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परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करें, से संबंधित बाइबल के 10 पद

भाइयों और बहनों, हम परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद से हर दिन प्रभु से प्रार्थना करते हैं। लेकिन क्या आपने समस्या को खोजा है? कई बार हम परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, लेकिन हमें परमेश्वर की ओर से प्रतिक्रिया नहीं मिलती है। क्या आप इस समस्या को हल करना चाहते हैं? वास्तव में, केवल तभी जब हम परमेश्वर की वर्तमान इच्छा और मांगों के अनुरूप प्रार्थना करते हैं, हम परमेश्वर की स्तुति और आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं। निम्नलिखित बाइबल छंद पढ़ें प्रार्थना से संबंधित और लेखों को पढ़ें और आपको परमेश्वर द्वारा सुनी गई प्रार्थनाओं को करने का तरीका मिलेगा।

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"तुम माँगते हो और पाते नहीं, इसलिए कि बुरी इच्छा से माँगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ा दो" (याकूब 4:3)

"इसलिए तुम चिन्ता करके यह न कहना, कि हम क्या खाएँगे, या क्या पीएँगे, या क्या पहनेंगे? क्योंकि अन्यजाति इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, और तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएँ चाहिए। इसलिए पहले तुम परमेश्‍वर के राज्य और धार्मिकता की खोज करो तो ये सब वस्तुएँ तुम्हें मिल जाएँगी" (मत्ती 6:31-33)

"और मैं तुम से कहता हूँ; कि माँगो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ो तो तुम पाओगे; खटखटाओ, तो तुम्हारे लिये खोला जाएगा" (लूका 11:9)

"परमेश्‍वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसकी आराधना करनेवाले आत्मा और सच्चाई से आराधना करें" (यूहन्ना 4:24)

"फिर मैं तुम से कहता हूँ, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे माँगें, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से जो स्वर्ग में है उनके लिये हो जाएगी" (मत्ती 18:19)

"और जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो क्योंकि लोगों को दिखाने के लिये आराधनालयों में और सड़कों के चौराहों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उनको अच्छा लगता है। मैं तुम से सच कहता हूँ, कि वे अपना प्रतिफल पा चुके" (मत्ती 6:5)

"परन्तु जब तू प्रार्थना करे, तो अपनी कोठरी में जा; और द्वार बन्द कर के अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर; और तब तेरा पिता जो गुप्त में देखता है, तुझे प्रतिफल देगा" (मत्ती 6:6)

"प्रार्थना करते समय अन्यजातियों के समान बक-बक न करो; क्योंकि वे समझते हैं कि उनके बार-बार बोलने से उनकी सुनी जाएगी" (मत्ती 6:7)

"इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, कि जो कुछ तुम प्रार्थना करके माँगो तो विश्वास कर लो कि तुम्हें मिल गया, और तुम्हारे लिये हो जाएगा" (मरकुस 11:24)

"जागते और प्रार्थना करते रहो कि तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तैयार है, पर शरीर दुर्बल है" (मरकुस 14:38)

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

सच्ची प्रार्थना क्या है? प्रार्थना परमेश्वर को यह बताना है कि तुम्हारे हृदय में क्या है, परमेश्वर की इच्छा को समझकर उससे बात करना है, परमेश्वर के वचनों के माध्यम से उसके साथ संवाद करना है, स्वयं को विशेष रूप से परमेश्वर के निकट महसूस करना है, यह महसूस करना है कि वह तुम्हारे सामने है, और यह विश्वास करना है कि तुम्हें उससे कुछ कहना है। तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा हृदय प्रकाश से भर गया है और तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर कितना प्यारा है। तुम विशेष रूप से प्रेरित महसूस करते हो, और तुम्हारी बातें सुनकर तुम्हारे भाइयों और बहनों को संतुष्टि मिलती है। उन्हें लगेगा कि जो शब्द तुम बोल रहे हो, वे उनके मन की बात है, उन्हें लगेगा कि जो वे कहना चाहते हैं, उसी बात को तुम अपने शब्दों के माध्यम से कह रहे हो। यही सच्ची प्रार्थना है। एक बार जब तुम सच्चे मन से प्रार्थना करने लगोगे, तुम्हारा दिल शांत हो जाएगा और संतुष्टि का एहसास होगा। परमेश्वर से प्रेम करने की शक्ति बढ़ सकती है, और तुम महसूस करोगे कि जीवन में परमेश्वर से प्रेम करने से अधिक मूल्यवान या अर्थपूर्ण और कुछ नहीं है। इससे साबित होता है कि तुम्हारी प्रार्थना प्रभावी रही है। क्या तुमने कभी इस तरह से प्रार्थना की है?

