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हमें उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पुष्टि कैसे करनी चाहिए जो वास्तव में लौटे हुए प्रभु यीशु हैं?

प्रश्न 30: तुम यह गवाही देते हो कि प्रभु यीशु पहले से ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में लौट चुका है, वह उस संपूर्ण सत्य को अभिव्यक्त करता है जो मानवता को शुद्ध बनाता और उसे बचाता है और वह परमेश्वर के परिवार से शुरू होने वाले न्याय के कार्य को करता है, तो हमें परमेश्वर की आवाज़ को कैसे पहचाननी चाहिए और हमें कैसे इस बात की पुष्टि करनी चाहिए कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर वास्तव में लौटा हुआ प्रभु यीशु ही है?

प्रभु की भेड़ें उनकी आवाज़ सुनती हैं।

उत्तर:

यह प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने और परमेश्वर के प्रकटन को देखने के लिए, हमें यह जानना होगा कि परमेश्वर की आवाज की पहचान कैसे की जाए। वास्तव में, परमेश्वर की आवाज पहचानने का अर्थ है परमेश्वर के वचनों और कथनों को पहचानना, और सृष्टिकर्ता के वचनों की विशेषताओं को पहचानना। चाहे वे देहधारी परमेश्वर के वचन हों, या परमात्मा के कथन हों, वे सभी ऊपर आकाश से परमेश्वर द्वारा मानवजाति को कहे गए वचन हैं। परमेश्वर के वचनों का सुर एवं विशेषता कुछ ऐसी ही होती है। यहां, परमेश्वर के अधिकार एवं पहचान स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। कहा जा सकता है कि यह ऐसा अद्वितीय माध्यम है जिसके द्वारा सृष्टिकर्ता बोलते हैं। परमेश्वर जब भी देहधारी होते हैं, हर बार उनके कथन निश्चित रूप से बहुत से क्षेत्रों को शामिल करते हैं। उनका संबंध मुख्य रूप से परमेश्वर की अपेक्षाओं और मनुष्यों के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों, परमेश्वर के वचनों की प्रशासनिक आज्ञाओं एवं आदेशों से, न्याय एवं ताड़ना के उनके वचनों, तथा उनके द्वारा भ्रष्ट मानवजाति के प्रकटन से होता है। इसी तरह भविष्यवाणियों के कथन और मानवजाति से किए गए परमेश्वर के वादे आदि भी हैं। ये सभी वचन सत्य, मार्ग और जीवन की अभिव्यक्ति हैं। वे सभी परमेश्वर के जीवन के सार का प्रकटन हैं। वे परमेश्वर के स्वभाव एवं परमेश्वर के अस्तित्व और वह जो है, उसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और इसलिए, हम परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचनों से यह देख पाते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, और उनमें अधिकार एवं सामर्थ्य है। इसलिए, यदि आप यह तय करना चाहते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन, परमेश्वर के वचन हैं या नहीं, तो आप प्रभु यीशु के वचनों एवं सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों पर नज़र डाल सकते हैं। आप उनकी तुलना कर सकते हैं, और देख सकते हैं कि वे एक आत्मा द्वारा व्यक्त वचन हैं या नहीं, और वे परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य हैं या नहीं। यदि उनका स्रोत समान है, तो इससे सिद्ध होता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के कथन हैं, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही परमेश्वर का प्रकटन हैं। आइए, व्यवस्था के युग में यहोवा, और अनुग्रह के युग में यीशु द्वारा कहे गए वचनों पर नज़र डालते हैं। वे दोनों ही पवित्र आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति थे, तथा एक परमेश्वर के कार्य थे। इससे सिद्ध होता है कि प्रभु यीशु, यहोवा का प्रकटन थे, अर्थात सृष्टिकर्ता का प्रकटन थे। जिन्होंने बाइबल पढ़ी है वे सभी जानते हैं कि अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त वचनों में, मनुष्य के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों के वचन, मनुष्यों से परमेश्वर की अपेक्षाओं के वचन, तथा परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं से संबंधित वचन शामिल थे। इसी तरह, कई भविष्यवाणियों और वादों आदि के वचन भी थे। ये अनुग्रह के युग में परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य का एक पूरा चरण थे।

प्रभु की भेड़ें उनकी आवाज़ सुनती हैं। जब बात यह हो कि विशेष रूप से परमेश्वर की आवाज़ की पहचान कैसे की जाती है, तो यदि हम प्रभु यीशु के वचनों पर एक नज़र डाल लें तो सब कुछ साफ हो जाएगा। सबसे पहले, हम प्रभु यीशु की मनुष्यों से अपेक्षाओं एवं भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों को देखेंगे। उदाहरण के लिए, प्रभु यीशु ने कहा था, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17)। "तू परमेश्‍वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएँ सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्‍ताओं का आधार हैं" (मत्ती 22:37-40)। जिसमें प्रभु यीशु ने कहा था, "धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। ... धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्‍त किए जाएँगे" (मत्ती 5:3, 6)। "धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएँ और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। तब आनन्दित और मगन होना, क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है" (मत्ती 5:10-12)

आइए देखते हैं कि प्रभु यीशु ने प्रशासनिक आज्ञाओं के बारे में क्या कहा था। मत्ती 12:31-32, प्रभु यीशु ने कहा था, "इसलिये मैं तुम से कहता हूँ कि मनुष्य का सब प्रकार का पाप और निन्दा क्षमा की जाएगी, परन्तु पवित्र आत्मा की निन्दा क्षमा न की जाएगी। जो कोई मनुष्य के पुत्र के विरोध में कोई बात कहेगा, उसका यह अपराध क्षमा किया जाएगा, परन्तु जो कोई पवित्र आत्मा के विरोध में कुछ कहेगा, उसका अपराध न तो इस लोक में और न परलोक में क्षमा किया जाएगा।" साथ ही, मत्ती 5:22 में प्रभु यीशु ने कहा था: "परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा, और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहे 'अरे मूर्ख' वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा।"

प्रशासनिक आज्ञाओं के इन वचनों के अतिरिक्त, प्रभु यीशु के, फरीसियों का आकलन करने वाले एवं उन्हें उजागर करने वाले वचन भी हैं। प्रभु यीशु ने कहा था, "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो स्वयं ही उसमें प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो" (मत्ती 23:13)। "हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो, तुम पर हाय! तुम एक जन को अपने मत में लाने के लिये सारे जल और थल में फिरते हो, और जब वह मत में आ जाता है तो उसे अपने से दूना नारकीय बना देते हो" (मत्ती 23:15)

प्रभु यीशु ने भविष्यवाणियां एवं मनुष्यों से वादे भी किये थे। कृपया यूहन्ना 14:2-3 पृष्ठ खोलें। प्रभु यीशु ने कहा था, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो।" इसके अलावा यूहन्ना 12:47-48 भी है, जिसमें प्रभु यीशु ने कहा था, "यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा।" इसी प्रकार प्रकाशितवाक्य 21:3-4 भी है: "देख, परमेश्‍वर का डेरा मनुष्यों के बीच में है। वह उनके साथ डेरा करेगा, और वे उसके लोग होंगे, और परमेश्‍वर आप उनके साथ रहेगा और उनका परमेश्‍वर होगा। वह उनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा; और इसके बाद मृत्यु न रहेगी, और न शोक, न विलाप, न पीड़ा रहेगी; पहली बातें जाती रहीं।"

हमें उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पुष्टि कैसे करनी चाहिए जो वास्तव में लौटे हुए प्रभु यीशु हैं?

अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त विभिन्न सत्यों से, हम यह देख सकते हैं कि प्रभु यीशु ही उद्धारकर्ता का प्रकटन थे, और प्रभु यीशु के वचन, पूरी मानवजाति से कहे गए परमेश्वर के कथन हैं। उन्होंने सीधे तौर पर प्रभु के स्वभाव और मानवजाति के लिए उनकी इच्छा, मानवजाति का नेतृत्व करने, मानवजाति को भरण-पोषण देने, और मानवजाति को व्यक्तिगत रूप से मुक्ति देने की बातें कहीं। यह आदर्श रूप से स्वयं परमेश्वर की पहचान एवं अधिकार को दर्शाता है। उन्हें पढ़ने से तुरंत ही हमें एहसास होता है कि ये शब्द सत्य हैं, तथा इनमें अधिकार एवं सामर्थ्य है। ये वचन, परमेश्वर की आवाज हैं, मानवजाति से कहे गए परमेश्वर के कथन हैं। अंत के दिनों में, प्रभु यीशु लौट आए हैं: सर्वशक्तिमान परमेश्वर अंत के दिनों का न्याय का कार्य करने के लिए लौट आए हैं। उन्होंने राज्य के युग का सूत्रपात किया है और अनुग्रह के युग का अंत कर दिया है। प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य के आधार पर, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने परमेश्वर के घर से आरंभ करते हुए न्याय के कार्य का चरण पूरा कर दिया है, और मानवजाति के शुद्धिकरण तथा उद्धार के लिए सभी सत्य व्यक्त कर दिए हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन, विषय-वस्तु से समृद्ध और सविस्तार हैं। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "यह कहना उचित है कि दुनिया के सृजन के बाद यह पहली बार है कि परमेश्वर ने समस्त मानवजाति को संबोधित किया है। इससे पहले परमेश्वर ने कभी भी इतने विस्तार से और इतने व्यवस्थित तरीके से सृजित मानवजाति से बात नहीं की है। निस्संदेह, यह भी पहली बार ही है कि उसने इतनी अधिक और इतने लंबे समय तक समस्त मानवजाति से बात की है। यह अभूतपूर्व है। इसके अलावा, ये कथन मानवता के बीच परमेश्वर द्वारा व्यक्त किया गया पहला पाठ हैं जिसमें वह लोगों को उजागर करता है, उनका मार्गदर्शन करता, उनका न्याय करता, उनसे खुलकर बात करता है और वे ऐसे पहले कथन भी हैं जिनमें परमेश्वर अपने पदचिह्नों को, उस स्थान को जिसमें वह रहता है, परमेश्वर के स्वभाव को, परमेश्वर के स्वरूप को, परमेश्वर के विचारों को और मानवता के लिए अपनी चिंता से लोगों को रूबरू कराता है। यह कहा जा सकता है कि ये ही पहले कथन हैं जो परमेश्वर ने सृजन के बाद तीसरे स्वर्ग से मानवजाति के लिए बोले हैं और पहली बार ऐसा हुआ है कि परमेश्वर ने मानवजाति हेतु वचनों के बीच अपने हृदय की वाणी प्रकट करने और व्यक्त करने के लिए अपनी अंतर्निहित पहचान का उपयोग किया है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' की परिचय)। अब अंत के दिन चल रहे हैं, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त वचन बहुप्रकार के और अतुलनीय रूप से समृद्ध हैं। उनमें मुख्य रूप से न्याय, मनुष्यों को उजागर किया जाना, एवं राज्य के युग की प्रशासनिक आज्ञाएं एवं आदेश शामिल हैं, साथ-ही-साथ परमेश्वर की मनुष्यों के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियां, अपेक्षाएं, मनुष्यों से किए गए वादे, भविष्यवाणियां आदि भी निहित हैं। अब, चलिए सबसे पहले परमेश्वर की मनुष्य के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों एवं अपेक्षाओं तथा उनके कार्य के बारे में परमेश्वर के वचन के कई अंश पढ़ते हैं।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज जो लोग मेरे लिए वास्तविक प्रेम रखते हैं, ऐसे लोग धन्य हैं। धन्य हैं वे लोग जो मुझे समर्पित हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य में रहेंगे। धन्य हैं वे लोग जो मुझे जानते हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य में शक्ति प्राप्त करेंगे। धन्य हैं वे जो मुझे खोजते हैं, वे निश्चय ही शैतान के बंधनों से स्वतंत्र होंगे और मेरे आशीषों का आनन्द लेंगे। धन्य हैं वे लोग जो अपनी दैहिक-इच्छाओं को मेरे लिए त्यागते हैं, वे निश्चय ही मेरे राज्य में प्रवेश करेंगे और मेरे राज्य की प्रचुरता पाएंगे। जो लोग मेरी खातिर दौड़-भाग करते हैं उन्हें मैं याद रखूंगा, जो लोग मेरे लिए व्यय करते हैं, मैं उन्हें आनन्द से गले लगाऊंगा, और जो लोग मुझे भेंट देते हैं, मैं उन्हें आनन्द दूंगा। जो लोग मेरे वचनों में आनन्द प्राप्त करते हैं, उन्हें मैं आशीष दूंगा; वे निश्चय ही ऐसे खम्भे होंगे जो मेरे राज्य में शहतीर को थामेंगे, वे निश्चय ही मेरे घर में अतुलनीय प्रचुरता को प्राप्त करेंगे और उनके साथ कोई तुलना नहीं कर पाएगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 19')

"यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया, फिर भी उसने केवल समस्त मानवजाति की मुक्ति का कार्य पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना; उसने मनुष्य को उसके समस्त भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। मनुष्य को शैतान के प्रभाव से पूरी तरह से बचाने के लिए यीशु को न केवल पाप-बलि बनने और मनुष्य के पाप वहन करने की आवश्यकता थी, बल्कि मनुष्य को उसके शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए स्वभाव से मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़ा कार्य करने की आवश्यकता थी। और इसलिए, अब जबकि मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिया गया है, परमेश्वर मनुष्य को नए युग में ले जाने के लिए वापस देह में लौट आया है, और उसने ताड़ना एवं न्याय का कार्य आरंभ कर दिया है। यह कार्य मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में ले गया है। वे सब, जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे, उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़े आशीष प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे और सत्य, मार्ग और जीवन प्राप्त करेंगे।

"यदि लोग अनुग्रह के युग में अटके रहेंगे, तो वे कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं पाएँगे, परमेश्वर के अंर्तनिहित स्वभाव को जानने की बात तो दूर! यदि लोग सदैव अनुग्रह की प्रचुरता में रहते हैं, परंतु उनके पास जीवन का वह मार्ग नहीं है, जो उन्हें परमेश्वर को जानने और उसे संतुष्ट करने का अवसर देता है, तो वे उसमें अपने विश्वास से उसे वास्तव में कभी भी प्राप्त नहीं करेंगे। इस प्रकार का विश्वास वास्तव में दयनीय है" ("वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना')

"मनुष्य को छुटकारा दिए जाने से पहले शैतान के बहुत-से ज़हर उसमें पहले ही डाल दिए गए थे, और हज़ारों वर्षों तक शैतान द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद मनुष्य के भीतर ऐसा स्थापित स्वभाव है, जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिलाया गया है, तो यह छुटकारे के उस मामले से बढ़कर कुछ नहीं है, जिसमें मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, किंतु उसके भीतर की विषैली प्रकृति समाप्त नहीं की गई है। मनुष्य को, जो कि इतना अशुद्ध है, परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से मनुष्य अपने भीतर के गंदे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने के योग्य हो सकता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'देहधारण का रहस्य (4)')

"कोई भी सक्रिय रूप से परमेश्वर के पदचिह्नों और उसके प्रकटन को नहीं खोजता और कोई भी परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रहने के लिए तैयार नहीं है। इसके बजाय, वे इस दुनिया के और दुष्ट मानवजाति द्वारा अनुसरण किए जाने वाले अस्तित्व के नियमों के अनुकूल होने के लिए, उस दुष्ट शैतान द्वारा किए जाने वाले क्षरण पर भरोसा करना चाहते हैं। इस बिंदु पर, मनुष्य का हृदय और आत्मा शैतान के लिए आभार व्यक्त करते उपहार और उसका भोजन बन गए हैं। इससे भी अधिक, मानव हृदय और आत्मा एक ऐसा स्थान बन गए हैं, जिसमें शैतान निवास कर सकता है, और वे शैतान के खेल का उपयुक्त मैदान बन गए हैं। इस तरह, मनुष्य अनजाने में मानव होने के सिद्धांतों और मानव-अस्तित्व के मूल्य और अर्थ के बारे में अपनी समझ को खो देता है। परमेश्वर की व्यवस्थाएँ और परमेश्वर और मनुष्य के बीच का प्रतिज्ञा-पत्र धीरे-धीरे मनुष्य के हृदय में धुँधला होता जाता है, और वह परमेश्वर की तलाश करना या उस पर ध्यान देना बंद कर देता है। समय बीतने के साथ मनुष्य अब यह नहीं समझता कि परमेश्वर ने उसे क्यों बनाया है, न ही वह उन वचनों को जो परमेश्वर के मुख से आते हैं और न उस सबको समझता है, जो परमेश्वर से आता है। मनुष्य फिर परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आदेशों का विरोध करने लगता है, और उसका हृदय और आत्मा शिथिल हो जाते हैं...। परमेश्वर उस मनुष्य को खो देता है, जिसे उसने मूल रूप से बनाया था, और मनुष्य अपनी शुरुआत का मूल खो देता है : यही इस मानव-जाति की त्रासदी है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है')

"आज मानवजाति जहाँ है, वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे इतिहास के दसियों हज़ार साल लग गए हैं, फिर भी, जिस मानवजाति की सृष्टि मैंने आरंभ में की थी वह बहुत पहले ही अधोगति में डूब गई है। जिस मनुष्य की मैंने कामना की थी अब मनुष्य वैसा नहीं रह गया है, और इस प्रकार मेरी नज़रों में, लोग अब मानवजाति कहलाने योग्य नहीं हैं। बल्कि वे मानवजाति के मैल हैं, जिन्हें शैतान ने बंदी बना लिया है, वे चलती-फिरती सड़ी हुई लाशें हैं जिनमें शैतान बसा हुआ है और जिनसे शैतान स्वयं को आवृत करता है। लोगों को मेरे अस्तित्व में थोड़ा सा भी विश्वास नहीं है, न ही वे मेरे आने का स्वागत करते हैं। मानवजाति बस मेरे अनुरोधों को अस्थायी रूप से स्वीकार करते हुए, केवल डाह के साथ उत्तर देती है, और जीवन के सुख-दुःख को मेरे साथ ईमानदारी से साझा नहीं करती है। चूँकि लोग मुझे अगम्य के रूप में देखते हैं, इसलिए वे मुझे ईर्ष्या से सनी मुस्कुराहट देते हैं, उनका रवैया किसी शक्तिवान का अनुग्रह प्राप्त करने का होता है, क्योंकि लोगों को मेरे कार्य के बारे में ज्ञान नहीं है, वर्तमान में मेरी इच्छा को तो वे बिल्कुल भी नहीं जानते हैं। मैं तुम लोगों को अपनी असल सोच बताता हूँ : जब वह दिन आयेगा, तो हर वह व्यक्ति जो मेरी आराधना करता है, उसका दुःख तुम लोगों के दुःख की अपेक्षा सहने में ज़्यादा आसान होगा। मुझमें तुम्हारे विश्वास की मात्रा, वास्तव में, अय्यूब के विश्वास से अधिक नहीं है—यहाँ तक कि यहूदी फरीसियों का विश्वास भी तुम लोगों से बढ़कर है—और इसलिए, यदि आग का दिन उतरेगा, तो तुम लोगों के दुःख उन फरीसियों के दुःखों की अपेक्षा अधिक गंभीर होंगे जिन्हें यीशु ने फटकार लगाईं थी, उन 250 अगुवाओं के दुःखों की अपेक्षा अधिक गंभीर होंगे जिन्होंने मूसा का विरोध किया था, और ये विनाशकरी, जलाने वाली आग की लपटों के तले सदोम के दुःखों की अपेक्षा भी अधिक गंभीर होंगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'एक वास्तविक व्यक्ति होने का क्या अर्थ है')

"मानवता ने शैतान से भ्रष्ट होने के बाद परमेश्वर के प्राणियों के साथ-साथ अपने धर्मभीरु हृदय भी गँवा दिए, जिससे वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण और अवज्ञाकारी हो गया। तब मानवता शैतान के अधिकार क्षेत्र में रही और शैतान के आदेशों का पालन किया; इस प्रकार, अपने प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई तरीक़ा नहीं था और वह अपने प्राणियों से भयपूर्ण श्रद्धा पाने में असमर्थ हो गया। मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया था और उन्हें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, पर उन्होंने वास्तव में परमेश्वर से मुँह मोड़ लिया और इसके बजाय शैतान की आराधना करने लगे। शैतान उनके दिलों में बस गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मानवता के सृजन के पीछे का अर्थ खो दिया। इसलिए मानवता के सृजन के अपने अर्थ को बहाल करने के लिए उसे उनकी मूल समानता को बहाल करना होगा और मानवता को उसके भ्रष्ट स्वभाव से मुक्ति दिलानी होगी। शैतान से मनुष्यों को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे उन्हें पाप से बचाना होगा। केवल इसी तरह परमेश्वर धीरे-धीरे उनकी मूल समानता और भूमिका को बहाल कर सकता है और अंत में, अपने राज्य को बहाल कर सकता है। अवज्ञा करने वाले उन पुत्रों का अंतिम तौर पर विनाश भी क्रियान्वित किया जाएगा, ताकि मनुष्य बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना कर सकें और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से रह सकें। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; क्योंकि वह मानवता के मूल कार्य को बहाल करना चाहता है, वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के बहाल करेगा। अपना अधिकार बहाल करने का अर्थ है, मनुष्यों से अपनी आराधना कराना और समर्पण कराना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्यों को जीवित रखेगा और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं के विनाश करेगा। इसका अर्थ है कि परमेश्वर किसी प्रतिरोध के बिना, मनुष्यों के बीच उस सब को बनाए रखेगा जो उसके बारे में है। जो राज्य परमेश्वर स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। वह जिस मानवता की आकांक्षा रखता है, वह है, जो उसकी आराधना करेगी, जो उसे पूरी तरह समर्पण करेगी और उसकी महिमा का प्रदर्शन करेगी। यदि परमेश्वर भ्रष्ट मानवता को नहीं बचाता, तो उसके द्वारा मानवता के सृजन का अर्थ खत्म हो जाएगा; उसका मनुष्यों के बीच अब और अधिकार नहीं रहेगा और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि परमेश्वर उन शत्रुओं का नाश नहीं करता, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा, वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना भी नहीं कर पाएगा। ये उसका कार्य पूरा होने और उसकी महान उपलब्धि के प्रतीक होंगे : मानवता में से उन सबको पूरी तरह नष्ट करना, जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं और जो पूर्ण किए जा चुके हैं, उन्हें विश्राम में लाना" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे')

