विश्वास क्या है? सच्चा विश्वास कैसे उत्पन्न करें?
विश्वास क्या है, इसके बारे में बोलते हुए, कुछ लोग सोचते हैं कि अपने घरों और आजीविकाओं को त्यागना, प्रभु के लिए कड़ी मेहनत करना, हर जगह सुसमाचार फैलाना और कलिसियाओं की स्थापना करना परमेश्वर में सच्चे विश्वास की अभिव्यक्तियां हैं। लेकिन क्या इन बातों का मतलब यह है कि हमें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है? यदि ऐसा है तो, जब हम आपदाओं या शारीरिक बीमारी का अनुभव करते हैं, या हमारे परिवारों के साथ कुछ घटित हो जाता है, ऐसा क्यों है कि हम कमजोर और नकारात्मक हो जाते हैं, और परमेश्वर को गलत समझते और दोष देते हैं, और कुछ तो निराश और हताश हो जाते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं? यह दिखाता है की जोशपूर्वक कार्य करना, खपाना, दुख उठाना, और परमेश्वर के लिए कीमत चुकाने का मतलब यह नहीं है की परमेश्वर में हमारा विश्वास सच्चा हैं। तो फिर, विश्वास आखिर है क्या?
विश्वास का क्या अर्थ है?
आइए देखतें हैं की विश्वास क्या है इसके बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं: "'विश्वास' यह शब्द किस चीज को संदर्भित करता है? विश्वास सच्चा भरोसा है और ईमानदार हृदय है जो मनुष्यों के पास होना चाहिए जब वे किसी चीज़ को देख या छू नहीं सकते हों, जब परमेश्वर का कार्य मनुष्यों के विचारों के अनुरूप नहीं होता हो, जब यह मनुष्यों की पहुँच से बाहर हो। इसी विश्वास के बारे में मैं बातें करता हूँ। मनुष्यों को कठिनाई और शुद्धिकरण के समय में विश्वास की आवश्यकता होती है, और विश्वास के साथ-साथ शुद्धिकरण आता है; विश्वास और शुद्धिकरण को अलग नहीं किया जा सकता। चाहे परमेश्वर कैसे भी कार्य करे या तुम्हारा परिवेश जैसा भी हो, तुम जीवन का अनुसरण करने में समर्थ होगे और सत्य की खोज करने और परमेश्वर के कार्यों के ज्ञान को तलाशने में समर्थ होगे, और तुममें उसके क्रियाकलापों की समझ होगी और तुम सत्य के अनुसार कार्य करने में समर्थ होगे। ऐसा करना ही सच्चा विश्वास रखना है, ऐसा करना यह दिखाता है कि तुमने परमेश्वर में अपना विश्वास नहीं खोया है। जब तुम शुद्धिकरण द्वारा सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हो, तुम सच में परमेश्वर से प्रेम करने में समर्थ हो और उसके बारे में संदेहों को पैदा नहीं करते हो, चाहे वो जो भी करे, तुम फिर भी उसे संतुष्ट करने के लिए सत्य का अभ्यास करते हो, और तुम गहराई में उसकी इच्छा की खोज करने में समर्थ होते हो और उसकी इच्छा के बारे में विचारशील होते हो, केवल तभी इसका अर्थ है कि तुम्हें परमेश्वर में सच्चा विश्वास है।"
"जब तुम कष्टों का सामना करते हो तो तुम्हें देह पर विचार नहीं करने और परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत नहीं करने में समर्थ अवश्य होना चाहिए। जब परमेश्वर अपने आप को तुमसे छिपाता है, तो तुम्हें उसका अनुसरण करने के लिए, अपने पिछले प्यार को लड़खड़ाने या मिटने न देते हुए उसे बनाए रखने के लिए, तुम्हें विश्वास रखने में समर्थ अवश्य होना चाहिए। इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या करता है, तुम्हें उसके मंसूबे के प्रति समर्पण अवश्य करना चाहिए, और उसके विरूद्ध शिकायत करने की अपेक्षा अपनी स्वयं की देह को धिक्कारने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब तुम्हारा परीक्षणों से सामना होता है तो तुम्हें अपनी किसी प्यारी चीज़ से अलग होने की अनिच्छा, या बुरी तरह रोने के बावजूद तुम्हें अवश्य परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहिए। केवल यही सच्चा प्यार और विश्वास है।"
