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परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर के कार्य को जानना | अंश 147

1,347 07/02/2021

6,000 वर्षों के दौरान कार्य की समग्रता समय के साथ धीरे-धीरे बदल गई है। इस कार्य में बदलाव समस्त संसार की परिस्थितियों के अनुसार हुए हैं। परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य केवल मानवजाति के पूर्णरूपेण विकास की प्रवृत्ति के अनुसार धीरे-धीरे रूपान्तरित हुआ है; सृष्टि के आरंभ में इसकी पहले से योजना नहीं बनाई गई थी। संसार का सृजन करने से पहले, या इसके सृजन के ठीक बाद, यहोवा ने अभी तक कार्य के प्रथम चरण, व्यवस्था की; कार्य के दूसरे चरण—अनुग्रह की; और कार्य के तीसरे चरण—जीतने की योजना नहीं बनायी थी, जिनमें वह सबसे पहले लोगों के एक समूह—मोआब के कुछ वंशजों के बीच कार्य करता, और इससे वह समस्त ब्रह्माण्ड को जीतता। उसने संसार का सृजन करने के बाद ये वचन नहीं कहे; उसने ये वचन मोआब के बाद नहीं कहे, लूत से पहले की तो बात ही छोड़ो। उसका समस्त कार्य अनायास ही किया गया था। ठीक इसी तरह से उसका छह-हजार-वर्षों का प्रबंधन कार्य विकसित हुआ है; संसार का सृजन करने से पहले उसने किसी भी तरीके से मानवजाति के विकास के लिए सारांश संचित्र के जैसी कोई योजना नहीं लिखी। परमेश्वर के कार्य में वह प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है कि वह क्या है; वह किसी योजना को बनाने पर अत्यधिक विचार नहीं करता है। वास्तव में, बहुत से भविष्यद्वक्ताओं ने बहुत सी भविष्यवाणियाँ की हैं, परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य सदैव ही एक सटीक योजना-बनाना रहा है; भविष्यवाणियाँ परमेश्वर के वास्तविक कार्य के अनुसार की गई थीं। उसका समस्त कार्य सर्वाधिक वास्तविक कार्य है। वह समयों के विकास के अनुसार अपने कार्य को सम्पन्न करता है, और वह अपना सबसे अधिक वास्तविक कार्य चीज़ों के परिवर्तनों के अनुसार करता है। उसके लिए, कार्य को सम्पन्न करना किसी बीमारी के लिए दवा देने के सदृश है; वह अपना कार्य करते समय अवलोकन करता है; और अपने अवलोकनों के अनुसार कार्य करता है। अपने कार्य के प्रत्येक चरण में, वह अपनी विशाल बुद्धि को व्यक्त करने और अपनी विशाल योग्यता को व्यक्त करने में सक्षम है; वह उस युग विशेष के कार्य के अनुसार अपनी विशाल बुद्धि और विशाल अधिकार को प्रकट करता है, और उन युगों के दौरान उसके द्वारा वापस लाए गए लोगों में से किसी को भी अपना समस्त स्वभाव देखने देता है। वह लोगों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करता है और उस कार्य को करता है जो प्रत्येक युग में अवश्य किए जाने वाले कार्य के अनुसार उसे करना चाहिए; वह लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति उस हद तक करता है जिस तक शैतान ने उन्हें भ्रष्ट कर दिया है। यह इस तरह था जब उन्हें पृथ्वी पर परमेश्वर को अभिव्यक्त करने और सृजन के बीच परमेश्वर की गवाही देने की अनुमति देने के लिए यहोवा ने आरंभ में आदम और हव्वा का सृजन किया, किन्तु सर्प द्वारा प्रलोभन दिए जाने के बाद हव्वा ने पाप किया; आदम ने भी वही किया, और उन्होंने बगीचे में एक साथ अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल खाया। और इस प्रकार, यहोवा के पास उनके बीच क्रियान्वित करने के लिए अतिरिक्त कार्य था। उसने उनकी नग्नता देखी और पशुओं की खालों के वस्त्रों से उनके शरीर को ढक दिया। इसके बाद उसने आदम से कहा, "तू ने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैं ने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना, उसको तू ने खाया है इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है ... और अन्त में मिट्टी में मिल जाएगा क्योंकि तू उसी में से निकाला गया है; तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर मिल जाएगा।" स्त्री से उसने कहा, "मैं तेरी पीड़ा और तेरे गर्भवती होने के दु:ख को बहुत बढ़ाऊँगा; तू पीड़ित होकर बालक उत्पन्न करेगी; और तेरी लालसा तेरे पति की ओर होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।" उसके बाद से उसने उन्हें अदन की वाटिका से निर्वासित कर दिया, और उन्हें वाटिका से बाहर रहने दिया, जैसे कि अब आधुनिक मानव पृथ्वी पर रहता है। जब परमेश्वर ने आरंभ में मनुष्य का सृजन किया, तब उसने मनुष्य का सृजन करने के बाद उसे साँप द्वारा प्रलोभित होने देने और फिर मनुष्य और साँप को शाप देने की योजना नहीं बनाई थी। उसकी वास्तव में इस प्रकार की कोई योजना नहीं थी; यह केवल चीज़ों का विकास था जिसने उसे अपनी सृष्टि के बीच नया कार्य दिया। यहोवा के पृथ्वी पर आदम और हव्वा के बीच इस कार्य को सम्पन्न करने के बाद, मानवजाति कई हजार वर्षों तक तब तक विकसित होती रही जब, "यहोवा ने देखा कि मनुष्यों की बुराई पृथ्वी पर बढ़ गई है, और उनके मन के विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है वह निरन्तर बुरा ही होता है। और यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछताया, और वह मन में अति खेदित हुआ। ... परन्तु यहोवा के अनुग्रह की दृष्‍टि नूह पर बनी रही।" इस समय यहोवा के पास और नये कार्य थे, क्योंकि जिस मानवजाति का उसने सृजन किया था वह सर्प के द्वारा प्रलोभित किए जाने के बाद बहुत अधिक पापमय हो चुकी थी। इन परिस्थितियों को देखते हुए, यहोवा ने इस लोगों में से नूह के परिवार का चयन किया और उन्हें बचाया, और संसार को जलप्रलय के द्वारा नष्ट करने का अपना कार्य सम्पन्न किया। मानवजाति आज के दिन भी तक इसी तरीके से विकसित होती जा रही है, उत्तरोत्तर भ्रष्ट हो रही है, और जब मानवजाति का विकास अपने शिखर पर पहुँच जाएगा, तब यह मानवजाति का अंत भी होगा। संसार के बिल्कुल आरंभ से लेकर अंत तक परमेश्वर के कार्य का भीतरी सत्य सदैव ऐसा ही रहा है। यह वैसा ही है जैसे कि मनुष्यों को कैसे उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। हर एक व्यक्ति को उस श्रेणी में पूर्वनियत किए जाने से दूर जिसमें वे बिल्कुल आरंभ से संबंधित हैं, लोगों को केवल विकास की एक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही धीरे—धीरे श्रेणीबद्ध किया जाता है। अंत में, जिस किसी को भी पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता है उसे उसके पुरखों के पास लौटा दिया जाएगा। मानवजाति के बीच परमेश्वर का कोई भी कार्य संसार के सृजन के समय पहले से तैयार नहीं किया गया था; बल्कि, यह चीज़ों का विकास था जिसने परमेश्वर को मानवजाति के बीच अधिक वास्तविक एवं व्यवहारिक रूप से कदम-दर-कदम अपना कार्य करने दिया। यह ठीक वैसे ही है जैसे कि यहोवा परमेश्वर ने स्त्री को प्रलोभित करने के लिए साँप का सृजन नहीं किया था। यह उसकी विशिष्ट योजना नहीं थी, न ही यह कुछ ऐसा था जिसे उसने जानबूझ कर पूर्वनियत किया था; कोई कह सकता है कि यह अनपेक्षित था। इस प्रकार यह इसलिए था क्योंकि यहोवा ने आदम और हव्वा को अदन की वाटिका से निष्कासित किया और फिर कभी मनुष्य का पुनः सृजन नहीं करने की शपथ ली। परंतु परमेश्वर की बुद्धि के बारे में लोगों को केवल इसी आधार पर पता चलता है, ठीक उसी बिंदु की तरह जो मैंने