ऑनलाइन बैठक

मेन्‍यू

मनुष्य का पुत्र सब्त का प्रभु है (I)

1. यीशु द्वारा सब्त के दिन खाने के लिए मकई की बालें तोड़ना

मत्ती 12:1 उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी तो वे बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।

2. मनुष्य का पुत्र सब्त का प्रभु है

मत्ती 12:6-8 पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, “मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,” तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है।

आओ, पहले इस अंश पर नज़र डालें : “उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी तो वे बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।”

मैंने यह अंश क्यों चुना है? इसका परमेश्वर के स्वभाव से क्या संबंध है? इस पाठ में पहली चीज़ जो हम जानते हैं, वह है कि यह सब्त का दिन था, लेकिन प्रभु यीशु बाहर गया और अपने चेलों को मकई के खेतों में ले गया। इससे भी ज्यादा “विश्वासघाती” बात यह रही कि वे मकई की “बालें तोड़-तोड़कर खाने लगे।” व्यवस्था के युग में यहोवा परमेश्वर की व्यवस्था थी कि लोग सब्त के दिन यूँ ही बाहर नहीं जा सकते और गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते—बहुत-सी चीज़ें थीं, जो सब्त के दिन नहीं की जा सकती थीं। प्रभु यीशु द्वारा किया गया यह कार्य उन लोगों के लिए पेचीदा था, जो एक लंबे समय से व्यवस्था के अधीन रहे थे, और इसने आलोचना भी भड़काई। जहाँ तक उनके भ्रम और इस बात का संबंध है कि यीशु ने जो किया, उसके बारे में उन्होंने किस प्रकार बात की, हम फिलहाल उसे एक ओर रखेंगे और पहले इस बात की चर्चा करेंगे कि प्रभु यीशु ने सभी दिनों में से सब्त के दिन ही ऐसा करना क्यों चुना, और इस कार्य के द्वारा वह उन लोगों से क्या कहना चाहता था, जो व्यवस्था के अधीन रह रहे थे। यह इस अंश और परमेश्वर के स्वभाव के बीच का संबंध है, जिसके बारे में मैं बात करना चाहता हूँ।