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

प्रार्थना करते समय तुम्हारे पास ऐसा हृदय होना चाहिए, जो परमेश्वर के सामने शांत रहे, और तुम्हारे पास एक ईमानदार हृदय होना चाहिए। तुम सही अर्थों में परमेश्वर के साथ संवाद और प्रार्थना कर रहे हो—तुम्हें प्रीतिकर वचनों से परमेश्वर को फुसलाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। प्रार्थना उस पर केंद्रित होनी चाहिए, जिसे परमेश्वर अभी संपन्न करना चाहता हो। प्रार्थना करते समय परमेश्वर से तुम्हें अधिक प्रबुद्ध बनाने और रोशन करने के लिए कहो और अपनी वास्तविक अवस्थाओं और अपनी परेशानियाँ उसके सामने रखो, और साथ ही वह संकल्प भी, जो तुमने परमेश्वर के सामने लिया था। प्रार्थना का अर्थ प्रक्रिया का पालन करना नहीं है; उसका अर्थ है सच्चे हृदय से परमेश्वर को खोजना। मांगो कि परमेश्वर तुम्हारे हृदय की रक्षा करे, ताकि तुम्हारा हृदय अकसर उसके सामने शांत हो सके; कि जिस परिवेश में उसने तुम्हें रखा है, उसमें तुम खुद को जान पाओ, खुद से घृणा करो, और खुद को त्याग सको, और इस प्रकार तुम परमेश्वर के साथ एक सामान्य रिश्ता बना पाओ और वास्तव में ऐसे व्यक्ति बन पाओ, जो परमेश्वर से प्रेम करता है।

— 'प्रार्थना के अभ्यास के बारे में' से उद्धृत

जब तुम परमेश्वर की ओर देखते हो, तो यह संभव है कि वह तुम्हें कोई भी बोध या कोई स्पष्ट विचार न दे, किसी स्पष्ट मार्गदर्शन की तो बात ही दूर है, लेकिन वह तुम्हें कुछ समझने की अनुमति देता है। या हो सकता है कि इस बार तुम्हें कुछ भी समझ न आए, परन्तु फिर भी यह उचित है कि तुम परमेश्वर की ओर देखो। लोगों द्वारा इस तरह से अभ्यास करना नियमों का पालन करने के लिए नहीं है, बल्कि यह उनके दिलों की ज़रूरत होती है और यही वो तरीक़ा है जिससे कि मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि हर बार जब तुम परमेश्वर की ओर देखो और परमेश्वर को पुकारो, तो तुम प्रबोधन और मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हो; मनुष्य के जीवन में यह आध्यात्मिक स्थिति सामान्य और स्वाभाविक होती है, और परमेश्वर की ओर देखना लोगों के लिए अपने दिलों में परमेश्वर के साथ सामान्य बातचीत करना है।

कभी-कभी, परमेश्वर पर निर्भर होने का मतलब विशिष्ट वचनों का उपयोग करके परमेश्वर से कुछ करने को कहना, या उससे विशिष्ट मार्गदर्शन या सुरक्षा माँगना नहीं होता है। बल्कि, इसका मतलब है किसी समस्या का सामना करने पर, लोगों का उसे ईमानदारी से पुकारने में सक्षम होना। तो, जब लोग परमेश्वर को पुकारते हैं तो वह क्या कर रहा होता है? जब किसी के हृदय में हलचल होती है और वह सोचता है: "हे परमेश्वर, मैं यह खुद नहीं कर सकता, मुझे नहीं पता कि यह कैसे करना है, और मैं कमज़ोर और नकारात्मक महसूस करता हूँ...," जब उनके मन में ये विचार आते हैं, तो क्या परमेश्वर इसके बारे में जानता है? जब ये विचार लोगों के मन में उठते हैं, तो क्या उनके हृदय ईमानदार होते हैं? जब वे इस तरह से ईमानदारी से परमेश्वर को पुकारते हैं, तो क्या परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है? इस तथ्य के बावजूद कि हो सकता है कि उन्होंने एक वचन भी नहीं बोला हो, वे ईमानदारी दिखाते हैं, और इसलिए परमेश्वर उनकी मदद करने की सहमति देता है। जब कोई विशेष रूप से कष्टमय कठिनाई का सामना करता है, जब ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो सहायता मांग सके, और जब वह विशेष रूप से असहाय महसूस करता है, तो वह परमेश्वर में अपनी एकमात्र आशा रखता है। ऐसे लोगों की प्रार्थनाएँ किस तरह की होती हैं? उनकी मन:स्थिति क्या होती है? क्या वे ईमानदार होते हैं? क्या उस समय कोई मिलावट होती है? केवल तभी तेरा हृदय ईमानदार होता है, जब तू परमेश्वर पर इस तरह भरोसा करता है मानो कि वह अंतिम तिनका है जिसे तू अपने जीवन को बचाने के लिए पकड़ता है और यह उम्मीद करता है कि वह तेरी मदद करेगा। यद्यपि तूने ज्यादा कुछ नहीं कहा होगा, लेकिन तेरा हृदय पहले से ही द्रवित है। अर्थात्, तू परमेश्वर को अपना ईमानदार हृदय देता है, और परमेश्वर सुनता है। जब परमेश्वर सुनता है, वह तेरी कठिनाइयों को देखेगा, तो वह तुझे प्रबुद्ध करेगा, तेरा मार्गदर्शन करेगा, और तेरी सहायता करेगा।

— 'विश्वासियों को संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों की असलियत समझने से ही शुरुआत करनी चाहिए' से उद्धृत

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