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परमेश्वर के दैनिक वचन : परमेश्वर को जानना | अंश 19

253 15/06/2020

परमेश्वर जिन्हें स्वीकार नहीं करता

कुछ लोगों के विश्वास को परमेश्वर के हृदय ने कभी स्वीकार नहीं किया है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर यह नहीं मानता कि ये लोग उसके अनुयायी हैं, क्योंकि परमेश्वर उनके विश्वास की प्रशंसा नहीं करता। क्योंकि ये लोग, भले ही कितने ही वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करते रहे हों, लेकिन इनकी सोच और इनके विचार कभी नहीं बदले हैं; वे अविश्वासियों के समान हैं, अविश्वासियों के सिद्धांतों और कार्य करने के तौर-तरीकों, और ज़िन्दा रहने के उनके नियमों एवं विश्वास के मुताबिक चलते हैं। उन्होंने परमेश्वर के वचन को कभी अपना जीवन नहीं माना, कभी नहीं माना कि परमेश्वर का वचन सत्य है, कभी परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया, और परमेश्वर को कभी अपना परमेश्वर नहीं माना। वे परमेश्वर में विश्वास करने को एक किस्म का शगल मानते हैं, परमेश्वर को महज एक आध्यात्मिक सहारा समझते हैं, इसलिए वे नहीं मानते कि परमेश्वर का स्वभाव, या उसका सार इस लायक है कि उसे समझने की कोशिश की जाए। कहा जा सकता है कि वह सब जो सच्चे परमेश्वर से संबद्ध है उसका इन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है; उनकी कोई रुचि नहीं है, और न ही वे ध्यान देने की परवाह करते हैं। क्योंकि उनके हृदय की गहराई में एक तीव्र आवाज़ है जो हमेशा उनसे कहती है : "परमेश्वर अदृश्य एवं अस्पर्शनीय है, उसका कोई अस्तित्व नहीं है।" वे मानते हैं कि इस प्रकार के परमेश्वर को समझने की कोशिश करना उनके प्रयासों के लायक नहीं है; ऐसा करना अपने आपको मूर्ख बनाना होगा। वे मानते हैं कि कोई वास्तविक कदम उठाए बिना अथवा किसी भी वास्तविक कार्यकलाप में स्वयं को लगाए बिना, सिर्फ शब्दों में परमेश्वर को स्वीकार करके, वे बहुत चालाक बन रहे हैं। परमेश्वर इन लोगों को किस दृष्टि से देखता है? वह उन्हें अविश्वासियों के रूप में देखता है। कुछ लोग पूछते हैं : "क्या अविश्वासी लोग परमेश्वर के वचन को पढ़ सकते हैं? क्या वे अपना कर्तव्य निभा सकते हैं? क्या वे ये शब्द कह सकते हैं : 'मैं परमेश्वर के लिए जिऊँगा'?" लोग प्रायः जो देखते हैं वह लोगों का सतही प्रदर्शन होता है; वे लोगों का सार नहीं देखते। लेकिन परमेश्वर इन सतही प्रदर्शनों को नहीं देखता; वह केवल उनके भीतरी सार को देखता है। इसलिए, इन लोगों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति और परिभाषा ऐसी है। ये लोग कहते हैं : "परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? परमेश्वर वैसा क्यों करता है? मैं ये नहीं समझ पाता; मैं वो नहीं समझ पाता; यह मनुष्य की अवधारणाओं के अनुरूप नहीं है; तुम मुझे यह बात अवश्य समझाओ...।" इसके उत्तर में मैं पूछता हूँ : क्या तुम्हें यह मामला समझाना सचमुच आवश्यक है? क्या इस मामले का तुमसे वास्तव में कुछ लेना-देना है? तुम कौन हो इस बारे में क्या सोचते हो? तुम कहाँ से आए हो? क्या तुम परमेश्वर को ये संकेत देने योग्य हो? क्या तुम उसमें विश्वास करते हो? क्या वह तुम्हारे विश्वास को स्वीकार करता है? चूँकि तुम्हारे विश्वास का परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, तो उसके कार्य का तुमसे क्या सरोकार है? तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के हृदय में तुम कहाँ ठहरते हो, तो तुम परमेश्वर से संवाद करने योग्य कैसे हो सकते हो?

चेतावनी के शब्द

क्या तुम लोग इन टिप्पणियों को सुनने के बाद असहज नहीं हो? हो सकता है कि तुम लोग इन वचनों को सुनना नहीं चाहते, या उन्हें स्वीकार करना नहीं चाहते, फिर भी वे सब तथ्य हैं। क्योंकि कार्य का यह चरण परमेश्वर के करने के लिए है, यदि परमेश्वर के इरादों से तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, परमेश्वर की प्रवृत्ति की तुम्हें कोई परवाह नहीं है, और तुम परमेश्वर के सार और स्वभाव को नहीं समझते हो, तो अंत में तुम्हारा ही विनाश होगा। मेरे शब्द सुनने में कठोर लगें तो उन्हें दोष मत देना, यदि तुम्हारा उत्साह ठंडा पड़ जाए तो उन्हें दोष मत देना। मैं सत्य बोलता हूँ; मेरा अभिप्राय तुम लोगों को हतोत्साहित करना नहीं है। चाहे मैं तुमसे कुछ भी माँगूं, और चाहे इसे कैसे भी करने की तुमसे अपेक्षा की जाए, मैं चाहता हूँ कि तुम लोग सही पथ पर चलो, और परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करो और सही पथ से कभी विचलित न हो। यदि तुम परमेश्वर के वचन के अनुसार आगे नहीं बढ़ोगे, और उसके मार्ग का अनुसरण नहीं करोगे, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह कर रहे हो और सही पथ से भटक चुके हो। इसलिए मुझे लगता है कि कुछ ऐसे मामले हैं जो मुझे तुम लोगों के लिए स्पष्ट कर देने चाहिए, और मुझे तुम लोगों को साफ-साफ, और पूरी निश्चितता के साथ विश्वास करवा देना चाहिए, और परमेश्वर की प्रवृत्ति, परमेश्वर के इरादों, किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण करता है, और वह किस तरीके से मनुष्य के परिणाम को तय करता है, इसे स्पष्ट रूप से जानने में तुम लोगों की सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा दिन आता है जब तुम इस मार्ग पर नहीं चल पाते हो, तो मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, क्योंकि ये बातें तुम्हें पहले ही साफ-साफ बता दी गयी हैं। जहाँ तक यह बात है कि तुम अपने परिणाम से कैसे निपटोगे—तो यह मामला पूरी तरह से तुम पर है। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों के बारे में परमेश्वर की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं। मनुष्य को तौलने के उसके अपने तरीके हैं, और उनसे अपेक्षाओं का उसका अपना मानक है। लोगों के परिणामों को तौलने का उसका मानक ऐसा है जो हर एक के लिए निष्पक्ष है—इसमें कोई संदेह नहीं! इसलिए, कुछ लोगों का भय अनावश्यक है। क्या अब तुम लोगों को तसल्ली मिल गयी?

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

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