पहले उल्लेख किया: "मेरी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग में लायी जाती है।" इससे फर्क नहीं पड़ता कि मानवजाति कितनी भी भ्रष्ट हुई या साँप ने उन्हें कैसे प्रलोभित किया, यहोवा के पास तब भी अपनी बुद्धि थी; इसलिए, जबसे उसने संसार का सृजन किया है, वह नये-नये कार्य में व्यस्त रहा है और उसके कार्य का कोई भी कदम कभी भी दोहराया नहीं गया है। शैतान ने लगातार षडयंत्र किये हैं; मानवजाति लगातार शैतान के द्वारा भ्रष्ट की गई है, यहोवा परमेश्वर ने भी अपने बुद्धिमान कार्य को लगातार सम्पन्न किया है। वह कभी भी असफल नहीं हुआ है, और संसार के सृजन से अब तक उसने कार्य को कभी नहीं रोका है। शैतान द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट करने के बाद, परमेश्वर ने अपने उस शत्रु को परास्त करने के लिए जो मानवजाति को भ्रष्ट करता है, लोगों के बीच लगातार कार्य किया। यह लड़ाई संसार के आरंभ से अंत तक चलती रहेगी। यह सब कार्य करते हुए, उसने न केवल शैतान के द्वारा भ्रष्ट की जा चुकी मनुष्य जाति को उसके द्वारा महान उद्धार को प्राप्त करने की अनुमति दी है, बल्कि अपनी बुद्धि सर्वशक्तिमत्ता और अधिकार को देखने की उन्हें अनुमति भी दी है, और अंत में वह मानवजाति को अपना धार्मिक स्वभाव देखने देगा—दुष्टों को दण्ड देगा, और अच्छों को पुरस्कार देगा। उसने आज के दिन तक शैतान के साथ युद्ध किया है और कभी भी पराजित नहीं हुआ है। क्योंकि वह एक बुद्धिमान परमेश्वर है, और उसकी बुद्धि शैतान के षडयंत्रों के आधार पर प्रयोग की जाती है। और इसलिए वह न केवल स्वर्ग की सब चीज़ों को अपने अधिकार के सामने समर्पित करवाता है; बल्कि वह पृथ्वी की सभी चीज़ों को अपने पाँव रखने की चौकी के नीचे रखवाता है, और यही अंतिम बात नहीं है, वह उन बुरे कार्य करने वालों को, जो मानवजाति पर आक्रमण करते हैं और उसे सताते हैं, अपनी ताड़ना के अधीन करता है। कार्य के सभी परिणाम उसकी बुद्धि के कारण उत्पन्न होते हैं। उसने मानवजाति के अस्तित्व से पहले कभी भी अपनी बुद्धि को प्रकट नहीं किया था, क्योंकि स्वर्ग में, और पृथ्वी पर, और समस्त ब्रह्माण्ड में उसके कोई शत्रु नहीं थे, और कोई अंधकार की शक्तियाँ नहीं थीं जो प्रकृति में से किसी भी चीज़ पर आक्रमण करती थी। प्रधान स्वर्गदूत द्वारा उसके साथ विश्वासघात करने के बाद, उसने पृथ्वी पर मानवजाति का सृजन किया, और यह मानवजाति के कारण ही था कि उसने औपचारिक रूप से प्रधान स्वर्गदूत, शैतान के साथ अपना सहस्राब्दि-लंबा युद्ध आरंभ किया, ऐसा युद्ध जो प्रत्येक बाद के चरण के साथ और अधिक घमासान होता गया। इनमें से प्रत्येक चरण में उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि उपस्थित रहती है। केवल इस समय ही स्वर्ग और पृथ्वी में हर चीज़ परमेश्वर की बुद्धि, सर्वशक्तिमत्ता, और विशेषकर परमेश्वर की यथार्थता को देख सकती है। वह आज भी अपने कार्य को उसी यथार्थ तरीके से सम्पन्न करता है; इसके अतिरिक्त, जब वह अपने कार्य को करता है, तो वह अपनी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता को भी प्रकट करता है; वह तुम लोगों को प्रत्येक चरण के भीतरी सत्य को देखने की अनुमति देता है, यह देखने की अनुमति देता है कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता को कैसे यथार्थतः समझाया जाए, और विशेष रूप से परमेश्वर की वास्तविकता को कैसे समझाया जाए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें पता होना चाहिए कि समस्त मानवजाति आज के दिन तक कैसे विकसित हुई

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