"तुम सिर्फ यह जानते हो कि यीशु अंत के दिनों में उतरेगा, परन्तु वास्तव में वह कैसे उतरेगा? तुम लोगों जैसा पापी, जिसे परमेश्वर के द्वारा अभी-अभी छुड़ाया गया है, और जो परिवर्तित नहीं किया गया है, या सिद्ध नहीं बनाया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो कि अभी भी पुराने अहम् वाले हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और कि परमेश्वर द्वारा उद्धार की वजह से तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुम्हें बदला नहीं गया तो तुम संत जैसे कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता से घिरे हुए हो, स्वार्थी और कुटिल हो, मगर तब भी तुम यीशु के साथ अवतरण चाहते हो—क्या तुम इतने भाग्यशाली हो सकते हो? तुम परमेश्वर पर अपने विश्वास में एक कदम चूक गए हो: तुम्हें मात्र छुटकारा दिया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें परिवर्तित और शुद्ध करने का कार्य करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुटकारा दिया जाता है, तो तुम पवित्रता को प्राप्त करने में असमर्थ होंगे। इस तरह से तुम परमेश्वर के आशीषों में साझेदारी के अयोग्य होंगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंधन करने के परमेश्वर के कार्य के एक कदम का सुअवसर खो दिया है, जो कि परिवर्तित करने और सिद्ध बनाने का मुख्य कदम है। और इसलिए तुम, एक पापी जिसे अभी-अभी छुटकारा दिया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हो" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पदवियों और पहचान के सम्बन्ध में')

"तुम्हें जानना ही चाहिए कि मैं किस प्रकार के लोगों को चाहता हूँ; वे जो अशुद्ध हैं उन्हें राज्य में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, वे जो अशुद्ध हैं उन्हें पवित्र भूमि को मैला करने की अनुमति नहीं है। तुमने भले ही बहुत कार्य किया हो, और कई सालों तक कार्य किया हो, किंतु अंत में यदि तुम अब भी बुरी तरह मैले हो, तो यह स्वर्ग की व्यवस्था के लिए असहनीय होगा कि तुम मेरे राज्य में प्रवेश करना चाहते हो! संसार की स्थापना से लेकर आज तक, मैंने अपने राज्य में उन लोगों को कभी आसान प्रवेश नहीं दिया है जो अनुग्रह पाने के लिए मेरे साथ साँठ-गाँठ करते हैं। यह स्वर्गिक नियम है, और कोई इसे तोड़ नहीं सकता है! तुम्हें जीवन की खोज करनी ही चाहिए। आज, जिन्हें पूर्ण बनाया जाएगा वे उसी प्रकार के हैं जैसा पतरस था : ये वे लोग हैं जो स्वयं अपने स्वभाव में परिवर्तनों की तलाश करते हैं, और जो परमेश्वर के लिए गवाही देने, और परमेश्वर के सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक होते हैं। केवल ऐसे लोगों को ही पूर्ण बनाया जाएगा। यदि तुम केवल पुरस्कारों की प्रत्याशा करते हो, और स्वयं अपने जीवन स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं करते, तो तुम्हारे सारे प्रयास व्यर्थ होंगे—यह अटल सत्य है!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है')

राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य के संबंध में, आइए अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कई अंशों को पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है')

"परमेश्वर न्याय और ताड़ना का कार्य करता है ताकि मनुष्य परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त कर सके और उसकी गवाही दे सके। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव का परमेश्वर द्वारा न्याय के बिना, संभवतः मनुष्य अपने धार्मिक स्वभाव को नहीं जान सकता था, जो कोई अपराध नहीं करता और न वह परमेश्वर के अपने पुराने ज्ञान को एक नए रूप में बदल पाता। अपनी गवाही और अपने प्रबंधन के वास्ते, परमेश्वर अपनी संपूर्णता को सार्वजनिक करता है, इस प्रकार, अपने सार्वजनिक प्रकटन के ज़रिए, मनुष्य को परमेश्वर के ज्ञान तक पहुँचने, उसको स्वभाव में रूपांतरित होने और परमेश्वर की ज़बर्दस्त गवाही देने लायक बनाता है। मनुष्य के स्वभाव का रूपांतरण परमेश्वर के कई विभिन्न प्रकार के कार्यों के ज़रिए प्राप्त किया जाता है; अपने स्वभाव में ऐसे बदलावों के बिना, मनुष्य परमेश्वर की गवाही देने और उसके पास जाने लायक नहीं हो पाएगा। मनुष्य के स्वभाव में रूपांतरण दर्शाता है कि मनुष्य ने स्वयं को शैतान के बंधन और अंधकार के प्रभाव से मुक्त कर लिया है और वह वास्तव में परमेश्वर के कार्य का एक आदर्श, एक नमूना, परमेश्वर का गवाह और ऐसा व्यक्ति बन गया है, जो परमेश्वर के दिल के क़रीब है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'केवल परमेश्वर को जानने वाले ही परमेश्वर की गवाही दे सकते हैं')

"युग का समापन करने के अपने अंतिम कार्य में, परमेश्वर का स्वभाव ताड़ना और न्याय का है, जिसमें वह वो सब प्रकट करता है जो अधार्मिक है, ताकि वह सार्वजनिक रूप से सभी लोगों का न्याय कर सके और उन लोगों को पूर्ण बना सके, जो सच्चे दिल से उसे प्यार करते हैं। केवल इस तरह का स्वभाव ही युग का समापन कर सकता है। अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सृष्टि की सभी चीज़ें उनके प्रकार के अनुसार अलग की जाएँगी और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित की जाएँगी। यही वह क्षण है, जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को उजागर करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जा सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंग दिखाता है, जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरे को बुरे के साथ रखा जाएगा, भले को भले के साथ, और समस्त मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार अलग किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जाएगा, ताकि बुरे को दंडित किया जा सके और अच्छे को पुरस्कृत किया जा सके, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन हो जाएँ। यह समस्त कार्य धार्मिक ताड़ना और न्याय के माध्यम से पूरा करना होगा। चूँकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर हो गई है, इसलिए केवल परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय से संयुक्त है और अंत के दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपांतरित कर सकता है और उसे पूर्ण बना सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधार्मिकों को गंभीर रूप से दंडित कर सकता है। ... अंत के दिनों के दौरान, केवल धार्मिक न्याय ही मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार पृथक् कर सकता है और उन्हें एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धार्मिक स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)')

"क्या अब तुम समझ गए हो कि न्याय क्या है और सत्य क्या है? अगर तुम समझ गए हो, तो मैं तुम्हें न्याय किए जाने के लिए आज्ञाकारी ढंग से समर्पित होने की नसीहत देता हूँ, वरना तुम्हें कभी भी परमेश्वर द्वारा सराहे जाने या उसके द्वारा अपने राज्य में ले जाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। जो केवल न्याय को स्वीकार करते हैं लेकिन कभी शुद्ध नहीं किए जा सकते, अर्थात् जो न्याय के कार्य के बीच से ही भाग जाते हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर की घृणा के शिकार हो जाएँगे और नकार दिए जाएँगे। फरीसियों के पापों की तुलना में उनके पाप संख्या में बहुत अधिक और ज्यादा संगीन हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया है और वे परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। ऐसे लोग, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं, अधिक कठोर दंड प्राप्त करेंगे, जो चिरस्थायी भी होगा। परमेश्वर ऐसे किसी भी गद्दार को नहीं छोड़ेगा, जिसने एक बार तो वचनों से वफादारी दिखाई, मगर फिर परमेश्वर को धोखा दे दिया। ऐसे लोग आत्मा, प्राण और शरीर के दंड के माध्यम से प्रतिफल प्राप्त करेंगे। क्या यह हूबहू परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकटन नहीं है? क्या मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने में परमेश्वर का यह उद्देश्य नहीं है? परमेश्वर उन सभी को, जो न्याय के समय के दौरान सभी प्रकार के दुष्ट कर्म करते हैं, दुष्टात्माओं से आक्रांत स्थान पर भेजता है, और उन दुष्टात्माओं को इच्छानुसार उनके दैहिक शरीर नष्ट करने देता है, और उन लोगों के शरीरों से लाश की दुर्गंध निकलती है। ऐसा उनका उचित प्रतिशोध है। परमेश्वर उन निष्ठाहीन झूठे विश्वासियों, झूठे प्रेरितों और झूठे कार्यकर्ताओं का हर पाप उनकी अभिलेख-पुस्तकों में लिखता है; और फिर जब सही समय आता है, वह उन्हें गंदी आत्माओं के बीच में फेंक देता है, और उन अशुद्ध आत्माओं को इच्छानुसार उनके संपूर्ण शरीरों को दूषित करने देता है, ताकि वे कभी भी पुन: देहधारण न कर सकें और दोबारा कभी भी रोशनी न देख सकें। वे पाखंडी, जो किसी समय सेवा करते हैं, किंतु अंत तक वफ़ादार बने रहने में असमर्थ रहते हैं, परमेश्वर द्वारा दुष्टों में गिने जाते हैं, ताकि वे दुष्टों की सलाह पर चलें, और उनकी उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बन जाएँ; अंत में परमेश्वर उन्हें जड़ से मिटा देगा। परमेश्वर उन लोगों को अलग फेंक देता है और उन पर कोई ध्यान नहीं देता, जो कभी भी मसीह के प्रति वफादार नहीं रहे या जिन्होंने अपने सामर्थ्य का कुछ भी योगदान नहीं किया, और युग बदलने पर वह उन सभी को जड़ से मिटा देगा। वे अब और पृथ्वी पर मौजूद नहीं रहेंगे, परमेश्वर के राज्य का मार्ग तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं करेंगे। जो कभी भी परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहे, किंतु उसके साथ बेमन से व्यवहार करने के लिए परिस्थिति द्वारा मजबूर किए जाते हैं, वे परमेश्वर के लोगों की सेवा करने वालों में गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की एक छोटी-सी संख्या ही जीवित बचेगी, जबकि बड़ी संख्या उन लोगों के साथ नष्ट हो जाएगी, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं। अंतत: परमेश्वर उन सभी को, जिनका मन परमेश्वर के समान है, अपने लोगों और पुत्रों को, और परमेश्वर द्वारा याजक बनाए जाने के लिए पूर्वनियत लोगों को अपने राज्य में ले आएगा। वे परमेश्वर के कार्य के परिणाम होंगे। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है, जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी श्रेणी में नहीं आ सकते, वे अविश्वासियों में गिने जाएँगे—तुम लोग निश्चित रूप से कल्पना कर सकते हो कि उनका क्या परिणाम होगा। मैं तुम सभी लोगों से पहले ही वह कह चुका हूँ, जो मुझे कहना चाहिए; जो मार्ग तुम लोग चुनते हो, वह केवल तुम्हारी पसंद है। तुम लोगों को जो समझना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर का कार्य ऐसे किसी शख्स का इंतज़ार नहीं करता, जो उसके साथ कदमताल नहीं कर सकता, और परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी मनुष्य के प्रति कोई दया नहीं दिखाता" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है')

आइए राज्य के युग में सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा जारी प्रशासनिक आज्ञाओं का एक अंश पढ़ते हैं।

"दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए

1. मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए।

2. वह सब कुछ करो जो परमेश्वर के कार्य के लिए लाभदायक है और ऐसा कुछ भी न करो जो परमेश्वर के कार्य के हितों के लिए हानिकर हो। परमेश्वर के नाम, परमेश्वर की गवाही और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करो।

