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बाइबल संदेश: जैसा कि विपदाएँ हो रही हैं, हम किस तरह बुद्धिमान कुंवारी हो सकते हैं और प्रभु का स्वागत करें?

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प्रभु यीशु ने कहा था, "तुम लड़ाइयों और लड़ाइयों की चर्चा सुनोगे, तो घबरा न जाना क्योंकि इन का होना अवश्य है, परन्तु उस समय अन्त न होगा। क्योंकि जाति पर जाति, और राज्य पर राज्य चढ़ाई करेगा, और जगह जगह अकाल पड़ेंगे, और भूकम्प होंगे। ये सब बातें पीड़ाओं का आरम्भ होंगी" (मत्ती 24:6-8)। आपदाएं अब पूरी दुनिया में अधिक से अधिक संख्या में हो रही हैं: वुहान में कोरोनावायरस, अफ्रीका में टिड्डियों का आतंक, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग और अन्य आपदाएं एक के बाद एक सामने आई हैं। चार रक्त चन्द्रमा भी प्रकट हो चुके हैं। प्रभु के आगमन की भविष्यवाणियां मूलतः पूरी हो चुकी हैं; प्रभु अवश्य ही लौट आया है। प्रभु में विश्वास करने वाले कई लोगों के मन में यह बात घूम रही है: हम प्रभु की वापसी का स्वागत करने वाली बुद्धिमान कुंवारियाँ कैसे बन सकते हैं? प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "तब स्वर्ग का राज्य उन दस कुँवारियों के समान होगा जो अपनी मशालें लेकर दूल्हे से भेंट करने को निकलीं। उनमें पाँच मूर्ख और पाँच समझदार थीं। मूर्खों ने अपनी मशालें तो लीं, परन्तु अपने साथ तेल नहीं लिया; परन्तु समझदारों ने अपनी मशालों के साथ अपनी कुप्पियों में तेल भी भर लिया" (मत्ती 25:1-4)। धर्मग्रंथों में हम देख सकते हैं कि बुद्धिमान कुंवारियों ने मशालों का तेल तैयार किया और श्रद्धा से प्रभु के आने का इंतजार किया। आख़िरकार, वे उसका स्वागत करने, और स्वर्ग के राज्य की दावत में भाग लेने में सक्षम हुईं। इसलिए, कई भाई-बहनों का यह मानना है कि अगर वे लगातार धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं, सभाओं में जाते हैं, पूरी लगन से प्रभु का काम करते हैं, और श्रद्धा से उसका इंतज़ार करते हैं, तो इसका मतलब है कि उन्होंने तेल तैयार कर लिया है और वे बुद्धिमान कुंवारियाँ हैं, और यह भी कि प्रभु के वापस लौटने पर उन्हें स्वर्ग के राज्य में उठाया जाएगा। हालांकि, यह कई वर्षों से हमारा अभ्यास रहा है, और अब सभी तरह की आपदाएं आ चुकी हैं, लेकिन हमने अब तक प्रभु का स्वागत नहीं किया। इस कारण हमारे पास विचार करने और खुद से सवाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता: क्या इस तरह पूरी लगन से प्रभु का काम करने पर हम वाकई बुद्धिमान कुंवारी बन जायेंगे? क्या हम प्रभु का स्वागत कर पायेंगे और भीषण पीड़ा से पहले उन्नत किये जाएंगे?

धर्मग्रंथों को पढ़ना, प्रार्थना करना, और पूरी लगन से प्रभु का काम करना: क्या यह हमें बुद्धिमान कुंवारी बनाता है?

