के लिए न होता, तो क्यों वह दूसरी बार देह में लौटकर आता, इस देश में पैदा होता जहाँ दुष्ट आत्माएँ इकट्ठी होती हैं, और इन लोगों के साथ रहता जिन्हें शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर रखा है? क्या परमेश्वर वफ़ादार नहीं है? उसके कार्य का कौन-सा भाग मानवजाति के लिए नहीं रहा है? कौन-सा भाग तुम लोगों की नियति के लिए नहीं रहा है? परमेश्वर पवित्र है—यह अपरिवर्तनीय है। वह गंदगी से प्रदूषित नहीं है, हालाँकि वह एक गंदे देश में आया है; इस सबका मतलब केवल यह हो सकता है कि मानवजाति के लिए परमेश्वर का प्रेम अत्यंत निस्वार्थ है और जो पीड़ा और अपमान वह सहता है, वह अत्यधिक है! क्या तुम लोग यह नहीं जानते कि वह तुम सभी के लिए, और तुम लोगों की नियति के लिए जो अपमान सहता है, वह कितना बड़ा है? वह बड़े लोगों या अमीर और शक्तिशाली परिवारों के पुत्रों को बचाने के बजाय विशेष रूप से उनको बचाता है, जो दीन-हीन हैं और नीची निगाह से देखे जाते हैं। क्या यह सब उसकी पवित्रता नहीं है? क्या यह सब उसकी धार्मिकता नहीं है?
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'मोआब के वंशजों को बचाने का अर्थ' से उद्धृत
जब तुम परमेश्वर की पवित्रता को समझने लगते हो, तब तुम वास्तव में परमेश्वर में विश्वास कर सकते हो; जब तुम परमेश्वर की पवित्रता को समझने लगते हो, तब तुम वास्तव में इन शब्दों "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है" के सच्चे अर्थ को समझ सकते हो। तुम अब यह सोचते हुए कोरी कल्पना नहीं करोगे कि चलने के लिए इसके अलावा भी मार्ग हैं जिन्हें तुम चुन सकते हो, और तुम उस हर एक चीज़ के साथ विश्वासघात करने की इच्छा नहीं करोगे जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। क्योंकि परमेश्वर का सार पवित्र है; इसका अर्थ है कि केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम जीवन के माध्यम से प्रकाश के धर्मी मार्ग पर चल सकते हो; केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम जीवन के अर्थ को जान सकते हो; केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम वास्तविक मानवता को जी सकते हो और सत्य को धारण भी कर सकते हो और उसे जान भी सकते हो। केवल परमेश्वर के माध्यम से ही तुम सत्य से जीवन को प्राप्त कर सकते हो। केवल स्वयं परमेश्वर ही तुम्हें बुराई से दूर रहने में सहायता कर सकता है और तुम्हें शैतान की क्षति और नियन्त्रण से मुक्त कर सकता है। परमेश्वर के अलावा, कोई भी व्यक्ति और कोई भी चीज़ तुम्हें कष्ट के सागर से नहीं बचा सकती है ताकि तुम और कष्ट न सहो। यह परमेश्वर के सार के द्वारा निर्धारित किया जाता है। केवल स्वयं परमेश्वर ही इतने निःस्वार्थ रूप से तुम्हें बचाता है; केवल परमेश्वर ही अंततः तुम्हारे भविष्य के लिए, तुम्हारी नियति के लिए और तुम्हारे जीवन के लिए ज़िम्मेदार है, और वही तुम्हारे लिए सभी चीज़ों को व्यवस्थित करता है। यह कुछ ऐसा है जिसे कोई सृजित या अनसृजित प्राणी प्राप्त नहीं कर सकता है। क्योंकि कोई भी सृजित या अनसृजित प्राणी परमेश्वर के सार के समान सार को धारण नहीं कर सकता है, किसी भी व्यक्ति या प्राणी में तुम्हें बचाने या तुम्हारी अगुवाई करने की क्षमता नहीं है। मनुष्य के लिए परमेश्वर के सार का यही महत्व है।
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI' से उद्धृत
- फुटनोट:
- 1. "विनाश" का इस्तेमाल मानवजाति की अवज्ञा उजागर करने के लिए किया गया है।
- क. मूल पाठ में "यह असमर्थ होने का प्रतीक है" लिखा है।
- ख. मूल पाठ में "साथ ही अपमान के अयोग्य (और अपमान सहन न करने) होने का भी प्रतीक है" लिखा है।