3. परमेश्वर के घर में धन, भौतिक पदार्थ और समस्त संपत्ति ऐसी भेंट हैं, जो मनुष्य द्वारा दी जानी चाहिए। इन भेंटों का आनंद याजक और परमेश्वर के अलावा अन्य कोई नहीं ले सकता, क्योंकि मनुष्य की भेंटें परमेश्वर के आनंद के लिए हैं। परमेश्वर इन भेंटों को केवल याजकों के साथ साझा करता है; और उनके किसी भी अंश का आनंद उठाने के लिए अन्य कोई योग्य और पात्र नहीं है। मनुष्य की समस्त भेंटें (धन और आनंद लिए जा सकने योग्य भौतिक चीज़ों सहित) परमेश्वर को दी जाती हैं, मनुष्य को नहीं और इसलिए, इन चीज़ों का मनुष्य द्वारा आनंद नहीं लिया जाना चाहिए; यदि मनुष्य उनका आनंद उठाता है, तो वह इन भेंटों को चुरा रहा होगा। जो कोई भी ऐसा करता है वह यहूदा है, क्योंकि, एक ग़द्दार होने के अलावा, यहूदा ने बिना इजाज़त थैली में रखा धन भी लिया था।

4. मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है और इसके अतिरिक्त, उसमें भावनाएँ हैं। इसलिए, परमेश्वर की सेवा के समय विपरीत लिंग के दो सदस्यों को अकेले एक साथ मिलकर काम करना पूरी तरह निषिद्ध है। जो भी ऐसा करते पाए जाते हैं, उन्हें बिना किसी अपवाद के निष्कासित कर दिया जाएगा।

5. परमेश्वर की आलोचना न करो और न परमेश्वर से संबंधित बातों पर यूँ ही चर्चा करो। वैसा करो, जैसा मनुष्य को करना चाहिए और वैसे बोलो जैसे मनुष्य को बोलना चाहिए, तुम्हें अपनी सीमाओं को पार नहीं करनी चाहिए और न अपनी सीमाओं का उल्लंघन करना चाहिए। अपनी ज़ुबान पर लगाम लगाओ और ध्यान दो कि कहाँ कदम रख रहे हो, ताकि परमेश्वर के स्वभाव का अपमान न कर बैठो।

6. वह करो जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए और अपने दायित्वों का पालन करो, अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करो और अपने कर्तव्य को धारण करो। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के कार्य में अपना योगदान देना चाहिए; यदि तुम नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के योग्य नहीं हो और परमेश्वर के घर में रहने के योग्य नहीं हो।

7. कलीसिया के कार्यों और मामलों में, परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अलावा, उस व्यक्ति के निर्देशों का पालन करो, जिसे पवित्र आत्मा हर चीज़ में उपयोग करता है। ज़रा-सा भी उल्लंघन अस्वीकार्य है। अपने अनुपालन में एकदम सही रहो और सही या ग़लत का विश्लेषण न करो; क्या सही या ग़लत है, इससे तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं। तुम्हें ख़ुद केवल संपूर्ण आज्ञाकारिता की चिंता करनी चाहिए।

8. जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। किसी व्यक्ति को ऊँचा न ठहराओ, न किसी पर श्रद्धा रखो; परमेश्वर को पहले, जिनका आदर करते हो उन्हें दूसरे और ख़ुद को तीसरे स्थान पर मत रखो। किसी भी व्यक्ति का तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं होना चाहिए और तुम्हें लोगों को—विशेषकर उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य या उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है।

9. अपने विचार कलीसिया के कार्य पर लगाए रखो। अपनी देह की इच्छाओं को एक तरफ़ रखो, पारिवारिक मामलों के बारे में निर्णायक रहो, स्वयं को पूरे हृदय से परमेश्वर के कार्य में समर्पित करो और परमेश्वर के कार्य को पहले और अपने जीवन को दूसरे स्थान पर रखो। यह एक संत की शालीनता है।

10. सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं रखते (तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे पति या पत्नी, तुम्हारी बहनें या तुम्हारे माता-पिता इत्यादि) उन्हें कलीसिया में आने को बाध्य नहीं करना चाहिए। परमेश्वर के घर में सदस्यों की कमी नहीं है और ऐसे लोगों से इसकी संख्या बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, जिनका कोई उपयोग नहीं है। वे सभी जो ख़ुशी-ख़ुशी विश्वास नहीं करते, उन्हें कलीसिया में बिल्कुल नहीं ले जाना चाहिए। यह आदेश सब लोगों पर निर्देशित है। इस मामले में तुम लोगों को एक दूसरे की जाँच, निगरानी करनी चाहिए और याद दिलाना चाहिए; कोई भी इसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यहाँ तक कि जब ऐसे सगे-संबंधी जो विश्वास नहीं करते, अनिच्छा से कलीसिया में प्रवेश करते हैं, उन्हें किताबें जारी नहीं की जानी चाहिए या नया नाम नहीं देना चाहिए; ऐसे लोग परमेश्वर के घर के नहीं हैं और कलीसिया में उनके प्रवेश पर जैसे भी ज़रूरी हो, रोक लगाई जानी चाहिए। यदि दुष्टात्माओं के आक्रमण के कारण कलीसिया पर समस्या आती है, तो तुम निर्वासित कर दिए जाओगे या तुम पर प्रतिबंध लगा दिये जाएँगे। संक्षेप में, इस मामले में हरेक का उत्तरदायित्व है, हालांकि तुम्हें असावधान नहीं होना चाहिए, न ही इसका इस्तेमाल निजी बदला लेने के लिए करना चाहिए" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए')

"मैं अपना प्रचण्ड रोष इसके राष्ट्रों के ऊपर पूरी ज़ोर से बरसाऊंगा, समूचे ब्रह्माण्ड में खुलेआम अपनी प्रशासनिक आज्ञाएँ लागू करूँगा, और जो कोई उनका उल्लंघन करेगा, उनको ताड़ना दूँगा:

"जैसे ही मैं बोलने के लिए ब्रह्माण्ड की तरफ अपना चेहरा घुमाता हूँ, सारी मानवजाति मेरी आवाज़ सुनती है, और उसके उपरांत उन सभी कार्यों को देखती है जिन्हें मैंने समूचे ब्रह्माण्ड में गढ़ा है। वे जो मेरी इच्छा के विरूद्ध खड़े होते हैं, अर्थात् जो मनुष्य के कर्मों से मेरा विरोध करते हैं, वे मेरी ताड़ना के अधीन आएँगे। मैं स्वर्ग के असंख्य तारों को लूँगा और उन्हें फिर से नया कर दूँगा, और, मेरी बदौलत, सूर्य और चन्द्रमा नये हो जाएँगे—आकाश अब और वैसा नहीं रहेगा जैसा वह था और पृथ्वी पर बेशुमार चीज़ों को फिर से नया बना दिया जाएगा। मेरे वचनों के माध्यम से सभी पूर्ण हो जाएँगे। ब्रह्माण्ड के भीतर अनेक राष्ट्रों को नए सिरे से बाँटा जाएगा और उनका स्थान मेरा राज्य लेगा, जिससे पृथ्वी पर विद्यमान राष्ट्र हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएँगे और एक राज्य बन जाएँगे जो मेरी आराधना करता है; पृथ्वी के सभी राष्ट्रों को नष्ट कर दिया जाएगा और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। ब्रह्माण्ड के भीतर मनुष्यों में से उन सभी का, जो शैतान से संबंध रखते हैं, सर्वनाश कर दिया जाएगा, और वे सभी जो शैतान की आराधना करते हैं उन्हें मेरी जलती हुई आग के द्वारा धराशायी कर दिया जायेगा—अर्थात उनको छोड़कर जो अभी धारा के अन्तर्गत हैं, शेष सभी को राख में बदल दिया जाएगा। जब मैं बहुत-से लोगों को ताड़ना देता हूँ, तो वे जो धार्मिक संसार में हैं, मेरे कार्यों के द्वारा जीते जाने के उपरांत, भिन्न-भिन्न अंशों में, मेरे राज्य में लौट आएँगे, क्योंकि उन्होंने एक श्वेत बादल पर सवार पवित्र जन के आगमन को देख लिया होगा। सभी लोगों को उनकी किस्म के अनुसार अलग-अलग किया जाएगा, और वे अपने-अपने कार्यों के अनुरूप ताड़नाएँ प्राप्त करेंगे। वे सब जो मेरे विरुद्ध खड़े हुए हैं, नष्ट हो जाएँगे; जहाँ तक उनकी बात है, जिन्होंने पृथ्वी पर अपने कर्मों में मुझे शामिल नहीं किया है, उन्होंने जिस तरह अपने आपको दोषमुक्त किया है, उसके कारण वे पृथ्वी पर मेरे पुत्रों और मेरे लोगों के शासन के अधीन निरन्तर अस्तित्व में बने रहेंगे। मैं अपने आपको असंख्य लोगों और असंख्य राष्ट्रों के सामने प्रकट करूँगा, और अपनी वाणी से, पृथ्वी पर ज़ोर-ज़ोर से और ऊंचे तथा स्पष्ट स्वर में, अपने महा कार्य के पूरे होने की उद्घोषणा करूँगा, ताकि समस्त मानवजाति अपनी आँखों से देखे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 26')

हम सर्वशक्तिमान परमेश्‍वर की भविष्‍यद्वाणियों और मनुष्‍य को की गई प्रतिज्ञाओं के कुछ अंश पढ़ते हैं। "राज्य में, सृष्टि की असंख्य चीज़ें पुनर्जीवित होना और अपनी जीवन शक्ति फिर से प्राप्त करना आरम्भ करती हैं। पृथ्वी की अवस्था में परिवर्तनों के कारण, एक तथा दूसरी भूमि के बीच सीमाएँ भी खिसकने लगती हैं। मैं भविष्यवाणी कर चुका हूँ कि जब ज़मीन को ज़मीन से अलग किया जाता है, और जब ज़मीन ज़मीन से जुड़ती है, यही वह समय होगा जब मैं सारे राष्ट्रों के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। इस समय, मैं सारी सृष्टि को फिर नया करूँगा और समस्त ब्रह्माण्ड को पुनर्विभाजित करूँगा, इस प्रकार पूरे ब्रह्माण्ड को व्यवस्थित करूँगा, और पुराने को नए में रूपान्तरित कर दूँगा—यह मेरी योजना है और ये मेरे कार्य हैं। जब संसार के सभी राष्ट्र और लोग मेरे सिंहासन के सामने लौटेंगे, तब मैं स्वर्ग का सारी वदान्यता लेकर इसे मानव संसार को सौंप दूँगा, जिससे, मेरी बदौलत, वह संसार बेजोड़ वदान्यता से लबालब भर जाएगा" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 26')

"मेरे वचन ज्यों-ज्यों पूर्णता तक पहुँचते हैं, पृथ्वी पर धीरे-धीरे राज्य बनता जाता है और मनुष्य धीरे-धीरे सामान्यता की ओर लौटता है, और इस प्रकार पृथ्वी पर वह राज्य स्थापित हो जाता है जो मेरे हृदय में है। राज्य में, परमेश्वर के सभी लोग सामान्य मनुष्य का जीवन पुनः प्राप्त कर लेते हैं। पाले वाली शीत ऋतु विदा हुई, उसका स्थान वासंती नगरों के संसार ने ले लिया है, जहाँ पूरे साल बहार रहती है। मनुष्य का उदास और अभागा संसार अब लोगों के सामने नहीं रह गया है, और न ही वे मनुष्य के संसार की ठण्डी सिहरन सहते हैं। लोग एक दूसरे से लड़ते नहीं हैं, देश एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध में नहीं उतरते हैं, नरसंहार अब और नहीं हैं और न वह लहू जो नरसंहार से बहता है; सारे भूभागों में प्रसन्नता छाई है, और हर जगह मनुष्यों की आपसी गर्माहट से भरी है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 20')