आइये, ज़रा पीछे मुड़कर शास्त्रियों, मुख्य याजकों और फरीसियों के बारे में सोचें। वे सभी धर्मग्रंथों के काफ़ी जानकार थे और उनके परिवारों ने पीढ़ियों से परमेश्वर की सेवा की थी। उन्होंने व्यवस्था का सख्ती से पालन किया, आज्ञाओं का पालन किया, पूरी लगन से काम किया, और यहाँ तक कि परमेश्वर के सुसमाचार को फैलाने के लिए दुनिया भर में यात्राएं भी की थी। यह कहा जा सकता है कि उन्होंने काफ़ी काम किया, दुख भी कम नहीं सहा, और श्रद्धा से मसीहा के आने का इंतजार किया। हमारी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार, उन्हें ऐसी बुद्धिमान कुंवारियाँ होना चाहिए जिन्होंने तेल तैयार किया था; उन्हें प्रभु का स्वागत करने और उसके उद्धार और अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से ज़्यादा योग्य होना चाहिए। लेकिन तथ्य क्या हैं? जब प्रभु यीशु देह धारण करके अपना कार्य करने आया, तो ये लोग प्रभु यीशु को पहचान नहीं पाये, उन्होंने अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर यह भी माना कि "ऐसा कोई भी जिसे 'मसीहा' नहीं कहा जाता, वह परमेश्वर नहीं है।" वे स्पष्ट रूप से सुन सकते थे कि प्रभु के वचनों में अधिकार और सामर्थ्य था, फिर भी अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर, उन्होंने प्रभु यीशु के कार्य और उसके वचनों को धर्मग्रंथों से दूर करने वाला माना। उन्होंने इस तर्क का इस्तेमाल इस बात को नकारने के रूप में किया कि प्रभु ही स्वयं परमेश्वर था, उन्होंने प्रभु यीशु की आलोचना और तिरस्कार करने के लिए भी इसी तर्क का सहारा लिया। उनके दिलों में परमेश्वर के लिए लेश-मात्र भी श्रद्धा का भाव नहीं था; उन्हें कुछ समझ नहीं आया, उन्होंने इसकी खोज या जांच भी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने रोमन सरकार के साथ मिलकर प्रभु यीशु को सूली पर चढ़ाने का काम किया और आख़िर में परमेश्वर द्वारा दंडित किये गए। ऐसे में, क्या यह कहा जा सकता है कि फरीसी बुद्धिमान कुंवारियाँ थे? वे सिर्फ पुराने नियम की व्यवस्थाओं को मानने के साथ मेहनत करने और काम करने पर ध्यान देते थे, लेकिन उन्हें परमेश्वर का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं था; वे परमेश्वर की वाणी सुनने में असमर्थ थे। उन्हें सबसे मूर्ख कुंवारियां कहा जा सकता है। फिर, वास्तव में एक बुद्धिमान कुंवारी होना क्या है? इसके बारे में ज़्यादा जानने के लिए आगे पढ़ें।

एक बुद्धिमान कुंवारी क्या है?

बुद्धिमान कुंवारी

प्रभु यीशु ने एक बार कहा था, "मेरी भेड़ें मेरा शब्द सुनती हैं; मैं उन्हें जानता हूँ, और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं" (यूहन्ना 10:27)। "आधी रात को धूम मची: 'देखो, दूल्हा आ रहा है! उससे भेंट करने के लिये चलो'" (मत्ती 25:6)। धर्मग्रंथों से, हम देख सकते हैं कि बुद्धिमान कुंवारियाँ मुख्य रूप से इसलिए दूल्हे का स्वागत करने में सक्षम हैं क्योंकि वे परमेश्वर की वाणी सुनने को बहुत ज्यादा महत्व देती हैं। जब वे किसी को यह चिल्लाते हुए सुनती हैं कि दुल्हा आ रहा है, तो बुद्धिमान कुंवारियाँ बाहर जाकर उनका स्वागत करने की पहल करती हैं, वे खोज और जांच करती हैं। आख़िरकार, वे परमेश्वर के वचनों में परमेश्वर की वाणी सुनती हैं, और इसलिए वे प्रभु का स्वागत करती हैं। यह वैसा ही है जैसा कि धर्मशास्त्रों में दर्ज है, सामरी महिला ने प्रभु यीशु को यह कहते सुना, "क्योंकि तू पाँच पति कर चुकी है, और जिसके पास तू अब है वह भी तेरा पति नहीं" (यूहन्ना 4:8)। तब उसे एहसास हुआ कि सिर्फ़ परमेश्वर ही उसके दिल में छिपी बातों को जान सकता है और उनके बारे में बात कर सकता है। अचंभित, वह चिल्लाया अन्य लोगों के लिए, "आओ, एक मनुष्य को देखो, जिसने सब कुछ जो मैं ने किया मुझे बता दिया। कहीं यही तो मसीह नहीं है?" (यूहन्ना 4:29)। यीशु के वचनों से उसे एहसास हुआ कि प्रभु यीशु ही वो मसीहा है जिसके आगमन की भविष्यवाणी की गयी थी। और फ़िर पतरस—प्रभु के साथ अपने समय के दौरान, उसने देखा कि प्रभु यीशु के वचन और उसके द्वारा किये गए कार्य ऐसी चीज़ें नहीं हैं जो कि कोई आम मनुष्य बोल या कर सके। प्रभु के वचनों और कार्य से, उसे पता चला कि प्रभु यीशु ही मसीह यानी परमेश्वर का पुत्र था। फिर नतनएल, यूहन्ना, अन्द्रियास और अन्य लोग भी थे जिन्होंने प्रभु यीशु के वचनों में परमेश्वर की वाणी सुनी थी। उन्होंने इस बात का पक्का एहसास हुआ कि प्रभु यीशु ही परमेश्वर था, और उन्होंने उसका अनुसरण करने के लिए सब कुछ त्याग दिया। केवल यही लोग बुद्धिमान कुंवारियाँ हैं।