परमेश्वर के वचनों से देखा जा सकता हैं की, सच्चे विश्वास का अर्थ जोश से काम करने में सक्षम होना नहीं है और परमेश्वर के कार्य के लिए खपाना जब हम परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हैं। बल्कि इसका अर्थ है, परमेश्वर के शिकायत न करने में सक्षम होना, बल्कि एक सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होना, आज्ञाकारी हृदय के साथ सत्य की खोज करना, परमेश्वर की इच्छा के बारे में समझ प्राप्त करना, शरीर को त्यागना, परमेश्वर के प्रति निष्ठावान रहना, और सत्य के अभ्यास के लिए खुशी-खुशी अपने निजी हितों को त्याग देना, और परमेश्वर को संतुष्ट करना जब हम परिस्थितियों का सामना करते हैं जो हमारी धारणाओं के विपरीत होता है—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे वें कठिनाइयाँ, शुद्धिकरण, आपदाएं, असफलताएं, विफलताएं हों और हमारा शारीरिक कष्ट कितना भी बड़ा क्यों न हो। सच्चे विश्वास का यही अर्थ हैं।
उदाहरण के लिए अय्यूब को ही लें। उसे शैतान के द्वारा प्रलोभनों और हमलों का सामान करना पड़ा, अपने परिवारों अपार संपत्ति और सभी बच्चे को खोना और फोड़े में ढंका होना पड़ा। जब अय्यूब ने इन असाधारण कष्टों का सामना किया उसकी पत्नी और उसके मित्रों ने उसे नहीं समझा इसके बचाए उन्होंने उसकी आलोचना और उसपर टूट पड़े लेकिन अय्यूब ने शिकायत का एक शब्द भी नहीं कहा। परमेश्वर में उसका विश्वास सच्चा था और विश्वास था कि ये सभी जो उसके ऊपर आ पड़ा है परमेश्वर की अनुमति से था, इसलिए वह परमेश्वर के सामने झुक गया और परमेश्वर की इच्छा जानने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना किया। खोजने के द्वारा वह समझ गया की जो कुछ भी उसके पास था परमेश्वर के द्वारा दिया गया था कि यह स्वाभाविक और सही था की परमेश्वर इन सब चीजों को वापस लें, और एक सृजित प्राणी के रूप में उसे बिना किसी शर्त के परमेश्वर का पालन करें। इसलिए अत्यधिक पीड़ा के बावजूद अय्यूब यह कहने में सक्षम था : "मैं अपनी माँ के पेट से नंगा निकला और वहीं नंगा लौट जाऊँगा; यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। "क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दुःख न लें?" (अय्यूब 2:10)। इससे हम देख सकते हैं की कठिनाइयों और शुद्धिकरण का सामना करते समय, अय्यूब ने परमेश्वर में विश्वास नहीं खोया और न ही कुछ अधर्म बोला, बल्कि परमेश्वर की इच्छा की खोज की और अपना विश्वास बनाए रखने के लिए देह में पीड़ित होना पसंद किया, परमेश्वर के प्रति समर्पण और आज्ञाकारिता दिखाई। इस प्रकार उसने शैतान को शर्मिंदित किया और परमेश्वर के लिए शानदार और सुंदर गवाही दिया। सच्चा विश्वास का यही अर्थ है।
अब्राहम एक और उदाहरण है: जब परमेश्वर ने उसे अपने इकलौते पुत्र को उसे अर्पित करने के लिए कहा, हालांकि यह उसकी धारणाओं के अनुरूप नहीं था और उसे पीड़ा हुई, फिर भी वह परमेश्वर में अपने विश्वास को बनाए रखने में सक्षम था और बिना किसी शर्त के परमेश्वर को समर्पण करने का विकल्प चुना। पीड़ा सहने और अपने प्यारे इकलौते पुत्र को परमेश्वर को लौटाने के लिए तैयार था। क्योंकि वह जानता था कि इसहाक को सबसे पहले परमेश्वर ने दिया था, और यह कि एक सृजित प्राणी के रूप में, सृष्टिकर्ता की आज्ञा का पालन करना चाहिए जब परमेश्वर इसहाक को लेना चाहते थें। यह परमेश्वर में सच्चे विश्वास की वास्तविक अभिव्यक्ति है।
इन सब से, हम देख सकते हैं कि केवल अय्यूब और अब्राहम की अभिव्यक्तियाँ ही सच्चे विश्वास को दर्शाती हैं। चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ हों, चाहे वे हमारी इच्छाओं के साथ कितनी भी मेल न खाती हों, और हमारे शारीरिक कष्ट कितने भी बड़े क्यों न हों, हमें परमेश्वर को गलत समझना, दोष देना या उनके साथ बहस नहीं करनी चाहिए, लेकिन पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना चाहिए और परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। यही सच्चा विश्वास है।
सच्चा विश्वास कैसे उत्पन्न करें