"जब मनुष्यों को उनकी मूल समानता में बहाल कर लिया जाएगा, और जब वे अपने-अपने कर्तव्य निभा सकेंगे, अपने उचित स्थानों पर बने रह सकेंगे और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं को समर्पण कर सकेंगे, तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर उन लोगों का एक समूह प्राप्त कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करते हैं और उसने पृथ्वी पर एक राज्य भी स्थापित कर लिया होगा, जो उसकी आराधना करता है। पृथ्वी पर उसकी अनंत विजय होगी और वे सभी जो उसके विरोध में हैं, अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी; इससे सब चीज़ों के सृजन की उसकी मूल इच्छा बहाल होगी और इससे पृथ्वी पर सभी चीज़ों पर और शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी बहाल हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक होंगे। इसके बाद से मानवता विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी, जो सही मार्ग पर है। मानवता के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा और मनुष्यों और स्वयं के साथ एक अनंत जीवन का आरंभ करेगा। पृथ्वी पर से गंदगी और अवज्ञा ग़ायब हो जाएगी, पृथ्वी पर से सारा विलाप भी समाप्त हो जाएगा और परमेश्वर का विरोध करने वाली प्रत्येक चीज़ का अस्तित्व नहीं रहेगा। केवल परमेश्वर और वही लोग बचेंगे, जिनका उसने उद्धार किया है; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे')

अब जबकि हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुन चुके हैं, हमने देख लिया है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर और प्रभु यीशु अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही हैं। वे दोनों ही ऊंचे पद पर बैठे और मानवजाति से संवाद कर रहे देहधारी परमेश्वर हैं। वे दोनों ही परमेश्वर के स्वभाव और उनके पवित्र सार को उजागर करते हैं। और इसमें, वे परमेश्वर के अधिकार एवं पहचान को आदर्श रूप से प्रदर्शित करते हैं। फरीसियों के आकलन और उन्हें उजागर करने वाले प्रभु यीशु के वचनों से, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचनों तथा भ्रष्ट मानवजाति को उजागर करने वाले वचनों से, हम देखते हैं कि परमेश्वर को पाप से घृणा है, और वे मानवजाति के भ्रष्ट होने से घृणा करते हैं। हम परमेश्वर के धर्मी एवं पवित्र स्वभाव को देखते हैं, और इसके साथ ही यह भी कि परमेश्वर मनुष्य के हृदय की गहराई तक देखते हैं। वे हमारे भ्रष्टाचार से उतने ही परिचित हैं जैसे माता-पिता अपने बच्चे की रग-रग से परिचित होते हैं। प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर की मानवजाति के भले-बुरे से जुड़ी चेतावनियों और अपेक्षाओं से, हम मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएं देखते हैं, परमेश्वर उन्हें पसंद करते हैं जो ईमानदार होते हैं, और वे उन्हें आशीष देते हैं जो वास्तव में स्वयं को उन्हें समर्पित कर देते हैं। इससे हमें मानवजाति के प्रति और उसके उद्धार के प्रति परमेश्वर की चिंता का पता चलता है। मानवजाति से किए गए प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वादों से, हम मानवजाति से परमेश्वर के प्रेम को देखते हैं, और इसके साथ ही, हम वह अधिकार एवं सामर्थ्य देखते हैं जिससे परमेश्वर मानवजाति की नियति का नियंत्रण करते हैं एवं सभी चीजों पर शासन करते हैं। लहजे और बोलने के ढंग को देखते हुए प्रभु यीशु और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कथन एक जैसे हैं, वे दोनों ही परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं। यह आदर्श रूप से परमेश्वर की पहचान और उसके सार को दर्शाता है। आइये सोचते हैं: सृष्टिकर्ता के अलावा और कौन, संपूर्ण मानवजाति के लिए वचन व्यक्त कर सकता है? कौन परमेश्वर की इच्छा को प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त कर सकता है और मानवजाति के सामने मांगें रख सकता है? कौन मनुष्य का अंत तय कर सकता है? कौन यह नियंत्रण कर सकता है कि वे जिएंगे या मरेंगे? कौन ब्रह्माण्ड के तारों को नियंत्रित कर सकता है, और सभी चीजों के ऊपर प्रभुत्व रख सकता है? परमेश्वर के अलावा और कौन भ्रष्ट मानवजाति के सार के सत्य के पार देख सकता है? और कौन हमारे हृदय की गहराई में छिपी शैतानी प्रकृति को उजागर कर सकता है? कौन परमेश्वर के अंत के दिनों के न्याय के कार्य को पूरा कर सकता है और हमें शैतान के प्रभाव से पूरी तरह बचा सकता है? केवल सृष्टिकर्ता के पास ही ऐसा अधिकार और सामर्थ्य है! सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन आदर्श रूप से परमेश्वर के अद्वितीय अधिकार और पहचान को प्रदर्शित करते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, हम सभी को हमारे हृदय में ऐसी पुष्टि का एहसास होता है: ये सभी वचन परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए हैं, वे परमेश्वर की आवाज हैं। ये सभी अंत के दिनों के न्याय के कार्य के दौरान सृष्टिकर्ता द्वारा व्यक्त किए गए सत्य हैं। हमारे हृदय में, परमेश्वर के लिए तुरंत वास्तविक श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनने के बाद, क्या आप लोगों को भी ऐसा ही एहसास होता है? यह पर्याप्त रूप से सिद्ध करता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और प्रभु यीशु के वचन एक ही स्रोत से आए हैं। वे दोनों एक ही आत्मा की अभिव्यक्ति हैं। वे विभिन्न युगों में मानवजाति के लिए कहे गए एक परमेश्वर के कथन हैं। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर परमेश्वर के घर से आरंभ करते हुए न्याय का कार्य करते हैं। जो प्रभु यीशु के छुटकारे के कार्य की नींव के आधार पर होता है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर मानवजाति के शुद्धिकरण और उद्धार के लिए सभी सत्य व्यक्त करते हैं, और मानवजाति के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना के सभी रहस्य उजागर करते हैं, और हमें सत्य के विभिन्न पहलुओं का सार साफ-साफ बताते हैं। वे हमारी आँखें खोलते हैं, और हमें पूरी तरह विश्वास दिला देते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य ने प्रभु यीशु की सभी भविष्यवाणियां पूरी कर दी हैं। अंत के दिनों के न्याय के कार्य के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त सभी वचनों में, हम परमेश्वर की आवाज पहचानते हैं, और यह निश्चित करते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही प्रभु यीशु की वापसी हैं, वे एक सत्य परमेश्वर हैं जिन्होंने स्वर्ग, पृथ्वी एवं सभी वस्तुओं की रचना की है, जो अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने आते हैं। वे पृथ्वी पर शैतान के शासन को, बुराई और अंधकार के युग को समाप्त करने के लिए, तथा पृथ्वी पर परमेश्वर के शासन, अर्थात सहस्त्राब्दि राज्य के युग का सूत्रपात करने आते हैं। और इससे हमारी स्वर्ग का राज्य में प्रवेश करने की सुंदर इच्छा साकार होती है।

— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत

हम परमेश्वर की वाणी कैसे सुनते हैं? हममें कितने भी गुण हों, हमें कितना भी अनुभव हो, उससे कोर्इ फ़र्क नहीं पड़ता। प्रभु यीशु में विश्वास करते हुए, उनके कई वचन सुनकर हमें कैसा लगता है? हालांकि हमें प्रभु के वचनों का कोर्इ अनुभव या ज्ञान नहीं है, लेकिन उन्हें सुनते ही लगता है कि वे सत्य हैं, उनमें सामर्थ्य और अधिकार है। यह एहसास कैसे होता है? क्या ऐसा हमारे अनुभव के कारण होता है? ये प्रभाव है प्रेरणा और सहज बोध का। इससे साबित होता है कि सच्चे हृदय वाले लोग महसूस कर सकते हैं कि परमेश्वर के वचनों में सामर्थ्य और अधिकार होता है, ऐसा परमेश्वर की वाणी सुनने पर होता है। देखिए, परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ में सबसे बड़ा अंतर ये होता है कि परमेश्वर की वाणी सत्य है, उसमें सामर्थ्य और अधिकार है, और उसे सुनते ही हम उसे महसूस कर सकते हैं। हम इसे शब्दों में बयां कर पाएं या न कर पाएं, लेकिन इसका अनुभव स्पष्ट होता है। मनुष्य की आवाज़ को पहचानना आसान है। इसे सुनते ही लगता है कि हम इसे समझ सकते हैं। लेकिन मनुष्य की आवाज में हमें ज़रा सा भी सामर्थ्य या अधिकार महसूस नहीं होता, और उसमें सत्य की मात्रा तो और भी कम होती है। परमेश्वर के वचनों और मनुष्य के शब्दों के बीच सबसे बड़ा अंतर यही है। उदाहरण के लिए, हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के वचनों में अधिकार भी है और सामर्थ्य भी, उसे सुनते ही हम कह सकते हैं कि ये सत्य है, उनका अर्थ गहरा, रहस्यमय और मनुष्य की क्षमता से बाहर है। आइये, अब हम बाइबल में प्रेरितों के शब्दों पर नज़र डालें। हालांकि इनमें से ज़्यादातर पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से उत्पन्न हुए हैं, लेकिन इनमें कोर्इ अधिकार या सामर्थ्य नहीं हैं। ये सिर्फ सही शब्द हैं, लोगों को लाभ पहुंचाने वाले शब्दों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। प्रभु यीशु ने जो वचन बोले, क्या कोर्इ इंसान भी उन्हें बोल सकता है? उन्हें कोर्इ नहीं बोल सकता। यानी प्रभु यीशु के वचन परमेश्वर की वाणी है। इस तरह की तुलनाएं करके, क्या हम परमेश्वर की वाणी और मनुष्य की आवाज़ के बीच अंतर नहीं कर सकते?