जब प्रभु यीशु आया, तो उसने लोगों को यह बताने के लिए अपने व्यावहारिक कार्यों का उपयोग किया कि परमेश्वर ने व्यवस्था के युग को अलविदा कह दिया है और नया कार्य शुरू किया है, और इस नए कार्य में सब्त का पालन करना आवश्यक नहीं है। परमेश्वर का सब्त के दिन की सीमाओं से बाहर आना उसके नए कार्य का बस एक पूर्वाभास था; वास्तविक और महान कार्य अभी आना बाकी था। जब प्रभु यीशु ने अपना कार्य प्रारंभ किया, तो उसने व्यवस्था के युग की बेड़ियों को पहले ही पीछे छोड़ दिया था, और उस युग के विनियम और सिद्धांत तोड़ दिए थे। उसमें व्यवस्था से जुड़ी किसी भी बात का कोई निशान नहीं था; उसने उसे पूरी तरह से छोड़ दिया था और अब उसका पालन नहीं करता था, और उसने मानवजाति से आगे उसका पालन करने की अपेक्षा नहीं की थी। इसलिए तुम यहाँ देखते हो कि प्रभु यीशु सब्त के दिन मकई के खेतों से होकर गुजरा, और प्रभु ने आराम नहीं किया; वह बाहर काम कर रहा था और आराम नहीं कर रहा था। उसका यह कार्य लोगों की धारणाओं के लिए एक आघात था और इसने उन्हें सूचित किया कि वह अब व्यवस्था के अधीन नहीं रह रहा था, और उसने सब्त की सीमाओं को छोड़ दिया था और एक नई कार्यशैली के साथ वह मानवजाति के सामने और उनके बीच एक नई छवि में प्रकट हुआ था। उसके इस कार्य ने लोगों को बताया कि वह अपने साथ एक नया कार्य लाया है, जो व्यवस्था के अधीन रहने से उभरने और सब्त से अलग होने से आरंभ हुआ था। जब परमेश्वर ने अपना नया कार्य किया, तो वह अतीत से चिपका नहीं रहा, और वह अब व्यवस्था के युग की विधियों के बारे में चिंतित नहीं था, न ही वह पूर्ववर्ती युग के अपने कार्य से प्रभावित था, बल्कि उसने सब्त के दिन भी उसी तरह से कार्य किया, जैसे वह दूसरे दिनों में करता था, और सब्त के दिन जब उसके चेले भूखे थे, तो वे मकई की बालें तोड़कर खा सकते थे। यह सब परमेश्वर की निगाहों में बिल्कुल सामान्य था। परमेश्वर अपना बहुत-सा नया कार्य करने के लिए, जिसे वह करना चाहता है, और नए वचन कहने के लिए, जिन्हें वह कहना चाहता है, एक नई शुरुआत कर सकता है। जब वह एक नई शुरुआत करता है, तो वह न तो अपने पिछले कार्य का उल्लेख करता है, न ही उसे जारी रखता है। क्योंकि परमेश्वर के पास उसके कार्य के अपने सिद्धांत हैं, जब वह नया कार्य शुरू करना चाहता है, तो यह तब होता है जब वह मानवजाति को अपने कार्य के एक नए चरण में ले जाना चाहता है, और जब उसका कार्य एक उच्चतर चरण में प्रवेश करता है। यदि लोग पुरानी कहावतों या नियमों के अनुसार काम करते रहते हैं या उनसे चिपटे रहते हैं, तो वह इसे याद नहीं रखेगा या इसका अनुमोदन नहीं करेगा। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वह पहले ही एक नया कार्य ला चुका है, और अपने कार्य के एक नए चरण में प्रवेश कर चुका है। जब वह नया कार्य आरंभ करता है, तो वह मानवजाति के सामने पूर्णतः नई छवि में, पूर्णतः नए कोण से और पूर्णतः नए तरीके से प्रकट होता है, ताकि लोग उसके स्वभाव के विभिन्न पहलुओं और उसके स्वरूप को देख सकें। यह उसके नए कार्य में उसके लक्ष्यों में से एक है। परमेश्वर पुरानी चीजों से चिपका नहीं रहता या पुराने मार्ग पर नहीं चलता; जब वह कार्य करता और बोलता है, तो यह उतना निषेधात्मक नहीं होता, जितना लोग कल्पना करते हैं। परमेश्वर में सब-कुछ स्वतंत्र और मुक्त है, और कोई निषेध नहीं है, कोई बाधा नहीं है—वह मानवजाति के लिए आज़ादी और मुक्ति लाता है। वह एक जीवित परमेश्वर है, ऐसा परमेश्वर, जो वास्तव में, सच में मौजूद है। वह कोई कठपुतली या मिट्टी की मूर्ति नहीं है, और वह उन मूर्तियों से बिल्कुल भिन्न है, जिन्हें लोग