ऊपर दिये गए तथ्य यह स्पष्ट करते हैं कि वे सभी लोग जो धर्मग्रंथों को पढ़ते हैं, सभाओं में जाते हैं, पूरी लगन से प्रभु का कार्य करते हैं, और श्रद्धापूर्वक उसका इंतज़ार करते हैं, ज़रूरी नहीं कि वे बुद्धिमान कुंवारियाँ हों। इन सबसे बढ़कर, बुद्धिमान कुंवारियाँ वे हैं जो परमेश्वर की वाणी पर ध्यान देती हैं, और जब वे दूसरों को परमेश्वर के सुसमाचार का प्रसार करते हुए सुनती हैं, तो अपनी धारणाओं और कल्पनाओं का त्याग करने में सक्षम होती हैं और विनम्र, खोजी हृदय से परमेश्वर के कार्य की जाँच करती हैं। आख़िरकार, वे परमेश्वर की प्रबुद्धता प्राप्त करती हैं, परमेश्वर की वाणी को पहचानती हैं, और प्रभु का स्वागत करती हैं। वे लोग जो परमेश्वर की वाणी को सुनने पर ध्यान नहीं देते, जो सत्य व्यक्त किये जाने की बात सुनकर भी उसकी तलाश नहीं करते, जिनके पास विवेक की कमी होती है, जो सिर्फ़ धर्मग्रंथों के शाब्दिक अर्थों से चिपके रहते हैं, और जो यह मानते हैं कि वे कड़ी मेहनत करके, खुद को खपाकर और चढ़ावा देकर, परमेश्वर के प्रकटन का स्वागत करने में सक्षम होंगे—वे सभी मूर्ख कुंवारियाँ हैं, और आख़िरकार वे परमेश्वर के उद्धार और अनुग्रह का अवसर गँवा देंगे।

मूर्ख कुंवारियाँ बनने से बचने के लिए और आपदाओं के बीच परमेश्वर द्वारा त्यागे जाने और हटाये जाने से बचने के लिए, प्रभु के आगमन का स्वागत करने के इस महत्वपूर्ण क्षण में, हमें बुद्धिमान कुंवारियाँ बनना चाहिए और परमेश्वर की वाणी सुनने और उसकी तलाश करने में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। प्रकाशितवाक्य की पुस्तक में लिखा है: "जिसके कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्या कहता है" (प्रकाशितवाक्य 2:7)। "देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूँ; यदि कोई मेरा शब्द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ" (प्रकाशितवाक्य 3:20)। इन भविष्यवाणियों से पता चलता है कि अंत के दिनों में जब प्रभु लौटेगा, तो वह वचन बोलेगा। फिर, हम परमेश्वर की वाणी को कैसे पहचान पायेंगे? आइये, अब हम कुछ और सिद्धांतों पर सहभागिता करते हैं।

1) परमेश्वर द्वारा व्यक्त किये गए कथनों में अधिकार और सामर्थ्य है, और ये परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं

जैसा कि हम सभी जानते हैं, ये वही कथन हैं जिनका इस्तेमाल परमेश्वर ने दुनिया बनाने की शुरुआत में किया था। परमेश्वर के कथनों में अधिकार और सामर्थ्य है; जैसे ही परमेश्वर के किसी कथन को बोला जाता है, वह हकीक़त बन जाता है। यह वैसा ही है जैसा कि परमेश्वर ने उत्पत्ति की पुस्तक में कहा था: "'उजियाला हो,' तो उजियाला हो गया" (उत्पत्ति 1:3)। "'आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे,' और वैसा ही हो गया" (उत्पत्ति 1:9)। यहोवा ने मूसा से कहा "इस्राएलियों की सारी मण्डली से कह कि तुम पवित्र बने रहो; क्योंकि मैं तुम्हारा परमेश्‍वर यहोवा पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 19:2)। प्रभु यीशु के ऐसे वचन भी हैं जिन्होंने फरीसियों को उजागर किया: "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो" (मत्ती 23:13)

एक बार जब हम परमेश्वर के वचनों को सुन लेते हैं, तो हम यह जान जाते हैं कि कोई साधारण मनुष्य इन्हें नहीं बोल सकता। परमेश्वर के वचन सभी चीज़ों को आज्ञा दे सकते हैं; वे उसके वचनों से ही बनते हैं और पूरा किये जाते होते हैं। परमेश्वर का विरोध और निंदा करने वाले सभी लोग उसके वचनों द्वारा ही शापित भी किये जा सकते हैं। उन्हें सुनना हमारे लिए विस्मयकारी है और हम यह महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव किसी भी मनुष्य द्वारा किये गए अपमान को सहन नहीं करता है, परमेश्वर के वचन पूरी तरह से उसके रुतबे और उसके अधिकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, और यह कि अंत के दिनों में हमें यह पहचानना चाहिए कि जो कुछ हम सुन रहे हैं, वह लौटकर आये प्रभु की वाणी है या नहीं। इसी प्रकार हम विवेक प्राप्त कर सकते हैं।

2) परमेश्वर के वचन रहस्यों को प्रकट करते हैं, और मानवजाति की भ्रष्टता और राज़ों को उजागर करते हैं

जैसा कि हम सभी जानते हैं, जब देहधारी प्रभु यीशु कार्य करने के लिये आया, तो उस दौरान उसने कई रहस्यों को प्रकट किया। उसने कहा, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17) और "जो मुझ से, 'हे प्रभु! हे प्रभु!' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है" (मत्ती 7:21)। प्रभु ने स्वर्ग के राज्य में प्रवेश से जुड़े रहस्यों को सिर्फ़ इसलिए प्रकट किया, ताकि हम यह जान सकें कि जो लोग सचमुच पश्चाताप करेंगे और स्वर्गिक पिता की इच्छा को पूरा करने वाले लोग बनेंगे, सिर्फ़ वही स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम हैं। यह ऐसी बात है जिसके बारे में हम कभी नहीं जान पाते, अगर प्रभु यीशु ने हमारे लिये इस रहस्य को प्रकट नहीं किया होता।

इसके अलावा, परमेश्वर वह परमेश्वर है जो लोगों के दिलों की गहराई की छानबीन करता है। परमेश्वर को हमारी पूरी समझ है; सिर्फ़ परमेश्वर ही हमारी भ्रष्टता को और हमारे दिलों में क्या है उसे प्रकट कर सकता है। उदाहरण के लिये, प्रभु यीशु ने अंजीर के पेड़ के नीचे नतनएल की बात की थी, जिससे नतनएल यह पहचान पाया कि प्रभु यीशु ही वह मसीहा है जिसके आने की भविष्यवाणी की गई थी। कर संग्राहक, मत्ती ने भी पहचान लिया कि प्रभु यीशु ही परमेश्वर था क्योंकि यीशु ने उसकी प्रार्थनाओं की बातें बोली थी। यहाँ हम देख सकते हैं कि परमेश्वर के वचन सिर्फ़ रहस्यों को ही प्रकट नहीं करते हैं, वे मानवजाति की भ्रष्टता और राज़ों को भी उजागर करते हैं; यह भी एक तरीका है जिससे हम पहचान सकते हैं कि कोई आवाज़ परमेश्वर की वाणी है या नहीं।