तो आइये. सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़ते हैं और देखते हैं कि क्या सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सचमुच सत्य और परमेश्वर की वाणी हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मैं पूरे ब्रह्मांड में अपना कार्य कर रहा हूँ, और पूरब से असंख्य गर्जनाएं निरंतर गूँज रही हैं, जो सभी राष्ट्रों और संप्रदायों को झकझोर रही हैं। यह मेरी वाणी है जो सभी मनुष्यों को वर्तमान में लाई है। मैं अपनी वाणी से सभी मनुष्यों को जीत लूँगा, उन्हें इस धारा में बहाऊँगा और अपने सामने समर्पण करवाऊँगा, क्योंकि मैंने बहुत पहले पूरी पृथ्वी से अपनी महिमा को वापस लेकर इसे नये सिरे से पूरब में जारी किया है। भला कौन मेरी महिमा को देखने के लिए लालायित नहीं है? कौन बेसब्री से मेरे लौटने का इंतज़ार नहीं कर रहा है? किसे मेरे पुनः प्रकटन की प्यास नहीं है? कौन मेरी सुंदरता को देखने के लिए तरस नहीं रहा है? कौन प्रकाश में नहीं आना चाहता? कौन कनान की समृद्धि को नहीं देखना चाहता? किसे उद्धारकर्ता के लौटने की लालसा नहीं है? कौन महान सर्वशक्तिमान की आराधना नहीं करता है? मेरी वाणी पूरी पृथ्वी पर फैल जाएगी; मैं चाहता हूँ कि अपने चुने हुए लोगों के समक्ष मैं और अधिक वचन बोलूँ। मैं पूरे ब्रह्मांड के लिए और पूरी मानवजाति के लिए अपने वचन बोलता हूँ, उन शक्तिशाली गर्जनाओं की तरह जो पर्वतों और नदियों को हिला देती हैं। इस प्रकार, मेरे मुँह से निकले वचन मनुष्य का खज़ाना बन गए हैं, और सभी मनुष्य मेरे वचनों को सँजोते हैं। बिजली पूरब से चमकते हुए दूर पश्चिम तक जाती है। मेरे वचन ऐसे हैं कि मनुष्य उन्हें छोड़ना बिलकुल पसंद नहीं करता, पर साथ ही उनकी थाह भी नहीं ले पाता, लेकिन फिर भी उनमें और अधिक आनंदित होता है। सभी मनुष्य खुशी और आनंद से भरे होते हैं और मेरे आने की खुशी मनाते हैं, मानो किसी शिशु का जन्म हुआ हो। अपनी वाणी के माध्यम से मैं सभी मनुष्यों को अपने समक्ष ले आऊँगा। उसके बाद, मैं औपचारिक तौर पर मनुष्य जाति में प्रवेश करूँगा ताकि वे मेरी आराधना करने लगें। मुझमें से झलकती महिमा और मेरे मुँह से निकले वचनों से, मैं ऐसा करूँगा कि सभी मनुष्य मेरे समक्ष आएंगे और देखेंगे कि बिजली पूरब से चमकती है और मैं भी पूरब में 'जैतून के पर्वत' पर अवतरित हो चुका हूँ। वे देखेंगे कि मैं बहुत पहले से पृथ्वी पर मौजूद हूँ, यहूदियों के पुत्र के रूप में नहीं, बल्कि पूरब की बिजली के रूप में। क्योंकि बहुत पहले मेरा पुनरुत्थान हो चुका है, और मैं मनुष्यों के बीच से जा चुका हूँ, और फिर अपनी महिमा के साथ लोगों के बीच पुनः प्रकट हुआ हूँ। मैं वही हूँ जिसकी आराधना असंख्य युगों पहले की गई थी, और मैं वह शिशु भी हूँ जिसे असंख्य युगों पहले इस्राएलियों ने त्याग दिया था। इसके अलावा, मैं वर्तमान युग का संपूर्ण-महिमामय सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ! सभी लोग मेरे सिंहासन के सामने आएँ और मेरे महिमामयी मुखमंडल को देखें, मेरी वाणी सुनें और मेरे कर्मों को देखें। यही मेरी संपूर्ण इच्छा है; यही मेरी योजना का अंत और उसका चरमोत्कर्ष है, यही मेरे प्रबंधन का उद्देश्य भी है। सभी राष्ट्र मेरी आराधना करें, हर ज़बान मुझे स्वीकार करे, हर मनुष्य मुझमें आस्था रखे और सभी लोग मेरी अधीनता स्वीकार करें!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'सात गर्जनाएँ गूँजती हैं—भविष्यवाणी करती हैं कि राज्य के सुसमाचार पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएँगे')

"जैसे ही मैं बोलने के लिए ब्रह्माण्ड की तरफ अपना चेहरा घुमाता हूँ, सारी मानवजाति मेरी आवाज़ सुनती है, और उसके उपरांत उन सभी कार्यों को देखती है जिन्हें मैंने समूचे ब्रह्माण्ड में गढ़ा है। वे जो मेरी इच्छा के विरूद्ध खड़े होते हैं, अर्थात् जो मनुष्य के कर्मों से मेरा विरोध करते हैं, वे मेरी ताड़ना के अधीन आएँगे। मैं स्वर्ग के असंख्य तारों को लूँगा और उन्हें फिर से नया कर दूँगा, और, मेरी बदौलत, सूर्य और चन्द्रमा नये हो जाएँगे—आकाश अब और वैसा नहीं रहेगा जैसा वह था और पृथ्वी पर बेशुमार चीज़ों को फिर से नया बना दिया जाएगा। मेरे वचनों के माध्यम से सभी पूर्ण हो जाएँगे। ब्रह्माण्ड के भीतर अनेक राष्ट्रों को नए सिरे से बाँटा जाएगा और उनका स्थान मेरा राज्य लेगा, जिससे पृथ्वी पर विद्यमान राष्ट्र हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएँगे और एक राज्य बन जाएँगे जो मेरी आराधना करता है; पृथ्वी के सभी राष्ट्रों को नष्ट कर दिया जाएगा और उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। ब्रह्माण्ड के भीतर मनुष्यों में से उन सभी का, जो शैतान से संबंध रखते हैं, सर्वनाश कर दिया जाएगा, और वे सभी जो शैतान की आराधना करते हैं उन्हें मेरी जलती हुई आग के द्वारा धराशायी कर दिया जायेगा—अर्थात उनको छोड़कर जो अभी धारा के अन्तर्गत हैं, शेष सभी को राख में बदल दिया जाएगा। जब मैं बहुत-से लोगों को ताड़ना देता हूँ, तो वे जो धार्मिक संसार में हैं, मेरे कार्यों के द्वारा जीते जाने के उपरांत, भिन्न-भिन्न अंशों में, मेरे राज्य में लौट आएँगे, क्योंकि उन्होंने एक श्वेत बादल पर सवार पवित्र जन के आगमन को देख लिया होगा। सभी लोगों को उनकी किस्म के अनुसार अलग-अलग किया जाएगा, और वे अपने-अपने कार्यों के अनुरूप ताड़नाएँ प्राप्त करेंगे। वे सब जो मेरे विरुद्ध खड़े हुए हैं, नष्ट हो जाएँगे; जहाँ तक उनकी बात है, जिन्होंने पृथ्वी पर अपने कर्मों में मुझे शामिल नहीं किया है, उन्होंने जिस तरह अपने आपको दोषमुक्त किया है, उसके कारण वे पृथ्वी पर मेरे पुत्रों और मेरे लोगों के शासन के अधीन निरन्तर अस्तित्व में बने रहेंगे। मैं अपने आपको असंख्य लोगों और असंख्य राष्ट्रों के सामने प्रकट करूँगा, और अपनी वाणी से, पृथ्वी पर ज़ोर-ज़ोर से और ऊंचे तथा स्पष्ट स्वर में, अपने महा कार्य के पूरे होने की उद्घोषणा करूँगा, ताकि समस्त मानवजाति अपनी आँखों से देखे।

"... जब मैंने संसार की सृष्टि की थी, मैंने सभी चीज़ों को उनकी किस्म के अनुसार ढाला था, रूपाकृतियों वाली सभी चीज़ों को उनकी किस्म के अनुसार एक साथ रखा था। मेरी प्रबन्धन योजना का अंत ज्यों-ज्यों नज़दीक आएगा, मैं सृष्टि की पूर्व दशा बहाल कर दूँगा, मैं प्रत्येक चीज़ को पूर्णतः बदलते हुए हर चीज़ को उसी प्रकार बहाल कर दूँगा जैसी वह मूलतः थी, जिससे हर चीज़ मेरी योजना के आलिंगन में लौट आएगी। समय आ चुका है! मेरी योजना का अंतिम चरण संपन्न होने वाला है। आह, पुराना अस्वच्छ संसार! तू पक्का मेरे वचनों के अधीन आएगा! तू पक्का मेरी योजना के द्वारा अस्तित्वहीन हो जाएगा! आह, सृष्टि की अनगिनत चीज़ो! तुम सब मेरे वचनों के भीतर नया जीवन प्राप्त करोगी—तुम्हारे पास तुम्हारा सार्वभौम प्रभु होगा! आह, शुद्ध और निष्कलंक नये संसार! तू पक्का मेरी महिमा के भीतर पुनर्जीवित होगा! आह, सिय्योन पर्वत! अब और मौन मत रह। मैं विजयोल्लास के साथ लौट आया हूँ! सृष्टि के बीच से, मैं समूची पृथ्वी को बारीक़ी से देखता हूँ। पृथ्वी पर मानवजाति ने नए जीवन की शुरुआत की है, और नई आशा जीत ली है। आह, मेरे लोगो! ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम लोग मेरे प्रकाश के भीतर पुनर्जीवित न हो? ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम लोग मेरे मार्गदर्शन के अधीन आनन्द से न उछलो? भूमि उल्लास से चिल्ला रही है, समुद्र उल्लासपूर्ण हंसी से उफन रहे हैं! आह, पुनर्जीवित इस्राएल! मेरे द्वारा पूर्वनियत किए जाने की वजह से तुम कैसे गर्व महसूस नहीं कर सकते हो? कौन रोया है? किसने विलाप किया है? पहले का इस्राएल समाप्त हो गया है, और आज के इस्राएल का उदय हुआ है, जो संसार में सीधा और बहुत ऊँचा खड़ा है, और समस्त मानवता के हृदय में तनकर डटा हुआ है। आज का इस्राएल मेरे लोगों के माध्यम से अस्तित्व का स्रोत निश्चित रूप से प्राप्त करेगा! आह, घृणास्पद मिस्र! निश्चित रूप से तू अब भी मेरे विरुद्ध खड़ा तो नहीं है? तू कैसे मेरी दया का लाभ उठा सकता है और मेरी ताड़ना से बचने की कोशिश कर सकता है? ऐसा कैसे हो सकता है कि तू मेरी ताड़ना के के दायरे में विद्यमान न हो? वे सभी जिनसे मैं प्रेम करता हूँ, निश्चय ही अनन्त काल तक जीवित रहेंगे, और वे सभी जो मेरे विरुद्ध खड़े हैं, निश्चय ही अनन्त काल तक मेरे द्वारा ताड़ित किए जाएँगे। क्योंकि मैं एक ईर्ष्यालु परमेश्वर हूँ, मनुष्यों ने जो किया है, उस सबके लिए उन्हें हल्के में नहीं छोडूँगा। मैं पूरी पृथ्वी पर निगरानी रखूँगा, और धार्मिकता, प्रताप, कोप और ताड़ना के साथ संसार के पूर्व में प्रकट होते हुए, मानवजाति के असंख्य समुदायों के समक्ष स्वयं को उजागर करूँगा!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन' के 'अध्याय 26')

