गर कोई इंसाँ माने बस नियति को,
लेकिन जान पाए नहीं,
गर कोई इंसाँ माने बस नियति को,
लेकिन पहचान पाए नहीं,
गर कोई इंसाँ माने बस नियति को,
पर समर्पण कर पाए नहीं,
इंसाँ की नियति पर सृष्टिकर्ता की,
प्रभुता को स्वीकार कर पाए नहीं,
तो जीवन उसका एक त्रासदी है,
व्यर्थ में जिया उसने अपना जीवन,
उसके जीवन का कोई अर्थ नहीं है,
वो परमेश्वर के प्रभुत्व को समर्पित नहीं हो पाता है,
उसके अनुसार नहीं बन पाता है,
जो सृजित प्राणी होने का असल अर्थ है,
और सृष्टिकर्ता की स्वीकृति का आनंद नहीं ले पाता है,
आनंद नहीं ले पाता है।
एक इंसाँ जो जानता है परमेश्वर की प्रभुता को,
उसे होना चाहिए सक्रिय अवस्था में।
एक इंसाँ जो देख पाता है परमेश्वर की प्रभुता को,
उसे नहीं होना चाहिए निष्क्रिय अवस्था में।
ये मानते हुए कि सभी चीज़ें पूर्वनियत हैं,
उसे नियति की सही परिभाषा जाननी चाहिए:
कि इंसाँ का जीवन पूरी तरह
परमेश्वर की प्रभुता के अधीन है।
जब कोई अपने जीवन के चरणों को याद करता है,
जिस रस्ते चला वो, उसे मुड़कर देखता है,
चाहे रहा हो रास्ता उसका आसां या रहा हो कठिन,
वो हर कदम पर परमेश्वर को अगुआई करते हुए देख पाता है।
परमेश्वर ही था जो कर रहा था कुशल व्यवस्थाएं।
आज जहाँ है वो, वहाँ पहुँचा कैसे जान नहीं पाता है।
परमेश्वर का उद्धार पाना, उसकी प्रभुता को स्वीकारना
कितना बड़ा सौभाग्य है।
जब कोई परमेश्वर की प्रभुता समझने लगता है,
तो परमेश्वर द्वारा नियोजित हर चीज़ के प्रति,
दिल से वो समर्पित होना चाहता है,
परमेश्वर की व्यवस्था का पालन करना चाहता है।
जब कोई परमेश्वर की प्रभुता समझने लगता है,
तो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह न करने का,
उसके आयोजनों को स्वीकारने का,
संकल्प और विश्वास उसमें जगता है।