ऑनलाइन बैठक

मेन्‍यू

अय्यूब 26

1तब अय्यूब ने कहा,

2"निर्बल जन की तूने क्या ही बड़ी सहायता की, और जिसकी बाँह में सामर्थ्य नहीं, उसको तूने कैसे सम्भाला है?

3निर्बुद्धि मनुष्य को तूने क्या ही अच्छी सम्मति दी, और अपनी खरी बुद्धि कैसी भली-भाँति प्रगट की है?

4तूने किसके हित के लिये बातें कही? और किसके मन की बातें तेरे मुँह से निकलीं?"

5"बहुत दिन के मरे हुए लोग भी जलनिधि और उसके निवासियों के तले तड़पते हैं।

6अधोलोक उसके सामने उघड़ा रहता है, और विनाश का स्थान ढँप नहीं सकता। (भज. 139:8-11 नीति. 15:11, इब्रा. 4:13)

7वह उत्तर दिशा को निराधार फैलाए रहता है, और बिना टेक पृथ्वी को लटकाए रखता है।

8वह जल को अपनी काली घटाओं में बाँध रखता*, और बादल उसके बोझ से नहीं फटता।

9वह अपने सिंहासन के सामने बादल फैलाकर चाँद को छिपाए रखता है।

10उजियाले और अंधियारे के बीच जहाँ सीमा बंधा है, वहाँ तक उसने जलनिधि का सीमा ठहरा रखा है।

11उसकी घुड़की से आकाश के खम्भे थरथराकर चकित होते हैं।

12वह अपने बल से समुद्र को शान्त, और अपनी बुद्धि से रहब को छेद देता है।

13उसकी आत्मा से आकाशमण्डल स्वच्छ हो जाता है, वह अपने हाथ से वेग से भागनेवाले नाग को मार देता है।

14देखो, ये तो उसकी गति के किनारे ही हैं; और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है, फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन समझ सकता है?"

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