प्रतिष्ठापित करते हैं और जिनकी आराधना करते हैं। वह जीवित और जीवंत है और उसके कार्य और वचन मनुष्यों के लिए संपूर्ण जीवन और ज्योति, संपूर्ण स्वतंत्रता और मुक्ति लेकर आते हैं, क्योंकि वह सत्य, जीवन और मार्ग धारण करता है—वह अपने किसी भी कार्य में किसी भी चीज के द्वारा विवश नहीं होता। लोग चाहे कुछ भी कहें और चाहे वे उसके नए कार्य को किसी भी प्रकार से देखें या कैसे भी उसका आकलन करें, वह बिना किसी आशंका के अपना कार्य पूरा करेगा। अपने कार्य और वचनों के संबंध में वह किसी की भी धारणाओं या उस पर उठी उँगलियों की, यहाँ तक कि अपने नए कार्य के प्रति उनके कठोर विरोध और प्रतिरोध की भी चिंता नहीं करेगा। परमेश्वर जो करता है, उसे मापने या परिभाषित करने, उसके कार्य को बदनाम करने, उसमें विघ्न डालने या उसे नुकसान पहुँचाने के लिए कोई भी सृजित प्राणी मानवीय तर्क या मानवीय कल्पनाओं, ज्ञान या नैतिकता का उपयोग नहीं कर सकता। उसके कार्य में और जो वह करता है उसमें, कोई निषेध नहीं है, वह किसी मनुष्य, घटना या चीज द्वारा लाचार नहीं किया जाएगा, न ही उसमें किसी विरोधी ताकत द्वारा विघ्न डाला जाएगा। जहाँ तक उसके नए कार्य का संबंध है, वह एक सर्वदा विजयी राजा है, और सभी विरोधी ताक़तें और मानवजाति के सभी पाखंड और भ्रांतियाँ उसकी चरण-पीठ के नीचे कुचल दिए जाते हैं। वह अपने कार्य का चाहे जो भी नया चरण संपन्न कर रहा हो, उसे निश्चित रूप से मानवजाति के बीच विकसित और विस्तारित किया जाएगा, और उसे निश्चित रूप से संपूर्ण विश्व में तब तक अबाध रूप से कार्यान्वित किया जाएगा, जब तक कि उसका महान कार्य पूरा नहीं हो जाता। यह परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि, उसका अधिकार और सामर्थ्य है। इस प्रकार, प्रभु यीशु सब्त के दिन खुले तौर पर बाहर जा सकता था और कार्य कर सकता था, क्योंकि उसके हृदय में मानवजाति से उत्पन्न कोई नियम, ज्ञान या सिद्धांत नहीं थे। उसके पास केवल परमेश्वर का नया कार्य और उसका मार्ग था। उसका कार्य मानवजाति को स्वतंत्र करने, लोगों को मुक्त करने, उन्हें प्रकाश में रहने देने और उन्हें जीने देने का मार्ग था। इस बीच, जो मूर्तियों या झूठे ईश्वरों की पूजा करते हैं, वे सभी प्रकार के नियमों और वर्जनाओं से नियंत्रित, हर दिन शैतान के बंधनों में जीते हैं—आज एक चीज निषिद्ध होती है, कल दूसरी—उनके जीवन में कोई स्वतंत्रता नहीं है। वे जंजीरों में जकड़े हुए कैदियों के समान हैं, जिनके जीवन में कहने को कोई खुशी नहीं है। “निषेध” क्या दर्शाता है? यह विवशता, बंधन और बुराई दर्शाता है। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी मूर्ति की आराधना करता है, तो वह एक झूठे ईश्वर और बुरी आत्मा की आराधना कर रहा होता है। इस तरह की गतिविधियाँ शामिल होने पर निषेध साथ आता है। तुम यह या वह नहीं खा सकते, आज तुम बाहर नहीं जा सकते, कल तुम अपना खाना नहीं बना सकते, परसों तुम नए घर में नहीं जा सकते, विवाह और अंत्येष्टि के लिए, यहाँ तक कि बच्चे को जन्म देने के लिए भी कुछ निश्चित दिन ही चुनने होंगे। इसे क्या कहा जाता हैं? इसे निषेध कहा जाता है; यह मानवजाति का बंधन है, और ये शैतान और बुरी आत्माओं की जंजीरें लोगों को नियंत्रित कर रही हैं, और उनके हृदय और शरीर को अवरुद्ध कर रही हैं। क्या ये प्रतिबंध परमेश्वर के साथ विद्यमान रहते हैं? परमेश्वर की पवित्रता की बात करते समय तुम्हें पहले यह सोचना चाहिए : परमेश्वर के साथ कोई निषेध नहीं है। परमेश्वर के वचनों और कार्य में सिद्धांत हैं, किंतु कोई निषेध नहीं हैं, क्योंकि स्वयं परमेश्वर सत्य, मार्ग और जीवन है।