अब हम समझते हैं की सच्चा विश्वास क्या है, हम परमेश्वर में सच्चा विश्वास कैसे उत्पन्न कर सकते हैं? इसके लिए हमें उन सभी वातावरणों में परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जिन्हें परमेश्वर हमारे लिए व्यवस्थित करते हैं। किसी भी परिस्थितियों के अधीन, हमें परमेश्वर के अधिकार और संप्रभुता की समझ होनी चाहिए, एक सृजित प्राणी के रूप में हमें अपना उचित स्थान लेना चाहिए, और आज्ञाकारी हृदय के साथ परमेश्वर को इच्छा की खोज करनी चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितने बड़े कष्ट और शुद्धिकरण से गुजरते हैं, हमें परमेश्वर को दोष या धोखा नहीं देना चाहिए, बल्कि अटूट रूप से परमेश्वर के पक्ष में खड़े होना चाहिए और बिना किसी शर्त के परमेश्वर के संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए। केवल इसी तरह से हम परमेश्वर में सच्चा विश्वास उत्पन्न करेंगे और परमेश्वर की गवाही देंगे।
उदाहरण के लिए जब हम कठिनाइयों या बीमारियों का सामना करते हैं और कमजोर और नकारात्मक हो जाते हैं, सबसे पहले हमें यह जानना चाहिए की परमेश्वर ने इस सब चीजों को हमारे साथ होने की अनुमति दी हैं, परमेश्वर को गलत समझना या उन्हें दोष नहीं दे सकतें और एक सृजित प्राणियों के उचित स्थान पर रहकर परमेश्वर की इच्छा की खोज करनी चाहिए, इस तरह से खोज करने के लिए जब हम अपने आपको परमेश्वर के समक्ष शांत करते हैं, हम महसूस करेंगे की हम विश्वास करते हैं परमेश्वर के लिए खपाते हैं और परमेश्वर में विश्वास प्रवेश के साथ जब सब कुछ हमारे लिए सुचारू और शांतिपूर्ण होता है, लेकिन आपदाओं के समय में हम परमेश्वर को दोष देते हैं की उन्होंने हमारी रक्षा नहीं की, उनमें अपना विश्वास गवां देते हैं, अब उसके लिए खपाने के लिए उत्सुक नहीं होते हैं, और यहाँ तक कि उससे दूर और उसके साथ विश्वासघात भी करते हैं, यह दर्शाता है कि अशुद्ध उद्देश्य के साथ हम अपने आप को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और यह परमेश्वर के लिए प्रेम या परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि आशीष और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए है—हम परमेश्वर के लिए खपाने के नाम पर परमेश्वर से सौदेबाजी करते हैं। प्रभु यीशु ने हमें बताया हैं: "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है" (मत्ती 22:37-38)। जब हम परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसके लिए आपने आपको खपाते हैं तो हमें परमेश्वर से अपने पूरे हृदय और मन से प्रेम करना चाहिए। कोई फर्क नहीं पड़ता हम कितना कार्य करते हैं, और कितना कष्ट झेलते हैं यहां कोई व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा या अशुद्धता नहीं होनी चाहिए, हमें बदले में बिना कुछ मांग के, पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा मानने और उन्हें संतुष्ट करने के लिए समर्पित होना चाहिए। परीक्षणों और क्लेशों का सामना करते समय हमें परमेश्वर से शिकायत या उससे विश्वासघात नहीं करनी चाहिए, बल्कि परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं प्रति समर्पित होना चाहिए और परमेश्वर के लिए सुंदर और शानदार गवाही देनी चाहिए। तभी हम ऐसे व्यक्ति होंगे जो परमेश्वर से पूरे हृदय, आत्म और मन से प्रेम करते हैं। एक बार जब हम परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं को समझ जाते हैं और अपनी खुद को कमियों को जान लेते हैं तो हम अपने शरीर को त्यागने, परमेश्वर की आराधना करने और उसके प्रति समर्पित होने के इच्छुक हो जायेंगे, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए परमेश्वर को गवाही देते हैं। इस प्रकार, हम परमेश्वर के सच्चा विश्वास उत्पन्न करते हैं और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए गवाही देते हैं।
- संपादक की टिप्पणी
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