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़कर सबके मन में एक समान भावनाएं जागती हैं। सबको लगता है कि परमेश्वर इंसान से बात कर रहे हैं। परमेश्वर के अलावा, कौन पूरी मानवजाति से बात कर सकता है? मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की इच्छा, मनुष्य को कौन बता सकता है? कौन मानवजाति को यह बता सकता है कि अंत के दिनों का कार्य करने की परमेश्वर की योजना क्या है, मानवजाति का परिणाम और मंज़िल क्या है? परमेश्वर की प्रबंधन योजना के बारे में पूरी दुनिया को भला कौन बता सकता है? परमेश्वर के अलावा कोर्इ नहीं बता सकता। सर्वशक्तिमान परमेश्वर पूरी मानव जाति से बात करते हैं, वे मनुष्य को परमेश्वर के वचनों के सामर्थ्य और अधिकार का अहसास कराते हैं, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की सीधी अभिव्यक्ति हैं, ये परमेश्वर की वाणी हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा बोले गए सभी वचन, ऐसे हैं जैसे परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में खड़े होकर पूरी मानव जाति से कह रहे हों, यहां सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्जक के रूप में मनुष्य से बातचीत कर रहे हैं, वे अपनी धार्मिकता और महिमा के निरपराध स्वभाव को मानव के सामने प्रकट कर रहे हैं। जब परमेश्वर की भेड़ें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन सुनती हैं, तो वे शुरू में उसमें छिपे सत्य को नहीं पहचानती, उन्हें इसका अनुभव भी नहीं होता, लेकिन उन्हें सर्वशक्तिमान परमेश्वर के हर वचन के सामर्थ्य और अधिकार का अहसास हो जाता है, वे पुष्टि कर सकती हैं कि ये परमेश्वर की वाणी है और परमेश्वर की आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। परमेश्वर के चुने हुए लोगों को केवल परमेश्वर के वचन सुन कर उनकी पुष्टि, परमेश्वर की वाणी के रूप में करनी होती है। तो फिर धार्मिक पंथ के पादरी और एल्डर सर्वशक्तिमान परमेश्वर की निंदा क्यों करते हैं? जहां तक मसीह विरोधियों का सवाल है, जो परमेश्वर के देहधारण को नहीं पहचानते, और ये नहीं मानते कि परमेश्वर सत्य कह सकते हैं, हालांकि उन्हें परमेश्वर के बोले सभी वचन सत्य दिखार्इ देते हैं, और उनके वचनों में सामर्थ्य और अधिकार का आभास होता है, फिर भी वे नहीं मानते कि परमेश्वर इस तरह बोल सकते हैं। वे ये भी नहीं मानते कि परमेश्वर सब कुछ सत्य ही बोलते हैं। यहाँ समस्या क्या है? क्या आप बता सकते हैं? अंत के दिनों देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर समस्त मानव जाति से बात करते हैं, लेकिन हममें से कितने लोग परमेश्वर की वाणी सुन पाते हैं? वर्तमान में ऐसे बहुत से धार्मिक पंथ हैं जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर को बोलते देख पाते हैं, फिर भी सुन कर समझ नहीं पाते कि ये परमेश्वर की वाणी है, वे परमेश्वर के बोले वचनों को भी इंसान के शब्द समझते हैं, और इंसान के ही नजरिये से परमेश्वर से जुड़े निर्णय लेते हैं, उनका अपमान और उनकी निंदा करते हैं। क्या इनके दिलों में परमेश्वर का डर है? क्या ये अतीत के फरीसियों जैसे ही नहीं हैं? ये सभी सत्य से घृणा और परमेश्वर की निंदा करते हैं। परमेश्वर के वचनों में अधिकार है, सामर्थ्य है, और ऐसे लोगों को जरा भी आभास नहीं होता कि ये वचन परमेश्वर की वाणी हैं। क्या ऐसे लोग परमेश्वर की भेड़ें हो सकते हैं? इनके हृदय भावनाहीन हैं, ये सुनते तो हैं, पर जानते नहीं, ये देखते हैं, पर समझते नहीं। ऐसे लोग स्वर्गारोहण की आशा कैसे कर सकते हैं? अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर ने सत्य को अभिव्यक्त किया है, धार्मिक मंडलियों के लोगों को उजागर किया है, सच्चे विश्वासी और झूठे विश्वासी, सत्य से प्रेम करने वाले, और सत्य से घृणा करने वाले, बुद्धिमान और मूर्ख कुंवारियां, ये सभी लोग स्वाभाविक रूप से, अलग-अलग समूहों में बंटे हुए हैं। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सभी दुष्ट लोगों को परमेश्वर के मुँह से बोले गए वचनों से ताड़ित किया जाएगा, और सभी धार्मिक लोग उसके मुँह से बोले गए वचनों से धन्य होंगे" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'सहस्राब्दि राज्य आ चुका है')। इसलिए, जो लोग परमेश्वर की वाणी सुन सकते हैं, वे प्रभु के दूसरे आगमन के गवाह हैं, वे परमेश्वर के सिहांसन के आगे स्वर्गारोहित हो चुके हैं, और मेमने के विवाह भोज में शामिल हो रहे हैं। ये लोग बुद्धिमान कुंवारियां हैं, और सबसे भाग्यशाली मनुष्य हैं।

हमें परमेश्वर की वाणी अपने दिल और आत्मा की गहराइयों से सुननी चाहिए। एक समान विचारों वाले लोग एक दूसरे को आसानी से समझ पाते हैं। परमेश्वर के वचन सत्य हैं, उनमें सामर्थ्य और अधिकार होता है, दिल और आत्मा की गहराइयों से सुनने वाले निश्चित ही इसे महसूस कर सकते हैं। जिन लोगों ने सिर्फ कुछ दिन ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ा है, वे भी यह पुष्टि कर सकते हैं कि ये परमेश्वर की वाणी और उनके वचन हैं। हर बार जब परमेश्वर देहधारण करते हैं, वे अपने कार्य का एक चरण पूरा करने आते हैं, पैगम्बरों के विपरीत, जो परमेश्वर के निर्देशानुसार सिर्फ एक खास संदर्भ में कुछ शब्द ही कहते हैं। जब परमेश्वर अपने कार्य का एक चरण पूरा करने के लिए देहधारण करते हैं, तो उन्हें अनेक वचन, अनेक सत्य बोलने होते हैं, उन्हें रहस्योद्घाटन और भविष्यवाणियां करनी होती हैं। ऐसा होने में कर्इ वर्ष या दशक लग सकते हैं। उदाहरण के लिए, छुटकारे के कार्य में, प्रभु यीशु ने पहले उपदेश दिया था, "मन फिराओ क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आया है" (मत्ती 4:17), उन्होंने मनुष्य को अपराध स्वीकार करना, पश्चाताप करना, क्षमा करना, कष्ट सहना, अपनी तकलीफें खुद उठाना सिखाया, और वो सब सिखाया जिसका किसी मनुष्य को अनुग्रह के युग में पालन करना होगा। उन्होंने प्रेम और दया रूपी परमेश्वर के स्वभाव को प्रदर्शित किया, साथ ही, उन्होंने स्वर्ग के राज्य के रहस्यों और उसमें हमारे प्रवेश से जुड़ी शर्तों को उजागर किया। उनके सलीब पर चढ़ाए जाने, उनके पुनर्जन्म और उनके स्वर्ग में पहुंचने के बाद ही, परमेश्वर का छुटकारे का कार्य पूरा हुआ। प्रभु यीशु द्वारा बोले गए वचन सत्य हैं, जिन्हें परमेश्वर ने अपने छुटकारे के कार्य के दौरान मनुष्य को उपहार स्वरूप दिया है। अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर आए और उन्होंने मनुष्य को शुद्ध करने और बचाने वाले सभी सत्य बोले। उन्होंने न्याय के कार्य की शुरूआत परमेश्वर के लोगों से की, और मानव को अपने निहित स्वभाव से परिचित कराया, जिसका महत्वपूर्ण बिंदु धार्मिकता है। उन्होंने 6 हजार साल लम्बी अपनी प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों को खोला है। उन्होंने राज्य के युग का आरंभ और अनुग्रह के युग का अंत किया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के जीवन का सार हैं, और उनके स्वभाव की अभिव्यक्ति हैं। यह परमेश्वर अंत के दिनों के कार्य का पूरा एक चरण है जो वे मानव जाति के शुद्धिकरण और बचाव के लिए कर रहे हैं। आइये अब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कुछ वचनों को पढ़ें, और सुनें कि क्या ये सत्‍य हैं और उनमें अधिकार और सामर्थ्‍य है।

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "वर्तमान देहधारण में परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से ताड़ना और न्याय के द्वारा अपने स्वभाव को व्यक्त करना है। इस नींव पर निर्माण करते हुए वह मनुष्य तक अधिक सत्य पहुँचाता है और उसे अभ्यास करने के और अधिक तरीके बताता है और ऐसा करके मनुष्य को जीतने और उसे उसके भ्रष्ट स्वभाव से बचाने का अपना उद्देश्य हासिल करता है। यही वह चीज़ है, जो राज्य के युग में परमेश्वर के कार्य के पीछे निहित है" ("वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना')

"अंत के दिनों में मसीह मनुष्य को सिखाने, उसके सार को उजागर करने और उसके वचनों और कर्मों की चीर-फाड़ करने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्यों का समावेश है, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को परमेश्वर का आज्ञापालन किस प्रकार करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मनुष्यता का जीवन जीना चाहिए, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धिमत्ता और उसका स्वभाव, इत्यादि। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर निर्देशित हैं। खास तौर पर वे वचन, जो यह उजागर करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर का तिरस्कार करता है, इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार मनुष्य शैतान का मूर्त रूप और परमेश्वर के विरुद्ध शत्रु-बल है। अपने न्याय का कार्य करने में परमेश्वर केवल कुछ वचनों के माध्यम से मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता; बल्कि वह लंबे समय तक उसे उजागर करता है, उससे निपटता है और उसकी काट-छाँट करता है। उजागर करने, निपटने और काट-छाँट करने की इन विधियों को साधारण वचनों से नहीं, बल्कि उस सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसका मनुष्य में सर्वथा अभाव है। केवल इस तरह की विधियाँ ही न्याय कही जा सकती हैं; केवल इस तरह के न्याय द्वारा ही मनुष्य को वशीभूत और परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और इतना ही नहीं, बल्कि मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य मनुष्य में परमेश्वर के असली चेहरे की समझ पैदा करने और उसकी स्वयं की विद्रोहशीलता का सत्य उसके सामने लाने का काम करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य और उन रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त कराता है, जो उसकी समझ से परे हैं। यह मनुष्य को अपने भ्रष्ट सार तथा अपनी भ्रष्टता की जड़ों को जानने-पहचानने और साथ ही अपनी कुरूपता को खोजने का अवसर देता है। ये सभी परिणाम न्याय के कार्य द्वारा लाए जाते हैं, क्योंकि इस कार्य का सार वास्तव में उन सभी के लिए परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है, जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया जाने वाला न्याय का कार्य है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है')

"अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सृष्टि की सभी चीज़ें उनके प्रकार के अनुसार अलग की जाएँगी और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित की जाएँगी। यही वह क्षण है, जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को उजागर करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जा सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंग दिखाता है, जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरे को बुरे के साथ रखा जाएगा, भले को भले के साथ, और समस्त मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार अलग किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से सभी सृजित प्राणियों का परिणाम प्रकट किया जाएगा, ताकि बुरे को दंडित किया जा सके और अच्छे को पुरस्कृत किया जा सके, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन हो जाएँ। यह समस्त कार्य धार्मिक ताड़ना और न्याय के माध्यम से पूरा करना होगा। चूँकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर हो गई है, इसलिए केवल परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय से संयुक्त है और अंत के दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपांतरित कर सकता है और उसे पूर्ण बना सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधार्मिकों को गंभीर रूप से दंडित कर सकता है। ... अंत के दिनों के दौरान, केवल धार्मिक न्याय ही मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार पृथक् कर सकता है और उन्हें एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धार्मिक स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)')