आओ, अब पवित्रशास्त्र का निम्नलिखित अंश देखें : “पर मैं तुम से कहता हूँ कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है। यदि तुम इसका अर्थ जानते, ‘मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं,’ तो तुम निर्दोष को दोषी न ठहराते। मनुष्य का पुत्र तो सब्त के दिन का भी प्रभु है” (मत्ती 12:6-8)। यहाँ “मंदिर” किसे संदर्भित करता है? आसान शब्दों में कहें तो, यह एक भव्य, ऊँची इमारत को संदर्भित करता है, और व्यवस्था के युग में मंदिर याजकों के लिए परमेश्वर की आराधना करने का स्थान था। जब प्रभु यीशु ने कहा, “कि यहाँ वह है जो मन्दिर से भी बड़ा है,” तो “वह” किसे संदर्भित करता है? स्पष्ट रूप से “वह” देह में मौजूद प्रभु यीशु है, क्योंकि केवल वही मंदिर से बड़ा था। इन वचनों ने लोगों को क्या बताया? उन्होंने लोगों को मंदिर से बाहर आने के लिए कहा—परमेश्वर पहले ही मंदिर को छोड़ चुका है और अब उसमें कार्य नहीं कर रहा, इसलिए लोगों को मंदिर के बाहर परमेश्वर के पदचिह्न ढूँढ़ने चाहिए और उसके नए कार्य में उसके कदमों का अनुसरण करना चाहिए। जब प्रभु यीशु ने यह कहा, तो उसके वचनों के पीछे एक आधार था और वह यह कि व्यवस्था के अधीन लोग मंदिर को स्वयं परमेश्वर से भी बड़ा समझने लगे थे। अर्थात्, लोग परमेश्वर की आराधना करने के बजाय मंदिर की आराधना करते थे, इसलिए प्रभु यीशु ने उन्हें चेतावनी दी कि वे मूर्तियों की आराधना न करें, बल्कि उनके बजाय परमेश्वर की आराधना करें, क्योंकि वह सर्वोच्च है। इसलिए उसने कहा : “मैं दया से प्रसन्न होता हूँ, बलिदान से नहीं।” यह स्पष्ट है कि प्रभु यीशु की नजरों में, व्यवस्था के अधीन अधिकतर लोग अब यहोवा की आराधना नहीं करते थे, बल्कि बेमन से केवल बलिदान करते थे, और प्रभु यीशु ने तय किया कि यह मूर्ति-पूजा है। इन मूर्ति-पूजकों ने मंदिर को परमेश्वर से बड़ी और ऊँची चीज समझ लिया था। उनके हृदय में केवल मंदिर था, परमेश्वर नहीं, और यदि उन्हें मंदिर छोड़ना पड़ता, तो उनका निवास-स्थान भी छूट जाता। मंदिर के अतिरिक्त उनके पास आराधना के लिए कोई जगह नहीं थी, और वे अपने बलिदान नहीं कर सकते थे। उनका तथाकथित “निवास-स्थान” वह था, जहाँ वे यहोवा परमेश्वर की आराधना करने का झूठा दिखावा करते थे, ताकि वे मंदिर में रह सकें और अपने खुद के क्रियाकलाप कर सकें। उनका तथाकथित “बलिदान” मंदिर में सेवा करने की आड़ में अपने खुद के व्यक्तिगत शर्मनाक व्यवहार कार्यान्वित करना भर था। यही कारण था कि उस समय लोग मंदिर को परमेश्वर से भी बड़ा समझते थे। प्रभु यीशु ने ये वचन लोगों को चेतावनी देने के लिए बोले थे, क्योंकि वे मंदिर का उपयोग एक आड़ के रूप में, और बलिदानों का उपयोग लोगों और परमेश्वर को धोखा देने के एक आवरण के रूप में करते थे। यदि तुम इन वचनों को वर्तमान में लागू करो, तो ये अभी भी उतने ही वैध और प्रासंगिक हैं। यद्यपि आज लोगों ने व्यवस्था के युग के लोगों की तुलना में परमेश्वर के एक भिन्न कार्य का अनुभव किया है, किंतु उनका प्रकृति सार एक-समान हैं। आज के कार्य के संदर्भ में, लोग अभी भी उसी प्रकार की चीजें करेंगे, जो इन वचनों में दर्शाई गई हैं, “मंदिर परमेश्वर से बड़ा है।” उदाहरण के लिए, लोग अपना कर्तव्य निर्वहन को अपने कार्य के रूप में देखते हैं; वे परमेश्वर के लिए गवाही देने और बड़े लाल अजगर से युद्ध करने को प्रजातंत्र और स्वतंत्रता के लिए मानवाधिकारों की रक्षा हेतु किए जाने वाले राजनीतिक आंदोलनों के रूप में देखते हैं; कौशलों का उपयोग करने के कर्तव्य को अपना करियर बना लेते हैं, और वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने को और कुछ नहीं, बल्कि धार्मिक सिद्धांत के एक अंश के पालन के रूप में लेते हैं; इत्यादि। क्या ये व्यवहार बिल्कुल “मंदिर परमेश्वर से बड़ा है” के समान नहीं हैं? सिवाय इसके कि दो हज़ार वर्ष पहले लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय भौतिक मंदिरों में कर रहे थे, जबकि आज लोग अपना व्यक्तिगत व्यवसाय अमूर्त मंदिरों में करते हैं। जो लोग नियमों को महत्व देते हैं, वे नियमों को परमेश्वर से बड़ा समझते हैं; जो लोग हैसियत से प्रेम करते हैं, वे हैसियत को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं; जो लोग अपनी आजीविका से प्रेम करते हैं, वे आजीविका को परमेश्वर से बड़ी समझते हैं, इत्यादि—उनकी सभी अभिव्यक्तियाँ मुझे यह कहने के लिए बाध्य करती हैं : “लोग अपने वचनों से परमेश्वर को सबसे बड़ा कहकर उसकी स्तुति करते हैं, किंतु उनकी नजरों में हर चीज परमेश्वर से बड़ी है।” ऐसा इसलिए है, क्योंकि जैसे ही लोगों को परमेश्वर का अनुसरण करने के अपने मार्ग के साथ-साथ अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने या अपना व्यवसाय या अपनी आजीविका चलाने का अवसर मिलता है, वे परमेश्वर से दूरी बना लेते हैं और अपने आप को अपनी प्यारी आजीविका में झोंक देते हैं। जहाँ तक जो कुछ परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है उसकी और उसके इरादों की बात है, इन्हें बहुत पहले ही त्याग दिया गया है। इन लोगों की स्थिति और दो हज़ार वर्ष पहले मंदिर में अपना व्यवसाय करने वाले लोगों की स्थिति में क्या अंतर है?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

उत्तर यहाँ दें