3) परमेश्वर के कथन जीवन आहार दे सकते हैं और लोगों को मार्ग प्रदान कर सकते हैं

प्रभु यीशु ने कहा था, "मार्ग और सत्य और जीवन मैं ही हूँ; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता" (यूहन्ना 14:6)। परमेश्वर स्वयं ही सत्य है; परमेश्वर लोगों की ज़रूरतों के अनुसार, किसी भी समय और किसी भी जगह पर मानवजाति के पोषण के लिए सत्य को व्यक्त करने में सक्षम है। व्यवस्था के युग के दौरान, मानवजाति को जीने का तरीका और परमेश्वर की आराधना करने का तरीका नहीं पता था, इसलिए परमेश्वर ने मूसा के ज़रिये व्यवस्थाओं का प्रचार किया, ताकि लोगों के जीवन की अगुवाई कर सके। बिलकुल वैसे ही जैसे कि दस आज्ञाओं में बताया गया है: "तेरा परमेश्‍वर यहोवा, जो तुझे दासत्व के घर अर्थात् मिस्र देश में से निकाल लाया है, वह मैं हूँ। मुझे छोड़ दूसरों को परमेश्‍वर करके न मानना" (व्यवस्थाविवरण 5:6-7)। "तू हत्या न करना। तू व्यभिचार न करना। ... तू किसी के विरुद्ध झूठी साक्षी न देना। तू न किसी की पत्नी का लालच करना ..." (व्यवस्थाविवरण 5:17-21)। परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, उस समय के लोगों को पता चला कि उन्हें कैसे जीवन जीना चाहिए और कैसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए। फ़िर, जब प्रभु यीशु कार्य करने और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का प्रसार करने आया, तो वह लोगों को सिखाने लगा कि उन्हें अपने पापों को कबूल करके पश्चाताप करना चाहिए, उन्हें सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए, उन्हें दूसरों से उसी प्रकार स्नेह रखना चाहिए जैसा कि वो खुद से रखते हैं, उन्हें पृथ्वी पर नमक और प्रकाश की तरह होना चाहिये जिसके बिना काम नहीं चल सकता, आदि आदि। बिलकुल वैसे ही जैसे कि पतरस ने प्रभु यीशु से यह सवाल पूछा था, "हे प्रभु, यदि मेरा भाई अपराध करता रहे, तो मैं कितनी बार उसे क्षमा करूँ? क्या सात बार तक?" (मत्ती 18:21), यीशु ने पतरस को स्पष्ट रूप से बताया, "मैं तुझ से यह नहीं कहता कि सात बार तक वरन् सात बार के सत्तर गुने तक" (मत्ती 18:22)। प्रभु के इन वचनों को सुनने के बाद, पतरस समझ गया कि क्षमा वह चीज है जिसका हमें पालन करना चाहिए; यह किसी शर्त पर या कुछ निश्चित मौकों तक सीमित नहीं होना चाहिए। तब पतरस को अभ्यास का एक मार्ग मिल गया।

इस प्रकार, अगर कोई अब आकर हमें यह खुशखबरी देता है कि प्रभु लौट आया है और हमारे सामने यही गवाही देता है कि पवित्र आत्मा कलीसियाओं से बात कर रहा है, तो हम इसे सुनकर यह आकलन कर सकते हैं कि क्या यह मार्ग हमें हमारी वर्तमान जरूरतों के लिए पोषण प्रदान कर सकता है या नहीं। हम सभी अब पाप करने और फिर उन्हें कबूल करने की स्थिति में जी हैं, जिससे हम खुद को निकाल नहीं सकते। अगर उनके द्वारा साझा किये गए वचन हमें पाप से मुक्त करने और शुद्धता प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं, तो इसका मतलब है कि प्रभु यीशु लौट आया है। हम इस एक सिद्धांत के आधार पर परमेश्वर की वाणी को पहचान सकते हैं।

क्या इस सहभागिता से तुम्हें एक बुद्धिमान कुंवारी बनने और प्रभु का स्वागत करने का मार्ग मिलता है? मुझे उम्मीद है कि अगर यह तुम्हारे लिए मददगार रही हो, तो तुम इसे अन्य लोगों के साथ साझा करोगे। मेरी इच्छा यह है कि हम सभी बुद्धिमान कुंवारियाँ बन सकें, अपने दिलों को प्रभु की वाणी तलाशने और उसे ध्यान से सुनने में लगा सकें। इस तरह, हम जल्द ही प्रभु के आगमन का स्वागत कर सकेंगे और उसके साथ दावत में हिस्सा ले सकेंगे!

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