"क्या अब तुम समझ गए हो कि न्याय क्या है और सत्य क्या है? अगर तुम समझ गए हो, तो मैं तुम्हें न्याय किए जाने के लिए आज्ञाकारी ढंग से समर्पित होने की नसीहत देता हूँ, वरना तुम्हें कभी भी परमेश्वर द्वारा सराहे जाने या उसके द्वारा अपने राज्य में ले जाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। जो केवल न्याय को स्वीकार करते हैं लेकिन कभी शुद्ध नहीं किए जा सकते, अर्थात् जो न्याय के कार्य के बीच से ही भाग जाते हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर की घृणा के शिकार हो जाएँगे और नकार दिए जाएँगे। फरीसियों के पापों की तुलना में उनके पाप संख्या में बहुत अधिक और ज्यादा संगीन हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया है और वे परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। ऐसे लोग, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं, अधिक कठोर दंड प्राप्त करेंगे, जो चिरस्थायी भी होगा। परमेश्वर ऐसे किसी भी गद्दार को नहीं छोड़ेगा, जिसने एक बार तो वचनों से वफादारी दिखाई, मगर फिर परमेश्वर को धोखा दे दिया। ऐसे लोग आत्मा, प्राण और शरीर के दंड के माध्यम से प्रतिफल प्राप्त करेंगे। क्या यह हूबहू परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकटन नहीं है? क्या मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने में परमेश्वर का यह उद्देश्य नहीं है? परमेश्वर उन सभी को, जो न्याय के समय के दौरान सभी प्रकार के दुष्ट कर्म करते हैं, दुष्टात्माओं से आक्रांत स्थान पर भेजता है, और उन दुष्टात्माओं को इच्छानुसार उनके दैहिक शरीर नष्ट करने देता है, और उन लोगों के शरीरों से लाश की दुर्गंध निकलती है। ऐसा उनका उचित प्रतिशोध है। परमेश्वर उन निष्ठाहीन झूठे विश्वासियों, झूठे प्रेरितों और झूठे कार्यकर्ताओं का हर पाप उनकी अभिलेख-पुस्तकों में लिखता है; और फिर जब सही समय आता है, वह उन्हें गंदी आत्माओं के बीच में फेंक देता है, और उन अशुद्ध आत्माओं को इच्छानुसार उनके संपूर्ण शरीरों को दूषित करने देता है, ताकि वे कभी भी पुन: देहधारण न कर सकें और दोबारा कभी भी रोशनी न देख सकें। वे पाखंडी, जो किसी समय सेवा करते हैं, किंतु अंत तक वफ़ादार बने रहने में असमर्थ रहते हैं, परमेश्वर द्वारा दुष्टों में गिने जाते हैं, ताकि वे दुष्टों की सलाह पर चलें, और उनकी उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बन जाएँ; अंत में परमेश्वर उन्हें जड़ से मिटा देगा। परमेश्वर उन लोगों को अलग फेंक देता है और उन पर कोई ध्यान नहीं देता, जो कभी भी मसीह के प्रति वफादार नहीं रहे या जिन्होंने अपने सामर्थ्य का कुछ भी योगदान नहीं किया, और युग बदलने पर वह उन सभी को जड़ से मिटा देगा। वे अब और पृथ्वी पर मौजूद नहीं रहेंगे, परमेश्वर के राज्य का मार्ग तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं करेंगे। जो कभी भी परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहे, किंतु उसके साथ बेमन से व्यवहार करने के लिए परिस्थिति द्वारा मजबूर किए जाते हैं, वे परमेश्वर के लोगों की सेवा करने वालों में गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की एक छोटी-सी संख्या ही जीवित बचेगी, जबकि बड़ी संख्या उन लोगों के साथ नष्ट हो जाएगी, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं। अंतत: परमेश्वर उन सभी को, जिनका मन परमेश्वर के समान है, अपने लोगों और पुत्रों को, और परमेश्वर द्वारा याजक बनाए जाने के लिए पूर्वनियत लोगों को अपने राज्य में ले आएगा। वे परमेश्वर के कार्य के परिणाम होंगे। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है, जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी श्रेणी में नहीं आ सकते, वे अविश्वासियों में गिने जाएँगे—तुम लोग निश्चित रूप से कल्पना कर सकते हो कि उनका क्या परिणाम होगा। मैं तुम सभी लोगों से पहले ही वह कह चुका हूँ, जो मुझे कहना चाहिए; जो मार्ग तुम लोग चुनते हो, वह केवल तुम्हारी पसंद है। तुम लोगों को जो समझना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर का कार्य ऐसे किसी शख्स का इंतज़ार नहीं करता, जो उसके साथ कदमताल नहीं कर सकता, और परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी मनुष्य के प्रति कोई दया नहीं दिखाता" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है')

सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद, क्या अब ज्यादा स्पष्ट नहीं हो गया कि अंत के दिनों में परमेश्वर अपना न्याय का कार्य कैसे करते हैं? अगर परमेश्वर इस बारे में स्वयं न बताते, तो हम ये सब कैसे समझ पाते? अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर सत्य को व्यक्त करते हैं और अपना न्याय कार्य करते हैं। उनके वचन मानवजाति में गहराई तक जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार का खुलासा करते हैं, उनमें परमेश्वर के प्रति इंसान के प्रतिरोध के हर पहलू को बताया गया है, साथ ही उसके शैतानी स्वभाव का भी वर्णन है, साथ ही उनमें इंसान को परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता वाले निरपराध स्वभाव का भी दर्शन मिलता है। इसीलिए लोग परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को देखते हैं, और एक-एक करके परमेश्वर की ओर मुड़ते हुए, उनके उद्धार को स्वीकार करते हैं।

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हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के न्याय से यह पहचान कर ली है, हमने अपने दंभ, अपनी आत्ममुग्धता और अपनी धोखेबाजी को बखूबी जान लिया है, हम हर तरह से हमारे शैतानी स्वभाव को छोड़ने के लिए तैयार हैं। हालांकि शायद हम खुद को बेहतर बनाते हैं, मुश्किलें सहते हैं, परमेश्वर के लिए मूल्य चुकाते हैं, लेकिन हम परमेश्वर के सामने सच्चा समर्पण नहीं करते, और उससे सच्चा प्रेम तो शायद ही कभी करते हैं। परीक्षाओं और कष्टों के समय में तो हम परमेश्वर की शिकायत करते हैं, परमेश्वर पर शक करते हैं, उसकी उपस्थिति को नकारते हैं। इससे हमें पता चलता है कि हम भ्रष्ट इंसानों का स्वभाव शैतान जैसा हो गया है। अगर हम अपनी शैतानी फितरत को त्याग कर अपना शुद्धिकरण नहीं कर पाए, तो हम परमेश्वर के सामने सच्चे रूप में समर्पण नहीं कर पाएंगे, परमेश्वर से सच्चा प्रेम नहीं कर पाएंगे। अतीत में हमें लगता था कि हम कई वर्षों से परमेश्वर में आस्था रखते आए हैं, हमने कर्इ वस्तुओं का त्याग किया, परमेश्वर की भक्ति में गहरार्इ तक डूबे, खूब मेहनत से काम किया, इसलिए हम अच्छे बन गए, हम ऐसे लोग बन गए, जो परमेश्वर से प्रेम करते थे, उनके प्रति समर्पित थे। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को अनुभव करने के बाद ही हमें ये एहसास हुआ, भले ही बाहरी स्वरूप में तो हम प्रभु के लिए बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन फिर भी हम अक्सर झूठ बोलते और परमेश्वर को धोखा देते रहते हैं, परमेश्वर से दिखावटी प्रेम करते हैं, हमने पूर्वाग्रह बना रखे हैं, अपनी तरफ बहुत ध्यान देते हैं, दिखावा करते रहते हैं। अंत में हम यह समझ गए कि हमारी सारी कोशिशें और स्वयं को खपाना दरअसल केवल उनका आशीष पाने के लिए थे, हमने तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने के लिए ये सब किया है। यानी हम परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करते रहे। ये परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कहां है? परमेश्वर से प्रेम की बात तो बहुत दूर की है, फिर भी हम बेशर्मी से कहते रहते हैं कि हम परमेश्वर से अथाह प्रेम करते हैं, परमेश्वर के प्रति सबसे ज्यादा समर्पित हैं। ये बेकार की बात है, ये परमेश्वर से जुड़ा ज्ञान बिल्कुल भी नहीं है। प्रकाशित वाक्य और परमेश्वर के वचनों के न्याय में हम देखते हैं कि परमेश्वर की नज़र हर चीज पर है। जब हम परमेश्वर की अपार पवित्रता, धार्मिकता और उनके निरपराध स्वभाव का अनुभव करते हैं, तो मन ही मन डरने और कांपने लगते हैं। हम अपने शैतानी स्वरूप को महसूस करके, परमेश्वर का सामना करने को लेकर शर्मिंदा होते हैं, हम उनके सामने खड़े होने लायक नहीं रह जाते, फिर हम जमीन पर गिर जाते हैं, पश्चाताप करते हुए रोते हैं, खुद को कोसते हैं, अपने मुँह पर खुद थप्पड़ मारते हैं। तभी हमें लगता है कि हम रोजाना किसी शैतान की तरह जिन्दगी बिताते हैं, हमने किसी इंसान की तरह जीवन बिल्कुल नहीं जिया, और हम इंसान कहलाने के लायक नहीं हैं। जब हमें कई तरह के न्याय और ताड़नाओं, परीक्षाओं और शुद्धिकरणों का सामना करना पड़ता है, जब हम काट-छांट की प्रक्रियाओं और कुछ कठिन हालातों से गुजरते हैं, तो धीरे-धीरे कुछ सत्य समझ आने लगते हैं, हम देख पाते हैं कि हम कितने भ्रष्ट हो चुके हैं। उस समय हमें परमेश्वर का कुछ प्रामाणिक ज्ञान हो पाता है, और आखिर में हम परमेश्वर का सम्मान करते हुए अपने दिल में उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं। परमेश्वर में विश्वास करने का सही मार्ग यही है। और ये परिणाम होता है परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरने का। अगर परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना न होती, तो हम अपने अंदर बसे शैतान के भ्रष्टाचार की सही तस्वीर कभी न देख पाते। हम पाप करने और परमेश्वर का विरोध करने के स्रोत को कभी न जान पाते। हम पाप की बेड़ियों से खुद को कैसे आजाद करें, हम ये भी न समझ पाते, और इसीलिए हम परमेश्वर के सच्चे आज्ञाकारी कभी न बन पाते। अगर परमेश्वर के वचनों का सख्त न्याय न होता, तो हम उनके धार्मिक, भव्य और निरपराध स्वभाव से परिचित न हो पाते, न ही हमारे हृदय में परमेश्वर का डर होता, न हम परमेश्वर से भयभीत होते, न बुराइयों को छोड़ पाते। ये एक तथ्य है। अगर परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो अंत के दिनों में न्याय कार्य कौन करता? तब मनुष्य को परमेश्वर के पवित्र, धार्मिक और निरपराध स्वभाव के दर्शन कौन कराता? अगर परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो किसके वचनों में इतना सामर्थ्य और अधिकार होता, कि वो हमारा न्याय कर सके, हमें शुद्ध कर सके, और हमें पाप की दलदल से बचा सके? सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य पूरी तरह से परमेश्वर के रूप में उनके रुतबे और पहचान को दिखाते हैं, ये बताते हैं कि वही सृष्टिकर्ता हैं, और वही इकलौते सच्चे परमेश्वर हैं। हमने सर्वशक्तिमान परमेश्वर की बोली में, परमेश्वर की वाणी को पहचान लिया है, और परमेश्वर के प्रकटन को भी देखा है।

— 'राज्य के सुसमाचार पर विशिष्ट प्रश्नोत्तर' से उद्धृत

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